मै ‘तेत्सुको कुरोयानागी’ की किताब ‘तोत्तो-चान’ पढ़ रही थी। इस किताब मे तेत्सुको ने अपने विद्यालय ‘तोमोए’ और उसके संस्थापक व संचालक सोसाकु कोबायशी के विषय मे बहुत ही रोचक रूप भे लिखा है।
इस किताब को पढ़ने के साथ मुझे याद आ रही थी, विभिन्न शिक्षण पद्धतियाँ व विभिन्न विद्वानो के शिक्षा पर उनके विचार, उनका दर्शन । उनकी व्यावाहारिक पाठशालाएँ या आश्रम जो उनके अपने विचारों और दर्शन पर आधारित थे।
तोत्तो-चान को अनुभवी, समझदार वास्तव में बच्चो को प्यार करने वाला अध्यापक सोसाकु कोबायशी मिले थे व उसे मिली वह माँ जिसने अपनी पुत्री को दूनिया की निगाह से नहीं देखा था,अपितु अपनी निगाह से देखा और समझा कि उसकी पुत्री एक सहज, स्वाभाविक बच्ची है। बहुत कम बच्चों की ऐसी किस्मत होती है, जिन्हें ऐसे अध्यापक व माँ मिलती है।
अध्यापक सिर्फ अपने छात्रों को परंपरागत तरीके से पढ़ाकर अपना काम पूरा करते है और माता-पिता अपने बच्चों की दूसरे बच्चों से तुलना करके उनके विकास मे बाधा पहुँचाते है।
हर बच्चा अपनी बात कहना चाहता है, हमें धीरज के साथ उनकी बात सुननी व समझनी चाहिए। कई बार दादी-नानी बच्चों के अधिक करीब होती है क्योंकि वे धीरज के साथ बच्चो को सुनती है।परंतु माता-पिता के पास समय नहीं होता है, न वे उन्हे सुनते है न देख समझ पाते हैं।हमें अपने बच्चो को पूरा समय देना चाहिए ताकि वे अपने मन को हमारे सामने खोल सके। बच्चे बहुत संवेदनशील होते है, उनकी समझ व परखने की शक्ति बहुत गहरी होती है।जैसे-जैसे हम बङे होते जाते है, तब इतने स्वार्थी हो जाते है कि अपनी इस शक्ति को खो देते है।
अध्यापकों व माता-पिता को बच्चों के मनोविज्ञान का ज्ञान होना चाहिए।इन्हे इससे संबधित किताबें पढ़नी चाहिए और समय-समय पर प्रशिक्षित लोगो से ज्ञान भी लेना चाहिए। अध्यापकों को उनके प्रशिक्षण के समय बच्चों के मनोविज्ञान से सबंधित विषय पढ़ाया जाता है।परंतु व्यवहार मे वह उसका कम ही ध्यान रख पाते है।अध्यापकों को बच्चों के प्रति संवेदनशील होना बहुत आवश्यक है।उसी प्रकार माता-पिता भी बच्चो के प्रति भावुक होते है,उनसे अगाध प्रेम भी करते है, परंतु उनमे भी संवेदनशीलता की कमी पाई जाती है।
संवेदनशीलता से अभिप्राय है कि आप की दूसरे की भावनाओं के प्रति क्या और कितनी समझ है। यह भावना बच्चों के संबध मे अधिक होनी चाहिए। बङो की अपेक्षा बच्चें अधिक संवेदनशील होते है। जैसे बच्चा अपनी माँ की डाँट खाकर फिर माँ से लिपटता है। वह माँ के मन को अधिक समझता है।
इस विचार में कोई संदेह नहीं कि हर प्राणी अपनी विशेष योग्यताओं के साथ इस दूनिया में आता है। हर व्यक्ति हर दूसरे व्यक्ति से भिन्न होता है।वयस्क व्यक्ति का दिमाग व व्यक्तित्व विकसित हो चुका होता है। वह अपनी प्राकृतिक प्रवृतियों व स्वभाव में अपने परिवेश व परिस्थितियों से ग्रहण समस्त अनुभूतियों का उसमें मिश्रण कर चुका होता है। अतः यह आवश्यक है कि एक बच्चा अपने परिवेश व परिस्थितियों से जो अनुभूतियों ग्रहण करे वह उसके व्यक्तित्व को संपूर्ण रूप से निखार सकें।
एक बच्चे की परवरिश स्वस्थ वातावरण में स्वस्थ हाथों मे होनी चाहिए, जिससे उसका चंहुमुखी विकास हो सके। स्वस्थ वातावरण से अभिप्राय है कि जहाँ जातिगत भेदभाव, छलकपट इत्यादि विषैलो तत्वों की उपस्थिति न हो।
स्वस्थ हाथो से अभिप्राय है कि माता-पिता व गुरू का मन साफ व पवित्र हो उनमे किसी के प्रति दुर्भावना न हो। उनका हृदय जातिगत भेदभाव, साम्प्रदायिकता व उच्च नीच के भाव से ऊपर हो।
परंतु हम जानते हैं कि यह सभव नही है, आज समाज दिनप्रतिदिन कलुषित होता जा रहा है। अनेक कोशिशों के बाद भी मनुष्य का हृदय साफ नही हो रहा है। जातिगत भेद भाव इत्यादि कलुषित विचार मनुष्य के मन से जा नही रहे है।ऐसे वातावरण मे एक बच्चे की स्वस्थ परवरिश करना अत्यंत कठिन कार्य है।
लेकिन बच्चे के व्यक्तित्व विकास के बीज उनके बचपन के आरंभ मे ही पङ जाते है, अतः यदि माता-पिता व अध्यापक बच्चों को समानता व प्रेम की शिक्षा दें तो बच्चे का मन साफ व पवित्र रह सकता है।परंतु यह गुण किताबों मे पढ़ाने से या रटाने से नही आते हैं, इसको व्यवहार मे लाना आवश्यक है। यदि माता-पिता या अध्यापक बच्चे को किताबों से गाँधी जी का पाठ पढ़ाते हैं कि छुआ-छूत नहीं करनी चाहिए,सभी मनुष्यों को समान समझना चाहिए। लेकिन स्वयं इसका व्यवहार में पालन नहीं करते हैं, तब बच्चा उस पाठ को कैसे ग्रहण कर पाएगा, वह भी परीक्षा के लिए उस पाठ को रट लेगा। माता-पिता व अध्यापकों को अपने बच्चों को एक अच्छा व्यक्ति बनाने के लिए अपनी सोच पर कार्य करना चाहिए।
ऐसा लगता है कि जिन्हें हम महान विचारक या दार्शनिक मानते है, उनके विचारों को सिर्फ पढ़ कर या सुनकर छोङ देते है, उन पर न तो मनन करते है,न अपने व्यवहार में बदलाव लाते हैं। अतः यही परंपरा आगे की पीढ़ियाँ निभाती जाती है।
रही-सही कसर हमारे देश के नेता, देश में साम्प्रदायिकता की जङों को पूरी ताकत से धरातल में ज़मा कर पूरा कर रहें है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि ये नेता हमारे बीच से ही आते हैं, उन्हें नेता भी हम बनाते हैं। ‘आज के बच्चे कल के नेता है’। उन्हें अच्छे नेता या नागरिक बनाने के लिए पहले हम बङो को अपनी सोच में सुधार लाना होगा।
हमारे देश में शिक्षा एक मखौल बन कर रह गई है। न केवल सरकारी विद्यालयों में अपितु निम्न स्तर प्राईवेट विद्यालयों से लेकर उच्चतम स्तर प्राईवेट विद्यालयों में शिक्षा सिर्फ एक मजाक है। सरकारी विद्यालयों में अध्यापक प्रशिक्षित होते हुए भी बच्चों पर पूर्ण ध्यान नहीं देते हैं, उसके लिए उनके अपने कारण है। एक-एक कक्षा में 50-50 विदूयार्थी होते हैं। इसलिए प्रत्येक बच्चे पर ध्यान देना असंभव होता है।यूँ भी उन्हें सिर्फ किताबी शिक्षा कैसे दी जाए इसी का प्रशिक्षण दिया जाता है। बच्चों के मानसिक विकास को समझने में वह अपर्याप्त कुशल होते हैं। इनका बच्चो की संवेदनाओं से जुङने का तो प्रश्न ही नही उठता है। इन विद्यालयों में बच्चे बेसिक शिक्षा भी ठीक से ग्रहण नही कर पाते है। इस ओर न तो विद्यालय प्रबंधन का, न अध्यापकों का ध्यान होता है। तब यह कैसे समझा जा सकता है कि किसी बच्चे की ग्रहण शक्ति कितनी तीव्र या धीमी है अथवा उसका क्या कारण हो सकता है।
निम्न स्तर के प्राइवेट विद्यालयों की कक्षाओं में विद्यार्थी कम होते है, परंतु शिक्षक प्रशिक्षित नही होते है। प्रबंधकों का उद्देश्य मात्र धन कमाना होता है। अतः बच्चों के मानसिक विकास का अर्थ सिर्फ बच्चों के नंबरों से होता है। कोई बच्चा सीख पाता है या नही व उसका रूझान किस ओर है इस पर ध्यान नहीं दिया जाता है। ऐसे विद्यालयों की संख्या बहुत अधिक है। गाँवों मे भी ऐसे विद्यालय मिल जाते है जो बच्चों को शिक्षा देने के नाम पर केवल पैसा कमाते है। इन विद्यालयों के शिक्षकों और प्रबंधकों का तो संवेदना शब्द से परिचय भी नहीं होता है। सबसे अधिक परेशानी की बात यह है कि ये सभी विद्यालय अंग्रेजी माध्यम के होते हैं। गरीब व अनपढ़ भी अपने बच्चों को अंग्रेजी मे पारंगत करने के उद्देश्य से बच्चों का इन विद्यालयों मे दाखिला कराते हैं।
उच्च स्तर के प्राइवेट विद्यालयों मे सबसे अधिक ध्यान विद्यालयों की आलीशान इमारतों के बनाने पर होता है। इन विद्यालयों को किसी फाइव स्टार होटल से कम न समझा जाए। यहाँ हर कक्षा में एयरकंडीशन लगे होते है, सीटें आरामदायक होती है। माता-पिता के जीवन का उद्देश्य मात्र है कि अपने बच्चों को इन विद्यालयों में पढ़ाना है।उनके अनुसार बच्चों की परवरिश का यह उत्तम तरीका है। इसके लिए वे जी तोङ मेहनत करते हैं।बच्चों की संवेदनाओं और मनोविज्ञान को समझने के लिए उनके पास समय नहीं है। यूँ भी इन विद्यालयों मे एक बङी फीस अदा करने के बाद वे पूर्ण दायित्व इन विद्यालयों पर डाल देते हैं।
इन विद्यालयों में भी प्रत्येक कक्षा में 40-50 विद्यार्थी होते हैं। प्रबधकों का उद्देश्य सिर्फ अच्छा व्यापार करना होता है।इन विद्यालयों में एक मनोवैज्ञानिक भी होता है जो बच्चों की उलझनों का समाधान करता है। यह एक अच्छी बात है, पर इससे माता-पिता और अध्यापकों को बच्चों की संवेदनाओं और मानसिक समस्याओं से मुक्ति मिल जाती है। इन विद्यालयों में पढ़ने वाले छात्रों के माता-पिता को अपने बच्चों का पढ़ाई में पिछङने का बहुत भय होता है। वे सोचते है कि इन विद्यालयों में पढ़कर उनके बच्चे अवश्य कोई महान वैज्ञानिक, डाॅक्टर या इंजीनियर इत्यादि तो बन ही जाएँगे। इस तरह वे अपने बच्चों को सभी आरामदायक सुविधाएँ देने के साथ असफलता का भय भी देते हैं। उनको बच्चों के वर्तमान से अधिक उनके भविष्य की चिन्ता होती है कि उनका बच्चा उनकी सोसाइटी में क्या बन कर दिखाएगा।
ये बच्चे आरामदायक सुविधाएँ पाकर बहुत ही नाजुक बनते हैं। वे दूनिया की कठोरताओं से परिचित नही हो पाते है। ऐसा माना जाता है कि हमारे देश में विद्यालयों की कमी है। पर ऐसा नही है अगर आप किसी शहर में रहते है,चाहे वह छोटा हो या बङा, आपको अपने शहर में स्कूलों की कमी नहीं मिलेगी। सरकारी विद्यालयों के साथ कई छोटे, बङे व आलीशान प्राइवेट स्कूल मिल जाएँगे। यदि गाँव में रहते हैं, तब भी गाँव आधुनिक है, अधिक पिछङा नहीं है तो सरकारी विद्यालयों के साथ प्राइवेट विद्यालय भी मिल सकते है। परंतु पिछङे व दूर-दराज़ के गाँवों की स्थिति बङी दयनीय मिल सकती हैं क्योंकि न तो यहाँ सरकारी विद्यालय मिलेंगे, यदि मिले भी तो उनकी स्थिति शोचनीय होगी और न ही प्राईवेट विद्यालय मिलेंगे चूंकि इन पिछङे गाँवों मे पैसा नही है अतः यहाँ कोई व्यापार के लिए अपना निजी स्कूल भी खोलना पसंद नही करते है।
मेरा अनुभव- प्रत्येक बच्चा इस दूनिया में अपना व्यक्तिगत व्यक्तित्व लेकर आया है।उसकी रूचि, उसका दिमाग अपने आप में अलग होता है।अतः एक बच्चे की दूसरे बच्चे से तुलना करना उचित नही होता है।
हमें आरम्भ से ही अपने बच्चे को समझना होगा, उसके दिमाग को, उसकी रूचि को परखना होगा। उसे दूनिया की प्रतियोगिता के वातावरण से दूर रखना होगा तभी हम उसका पूर्ण विकास कर सकेंगे।
मैं जब प्री-नर्सरी के बच्चों के लिए काम कर रही थी, तब मेरा यही अनुभव रहा कि हर बच्चे की अपनी रूचि है व समझने की शक्ति एक समान होते हुए भी उसके क्षेत्र अलग-अलग होते हैं।अथार्त यदि एक बच्चा चित्र में रंग भरना जल्दी समझ पाता है तो वही बच्चा अक्षरों को पहचानने में देर लगाता है।दूसरा बच्चा जिसको अक्षरों को पहचानने में देर नहीं लगती वह रंगों को जल्दी समझ नहीं पाता है।जो रगों की अच्छी समझ रखता है,वह चित्रों में रंग अच्छी तरह भरना नहीं सीख पाता है। कुछ बच्चे रंग अच्छा भर पाते हैं, पर उनको चित्रांकन करने में कठिनाई होती है,वहीं दूसरा बच्चा जो रंग नहीं भर पाता, वह चित्र अच्छे बना पाता है।
कुछ बच्चे कक्षा में गाई हुई कविताओं को तुरंत कंठस्थ कर लेते है और कुछ को बार-बार सिखाने पर भी कविता याद करना कठिन होता है। पर खिलौनों के प्रति उनकी समझ गहरी होती है, ब्लाॅकस को हटाने व वैसा ही लगाने में वह निपुण होते है। कक्षा में छोटी-छोटी नाटिकाएँ खेलने में सभी बच्चे रूचि लेते है परंतु किसी-किसी का प्रस्तुतीकरण देखकर दंग रह जाना पङता है। ऐसे बच्चे जरूरी नहीं किताबों में रूचि रखते हो।
सभी बच्चों को बाहर मैदान में खेलना पसंद होता है। बाहर का प्राकृतिक वातावरण सभी के मन को भाता है और प्रकृति से जुङ कर वे जल्दी सीख पाते हैं।पर उसमें भी कुछ बच्चे उस वातावरण में दौङना-भागना व खेलना पसंद करते हैं। पर कुछ बच्चे चुपचाप उस वातावरण को महसूस करते हैं, उन्हें दौङना-भागना व खेलना पसंद नही है।फिर भी हम उन्हें शारीरिक क्षमताओं के खेल खिलाते जिससे उनकी शारीरिक क्षमताओं का विकास हो। कुछ दौङकर गेंद पकङना जल्दी समझ पाते व पकङ पाते और किसी-किसी के लिए यह कठिन होता है पर जिनके लिए यह कठिन होता वह दौङने में बहुत आगे भी होते है।
लेकिन हमें ऐसे बच्चे भी मिलते, जिनके लिए लगता कि वह किसी क्षेत्र में रूचि नहीं ले रहे हैं। पर वे बच्चे भौंदू नहीं होते हैं, उनके साथ अतिरिक्त कोशिश करनी होती है, शायद वे जिस वातावरण से आते हैं या जिनके पास से आते है या तो उनसे बहुत जुङे होते है अथवा क्षुब्ध होते हैं। हमें अपने प्रेम और अपनत्व से उन्हें विश्वास देना होता है,उनके माता-पिता से बात करनी होती है। माता-पिता भी पारिवारिक वातावरण के विषय में खुल कर बात नहीं करेंगे अतः कोशिश अध्यापिका को करनी होती है और निरंतर प्रयास करने होते हैं।उन बच्चों की आलोचना अपने मन में भी नहीं लानी होती है। आपके मन की बात ये संवेदनशील बच्चे तुरंत समझ जाते है,वे जान जाते है कि आप उन्हें पसंद नहीं कर रहे हैं या उनके लिए अधिक परेशान व चिंतित हैं। आपकी कोशिश ऐसी होनी चाहिए कि उन्हें न लगे कि आप कोशिश कर रहें है या उन्हें सामान्य नहीं मान रहे है।
हमें हमेशा याद रखना चाहिए कि हर बच्चा सामान्य है, वह अपनी स्वाभाविक प्रवृत्तियों का स्वामी है, अतः वह एक स्वाभाविक बच्चा है।जब तक हम अपने मन व दिमाग मे यह नहीं समझेंगे व इसे स्वीकार नहीं करेंगे तब तक हमारे व्यवहार में स्वाभाविकता नहीं आ सकती है और संवेदनशील बच्चे तुरंत आपके व्यवहार को समझ जाते हैं।
प्रत्येक बच्चा अव्वल नहीं आ सकता है, हर बच्चा हर क्षेत्र में अवव्ल नहीं आ सकता है, यह भी समझना होगा कि अधिकांश बच्चे अव्वल नहीं आते हैं, अव्वल आने वाले एक दो बच्चे ही होते है। जो बच्चे अव्वल नहीं आते हैं, वे सामान्य बच्चे है और जो अव्वल आते हैं, वे भी सामान्य बच्चे हैं। अतः सबके साथ एक समान व्यवहार करना और सीखना हम बङों का दायित्व है।
विद्यालय के वातावरण मे बच्चे फिर भी सहज होते हैं, क्योकि वहाँ उन्हें अपने समान दूसरे बच्चे मिलते हैं जो अध्यापकों की भेद-भाव पूर्ण प्रवृति के शिकार होते हैं।परंतु कठिनाई घर में होती है, माता-पिता की अपने बच्चों के प्रति अपेक्षाएँ इस हद तक होती है कि वे अपने बच्चों की ही आपस में तुलना करते हैं, वे उनकी बौद्धिक व शारीरिक क्षमताओं की तुलना करने में नहीं चूकते हैं।जिस कारण अपने भाई-बहनों में ही बच्चों को प्रतियोगिता का वातावरण मिलता है और उनका सहज जीवन असहज बन जाता है।
तब अधिक कठिनाई होती है जब एक बच्चा बर्हिमुखी और दूसरा अंतर्मुखी होता है। कभी अंतर्मुखी को बर्हिमुखी के कारण आलोचना का शिकार होना पङता है और कभी बर्हिमुखी की प्रतिभा गलत दिशा में मुङ जाती है। इस कारण बच्चों का आपसी रिश्ता भी स्वाभाविक नहीं रह पाता है।
इसके बाद माता-पिता अपने बच्चों की तुलना पङोसियों या दोस्तो अथवा रिश्तेदारों के बच्चो से करते हैं। जैसे यदि अगर किसी दूसरे का बच्चा किसी भी क्षेत्र में इनाम पाता है अथवा माता-पिता को लगता है कि यह अन्य बच्चा उनके बच्चे से अधिक प्रतिभाशाली है, तो वह अपने बच्चे की कम प्रतिभा से अत्यंत दुःखी होते हैं व अपने बच्चे पर बिना कारण का दबाव डालते है।
दूसरे वे माता-पिता होते हैं जिन्हें अपने बच्चों के विषय में चर्चा करना बहुत पसंद होता है या तो वे अपने बच्चों की प्रतिभा की झूठी डींगे मारते हैं और अपने अहं को संतुष्ट करते है कि हमारा बच्चा किसी से कम नही है। अथवा ऐसे माता-पिता भी होते है जो अपने बच्चों की दूसरे के सामने प्रशंसा करने के स्थान पर उसकी आलोचना ही करते हैं, साथ ही यह भावना कि काश हमारे बच्चों मे ये कमियाँ न होती तो अच्छा होता।
हर स्थिति में हम अपने बच्चो को हानि पहुँचाते है।जब बच्चों को महसूस होता हैं कि हमारे बङे सिर्फ हमारी ही बात करते हैं वो भी हमारी आलोचना अथवा प्रशंसा, तब हम बच्चों के मन मस्तिष्क पर दबाव डालते हैं, उनकी सहजता व स्वाभाविकता को हम रौंद देते हैं।
जब बच्चे इस दूनिया में आते हैं, तब उन्हें नहीं पता होता कि माता-पिता या उनके बङे अथवा यह समाज कैसा है? उन्हें जैसे भी माता-पिता मिलते हैं, उन्हें वे स्वीकार करते हैं,उनसे प्रेम करते हैं। अपने माता-पिता के मन के भावों को, उनकी इच्छाओं को समझते है तथा उनके लिए अपने माता-पिता की संवेदनाओं का बहुत महत्व है।अपने माता-पिता की अभिलाषाओं को पूरा करना ही उनका एक मात्र लक्ष्थ होता है।अतः बच्चों पर थोपी गई माता पिता की अभिलाषाएँ उनके विकास को अवरूद्ध कर देती है।
इसका अर्थ यह नही है कि हम अपने बच्चों को इस समाज के लिए तैयार नहीं करें, उस समाज के लिए जहाँ उसे पग-पग पर प्रतियोगिता का सामना करना होगा। नौकरी, व्यापार अथवा अन्य कोई भी क्षेत्र जिसमें वह आगे बढ़ना चाहता है, उसे प्रतियोगिता मिलेगी। खेल के मैदान मे भी अच्छा खेलना होगा व हार-जीत का सामना करना होगा।हमें अपने बच्चों को आगे बढ़ना सिखाना है।पर आगे बढ़ने की गति उन्हें अपनी क्षमतानुसार चुनने दीजिए।बच्चों को रास्ते के पत्थरों और कंटीले रास्तों से परिचित कराना चाहिए पर डरा कर नही, अपितु इस स्वाभाविकता के साथ कि ये पत्थर भी आवश्यक है। A.C. कमरों में शिक्षा दिलाकर, उन्हें जीवन की हर सुविधा देकर, उनके मन व शरीर को कोमल व नाजुक बनाकर उन्हें जीवन की सच्चाई नहीं समझाई जा सकती है।
उन्हें जो भी वातावरण मिला है,उसमें उन्हें जीना सिखाना होगा, गर्मी, सरदी, बरसात, बसंत हर मौसम को जानने के लिए उन्हें इन मौसमों को महसूस करना होगा।तभी वे इस प्रकृति की इस वातावरण की उपयोगिता को समझेंगे।
हमें अपने बच्चों को आत्मविश्वासी और निर्भीक बनाना चाहिए, इसके लिए हमें उनके मन को समझना होगा, उन्हें कभी भी अपने मन व कर्म से हीन नहीं समझना होगा। तभी ये बच्चे वास्तविक रूप से आत्मनिर्भर बनेंगे।