स्वामी विवेकानंद (भाग-26)

आशा – अरमान मत करो

स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि क्या तुम अपने बच्चों को जो देते हो, बदले में उनसे कुछ चाहते हो? तुम जो भी उनके लिए करते हो वो तुम्हारा कर्तव्य है। जैसा बच्चों के लिए सोचते हो वैसा ही संसार के सभी कार्य करते हुए सोचना चाहिए , देश के लिए, समाज के लिए, मित्रों व रिश्तेदारों के लिए कुछ भी करो, उसके बदले में कुछ पाने की चाह मत करो।
यदि तुम बदले में पाने की चाह के बिना, किसी लगाव के बिना एक दाता बनते हो। बिना अरमान के तुम्हारे द्वारा सब दिया जाता है तो तुम स्वतंत्र होते हो।

मेरी समझ

व्यक्ति तो जैसे आशा व अरमान लेकर ही इस संसार में जन्म लेता है। वह समाज सेवा भी करता है तो चाहता है कि उस काम का उसे यश मिले। अपने प्रियजनों की खुशी के लिए भी वह कुछ त्याग भी करता है तो उसके मन में कम से कम सराहना की चाह होती हैं। अपने बच्चों के लिए प्यार से सब करने पर भी मन में यह अरमान रहता है कि बड़े होने पर ये बच्चे हमारा ध्यान रखेंगे। जब यह सब नहीं मिलता तो व्यक्ति दुखी होता है। सुखी तभी रहा जा सकता है जब प्रेमभाव भी निस्वार्थ हो।

आनंद के परिणाम

स्वामी जी कहते हैं कि दासों की तरह काम करते हुए तुम स्वार्थी बनते हो, अपने मस्तिष्क के स्वयं मालिक बने, उसे बिना लगाव के आनंद की आदत डालो।
हम न्याय और अधिकार की बातें करते हैं , पर हम देखते हैं इस संसार में न्याय और अधिकार एक बचकानी बात है।


दया और ताकत यह दो महत्वपूर्ण तत्व हैं , जिनसे मनुष्य का जीवन बंधा होता है। ताकत के प्रयोग में स्वार्थ निहित होता है। प्रत्येक व्यक्ति के पास जितनी और जैसी शक्ति है, उसका प्रयोग करता है।
दया, करूणा स्वर्गिक वस्तु है, सबके पास दया भावना होनी चाहिए , न्याय और अधिकार भी दया पर आधारित होने चाहिए । दया, करुणा हमें आध्यात्म की ओर ले जाते हैं , परंतु यह कष्ट का भी कारण बनते हैं ।


एक अन्य उपाय है कि दया और स्वार्थ हीन दान को अपने जीवन में अपना ले, अगर ईश्वर को मानते हो तो कर्म को भगवान मानकर उसकी पूजा करो। अपने सभी कर्म फल ईश्वर को अर्पित कर दो और अपनी पूजा के बदले, ईश्वर से किसी वस्तु की आशा करना अनुचित है।
जैसे कमल के पत्ते पानी में रहते हुए भी गीले नहीं होते हैं , उसी तरह पापी दुनिया में रहते हुए भी, एक स्वार्थ हीन, व लगावहीन व्यक्ति को पाप छू भी नहीं सकता है।

मेरी समझ

न्याय और अधिकार भी स्वार्थ के पर्याय बन गए हैं क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति सिर्फ अपने अधिकार की बात करता है, वह न्याय में भी अपना व्यक्तिगत हित ढूंढता है। ईश्वर की भक्ति भी तभी सार्थक होती है जब ईश्वर से पूजा व भक्ति के बदले कोई मांग न हो।

नेवले की कहानी

आत्म त्याग के विचार पर आधारित एक कहानी है – कुरूक्षेत्र के युद्ध के बाद, पांडवों ने एक विशाल यज्ञ किया और गरीबों को भारी मात्रा में उपहार बांटे।सभी लोग इस यज्ञ और दान से बहुत प्रभावित थे, ऐसा यज्ञ और दान स्वरूप दिए उपहार , संसार में कहीं देखे नहीं गए थे। लेकिन कार्यक्रम के बाद एक छोटा-सा नेवला वहां आया, उसका आधा शरीर सुनहरा था और आधा भूरा था। जहाँ यज्ञ हुआ था, उस भूमि पर वह लोट पोट हो रहा था। वह सबसे कहता जा रहा था, ” तुम सब झूठे हो, यह कोई त्याग नहीं है।” ” क्या!” लोग हैरानी से बोले, ” यहाँ दिल खोल कर पैसा और सोना बांटा गया है। ऐसा यज्ञ पहले किसी ने नहीं किया है

तब नेवले ने एक कहानी सुनाई – एक समय की बात है, एक गांव में एक गरीब ब्राह्मण अपनी पत्नी , पुत्र व पुत्र वधु के साथ रहता था। वह लोगों को शिक्षा व प्रवचन देता व फलस्वरूप उसे जो छोटे-छोटे उपहार मिलते उनसे किसी प्रकार गुजारा करता था।
फिर उस गांव में अकाल पङ गया और उस ब्राह्मण के लिए वे दिन बहुत ही कष्टकारी थे, कई दिनों से उसने व उसके परिवार ने अन्न का एक दाना भी मुँह में नहीं डाला था, तब उस ब्राह्मण को किसी ने थोङा जौ का आटा भिक्षा में दिया, जिसके चार भाग किए गये जो चारों के लिए , उस समय पेट भरने के लिए पर्याप्त था।

वे चारों भोजन करने बैठे ही थे कि तभी किसी ने उनकी कुटिया का दरवाजा खटखटाया , ब्राह्मण ने देखा कि एक अतिथि हैं , भारत देश में अतिथि को भगवान स्वरूप माना जाता है। उस अतिथि पुरूष ने कहा,” मैं कई दिनों से भूखा हूँ , क्या कुछ खाने को मिलेगा?” ब्राह्मण ने उसे अपने हिस्से का भोजन आदरसहित परोस दिया। उतना भोजन करने के बाद वह अतिथि बोला कि इस थोङे भोजन से मेरी भूख और बढ़ गई है, तब ब्राह्मण की पत्नी ने ब्राह्मण से कहा कि वह उस अतिथि को उसके हिस्से का भोजन परोस दे, ब्राह्मण ने मना किया, पर वह बोली कि अतिथि को भूखा रखना उचित नहीं हैं । अतः उसका भाग भी अतिथि को परोस दिया गया।

परंतु वह भाग भी खाकर, वह अतिथि बोला,” मैं कई दिनों से भूखा हूँ , अतः इतने भोजन से मेरी भूख मिटने के स्थान पर और अधिक बढ़ गई है।” तब ब्राह्मण पुत्र ने कहा कि इस घर का पुत्र होने का कर्तव्य है कि हमारे अतिथि भूखे न रहे, उसने अपने भोजन का भाग अतिथि को परोस दिया पर अतिथि की भूख शांत नहीं हुई, तब पुत्र वधु ने भी अपना भोजन अतिथि को परोस दिया , तब अतिथि तृप्त हो कर उन्हें अपना आशीर्वाद दे कर चला गया।


उस रात उस ब्राह्मण परिवार की भूख के कारण मृत्यु हो गई ।” नेवला बोला,” उस आटे के कुछ कण भूमि पर गिर गए थे, मैं जब उस पर लोट पोट हुआ तो जैसा तुम देख सकते हो , मेरा आधा शरीर सुनहरा हो गया ।
तब से पूरे विश्व में घूम रहा हूँ जहाँ ऐसा त्याग हुआ हो, जिससे मेरा शेष शरीर भी सुनहरा हो जाए, पर मुझे कहीं नहीं मिला, इस यज्ञ व दान के लिए भी मेरा यही विचार है।”


इस महान त्याग के विचार का भारत के बाहर तक प्रसार हुआ, जिन्होंने इस विचार को अपनाया वे महान बने, बेशक उनकी संख्या कम है।
इस तरह मृत्यु के समय भी त्याग करते हुए हिचकिचाओ नहीं , न ही दान करते समय अपने पर घमंड करो, न जिसके लिए त्याग करो बदले में उससे आभार की आशा करो, अपितु तुम उसके आभारी बनो कि उसने तुम्हें ऐसा अवसर दिया।

मेरी समझ

स्वामी विवेकानंद के शिक्षा दर्शन का सार है कि किसी को भी धर्म, जाति, वर्ग व लिंग के आधार पर शिक्षा से वंचित नहीं किया जाना चाहिए। प्रत्येक को न केवल मूलभूत शिक्षा पाने का अधिकार होना चाहिए अपितु उन्हें सभी विषयों सामाजिक, वैज्ञानिक, आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने का अधिकार होना चाहिए। आज हमारे देश व‌ समाज में सबको शिक्षा का अधिकार अवश्य है परंतु लोगों में शिक्षा व ज्ञान प्राप्त करने की चेतना में कमी देखी जाती है, विशेषकर निम्न वर्ग में ज्ञान की लालसा न के बराबर है चूंकि वे अपनी प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति में ही व्यस्त रहते हैं।

अपनी स्वार्थी इच्छाओं से मुक्त होकर एक स्वतंत्र जीवन जीना चाहिए। हमारी परतंत्रता हमारे अंदर उपस्थित है, उससे मुक्त होने के लिए हमें अपने को लगावहीन, व स्वार्थहीन बनाना होगा।

समाप्त

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स्वामी विवेकानंद (भाग-25)

कर्म को स्वामी मानो

भगवद् गीता हमें निरंतर कर्म करने के लिए कहती है। प्रत्येक कार्य में अच्छाई व बुराई दोनों होती है। हम ऐसा कोई भी कार्य नहीं करते हैं , जिसमें लाभ के साथ हानि न हो। फिर भी हमें निरंतर कर्म करने के लिए कहा जाता है । अच्छे और बुरे दोनों क्रियाओं के परिणाम होते हैं , अच्छे कर्म के अच्छे परिणाम , बुरे के बुरे होते हैं ।
परंतु अच्छाई और बुराई दोनों आत्मा को गुलाम बनाती हैं । गीता इसके लिए सुझाव देती है कि ‘जो भी कर्म करो, उससे लगाव मत रखो। ऐसा कर पाओगे तो अपनी आत्मा को बंधन मुक्त कर पाओगे।हमें लगाव हीन को समझना होगा।

मेरी समझ

मनुष्य का स्वभाव ऐसा ही बना है कि वह कोई भी कर्म करने से पहले उससे मिलने वाले लाभ के बारे में सोचता है। बिना स्वार्थ के वह कोई कार्य कर नहीं पाता है। यह लाभ हानि का चक्कर उसे मोह माया के दलदल में डाल देता है। इस दलदल से मुक्त होना ही दुष्कर कार्य है।

लगाव हीन

विवेकानंद जी कहते हैं कि जिस तरह एक कछुआ अपने कवच में पैर और मुँह डाल कर बैठ जाता है। फिर उसे मारो, तोङो वह बाहर नहीं निकलता है। इसी तरह एक व्यक्ति जो अपने स्वार्थी उद्देश्यों और इंद्रियों पर नियंत्रण कर लेता है, उसे बदला नहीं जा सकता है। वह अपनी आंतरिक शक्ति को नियंत्रित कर लेता है, उसकी इच्छा के बिना उससे कोई काम नहीं हो सकता है।


इस सबका प्रभाव उसके अच्छे विचारों और अच्छी प्रवृति में पड़ता है, उसकी यह अच्छा बनने की प्रवृत्ति उसे ताकतवर बनाती है।
एक ऐसे चरित्र का निर्माण होता है, जो सच को प्राप्त कर सकता है। वह कभी बुरा नहीं करता। किसी भी बुरी संगत का उस पर प्रभाव नहीं पङता है। उसकी यह प्रवृत्ति उच्चतम स्तर पर पहुंच कर, उसे स्वतंत्रता दिलाती है।


तुम्हें याद होगा कि सभी योगाभ्यास का उद्देश्य तुम्हें स्वतंत्र करना है। जैसे बुद्ध ने ध्यान से और यीशु ने भक्ति से अकेले यह स्वतंत्रता प्राप्त करी थी, वैसे प्रत्येक व्यक्ति अकेले ही स्वतंत्रता पा सकता है। अच्छी और बुरी प्रवृत्तियों में संघर्ष होता है, जैसे-जैसे अच्छी प्रवृत्ति मस्तिष्क में फैलती जाती है, बुरी प्रवृत्ति मस्तिष्क के एक कोने में पहुंच जाती है या पूर्णतः गायब हो जाती है। अच्छी प्रवृत्ति के जीतने के साथ ही लगाव, लगाव हीन में बदल जाता है।परंतु बहुत सी बाधाएं फिर भी आती रहेंगी। मांसपेशियां और मस्तिष्क अपने काम करते रहेंगे, लेकिन उनका प्रभाव अपनी आत्मा पर मत पङने दो।

मेरी समझ

अपनी आत्मा को पवित्र और स्वतंत्र करना है तो अपने को लोभ और माया के मोह से दूर रखना होगा। पर इस सांसारिक जीवन में हमारे मार्ग में लोभ और मोह की रूकावटें आएंगी, अगर मन की शक्ति पर काम किया है, उसे सुदृढ़ बनाया है तो रूकावटें आत्मा को प्रभावित नहीं करेंगी।

यह कैसे कर सकते हैं ।

स्वामी जी ने कहा कि हम यह कैसे कर सकते हैं ? हम देख सकते हैं कि अपने जिस काम से हम अधिक जुङाव रखते हैं , उसका प्रभाव हमारे मस्तिष्क में हमेशा बना रहता है।


मैं दिन में लगभग सौ लोगों से मिलता हुं पर उनमें से सिर्फ एक व्यक्ति ऐसा होता है, जिसके प्रति मैं प्रेम महसूस करता हूँ। रात को सोने से पहले उन सभी सौ चेहरों को याद करना चाहता हूँ , जिनसे मैं दिन भर मिला था, पर मुझे किसी का चेहरा याद नहीं आता है। सिर्फ एक चेहरा याद रहता है, वह जो सिर्फ एक मिनट के लिए मिला था, जिससे मुझे प्रेम हुआ था। मेरा उस व्यक्ति के प्रति लगाव के कारण उसका प्रभाव मेरे मस्तिष्क पर बना रहता है।

मनोवैज्ञानिक दृष्टि से सबका प्रभाव एक समान मस्तिष्क पर पहुंचा था। मस्तिष्क के जरिए आँख ने एक समान सबको देखा और उन सबकी फोटो मस्तिष्क में बस गई थी। कुछ चेहरे मेरे लिए नए थे, जिनके बारे में पहले कभी नहीं सोचा था, पर सिर्फ एक चेहरे की झलक जैसे मेरे अंतर से परिचित थी। शायद कई बरसों से इस चेहरे का प्रभाव मेरे मस्तिष्क पर था, और जिसे अंजाने ही कई बार याद किया था , उन सभी चेहरों की अपेक्षा सिर्फ इस चेहरे ने मेरी यादों को जागृत किया था।

स्वामी की भांति काम करो।

विवेकानंद जी कहते हैं , निरंतर कर्म करो पर दासों की भांति मत करो, मालिक की तरह करो। तुमने देखा होगा लोग कैसे काम करते हैं , 99% लोग दासों की तरह काम करते हैं , काम ऐसे करो, जो तुम्हें आजादी दे, उससे तुम्हें प्यार मिले। प्यार को समझना कठिन है। जब तक स्वतंत्रता नहीं है, तब तक प्रेम नहीं हो सकता है। दासता में प्रेम संभव नहीं है।


तुम एक दास खरीदते हो, उसे जंजीर से बाँध कर रखते हो, उससे अपने काम कराते हो, वह कोल्हू के बैल की तरह काम करेगा, पर उसमें प्रेम नहीं होगा। इसी तरह जब हम दूसरे व्यक्तियों के लिए काम करते हैं तब हम दूसरो की गुलामी करते हैं , वह सच्चा काम नहीं होता है।


जो कर्म हम अपने रिश्तेदारों या मित्रों के लिए करते हैं , वह सच्चा कर्म होता है। यहां हम अपने दास होते हैं । स्वार्थ पूर्ण काम दासों का काम होता है। यह एक परीक्षा होती है।
परंतु सभी कर्म खुशी देते हैं, ऐसा कोई प्रेम पूर्ण कर्म नहीं है जो प्रतिक्रिया में खुशी और शुभकामनायें न देता हो।


वास्तविक अस्तित्व , सच्चा ज्ञान व सच्चा प्रेम एक दूसरे से जुङे हुए है । जहाँ एक है , वहां अन्य दो भी अवश्य उपस्थित होते हैं ।
इन तीनों से मिलकर बनता है- अस्तित्व- ज्ञान- आनंद ।
संसार में जब मनुष्य की अस्तित्व की उपस्थिति होती है, तब ज्ञान भी उस तक पहुंचता है। और मनुष्य ने ह्रदय में संपूर्ण प्रेम से आनंद की प्राप्ति की होती है।


सच्चा प्रेम, न तो प्रेमी को न जिससे प्रेम किया जाता है, उसको कष्ट देता है।
उदाहरणतः एक पुरूष एक स्त्री से प्रेम करता है, पर वह उस स्त्री की हर क्रिया पर निगाह रखता है, उससे ईर्ष्या करता है। वह चाहता है कि उसकी प्रेमिका उसके साथ ही बैठे, खाए, उसके अनुसार ही समस्त कार्य करे, वह स्वयं उसका दास होता है और प्रेमिका को भी दासी बनाता है। यह प्रेम नहीं है, यह एक बिमारी है, एक दास का मोह है। यह उसका अपने स्वयं के प्रति प्रेम को सिद्ध करता है।


इस प्रेम में कष्ट है, प्रेमिका ने बात नहीं मानी तो दर्द होगा। जहाँ कष्ट हो, दर्द हो वहाँ सच्चा प्रेम नहीं हो सकता है।
प्रेम में अगर आनंद नहीं है तो यह प्रेम नहीं है, इसे प्रेम समझना एक भूल है। अपनी, पत्नी / पति, बच्चों व संसार में सभी से ऐसा प्रेम करो जो आनंद दे, तभी तुम लगाव हीन स्थिति पा सकते हो।

मेरी समझ

हम कहते हैं कि हम अपना काम ‌बहुत मन व लग्न से करते हैं, पर उस कर्म के करने के पीछे छिपी अपनी लोभ की भावना को नहीं देखते हैं, क्योंकि जब उस काम में सफलता नहीं मिलती तो हम दुखी होते हैं। इस तरह से हम अपने काम को अपना स्वामी बना लेते हैं।हम अपनी खुशी के लिए उस काम पर निर्भर हो जाते हैं। अगर अपने काम से लगावहीन प्रेम करते हैं तो वह हमें खुशी देता है,‌यही सच्चा कर्म है।

क्रमशः

स्वामी विवेकानंद (भाग-24)

अपने कर्तव्य करो

स्वामी विवेकानंद जी कहते हैं कि कर्तव्य के इस विमर्श में बदलाव आया है कि स्वार्थहीन कार्य ही कर्तव्य है।
जब हम कर्तव्य की भावना से काम करते हैं तो वह काम धीरे-धीरे कर्तव्य हीन होकर पूजा बन जाता है, जो हमारे अपने लिए होती है।
कर्तव्य का दर्शन योगा जैसे दर्शन से भी समझा जा सकता है। जिसमें अपने निम्न अंतर को और कम करके उच्च अंतर को प्रकाशित किया जाता है।निम्न अंतर की समस्त ऊर्जा को कम करते हुए, उससे दूर होते हुए आत्मा स्वं अपने को उच्चतम अवस्था की ओर ले जाती है।
अपनी निम्न इच्छाओं को दृढ़ इच्छाशक्ति से कम करना ही हमारा कर्तव्य है।
चेतना से अथवा अवचेतन से सामाजिक संगठन, क्रियाओं और अनुभवों से विकसित होते है, स्वार्थहीन स्वभाव के स्थान पर व्यक्ति का प्राकृतिक, वास्तविक स्वभाव उजागर होता है।

निम्न इच्छाओं को अस्वीकार

कर्तव्य कई बार एक मीठा अहसास होता है। जब इसके पहिए में प्रेम रूपी ग्लिसरीन लगाई जाती है तो वह आनंद के साथ दौङता है।
जैसे- माता-पिता के अपने बच्चों के लिए कर्तव्य, पति-पत्नी के एक दूसरे के लिए कर्तव्य, पूर्ण करने में खुशी का अहसास है।
प्रेम मिश्रित कर्तव्य में आनंद है, इसमें स्वतंत्रता भी मिल जाती है तो प्रेम सुंदर हो जाता है।
क्या इंद्रियों के गुलाम हो कर स्वतंत्र हो सकते हैं ? क्रोध, ईर्ष्या आदि भावों के कारण मनुष्य गुलाम ही रहता है।
ये छोटी-छोटी कलुषित भावनाएं स्वतंत्रता के रास्ते की रूकावट होती है।
महिलाओं में ईर्ष्या का भाव, अपने प्रति निम्नता का अहसास उन्हें गुलाम बनाता है , पर वह पतियों और समाज को दोष देती है जबकि वह स्वयं अपने को गुलाम की तरह प्रस्तुत करती हैं । पति भी हर बात पर अपनी पत्नियों को दोष देते हैं।

मेरी समझ

यह सच है कि इंसान अपनी निम्न या कष्टदायक स्थिति के लिए परिस्थितियों को या भाग्य को जीवन भर दोष देता है। उस स्थिति को सुधारने का प्रयास नहीं करते हैं। जो कर पाते हैं वह दूसरों के लिए उदाहरण बनते हैं।

एक गृहस्थ महिला और एक संयासी की कहानी

अपने कर्तव्यों को पूर्ण निष्ठा से पूरा करने से, हमारी मानसिक शक्ति में वृद्धि होती है, जो हमारी आत्मा को उच्चतम अवस्था तक पहुंचाती है।
एक युवा संयासी जंगल जाकर पूजा, तपस्या करता है, योग साधना करता है। एक लंबे समय तक वह निष्ठा से उसमें लीन रहता है।एक दिन जब वह एक पेङ के नीचे बैठा, अपनी तपस्या में लीन था कि उसके सिर पर कुछ सूखे पत्ते गिर पङे, उसकी तपस्या भंग हुई और क्रोध में ऊपर देखा कि पेङ के ऊपर एक कौवा और एक सारस लङ रहे थे। उस युवा तपस्वी ने क्रोध से उन पक्षियों देखते हुए कहा कि तुम दोनों की मुझ पर पत्ते फेंकने की हिम्मत कैसे हुई ? ऐसा कहने के बाद तुरंत ही उस पर एक आग की चिंगारी पङी, उसने आश्चर्य से ऊपर देखा तो पाया दोनों पक्षी जल कर भस्म हो गए थे।
वह बहुत हैरान और खुश हुआ कि उसकी योग तपस्या से उसमें इतनी शक्ति आ गई है कि मात्र देखने भर से वे दोनों पक्षी जल कर राख हो गए ।


कुछ समय बाद वह संयासी भिक्षा के लिए एक गांव में गया, वहाँ एक घर के द्वार पर जाकर गुहार लगाई,” माँ! भिक्षा दे!”
अंदर से एक महिला की आवाज़ आई, ‘ बेटा, प्रतीक्षा कर, अभी थोङी देर में आती हूं। ‘
वह संयासी अपनी शक्ति के मद में चूर, क्रोध में बोला, ” तुममें मुझे प्रतीक्षा कराने का साहस कैसे हुआ ? तुम मेरी शक्तियों को नहीं जानती हो।’
अंदर से उस गृहणी का उत्तर आया, ” बेटा, अपने विषय में, अधिक गर्व न कर, यहां कोई कौवा या सारस नहीं है।


यह सुनकर संयासी उस महिला के इस ज्ञान पर अचंभित रह गया। वह वहाँ प्रतीक्षा करता रहा। थोङी देर में गृहस्थिन भिक्षा ले कर आई, उसके आने पर तपस्वी उसके चरणों पर गिर पड़ा और प्रार्थना करने लगा कि ‘कृपा बताएं कि ‘ आपको कैसे इस घटना का ज्ञान हुआ?’
उस गृहणी ने उत्तर दिया, ” बेटा, मैं एक साधारण गृहणी हूँ, मेरे पति बीमार हैं, मैं उनकी सेवा श्रुष्शा कर रही थी अतः तुम्हें प्रतीक्षा करानी पङी थी। मुझे तुम्हारी योग तपस्या का ज्ञान नहीं है। मैंने अपना जीवन अपने कर्तव्यों को निष्ठा से पूर्ण करने में व्यतीत किया है। शादी से पूर्व माता-पिता की सेवा लगन से की और विवाह के पश्चात पति सेवा में खुशी-खुशी जीवन व्यतीत कर रही हूँ । पर अपने कर्तव्यों को पूर्ण करते हुए, मुझ में ज्ञान का प्रकाशन अवश्य हुआ है, जिससे मैं तुम्हारे विचारों को पढ सकी व जान पाई कि तुमने जंगल में क्या किया था।”

मेरी समझ

अपने कर्तव्यों को निष्ठा से पूर्ण करना ही सच्ची तपस्या है और ऐसी साधना और तपस्या का क्या लाभ जिससे क्रोध और अहंकार को नष्ट न किया जा सका हो।

शिकायत मत करो

विवेकानंद जी कहते हैं कि एक मजदूर मेहनत करते हुए अपना संपूर्ण ध्यान मेहनत के फल की ओर रखता है। परिणामस्वरूप उसे वह लाभ नहीं मिलता जो वह चाहता था। एक अन्य मेहनतकश मजदूर फल की चिंता किए बगैर लगन से काम करता है। वह अच्छा लाभ पाता है।


जब व्यक्ति अपनी स्वार्थपरक इच्छाओं का अंत कर देता है, तब उसकी आत्मा स्वतंत्र हो जाती है।
हमारे कर्तव्यों का स्थान, हमारी शिकायतों से बहुत ऊंचा है।
प्रतियोगिता बढ़ती जाती है और ह्रदय की कोमलता, दयालुता मिटती जाती है। व्यक्ति की शिकायतें , उसके कर्तव्यों की गरिमा को कम कर देती हैं, वह जीवन भर अपने को असफल मानता रहेगा और दुखी रहेगा।
हमें अपने को, अपने कर्मों को परखना चाहिए, उन्हें सुधारना चाहिए । नया परिवर्तन, नया प्रकाश देगा।

मेरी समझ

जीवन में संतुष्ट होने की कोई परिभाषा नहीं है क्योंकि इच्छाओं का कोई अंत नहीं है ‌। अपनी परिस्थितियों को बदलने के लिए कर्म करना चाहिए पर उस कर्म का फल तभी मिलेगा जब मन साफ होगा। इसलिए अपने मन की , आत्मा की शुद्धता पर कार्य करना आवश्यक है।

क्रमशः

स्वामी विवेकानंद (भाग-23)

कर्तव्य

विवेकानंद जी कहते हैं कि कर्तव्य क्या है ? यह जानना बहुत आवश्यक है, हमें कोई भी कार्य करने से पहले अपने कर्तव्यों का ज्ञान होना चाहिए, तभी हम वह कार्य कर सकते हैं । प्रत्येक राष्ट्र की कर्तव्य की अपनी परिभाषा होती है।

मौहम्मद कहते हैं कि उनकी पवित्र किताब ‘ कुरान’ में जो लिखा है वह कर्तव्य है, हिन्दू वेदों के लेखन को कर्तव्य मानते हैं और क्रिश्चियन बाईबल में रचित वाक्यों को कर्तव्य कहते हैं ।
इस तरह विभिन्न परिस्थितियों, विभिन्न ऐतिहासिक कालों और विभिन्न देशों के अनुसार कर्तव्य के विभिन्न दर्शन है।

‘कर्तव्य’ शब्द की व्याख्या करना उतनी ही कठिन है, जितना अन्य किसी सार्वभौमिक शब्द की व्याख्या करना होता है। हम व्यवहारिक क्रियाओं और उनके परिणाम से ही इसे समझ सकते हैं।
जब हमारे सामने कुछ घटता है, तब हम स्वाभाविक रूप से अथवा अपने प्रशिक्षित आवेग के अनुसार व्यवहार करते हैं, स्थिति को देखते हुए, हमारा आवेग जागृत होता है और हमारा मस्तिष्क सोचना शुरू कर देता है।


कई बार हमारा मस्तिष्क सही और अच्छा सोच पाता है और उसके अनुरूप हमारा व्यवहार भी उत्तम होता है।पर कई बार वह गलत या बुरा होता है। सामान्य शब्दों में प्रत्येक अच्छा व्यक्ति अपने विवेक का अनुसरण करता है।

मेरी समझ

व्यक्ति अपने विवेक से अपने कर्तव्य निश्चित करता है।पर कुछ कर्तव्य पंरपरा से या समाज द्वारा निश्चित कर दिए जाते हैं। जैसे -माता-पिता का अपने बच्चों की परवरिश करना अथवा संतान का अपने माता-पिता की सेवा करना। सड़क दुघर्टना में घायल व्यक्ति की सहायता करना विवेकपूर्ण कर्तव्य हो सकता है।

जीवन की स्थिति के अनुसार

विवेकानंद जी कहते हैं कि किसी के कर्म से कैसे निश्चित किया जा सकता है कि उसने अपना कर्तव्य पूर्ण किया है। एक क्रिश्चियन को एक मांस का टूकङा खाने को दिया जाए पर वह उसे न खाकर भविष्य के लिए बचा कर रखता है, किसी दूसरे को भी उसकी भूख मिटाने के लिए नहीं देता है। वह जानता है कि उसने अपना कर्तव्य नहीं किया है। वही टूकङा किसी हिन्दू व्यक्ति को दिया जाता है और वह भी किसी दूसरे को नहीं देता है, पर स्वयं खाने का साहस कर लेता है। वह भी जानता है कि उसकी शिक्षा और प्रशिक्षण के अनुसार उसके कर्तव्य में त्रुटि हुई है।


एक सामान्य आदमी सङक पर जाता है और किसी दूसरे व्यक्ति को गोली मार देता है, फिर दुखी होता है कि उसने बहुत बड़ी गलती की है। परंतु यही व्यक्ति जो अपने रेजिमेंट में एक सैनिक है, वह एक नहीं बल्कि बीस दुश्मनों को गोली मारकर खत्म कर देता है, अब वह खुश है कि उसने अपना कर्तव्य पूर्ण किया है।


कर्तव्य की परिभाषा वस्तुनिष्ठ नहीं हो सकती है, कर्तव्य व्यक्तिनिष्ठ होता है।
कोई कर्म जो ईश्वर के दिए गए शब्दों के अनुसार अच्छा है, वह कर्तव्य है और जो उसके अनुसार नहीं हैं, गलत है, वह कर्तव्य नहीं हो सकता है।
व्यक्तिनिष्ठ दृष्टि से देखा जाए तो कुछ विशेष कार्यों की प्रवृत्ति हमें ऊँचा उठाती है, गर्वोन्त करती है। और कुछ कार्यों की प्रवृत्ति हमें नीचे की ओर गिराती है, प्रताड़ित कराती है।


यह पता करना बहुत कठिन है कौन-सा हमारा व्यवहार सभी व्यक्तियों के साथ, या सभी परिस्थितियों में उचित है।
एक ही विचार सार्वभौमिक रूप से प्रमाणित है, जिसे सभी व्यक्तियों , जातियों, धर्मों व देशों द्वारा स्वीकृत किया गया है कि – ‘ किसी भी प्राणी को कष्ट न दें , विचारों में भी किसी को कष्ट न दे, किसी भी प्राणी को कष्ट देना पाप है।’

भगवद् गीता

भगवद् गीता के अनुसार जीवन में हमारे जन्म और स्थिति के आधार पर हमारे कर्तव्य निर्धारित होते हैं। जीवन और समाज में हमारे जन्म और स्थिति ही जीवन में हमारे मानसिक और नैतिक व्यवहार निश्चित करते हैं ।


जिस समाज में हम जन्म लेते हैं, उसके नियमों, आदर्शो और क्रियाकलापों के आधार पर हमारे कर्तव्य निर्धारित होते हैं।
हमें यह निश्चित रूप से याद रखना चाहिए कि प्रत्येक देश व समाज के नियम, आदर्श भिन्न होते हैं। अपनी इस अज्ञानता के कारण हम एक दूसरे से नफरत करते हैं ।
एक अमेरिकी व्यक्ति यह सोचता है कि उसके देश के रीति-रिवाज सबसे अच्छे हैं , जो इन्हें नहीं निभाता वह दुष्ट व्यक्ति है।
एक हिन्दू भी कहता है कि मेरे रिवाज़ सबसे अच्छे है , जो इन्हें नहीं करता है वह पापी है।


यह स्वाभाविक गलती हम सब कर रहें हैं, जिससे समाज में नफरत फैल रही है , संसार में मुख्यतः इसी के कारण दुख व्याप्त है।
हमें यह निश्चित करना चाहिए कि हमें दूसरे के रिवाज़ उसके दृष्टिकोण से देखने चाहिए, उन पर अपना फैसला नहीं चाहिए । आप एक सार्वभौमिक सत्ता नहीं हो।
मुझे संसार के अनुसार रहना है न कि संसार को मेरे अनुसार रहना है। पर्यावरण के बदलाव के साथ कर्तव्य भी बदल रहे हैं । आज इस निश्चित काल में हम अपने कर्तव्य बहुत अच्छी तरह पूर्ण कर रहे हैं ।
अब हम वे कार्य करते हैं जो हमें जन्मजात मिले हैं । जब ये कर लेते हैं तो उन कर्तव्यों को करेंगे जो हमें हमारे जीवन में हमारी सामाजिक स्थिति के कारण मिले हैं।


मानव स्वभाव की सबसे बङी कमी है कि वह कभी अपने को परखता नहीं है।
वह सोचता है कि वह राजा बनने योग्य है , परंतु यदि वह राजा का पद चाहता है, तो उसे सर्वप्रथम अपने वर्तमान पद के कर्तव्य कुशलता व निष्ठा पूर्वक पूर्ण करने होंगे और यदि वह ऐसा कर पाता है तब उच्च पद के कर्तव्य स्वयं उसके पास आएंगे।


जब हम संसार में बहुत लगन के साथ कोई कार्य करना शुरू करते हैं, तब प्रकृति हमें दाएं ,बाएं ,चारों दिशाओं में घूमा देती है और शीघ्र ही हमें अपनी वास्तविक स्थिति से परिचय हो जाता है।
कोई भी व्यक्ति लंबे समय तक उस स्थिति में संतुष्ट नहीं रह सकता जो उसके लिए उपयुक्त नहीं है।
प्रकृति की व्यवस्था में हम फेरबदल नहीं कर सकते हैं। कोई व्यक्ति इसलिए निम्न नहीं होता है कि वह निम्न कार्य करता है। व्यक्ति की परख उसके व्यवहार और उसके कर्तव्य के प्रति लगन व निष्ठा के आधार पर होती है।

मेरी समझ

हमें आजकल भगवद्गीता के प्रवचन जगह- जगह सुनने को मिलते हैं,पर प्रवचन देने वाले और सुनने वाले उसकी व्याख्या समझते नहीं हैं, अगर समझें तो समाज में नफ़रत न फैले।

क्रमशः

स्वामी विवेकानंद (भाग-22)

झोपड़ी में रहता देश

  विवेकानंद जी कहते हैं कि ‘याद रखें हमारा वास्तविक देश झोपड़ी में  रहता है। अब तुम्हारा यह कर्तव्य है कि तुम देश के प्रत्येक गांव व प्रत्येक कोने में जाओ, उन लोगों से मिलो, समझाओ कि यूं खाली, बिना कोशिश किए, स्थिति में सुधार नहीं हो सकता है।
उनसे कहो,” भाईयों, उठो! जागो! बहुत लंबे समय से सो रहे हो!
उनके पास जाओ, उन्हें समझाओ कि उन्हें अपनी इस अवस्था से बाहर  निकलना होगा, उन्हें सरल व बोधगम्य शब्दों में शास्त्रों की सच्चाई बतानी होगी।
उनमें चेतना जागृत करो कि उनका व ब्राह्मणों का एक ही धर्म है। चंडालो के  पास जाओ, उनसे मंत्रों का उच्चारण कराओ। उन्हें बताओ जीवन के लिए व्यापार, वाणिज्य , कृषि इत्यादि  बहुत महत्वपूर्ण  हैं।

जीवन की समस्त अवस्थाओं में आध्यात्मिकता 

सदियों से क्रुर जातिय सामंतो, राजाओ और विदेशियों द्वारा इस वर्ग की ताकत छिनी जाती रही है।
अब इस ताकत को पाने के लिए उपनिषदों का अध्ययन करना है और यह विश्वास करना है कि ” मैं एक आत्मा हूं, कोई तलवार मुझे काट नहीं सकती, कोई हथियार मुझे भेद नहीं सकता, कोई आग मुझे जला नहीं सकती, कोई हवा मुझे सुखा नहीं सकती है, मैं सर्वशक्तिमान,सर्वव्यापी हूँ ।”

वेदों में रचित इन विचारों को, जंगलों से, गुफाओं से बाहर लाना है। इन विचारों को हर शराबखाने, हर कटघरे और प्रत्येक  गरीब की झोपङी तक पहुंचाना है, मछुआरों और छात्रों के साथ इन विचारों पर काम करना है।
एक मछुआरा कैसे उपनिषदों के विचारों तक पहुँच सकता है? जब मछुआरा इन विचारों को समझेगा तब वह एक बेहतर मछुआरा बनेगा, छात्र उपनिषदों को समझकर एक उत्तम  छात्र बनेगा।

मेरी समझ

निम्न वर्ग के मस्तिष्क में यह बात ब्राह्मण वर्ग ने स्थापित कर दी है कि उन्हें यह जीवन ईश्वर की मर्जी से मिला है। उन्हें इसी तरह गरीबी और तुच्छता में रहना है। ऐसा न करके वह पापी बन जाएंगे। अब अगर हमें एक अच्छे समाज में रहना हैं, देश की उन्नति करनी है तो इस वर्ग के मस्तिष्क से इस अंधेरे को खत्म करना हमारा ध्येय होना चाहिए। उन्हें वेदों – उपनिषदों में रचित सत्यार्थ से परिचित कराना है, जिससे वह स्वयं अपने आत्मिक व बौद्धिक विकास के प्रति जागरूक हो सके।

प्रत्येक घर में शिक्षा

विवेकानंद जी ने कहा कि भारत की प्रत्येक बुराई की एकमात्र जङ, गरीबी है। मान लीजिए आप एक गांव में एक विद्यालय खोलते हैं, पर वह चल नहीं पाता है , क्योंकि गरीब लङका अपने पिता के साथ काम करके पेट भर भोजन की व्यवस्था करे कि स्कूल आकर पढ़ाई करे।
यदि पर्वत मोहम्मद तक नहीं आता तो मोहम्मद पर्वत पर चढ़ता है, विद्यार्थी शिक्षा तक नहीं आता तो शिक्षा को विद्यार्थी तक पहुंचना होगा।


हमारे देश में हजारों ऐसे आत्मकेंद्रित, आत्मत्यागी संयासी है, जो गांव-गांव जाकर लोगों को धर्म की शिक्षा देते हैं  ।  ये संयासी धर्मनिरपेक्ष होकर, संगठित रूप से घर-घर जाएं, एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाकर इन गरीब लोगों को प्रवचन न दे कर शिक्षा प्रदान कर सकते हैं ।
मान लीजिए इन में से कोई दो व्यक्ति अपने साथ एक कैमरा, विश्व मानचित्र, नक्शे लेकर जाएं और इन लोगों को भूगोल और खगोल शास्त्र का ज्ञान दें।वे लोग इन्हें कहानियों द्वारा अन्य देशों की जानकारी दे सकते हैं । जीवनपर्यंत किताबों द्वारा जो ज्ञान प्राप्त हो सकता है उससे सौ गुना ज्ञान ये इन गरीबों को कानों द्वारा दे सकते हैं ।
आधुनिक विज्ञान की सहायता से उन्हें शिक्षित करें। उन्हें भूगोल, इतिहास, विज्ञान  और साहित्य की शिक्षा  देने के साथ धर्म की सच्चाई से भी   अवगत कराना जरूरी है।


ये लोग जीविकोपार्जन के लिए इस तरह संघर्षरत रहे कि ज्ञान की चेतना जागृत होने का समय व ध्यान ही नहीं था।
ये मशीन की तरह काम करते हैं और उसका लाभ चालाक धनिक वर्ग ले लेता है।
पर अब समय बदल रहा है, उनमें भी चेतना जागृत हो रही है, वे अन्याय के विरुद्ध एकजूट हो रहे हैं।
अब वह समय दूर नहीं जब उच्च वर्ग का दबदबा  निम्न वर्ग पर समाप्त हो जाएगा। उच्च वर्ग द्वारा निम्न वर्ग को दी गई सहायता झूठ सिद्ध हो रही है। अब ये पाएंगे वो जो उनका वैधिक अधिकार है।
विवेकानंद जी कहते हैं कि इसीलिए मैं कहता हूँ कि अपने को निम्न वर्ग में   शिक्षा के प्रसार के लिए तैयार करो। तुम उन्हें जाकर समझाओ कि “तुम हमारे भाई हो, हमारे शरीर के अंग हो।” ऐसे आश्वासन पाकर वे उत्साहित होकर सौ गुना काम करेंगे ।

मेरी समझ

यह गरीब व निम्न वर्ग जीवन की प्राथमिक आवश्यकता को‌ पूर्ण करने के लिए इतना संघर्षरत है कि शिक्षा और ज्ञान के लिए सोचने का समय ही नहीं है। इनका जीवन स्तर ऊंचा करने के इन्हें शिक्षित करना आवश्यक है। प्रत्येक शिक्षित नागरिक का यह प्रथम कर्तव्य होना चाहिए कि वह अपने आसपास के सभी अशिक्षितों को शिक्षित करें।

महान उपलब्धि की मांग: भावनाएं

विवेकानंद जी ने यह भी कहा कि इस महान उपलब्धि को पाने के लिए तीन बातों की आवश्यकता  है। प्रथम , दिल से महसूस करो। ऐसा क्यों करना है?
कुछ कदम चलते हैं फिर रूक जाते हैं। प्रेरणा दिल से आती है। प्रेम से कठिनतम दरवाजे खुल जाते हैं । मेरे देश भक्तों महसूस करो। क्या तुम महसूस करते हो? क्या तुम महसूस कर पा रहे हो कि ईश्वर की संताने, संतों के वंशज, तुम्हारे पङोसी जानवरों जैसा जीवन जी रहे हैं ।


क्या तुम महसूस करते हो कि कई हजारों-लाखों लोग सदियों से भूखमरी  में जी रहे हैं ?
क्या तुम यह महसूस करते हो कि हमारे देश में अज्ञानता काले बादल की भांति छाई हुई है? क्या तुम बैचेन नहीं रहते, तुम्हारी रातों की नींद  नही उङती? क्या ये सब तुम्हारे खून में, नाङियों में बहते हुए, तुम्हारे दिल की धडकनों तक नहीं पहुंचता? क्या बर्बादी का एक विचार तुम्हें गुम नहीं कर देता, तुम अपना नाम, प्रसिद्धि , पत्नी, बच्चे यहां  तक कि अपने शरीर को नहीं भूल जाते हो? क्या तुमने ऐसा किया है? तो यही पहला कदम है ।

समाधान 

फिर तुम्हें सोचना चाहिए कि व्यर्थ की बातों में समय गंवाने से अच्छा  है कि समाधान ढूंढा जाए। उन सबको कष्ट भरी, मृत्यु समान जीवन से बाहर निकालने का व्यवहारिक उपाय किया जाए। जबकि यह बिलकुल भी आसान नहीं होगा। इस काम को करने में पहाङ से ऊंची बाधाएं सामने होंगी।


पूरा विश्व तलवार लेकर तुम्हारे सामने खङा होगा, क्या उनका सामना करने की तुम में हिम्मत होगी? तुम्हारे पत्नी और बच्चे भी तुम्हारे विरूद्ध हो जाएंगे, तुम्हारा नाम डूब जाएगा, तुम्हारी संपत्ति छीन ली जाएगी, क्या तब भी तुम इस काम में डटे रह सकोगे।

दृढ़ता

क्या तुम अपने लक्ष्य को पाने के लिए डटे रह सकते हो? जैसे राजा भृतहरी ने कहा कि ‘ संतो को दोष दो या उनकी प्रशंसा करो,भाग्य की देवी को आने दो या वह जहाँ जाना चाहती है, वहाँ जाने दो, मृत्यु को अभी आने दो या सौ साल में आने दो। उसे ऐसा जिद्दी व्यक्ति चाहिए जो हर परिस्थिति में सच के लिए डटा रहे।’
क्या तुम में ऐसी निष्ठा, दृढ़ता है? यदि है तो तुम्हारे काम चमत्कार करेंगे।

काम पूजा है

आओ हम सब प्रार्थना करते हैं, ‘ ईश्वर ! हमें रोशनी दो। अंधेरे में भी प्रकाश मिलेगा, एक हाथ बढ़ कर हमारा नेतृत्व करेगा।’ हम उन लाखों, करोङो दीन लोगों के लिए प्रार्थना करें, जो गरीबी, अत्याचारी  पुरोहितों इत्यादि के कारण व्रत करते हैं । इन सबके दुखो के   निवारण के लिए प्रार्थना करें।
मैं कोई दार्शनिक या संत नहीं हूँ , गरीब हूँ और गरीबों से प्यार करता हूँ ।
कौन उन गरीबी और अज्ञानता की दलदल मे फंसे करोङो लोगों के लिए सोचता है? क्या जो गरीबों के लिए   सोचता है, उसको मैं महात्मा कहूं ? उन्हें ज्ञान की रोशनी नहीं मिल सकती है। कौन शिक्षा देने के लिए दरवाजे – दरवाजे घूमेंगा?  इनके लिए सोचो, इनके लिए काम करो, प्रार्थना करो, ईश्वर ,  अवश्य रास्ता दिखाएगा।

मेरी समझ

अगर हम अपने को मानवता व इंसानियत का साधक मानते हैं तो हमें अपने आसपास अमानवीय जीवन दिखना चाहिए और यदि हम अपने को सच्चा देशभक्त मानते हैं तो हमें अपने देशवासियों के कष्ट दूर करने का प्रयास करना चाहिए।

क्रमशः

स्वामी विवेकानंद (भाग-21)

आम व्यक्ति की शिक्षा 

राष्ट्र की महानतम त्रुटि 

विवेकानंद जी कहते हैं, ‘ मेरा ह्रदय   अपने देश के गरीब व निम्नतर लोगों की दशा देखकर दुखी होता है।’ उनकी स्थिति दिन- प्रतिदिन गिरती जा रही है।
उन्हें लगता है कि यह क्रुर समाज उन पर प्रहारों की वर्षा कर रहा है, पर वे नहीं जानते कि ये प्रहार कहां से आते हैं ? वे भूल जाते हैं कि वे भी मनुष्य   हैं।


मेरा ह्रदय अपनी भावनाओं को व्यक्त करना चाहता है, कई हजारों वर्षों से भूख और अज्ञानता में रहने के कारण, प्रत्येक व्यक्ति मुझे विश्वासघाती लगता है, जिसने उनके ही पैसों से शिक्षा प्राप्त  करने  के पश्चात भी उन पर रत्ती भर ध्यान नहीं दिया है ।हमारे देश की सबसे कमी, व देश की गिरावट  का कारण यही है कि इस निम्नतर जनता को नजरअंदाज किया गया है। हमारे देश की किसी भी प्रकार की राजनीति ने इस निम्न वर्ग की प्राइमरी आवश्यकताओं, भोजन, शिक्षा पर ध्यान नहीं  दिया है।

मेरी समझ

यह बहुत ही दुखद स्थिति है, समाज में गरीब और निम्न वर्ग की दुर्दशा को सुधारने के प्रयास नहीं किए जाते हैं। इस वर्ग में भी अपनी स्थिति को सुधारने की चेतना जागृत नहीं हो रही है। राजनीतिज्ञ अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए केवल मात्र उनका इस्तेमाल करते हैं। सुधार की बातें नारों तक ही सीमित है।

निम्न वर्ग की शिक्षा- एक समाधान

विवेकानंद जी कहते हैं कि एक देश तभी उन्नत हो सकता है,जब उसकी आम जनता शिक्षित व ज्ञानी   होती है। भारत की दुर्दशा का मुख्य  कारण यही है कि यहाँ ज्ञान व शिक्षा सिर्फ मुठ्ठी भर लोगों की बपौती बन कर रह गए हैं  ।


निम्नतर वर्ग के लिए हमारी एकमात्र   सेवा उनको शिक्षा प्रदान करना होना चाहिए जिससे उनका बौद्धिक व आत्मिक विकास हो सके । वे भी अपने विचार प्रकट करें। संसार में उपस्थित सभी विचारों और क्रियाकलापों से परिचित होकर अपनी भूख मिटाने का उपाय ढूंढ सके। प्रत्येक देश, प्रत्येक औरत, प्रत्येक आदमी को अपने भोजन के लिए आत्मनिर्भर होना चाहिए ।


उन्हें सिर्फ यही आवश्यकता है कि हम उन्हें विभिन्न विचारों और ज्ञान से परिचित कराएं, अन्य समाधान स्वयं अनुसरण करेंगे । प्रकृति के नियमों के अनुसार, रासायनिक तत्वों का सम्मिश्रण  करने से क्रिस्टलीकरण होता है।

मेरी समझ

शिक्षा व ज्ञान प्राप्त करना सबका मौलिक अधिकार है। शिक्षा प्राप्त करने का अर्थ सिर्फ अपना नाम लिखना सीखना नहीं है। जैसा साक्षरता अभियान में दर्शाया जाता है। उन्हें ज्ञान प्राप्त करना है, जो उन्हें अंधेरे से प्रकाश में लाएगा। उन्हें भी राजनीतिक, ऐतिहासिक, सामाजिक व आध्यात्मिक समझ की आवश्यकता है।

महान आध्यात्मिक विचारों से सबका परिचय

विवेकानंद जी कहते हैं कि हमारी आध्यात्मिक किताबों में लिखे कीमती विचारों को सबके सामने प्रकट करना है, जो कुछ मुठ्ठी भर व्यक्तियों के आधिपत्य में है, जो मठों या जंगलों में   छिपे है , उन सबको निकालना है, यह ज्ञान सबके लिए प्रकाशित करना है, वह जो सदियों से संस्कृत भाषा के शब्दों में संरक्षित है। एक शब्द में कहना चाहता हूं  कि इस ज्ञान को लोकप्रिय बनाना है।


मैं इन ज्ञानवर्धक विचारों को जनसंपत्ति बनाना चाहता हूं । सभी जन के लिए, चाहे उन्हें संस्कृत भाषा का ज्ञान हो अथवा नहीं हो।
हमारी इस गरिमापूर्ण भाषा संस्कृत में   कठिनाईयां हैं ,  जो तभी दूर हो सकती है कि जब यह संपूर्ण देश की भाषा बन जाए।


इस कठिनाई को तुम ऐसे समझ सकते हो कि जब तुम्हें बताऊँ कि मैंने जीवनपर्यंत संस्कृत भाषा  का अध्ययन किया है, फिर भी  इस भाषा में   रचित कोई नई किताब पढ़ता हूं, तो यह भाषा भी अजनबी लगती है। 
  अगर मुझे कठिनाई है तो उन लोगो के लिए जिनके पास अध्ययन का बहुत कम समय है, संस्कृत भाषा दुष्कर हो सकती है। अतः लोगों को ज्ञान उनकी भाषा में मिलना चाहिए।

मेरी समझ

हम कहते हैं व इस पर चर्चा करते हैं कि हमारे देश में ही प्रत्येक ज्ञान की खोज हुई है, हम शोर मचा रहे हैं कि हमारे ऋषि, मुनि परम ज्ञानी थे। यह सच है कि हमारा अतीत गौरवशाली था। परंतु आज जो स्थिति है, उस पर हम विचार भी नहीं करते हैं। आम व्यक्ति को तो ज्ञान प्राप्त करने से वंचित कर दिया गया था। तो आज देखें हमारा देश अज्ञानता के अंधेरे में डूबा हुआ है।एक देश मुठ्ठी भर लोगों से नहीं बना है, वह तो करोड़ों अरबों आम निम्न साधरण लोगों से बनता है।

मातृभाषा में शिक्षा

सबसे महत्वपूर्ण विचार है कि  आम जनता को, प्रत्येक व्यक्ति को शिक्षा उसकी भाषा में मिलनी चाहिए।
पर इससे भी अधिक जरूरी है कि उन्हें संस्कार मिले, संस्कारी होने पर आम जनता की दुष्कर समस्याएं स्वयं गायब हो जाएंगी ।

संस्कृत की शिक्षा 

मातृभाषा की शिक्षा के साथ संस्कृत भाषा की शिक्षा भी देनी आवश्यक है। संस्कृत के शब्दों में गर्व, शक्ति और ताकत है। महान बुद्ध से भी गलती हो गई थी, उन्होंने आम जनता को संस्कृत की शिक्षा देनी बंद कर दी थी। वह तुरंत परिणाम प्राप्त करना चाहते थे , अतः उन्होंने पालि भाषा में अनुवाद करके लोगों तक ज्ञान का प्रसार किया था, जो आम जनता के लिए  बहुत प्रभावी होने पर भी, उन्हें गौरव नहीं दिला सका, अपितु  एक नया वर्ग बन गया और संस्कृत विद्वान और ज्ञानी हो गए ।

मेरी समझ

हमारे प्राचीन ग्रंथ दुरूह संस्कृत भाषा में लिखे गए हैं। क्या उस भाषा को सब जानते हैं? क्या यह भाषा सबके लिए सीखना आसान है? और जो इन ग्रंथों की व्याख्या की जाती है, वह‌ सही है? आम व्यक्ति तक इस प्राचीन ज्ञान को पहुंचाना आवश्यक है।

क्रमशः

स्वामी विवेकानंद (भाग-20)

सीता एक आदर्श

विवेकानंद जी ने कहा कि भारतीय महिलाओं को सीताजी का अनुसरण करना चाहिए । सीता अद्वितीय हैं । वह भारतीय महिलाओं के लिए आदर्श है, सभी महान आदर्शमयी महिलाओं में सीताजी का जीवन चरित्र अनूठा है।


आर्यावर्त के लंबे काल से अब तक सीता को पूजा जाता रहा है। सीता अपने गरिमापूर्ण चरित्र के लिए सदा पूजी जाती रहेगी। उन्होंने बिना ऊफ किए अपने जीवन को शालीनता और पवित्रता के साथ जिया था। वह सब लोगों की आदर्श है, उन्हें सदा के लिए हमारा राष्ट्रीय भगवान मानना चाहिए । वह हमारे जीवन के सभी भेद भाव से ऊपर है । हमने देखा है कि आधुनिक महिलाएं उनके जीवन चरित्र से भिन्न जाती हैं तो असफल होती हैं ।


मेरी समझ

सीताजी का एक गरिमापूर्ण और स्वाभिमानी महिला के रूप में ही चित्रण किया गया है। महिलाओं को उनका अवश्य अनुसरण करना चाहिए । बिना ऊफ किए गरिमा और स्वाभिमान के साथ उस ऊफ के विरुद्ध खङा होना चाहिए । अगर बारिकी से देखें तो सीता का चरित्र भी विरोध कर रहा है।

त्याग का प्रशिक्षण

विवेकानंद जी ने कहा कि आज अगर अध्ययन करें तो समझा जाता है कि इन महान आदर्श चरित्रों को त्याग करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता रहा, जिससे प्राचीन काल से उनके खून में रची बसी पवित्रता गुम न हो जाए । आज हमारी मातृभूमि को आवश्यकता है कि उसके बच्चे पवित्र बह्रमचारी, बह्रमचारिणी बने।


इन सब महिलाओं में से एक महिला भी अगर ब्रह्मा का ज्ञान प्राप्त करती है तो उसका गरिमामय, ओजस्वी पूर्ण चरित्र आने वाले हजारों वर्षों तक अन्य महिलाओं के लिए एक आदर्श प्रस्तुत करेगा।
ब्रह्मचारिणियों की शिक्षा, व चरित्र निर्माण शिक्षण में मुख्य तत्व होने चाहिए । हर शहर व गांव में स्त्री शिक्षा का प्रचार होना चाहिए व स्त्री शिक्षा केंद्र खुलने चाहिए ।

मेरी समझ

देश व समाज के विकास लिए स्त्री का शिक्षित होना आवश्यक है। एक स्त्री शिक्षित अथार्त पूरा परिवार शिक्षित , इस तरह संपूर्ण समाज, देश शिक्षित । एक शिक्षित स्त्री में समाज को बदलने की हिम्मत और बुद्धि होती है क्योंकि समाज में उपस्थित बुराईयों को वह ही सबसे अधिक समझती है ।

धर्मनिरपेक्षता की शिक्षा

विवेकानंद जी कहते हैं कि सभी धर्मों की शिक्षा उन्हें मिलनी चाहिए । इतिहास, पुराण और साहित्य की शिक्षा के साथ सभी कलाओं और समस्त घरेलू कार्यो जैसे- सिलाई-कढ़ाई, खाना बनाना व बच्चों की परवरिश की शिक्षा भी मिलनी चाहिए । उन्हें चरित्र निर्माण के सिद्धांतों और कर्तव्यों का ज्ञान भी देना चाहिए । सबसे अधिक आवश्यक है कि उन्हें जाप करना, पूजा करना और ध्यान करना सिखाना भी शिक्षण का महत्वपूर्ण भाग होना चाहिए ।

मेरी समझ

अगर एक महिला धर्म निरपेक्ष होगी तो समाज भी धर्मनिरपेक्ष बनेगा। बच्चा पहला पाठ अपनी माँ की गोद में सीखता है। आज हम जातिगत , ऊंच- नीच के भेदभाव में इतना फंस गए हैं कि समाज व देश दलदल में दबता जा रहा है, यानि मनुष्य दलदल में फंस गया है और वह समझ नहीं रहा है। एक बच्चे को माँ के गर्भ से ही धर्म निरपेक्षता की शिक्षा मिलनी चाहिए ।

आत्मरक्षा

विवेकानंद जी कहते हैं कि सभी महिलाओं में वीरता और नेतृत्व के भाव भी जगाने आवश्यक है ।
आज की तारीख में उन्हें आत्मरक्षा का प्रशिक्षण भी देना आवश्यक है,उन्हें महान झांसी की रानी तरह बनना होगा।
महान निर्भीक महिलाओं जैसे – संघमित्ता,लीला, अहिल्याबाई और मीराबाई की पंरपराओं को आगे बढ़ाने के लिए महिलाओं को निर्भीक व बहादुर बनाना होगा।


यही महान नायकों की माँ होती है, ऐसी पवित्र , शक्तिमान महिलाओं को पूजा जाता है।
आने वाले समय में , हमारे अपने घरों में ऐसी महिलाएं होंगी। ऐसी माँओं के बच्चों के विकास में अंतर दिखेगा । जिन घरों में शिक्षित व धर्मनिष्ठ महिलाएं होती हैं वहां महान संतानों का जन्म होता है।
यदि महिलाएं अपने बच्चों को आदर्श व नैतिकता की , देशभक्ति की शिक्षा देती हैं , तो देश में संस्कृति , ज्ञान , शक्ति व भक्ति का जागरण होता है।

मेरी समझ

स्त्री की शिक्षा समाज व देश और मनुष्यता के लिए आवश्यक है। पर दुख की बात है कि आज भी देश में स्त्री शिक्षा का प्रतिशत बहुत कम है।

क्रमशः

स्वामी विवेकानंद (भाग-19)

स्त्री शिक्षा

विवेकानंद जी कहते हैं कि यह समझना कठिन है कि हमारे देश में स्त्री – पुरूष की स्थिति में इतना भेद क्यों है? जबकि वेदों में भी बताया गया हैं कि ईश्वर सभी प्राणियों में एकसमान उपस्थित है।
स्मृति इत्यादि लेखन द्वारा उन्हें कठिन नियमों में बांध दिया गया और पुरूषों ने स्त्रियों को उत्पादन की मशीन बना दिया है ।


ऐसे समय जब समाज की अवनति आरंभ हो गई थी, पंडितों ने विभिन्न जातियों के साथ स्त्रियों को भी अयोग्य ठहराते हुए उनके समस्त अधिकार छीन लिए, उन्हें शिक्षा और वेदों के अध्ययन से भी वंचित कर दिया था।
यदि तुम वेद- उपनिषद के काल का अध्ययन करते हो तो तुम पाओगे कि उस समय विद्वान पुरूष ऋषियों की भांति विदूषी ऋषि स्त्रियां भी थी।


एक हजार विद्वानों ब्राह्मणों के सम्मेलन में विदुषी ऋषि गार्गी ने ऋषि यजनाव्क्लेय को ब्राह्मण चर्चा में चुनौती दी थी।
प्रत्येक देश को अपने देश की महिलाओं का सम्मान करना चाहिए । जिस देश में महिलाओं का सम्मान नहीं होता उस देश की कभी उन्नति नहीं हो सकती है।


जो शक्ति का सच्चा भक्त है वह जानता है कि ईश्वर का सर्वज्ञानी शक्ति स्वरूप स्त्री में प्रकट हुआ है।
अमेरिका में पुरुष स्त्रियों को इसी दृष्टि से देखते व व्यवहार करते हैं , इसी कारण वे समृद्ध , ज्ञानी व ऊर्जावान हैं ।
सच्चाई यही है कि वर्गभेद निरंतर गिरता जा रहा है कि हम शक्ति के जीवित स्वरूप का सम्मान नहीं करते हैं ।
मनु ने कहा है, जहाँ स्त्री का सम्मान होता है, वहां ईश्वर भी खुशियाँ बिखेरता है, पर जहाँ स्त्री अपमानित होती हैं वहां सभी कोशिशें , उम्मीदें व्यर्थ जाती हैं । जिस घर व देश में दुःख व उदासी हो वहाँ उन्नति की आशा बेकार है।

मेरी समझ

हमारे देश में स्त्री शिक्षा को बहुत कम महत्व दिया गया है, जबकि आज महिलाऐं हर क्षेत्र में पहुंच गई है , परंतु स्त्री शिक्षा प्रतिशत आज भी बहुत गिरा हुआ है। निम्न वर्ग में आज भी लड़कियों को स्कूल नहीं भेजा जाता है।

शिक्षा व महिलाएं

स्वामी जी कहते हैं कि महिलाएं अनेक कठिनतम समस्याओं से घिरी रहती हैं ।’ शिक्षा’ जैसे जादुई शब्द मात्र से उनका समाधान नहीं हो सकता है।
मनु क्या कहते हैं ? ‘ कन्याओं की भी वैसी ही देखभाल, खानपान व शिक्षा की आवश्यकता है जैसे बालकों को आवश्यकता है। जैसे लङके ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए, शिक्षा प्राप्त करते हैं फिर गृहस्थाश्रम में प्रवेश करते हैं उसी तरह लड़कियों को भी विवाह से पूर्व ब्रह्मचर्य का पालन करना व शिक्षा प्राप्त करना आवश्यक है।
हम क्या कर रहे हैं ? हम उन्हें लाचारी विवशता और दूसरों पर निर्भरता का जीवन जीने के लिए प्रशिक्षित करते हैं । हम उन औरतों को अच्छा मानते हैं जिनकी आँखों में आँसू हो और हमेशा डरी, सहमी दिखती हो।
हमें उन्हें इतना आत्मनिर्भर बनाना चाहिए कि वह अपनी समस्याओं का समाधान स्वयं कर सके। हमारे देश की महिलाएं भी उतनी ही सक्षम और बुद्धिमान है जितनी संसार की अन्य महिलाएं ।

मेरी समझ

हमारे समाज में लड़का लड़की में भेद भाव किया जाता है। सिर्फ शिक्षा की दृष्टि से ही नहीं खान पान में भी भेद किया जाता है। लड़कियों को भी यही सिखाया जाता है कि वह लड़कों से कमतर है। दुख की बात है कि परंपरावादी सोच के परिवार का प्रतिशत कम नहीं है।

धर्म – केंद्र

विवेकानंद जी समझाते हैं कि महिला शिक्षा का प्रसार धर्म की भांति होना चाहिए । प्रथम स्थान शिक्षा का है, अन्य प्रशिक्षण दूसरे स्थान पर आते हैं ।धार्मिक शिक्षा , चरित्र निर्माण और ब्रह्मचर्य की शिक्षा भी आवश्यक है। हमारे देश की महिलाएं पवित्रता को समझती हैं , यह उनके खून में बसा है।
उनके सभी गुणों को उजागर करते हुए, जीवन के सभी चरणों के लिए उनके चरित्र का उच्च निर्माण आवश्यक है ।यह उनका अपना चुनाव हो सकता है कि विवाह करें या अविवाहित रहें, वे निर्भीक, गरिमापूर्ण जीवन जी सकेंगी।

मेरी समझ

स्त्री को कमतर समझना एक बहुत बड़ी भूल है। स्त्री बुद्धि और शक्ति में पुरूष से किसी तरह कम नहीं है।उसे शिक्षित व प्रशिक्षित करना आवश्यक है। उसको आत्मविश्वासी वह स्वावलंबी बनाना चाहिए जिससे वह जीवन के सभी फैसले स्वयं ले सके।

क्रमशः

स्वामी विवेकानंद (भाग-18)

कष्ट का कारण

कष्ट का एक कारण मोह में फंसना है ,हम पकङे जाते हैं । इसलिए गीता कहती हैं कि निरंतर कर्म करो पर उससे जुड़ोगे नहीं , तो पकङे नहीं जाओगे। सबसे विलग रहने की शक्ति को सुरक्षित रखो।कोई कितना भी प्रिय हो, आत्मा कितनी भी उसके लिए लालसा रखती हो, कितना भी उससे अलग होने का कष्ट हो, जब तुम चाहो तब छोङ सको, इस शक्ति को सुरक्षित रखो।
यहां कमजोर के लिए कोई स्थान नहीं है, न इस जीवन में न किसी और जीवन में कोई स्थान नहीं है।
कमजोरी दासता की ओर जाती है। कमजोरी सभी शारीरिक , मानसिक कष्ट देती है। कमजोरी मृत्यु है।


हमारे चारों ओर हजारों अणु, कीटाणु घूमते हैं , जब तक हमारा शरीर उनसे लङने के लिए स्वस्थ हैं , वे हमें हानि नहीं पहुंचा सकते हैं ।
हमारे चारों ओर दुःखों के कीटाणु हैं , मत परेशान हो,जब तक हमारा मस्तिष्क स्वस्थ है, ताकतवर है, वे हमारे करीब भी नहीं पहुँच सकते हैं , हमे हानि नहीं पहुंचा सकते हैं ।
यह महान सत्य है कि ताकत जीवन है और कमजोरी मृत्यु है। ताकत परमसुख है, जीवन शास्वत, अमर है, कमजोरी लगातार तनाव व कष्ट है, कमजोरी मृत्यु है।
अभी हमारी समस्त खुशियों का स्रोत जुङाव व लगाव है । हमें अपने रिश्तेदारों और मित्रों से लगाव होता है।
हम अपने बौद्धिक और आध्यात्मिक कार्यों से बहुत जुङ जाते हैं ।हमें बहुत सारी बाह्य वस्तुओं से लगाव होता है चूंकि वे सब हमें आनंद देती हैं ।
पर फिर? इन्हीं सब से कष्ट भी मिलता है।


यदि हम में अलगाव की ऊर्जा है या हम उसे प्राप्त कर लेते हैं तो कोई कष्ट भी नहीं रहेगा।
जिस व्यक्ति के पास लगाव की शक्ति है और साथ ही अलगाव की भी शक्ति है तो वह व्यक्ति प्रकृति से उसका उत्तम गुण प्राप्त कर सकता है।
कठिनाई यह है कि जितनी ऊर्जा जुङाव के लिए चाहिए उतनी ऊर्जा अलगाव के लिए भी आवश्यक है।


संसार में ऐसे भी लोग होते हैं , जिन्हें कुछ आकर्षक नहीं लगता है, जो प्रेम नहीं कर सकते हैं , कठोर या पत्थर ह्रदय के उदासीन व्यक्ति होते हैं । ये कष्टों , दुःखों से दूर भागते हैं ।
एक दीवार जिसे दुख महसूस नहीं होता है, वह किसी से प्रेम नहीं करती, आखिर वह एक दीवार ही तो है।
अतः एक दीवार बनने की अपेक्षा मोह के जाल में फंसना ज्यादा अच्छा है। ऐसा आदमी प्रेम नहीं करता, कष्टों से भागता है, वह खुशियों से भी भागता है। हम ऐसा नहीं चाहते हैं । कमजोरी का अर्थ मृत्यु है।

जिस आत्मा ने कमजोरी को महसूस नहीं किया, जो कभी भी कमजोर नहीं पङी उसकी ऐसी स्थिति पाषाण के समान सख्त , कठोर होती है । यह हम नहीं चाहते हैं ।
इसके साथ हम यह भी नहीं चाहते हैं कि हम प्रेम और लगाव की शक्ति में इतना जुङ जाएं कि अपनी आत्मा को पूर्णतः किसी एक वस्तु या अन्य आत्मा के लिए अर्पित करने में अपने को खो दें। हमें लगाव और विरक्ति को एक साथ लेकर चलना है, जो एक योग्य व्यक्ति कर सकता है। हम भी इसे सीख सकते हैं , पर इसमें भी एक रहस्य है।


एक भिखारी कभी खुश नहीं होता है। उसे दया और तिरस्कृत भावना के साथ खैरात मिलती है, उसे निकृष्ट माना जाता है। भिखारी भी उसे जो मिलता है, उससे संतुष्ट नहीं होता है, वह कभी खुश नहीं होता है।
हम सब भिखारी हैं । हम जो भी करते हैं , हमें उसका प्रतिफल चाहिए ।
हम सब व्यापारी है। हम जीवन के , नैतिकता के और धर्म के व्यापारी है। दुख की बात है कि हम प्रेम के भी व्यापारी हैं ।
बात व्यापार की है तो यह लेन- देन और खरीदना- बेचना है, यह सब भी नियमों , कानून के अंतर्गत होता है।


यहां अच्छा समय भी है, बुरा समय भी है, कीमतों में चढ़ाव के साथ उतार भी है, हम चाहते है कि सब हमारे अनुकुल हो।
यह दर्पण में देखने के समान है , दर्पण में
तुम्हारा चेहरा प्रतिबिंबित होता है, तुम एक विकृत चेहरा बनाते हो- यह दर्पण में दिखता है। तुम हंसते हो दर्पण हंसता है। यही लेना – देना, खरीदना- बेचना है।
हम पकङे जाते हैं , देने के कारण नहीं अपितु उम्मीद के कारण पकङे जाते हैं । हमें प्रेम के कारण कष्ट मिलता है , हमारे प्रेम के कारण नहीं , बल्कि प्रेम के बदले प्रेम की चाह हमें दर्द देती है।
अगर चाहते नहीं होगी तो कष्ट भी नहीं होगा । अभिलाषा, चाहत कष्टों के पिता हैं ।इच्छाएं सफलता और असफलता के नियमों से बंधी होती है। तो इच्छाएं कष्ट ही देंगी ।

मेरी समझ

हमें जीवन के सभी सुखों और भावों के साथ ही जीवन जीना है। सभी भावों के अनुभव से ही हम जीवन को समझ सकेंगे। जीवन का आनंद ले सकेंगे। जीवन में आसक्ति हमें सुख देती है। पर इस सच्चाई को भी स्वीकार करना होगा कि आसक्ति के साथ विरक्ति भी है। अगर जीवन के इस रहस्य को समझ लिया तो जीवन का सच समझ लिया।

प्रसन्नता का रहस्य

संपूर्ण स्वार्थहीनता ही सच्ची सफलता का रहस्य है। जिसे बदले में कुछ नहीं चाहिए , वह ही सफल है, वह ही वास्तव में खुश है।
यह एक विरोधाभास लगता है क्योंकि हम जानते हैं जो स्वार्थहीन है, उसे ही सबसे अधिक धोखे मिलते हैं , कष्ट मिलते है।
हां, ऐसा ही प्रतीत होता है, जैसे यीशु मसीह स्वार्थहीन थे, फिर भी उन्हें सूली पर चढ़ा दिया गया था।
यह सच है, लेकिन उनके इस त्याग के पीछे जो उनके उद्देश्य थें, उसके कारण उन्हें हजारों , करोड़ों लोगों की शुभकामनायें मिली। यही उनकी सफलता थी।


कुछ न मांगों , बदले में कुछ न चाहो। सिर्फ दो जो दे सकते हो , वह दो, देने पर मिलेगा भी पर अभी नहीं मिलेगा। पर देते समय लेने की भावना मत रखना, मिलेगा, कई गुणा बढ़ कर मिलेगा।
तुम्हें सिर्फ देने की शक्ति दी गई है, यह प्रकृति तुम्हें देने के लिए बाध्य करती है। इसीलिए अपनी पूर्ण इच्छा व खुशी के साथ दो। जल्दी या देर से तुम्हें अपना सब देना ही है।
तुम जीवन में संचय करने आए थे, बंद मुठ्ठी से लेना चाहते थे।
प्रकृति तुम्हारा मुंह बंद करती है और हाथ खोल देती है। तुम चाहो या न चाहो पर तुम्हें देना ही पङता है।
जिस क्षण तुम देने के लिए नहीं कहते हो, एक आँधी आती है और तुम कष्ट पाते हो। तुम्हें एक लंबे समय तक अपना सब कुछ देने के लिए बाध्य किया जाएगा।


हम प्रकृति के नियमों के विरूद्ध नहीं जा सकते है, देने पर ही मिलता है, नियमों का विरोध करने पर जीवन कष्टकारी बनता है जंगल चले जाते हैं , पर गर्मी मिलती है, सूरज समुद्र का पानी सोख लेता है, पर बारिश देता है।
तुम लेने देने की मशीन हो, देने पर ही मिलता है, पर देते समय लेने की इच्छा न रखने पर ही मिलेगा ।
तुम कमरे के अंदर की हवा को तेजी से बाहर फेंक सकते हो, उतनी ही तेजी से बाहर की हवा से कमरा भर जाएगा। तुम खिड़की – दरवाजे बंद कर देते हो, अंदर की हवा के बाहर जाने के सभी रास्ते बंद कर देते हो। हवा की आवाजाही न होने के कारण अंदर की हवा जहरीली हो जाती है।


नदी अपने को समुद्र में खाली करती है, पर साथ ही फिर भर भी जाती है।समुद्र में कोई रूकावटें नहीं होती है , पर यदि तुम ऐसा करते हो,तो मृत्यु तुम्हें अपनी ओर खींच लेती है।

मेरी समझ

हमारा स्वभाव है कि बिना ‌फल की चाह के कोई काम नहीं करते हैं।दान भी करते हैं तो मन में प्रशंसा अथवा पुण्य की चाह रखते हैं। इस चाह‌ से मुक्ति ही, जीवन की साध होनी चाहिए।


स्वतंत्र बनो


स्वतंत्र बनो, भिखारी मत बनो। यही जीवन का सबसे मुश्किल काम है। तुम इस रास्ते में आने वाले खतरों को गिन नहीं सकते हो। इन कठिनाइयों को हम बुद्धि से नहीं जान सकते हैं , हम सिर्फ महसूस कर सकते हैं ।
कुछ दूरी से तुम एक पार्क के दृश्य को देखते हो, तुम वहां नहीं होते हो पर महसूस करते हो कि तुम वहां हो।


यहां तक कि जब हम अपने प्रत्येक प्रयास में फेल हो जाते हैं , चोट खाते हैं , टूट जाते हैं , दिल तार-तार हो जाता है, पर इन सब कठिनाइयों , कष्टों से गुजरते हुए भी, हम यह विश्वास अपने मन में बनाए रखते हैं कि हमारा ईश्वर हमारे साथ है।
प्रकृति प्रतिक्रिया चाहती है , चोट के बदले चोट, धोखे के बदले धोखा, झूठ के बदले झूठ, पूरी ताकत के साथ धक्का देना चाहती है। तब हमें एक दिव्य शक्ति की आवश्यकता होती है, जो हममें बसी बदले की भावना को नियंत्रित करे। हमें इन दुर्भावनाओं से मुक्त रखे, हमें स्वतंत्र बनाए।

विवेकानंद जी कहते हैं कि मैं जानता हूँ कि यह सब करना अत्यंत कठिन है कि 90% लोग हिम्मत खो देते हैं , उनका दिल इस तरह टूटता है कि वे निराशावादी बन जाते हैं , उनका वफादारी , प्रेम व दया जैसी भावनाओं से विश्वास उठ जाता है।
तब हम ऐसे लोगों से मिलते हैं , जिनके जीवन में ताजगी है , उनका जीवन क्षमा, दया, निष्कपट जैसी भावनाओं के नकाब को पहने बूढ़ा हो जाता है।
उनके मस्तिष्क जटिलताओं से भरे होते हैं ।


उन्हें ऊपरी तौर पर बहुत अच्छा व्यवहार करना आता है।संभवतः उनका दिमाग गर्म न हो,वे बोलते नहीं हैं । चूँकि उनका ह्रदय मृतप्राय हो गया है, वे नहीं बोलते हैं । वे गाली नहीं देते हैं , गुस्सा नहीं करते हैं । पर यह उनके लिए अच्छा होगा कि वे गुस्सा करें , यह हजार गुना अच्छा हो कि वे गाली दे सकते हो।वे नहीं कर सकते क्योंकि उनके ह्रदय में जीवन नहीं है, अपने ठंडे हाथों से इन्होनें सब जब्त किया हुआ है , यह कुछ नहीं कर सकते, न कोई बद्दुआ दे सकते हैं , न एक कठिन शब्द बोल सकते हैं ।


विवेकानंद जी के अनुसार हमें इन पर ध्यान नहीं देना हैं , मैं कहता हूँ कि हमें किसी महान शक्तिमान मानव की नहीं, दिव्य शक्ति की आवश्यकता है।
उसी की सहायता से हम इन सबसे बाहर आ सकते हैं । इस दिव्यशक्ति के कारण हम अकेले सभी दुखों और कष्टों से कुशलता पुर्वक निकल आते हैं ।हम इन कष्टों और दुखों से उबरते हुए बेशक टूट जाते हैं , पर इस दिव्यशक्ति के साथ होने से हमारा अंतर, हमारा ह्रदय श्रेष्ठ से श्रेष्ठ होता जाता है।

मेरी समझ

हमारे प्राकृतिक स्वभाव में सभी भावनाएं हैं, घृणा, गुस्सा, ईर्ष्या और प्रेम, दया आदि। इन सभी भावनाओं के अनुभवों को जानने में ही आनंद है। पर स्वभाव के किसी भी एक तत्व की अधिकता हमें और दूसरे को कष्ट में डाल सकती है। हम प्रयास करें तो इन सभी भावनाओं में संतुलन बना सकते हैं। यह कठिन तो है पर असंभव नहीं है।

निरंतर अभ्यास

यह कठिन अवश्य है, पर निरंतर अभ्यास से हम अपनी परेशानियों और तकलीफों से निकल सकते हैं ।
अगर हम अपने को अतिसंवेदनशील नहीं बनाते हैं तो हमारे साथ कुछ नहीं हो सकता है। जब तक हमारा शरीर स्वस्थ है, हमें कोई बीमारी नहीं हो सकती है। हमारे शरीर में उपस्थिति जीवाणु शक्तिवान हैं कि वे बाहर से आने वाले कीटाणुओं से लङ सकते हैं तो हम बिमार नहीं हो सकते हैं ।


हमें वहीं मिलता है, जिसके हम योग्य होते हैं ।
अब हमें अपने-आप पर गर्व करना छोड़ कर यह विचार करना जरूरी है कि कोई भी कष्ट, दर्द अनचाहे नहीं होते हैं । कोई भी बुराई तभी हमारे पास आती है जब हम उसके लिए मार्ग प्रशस्त करते हैं ।
अपने स्वयं का विश्लेषण करो, तुम पाओगे कि अपने कष्टों के लिए तुम जिम्मेदार हो, चूंकि तुमने अपने को ऐसा बनाया है
आधा बाहरी दुनिया के कारण, आधा हमारा अंतर हमारे कष्टो का उत्तरदायी होता है।


अपने को शांत करो, फिर विश्लेषण करो, निष्कर्ष निकलेगा कि बाहरी दुनिया पर तो वश नहीं है पर अपने को, अपने अंतर को वश में किया जा सकता है।
यदि बाहरी और अंतर की भागीदारी से असफलता या दुर्दशा मिलती है तो यह मेरा फैसला है कि मैं अपनी भागीदारी नहीं दूंगा , और जब मैं ऐसा करूंगा तो कोई कष्ट मुझ तक कैसे पहुंच सकता है।


हम बचपन से दूसरों को दोषी ठहराते आएं हैं । हम दूसरों के हक के लिए खङे भी होते हैं पर अपने लिए कभी नहीं बोलते हैं ।
हम जब कष्ट में होते हैं, हम कहते हैं कि यह शैतानों की दुनिया हैं , यहां शैतान बसते हैं , यदि ऐसा है, तो हम कौन है, यहां क्यों रहते हैं ? हम कहते हैं इस दुनिया के लोग स्वार्थी हैं , आप भी तो उनके साथ रहते हो, आप कौन हो? विचार करो।

मेरी समझ

जितनी चाहते बढ़ाएंगे, उतने कष्ट पाएंगे। दूसरे को दोष देना हमारा स्वभाव है। अपने को जानना आवश्यक है।यह दुनिया और समाज हमसे है, हम समाज से नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति अपने अंतर को पहचाने और अपने सुधार के लिए प्रयास करें तो समाज में भी बदलाव आएगा।

हमारे लिए जो उपयुक्त है वह मिलता है।

हमें हमारी योग्यता के अनुसार मिलता है। यह कहना गलत है कि यह संसार बुरा है और हम अच्छे हैं ।यह नहीं हो सकता है। इससे बड़ा कोई झूठ हम अपने-आप से नहीं बोल सकते हैं ।
यही पहला पाठ हमें सीखना है कि किसी दूसरे को दोष नहीं देना है, अपने कष्टों , तकलीफों की जिम्मेदारी स्वयं लेनी है। एक इंसान की तरह जिम्मेदार बनो, अपने प्रति जिम्मेदार बनो।
जितना संभव हो, उतना हमें अपना ध्यान रखना होगा, कुछ समय के लिए दूसरों का ध्यान न रखो जब तक तुम्हारी स्थिति में सुधार न हो जाए।
जब तक हम स्वच्छ व पवित्र नहीं होते यह संसार स्वच्छ व पवित्र नहीं बन सकता है। इस अच्छे परिणाम के लिए हम साधन मात्र है।अतः हमें अपने को सुधारने का कार्य करना होगा।

क्रमशः

स्वामी विवेकानंद (भाग-17)

अमन के दूत श्री रामकृष्ण 

एक महापुरुष का जन्म होता है, जिसे सभी धर्मों में   समानता दिखती  है, सभी मत एक ही भावना से काम करते हैं और सबका एक ही भगवान्   है। जिसका ह्रदय गरीबों , कमजोरों व दलितों के   लिए   रोता है। उसी समय यह बौद्धिक पुरूष  न केवल भारत में अपितु विदेशों में भी उपस्थित विभिन्न   धार्मिक मतों  के विवादों में तालमेल बनाता है व  चमत्कारी   अमन की  स्थापना   करता है। और एक नया धर्म आता है  – सार्वभौमिक धर्म  ।
ऐसे महापुरुष का जन्म हुआ था। विवेकानंद  जी कहते हैं कि मैं   भाग्यशाली था, जिसे उनके चरणों में कुछ  साल बिताने का सुअवसर मिला था।
मेरे गुरू ने मुझे   इस महान सत्य से अवगत कराया कि संसार के सभी धर्म  आपस में अंतर्विरोधी या प्रतिरोधी नहीं   है।   ये सब एक सार्वलौकिक धर्म के विभिन्न पङाव हैं ।
श्री रामाकृष्ण किसी से कठोर शब्द नहीं कहते थे। वह इतने सहज और सहनशील थे कि प्रत्येक धार्मिक मतांवलंबी समझता था कि वह उसी के धर्म से जुङे हैं  ।
वह सभी से प्रेम करते थे , वह सभी धर्मों को   सच्चा मानते थे। उन्होंने अपना पूरा जीवन धार्मिक रूकावटों को खत्म करने में बिताया था।

मेरी समझ

अगर हम समाज की उन्नति और अपना आत्मिक विकास चाहते हैं तो सभी धर्मों को सम्मान देना और उन पर विश्वास करना आवश्यक है।

कोई सहनशीलता नहीं , सिर्फ स्वीकृति 

अपने शब्दों को स्वीकार करो, उनका बहिष्कार मत करो। बहुत अधिक  तथाकथित सहिष्णुता , ईश्वरीय निन्दा बन जाती है।
सहिष्णुता का अर्थ है कि मैं  सोचता हूँ कि तुम गलत हो और मैं तुम्हें जीने की अनुमति देता हूँ  ।क्या यह ईश्वर की निन्दा नहीं है कि मै और तुम दूसरों को जीने की अनुमति   दें।
मैं पिछले  सभी धर्मों को स्वीकार करता हूँ  और सबकी आराधना करता हूँ । मैं उन सबके साथ पूजा करता हूँ और  उनके  तरीकों का अनुसरण करते हुए ईश्वर   की आराधना करता हूँ ।
मै मौहम्मद की मज्जिद जाऊँगा  , क्रिश्चियन के  चर्च जाऊँगा , क्रुस के   सामने घूटनों पर बैठूंगा। मैं बौद्ध मंदिर  में प्रवेश करूंगा और बुद्ध और उसके नियमों की शरण में जाऊंगा।  मैं जंगल जाऊंगा और उन युवा तपस्वियों के साथ तपस्या करूंगा, जो उस रोशनी को पाना चाहते हैं , जो रोशनी सबके ह्रदय को प्रकाशमान करेगी।
मैं   न केवल यह सब करूंगा अपितु जो भविष्य में  आएंगे उनके लिए अपना ह्रदय खोल कर रखूँगा ।
क्या ईश्वर की किताब समाप्त हो गई  है? क्या यह निरंतर चलने वाला ईश्वरीय रहस्योद्घाटन नहीं  है?
यह एक चमत्कारी किताब है- संसार का आध्यात्मिक  रहस्योद्घाटन  । बाईबल, वेद, कुरान और सभी पवित्र किताबें  चमत्कारी हैं , पर अभी बहुत सारे, अनगिनत पन्नों का ज्ञान जानना शेष है।
अपने अतीत के साथ अपने वर्तमान का आनंद लो, और अपने ह्रदय की खिड़कियां  भविष्य   के लिए खोलकर रखो।
सभी अतीत के पैगंबरों को प्रणाम, आज के महापुरुषों को प्रणाम,जो भविष्य में  आ रहें   हैं   उन्हें भी हमारा प्रणाम।

अंत और उपाय ( साधन)

विवेकानंद  जी कहते हैं कि सबसे महत्वपूर्ण पाठ मैंने  अपने जीवन में  सीखा है कि हमें  अंत के समान उपाय पर भी ध्यान देना चाहिए  ।जिनसे मैंने यह सीखा था, वह एक महान व्यक्ति थे, उनका  अपना जीवन  इस सिद्धांत  का  सफलतापूर्वक  प्रदर्शन    था।
मैंने  स्वयं इस सिद्धांत से बहुत कुछ सीखा है , अंत के साथ उपाय  को भी महत्व देने में  ही जीवन की सफलता का रहस्य  छिपा है।
  हमारे जीवन की सबसे बङी कमी यही है कि हम अपना ध्यान सिर्फ अपने जीवन लक्ष्य  या उद्देश्य की ओर लगाते हैं ।अपने मस्तिष्क  को निरंतर  इसी ओर सोचने में व्यस्त रखते हैं पर इस कारण जो  अंतिम सच हम पाना चाहते हैं , उसे खो देते हैं ।

असफलता के  कारण

निन्यानवे  प्रतिशत मामलों  में , जब असफलता से सामना होता है, और उस असफलता की समीक्षा की जाती है, तब ‘उपाय को महत्व न देना’ ही असफलता का कारण  मिलता है।
यह बहुत जरूरी है कि अंत तक उपाय को मजबूत रखने पर ध्यान दिया जाए। सही साधनों  या उपाय होने से लक्ष्य की प्राप्ति  अवश्य होगी।
हम भूल जाते हैं कि  कारण से परिणाम  उत्पन्न   होता है, प्रभाव स्वयं नहीं आता है, यदि मनोरथ उचित, वास्तविक और शक्तिशाली  नहीं   है तो परिणाम   भी उत्पन्न   नहीं  होगा।
जब एक बार अपना आदर्श चुन लिया जाता है और उपाय या साधन निश्चित कर लिए  जाते हैं ,  तो लगभग लक्ष्य  को पा ही लेते हैं , क्योंकि जब उपाय उत्तम है तो हम निश्चित  होते हैं  कि लक्ष्य  भी प्राप्त  होगा।
जब मनोरथ वहां है, तो परिणाम के लिए कोई कठिनाई  नहीं होती है, वह आता ही है। यदि हम कारण पर ध्यान देते हैं ,  तो प्रभाव स्वयं अपना ध्यान रखता है।
आदर्श  को ठीक से समझना, उसको प्राप्त करना ही परिणाम है।

मेरी समझ

हम अपना लक्ष्य तो निर्धारित कर लेते हैं पर उस लक्ष्य तक पहुंचने के सभी रास्ते या साधनों को चुनने में सावधानी नहीं रखते हैं, हम जल्दी में रहते हैं, फिर असफल होने पर पछताते हैं।

उपाय

उपाय कारण होते हैं , उपाय पर ध्यान दो इसी में जीवन का रहस्य छिपा है।
हमने गीता में पढ़ा है कि हमे कर्म करना चाहिए , अपनी संपूर्ण  ऊर्जा के साथ निरंतर कर्म करना चाहिए , चाहे वह जो भी कर्म हो, हमें अपना मन- मस्तिष्क  उस कर्म में  लगाना चाहिए ।
इसी के साथ इस कर्म से लगाव नहीं रखना हैं । यह कह सकते हैं कि किसी भी कारण से हमें   उस कार्य को करते हुए परेशान  या हारना नहीं  चाहिए, लेकिन  हमारे में यह  योग्यता होनी चाहिए  कि जब हम चाहे उस कार्य को सरलता से छोङ सके ।
यदि हम अपने जीवन  को  जांचें तो हम पाते हैं कि हमारे दुःख का सबसे बङा कारण होता है कि हम कुछ   लेते है और उसमें अपनी ऊर्जा  लगाते है, शायद वो असफलता है, जिसे हम साथ लेकर चलते है, उसे छोड़ नहीं   सकते हैं ।
हम जानते हैं कि इससे हमें कष्ट हो रहा है, फिर हम उसे अपने साथ ले कर चलते रहते हैं , हम उससे तब तक आजाद नहीं हो सकते, जब तक हम स्वयं उसे अपने से अलग करके फेंक  नहीं देते हैं ।
मधुमक्खी  शहद पीने आती है, पर उसके पैर शहद में चिपक जाते हैं  । वह शहद के घङे से शहद लेना चाहती है पर फंस जाती है।
हमारे साथ भी बार-बार यही स्थिति   होती   है। यह ही अस्तित्व का संपूर्ण रहस्य है।
हम यहाँ  क्यों है?
हम शहद लेने आए थे, पर हमारे हाथ- पैर फंस जाते हैं । हम पकङने आए थे, पर पकङे जाते हैं  । हम आनंद लेने आए थे, आनंद  के साधन बन जाते हैं , शासन करने आए थे, शासित बन जाते हैं , हम काम करने आए थे, स्वयं काम हो जाते हैं , जीवन के सभी चरणों में  हम अपने को ऐसा पाते हैं । हम दूसरों के मस्तिष्क के आदेश पर कार्य करते हैं और पूरे  जीवन   दूसरों के मस्तिष्क पर    काम करने के  लिए संघर्ष करते रहते हैं । हम जीवन की समस्त खुशियों का आनंद जीना चाहते हैं पर वे हमारी प्राणशक्ति  नष्ट कर देते हैं ।
हम प्रकृति  से लेना चाहते हैं,  पर हमें बहुत समय बाद ज्ञात होता है कि प्रकृति   ने हम से सब ले लिया   है, हमें   शुन्य कर दिया है, हमें एकतरफ फेंक  दिया है।

मेरी समझ

गीता में लिखा है ‘ कर्म कर फल की चिंता मत कर’। पर हम उल्टा करते हैं, हमारा ध्यान सिर्फ फल की ओर रहता है और ध्यान के साथ चिंता रहती है, जिससे कर्म बोझ बन जाता है। सोचिए बोझिल काम अच्छा फल कैसे दे सकता है? हम एक गलती यह भी करते हैं कि इस असफलता का दोष दूसरों को देते रहते हैं। फिर जीवन भर खुशियां ढूंढते रह जाते हैं।

क्रमशः