गुलज़ार साहब को कौन नही जानता है,उनके गीत, शायरी और उनकी कहानियों का हर कोई मुरीद है। 

आजकल तो यह भी हो रहा है कि लोग उनके अंदाज पर अपना कुछ भी लिखते है,शर्मवश या वाह-वाह पाने के लिए लेखक मे अपना नाम डालने के स्थान पर गुलजार या किसी भी बङे कवि का नाम डालते है।यह बात मुझे तो पसंद नही है, आपको भी नही होगी,इस तरह तो आगे की पीढ़ी मौलिक रचनाओं को कैसे समझ पाएगी या पढ पाएगी।लिखने का शौक है, तो अवश्य लिखे,अपने विचारों और भावों को अवश्य प्रकट करना चाहिए परंतु यूँ साहित्य से खिलवाङ न करें। यह मुझ जैसे समस्त साहित्यिक प्रेमियों की ओर से एक महत्वपूर्ण गुजारिश है।

गुलज़ार की कुछ कहानियों को पढ़ने का अवसर मिला है। उनकी कहानियाँ और उनके किरदार बहुत सच्चे होते है। मुझे तो मौका चाहिए अपने मन को खोलने का तो सोचा क्यों न उनकी कहानियों के बहाने कुछ अपने मन का भी कहा जाए।

मैने उनकी जिन कहानियों का चुनाव किया है,उनमें से सर्वप्रथम जिसके बहाने मै कुछ कहना चाहुँगी वह कहानी है ‘खौफ’।

                                                                     खौफ

खौफ’  कहानी में यासीन इतना खौफज़दा है कि एक अन्य व्यक्ति को जान से मारने की हिम्मत कर बैठता है। यह कहानी यूँ तो हिन्दू- मुसलमानों के दंगों पर आधारित है। पर यह भी बताती है कि कैसे एक इंसान का दूसरे इंसान पर विश्वास नहीं रहा है, जबकि एक हिन्दू ने यासीन की मदद भी की थी। तब भी वह इतना डरा था कि उसके सोचनें की शक्ति खत्म हो गई थी,और उस अंजान व्यक्ति से भयभीत हो, यह डर कि कोई भी हिन्दू उसकी जान ले सकता है,उसने उस अंजान व्यक्ति की हत्या कर दी और बाद में पता चला कि जिसे मारा था वह उसका जाति भाई मुसलमान ही था।

               पहले अंग्रेजों ने अपने लाभ के लिए हिन्दू-मुसलमान में फूट डालों नीति अपनाकर एक पाकिस्तान की नींव डाली थी। अपने ही देश के नागरिक, सभी भारतीय, पर उन्होंने ऐसा खेल खेला कि व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति से, भाई का भाई पर से विश्वास उठ गया था।नतीजन उस बंटवारे में हुए खुन-खराबे ने उस अविश्वास की नींव को मजबूत कर दिया था।

स्वतंत्रता के बाद अपने ही राजनीतिज्ञों ने इसी नीति को अपनाते हुए अपनी राजनीति की रोटी सेंकी है।आज 70 साल बाद इस नीति ने विकराल रूप ले लिया है।क्योंकि अब बात सिर्फ हिन्दू-मुसलमान की नहीं रह गई है अपितु यह खेल हर जाति-उपजाति के बीच खेला जा रहा है। जिसने एक साधारण ईमानदार व्यक्ति को इतना खौफज़दा कर दिया है कि वह अपने पङोसी, अपने सहयात्री को शक की निगाह से देखता है। जब दंगे होते है तो यह डरे और सहमे, दहशत से भरे लोग अपनों की ही जान लेने लगते है।एक आम आदमी की पवित्र आत्मा को कलुषित कर दिया  गया है।

हम क्या कर रहे है? एक दूसरे की जाति धर्म पर कीचङ उछालते रहते है और अपने डर व दहशत को निकालते हुए और सहमते जाते है। गुजारिश है कि डरना बंद कीजिए, हिम्मत और हौसला रखिए अपने-अपने ईश्वर और खुदा पर विश्वास रखते हुए अपने जीवन के सहयात्रियों, मित्रों और पङोसियों पर विश्वास करना शुरू कीजिए।विश्वास करेंगे तो सदियों से बसे खौफ से मुक्ति पा सकेंगे।क्यों जीए हम यह दहशत भरी जिन्दगी?

200वर्ष अंग्रजों की फूट डालो नीति को विफल नहीं कर सकें और 70वर्ष से अपने ही देश के राजनेताओं  की इस हर जाति, हर भाषा व हर प्रांत में मतभेद पैदा करने और उसे ज़हर की तरह हमारे दिमाग में फैलाने की नीति को हम न समझ रहे हैं या समझ कर भी मूर्ख बन रहें है।यह सब बंद करना होगा, डर और दहशत से बाहर निकल कर विश्वास के पथ पर चलते हुए इन राजनीतिज्ञों की नीति को विफल करना होगा।

              

                                                 किसकी कहानी

‘किसकी कहानी’ एक व्यंगात्मक कहानी है, इसमे व्यंग है लेखकों पर जो सोचते है कि उनकी लेखनी से बदलाव आएगा, साहित्यकारों से जानना है कि जिस सच को लिखकर उन्होंने साहित्य का विकास किया है  उससे क्या समाज का विकास हुआ है?

किसकी कहानी लिखी जाती है एक कहानी में?वह एक किरदार या अधिक किरदारों की कहानी हो सकती है। हम जब कहानियाँ पढ़ते हैं तब कई बार कोई कहानी बिलकुल अपनी लगती है, जैसे लेखक ने हमारा जीवन ही अक्षरक्षः कागज पर उतार दिया हो।कभी किसी कहानी का किरदार अपने जैसा नही पर कहीं बहुत करीब से देखा हुआ लगता है। लेखक सच लिखते हैं, समाज का सच्चा आईना सामने रखते हैं। कहानी किसी भी भाषा, देश या प्रांत की हो सकती है पर वह सच बताती है तभी तो पाठक उससे जुङाव महसूस करते हैं। एक देश या प्रांत की जीवन शैली व जीवन के विभिन्न रंगों से हमारा परिचय होता है।

लेखक अपने शब्दों के खूबसूरत जालों में पाठकों को बहा ले जाता है। पाठक पढ़ते हुए कभी हँसते है,कभी मुस्कराते हैं और कभी उनका मन द्रवित हो जाता है। हर लेखक अपने लेखन की अपनी निजी शैली अपनाते हुए पाठकों को आकृषित करता है।

‘किसकी कहानी’ के अंत में वह मोची कहता है कि कहीं कुछ नही बदला है। समाज के जीवंत किरदारों को अपनी कहानी का किरदार बनाने से कहानी का विकास हो सकता है,पर समाज नहीं बदलता है।

कई बार हमने दंगों पर कहानियाँ पढ़ी है, उनसे प्रभावित लोगों पर कहानियाँ पढ़ी है व उन पर आधारित बनी फिल्मों या नाटकों में उन किरदारों के कष्टों और दुःखों को महसूस किया है। हमारा जीवन द॔गों से प्रभावित है 1984 के हिन्दू-सिक्खों के दंगे,गुजरात के दंगे, मुम्बई के दंगे इत्यादि छोटे-बङे दंगे।ऐसा एक दंगा हुआ 25अगस्त2017 को ‘राम रहिम’ के नाम पर, एक अपराधी के नाम पर, उन्मादी भीङ ने गाङियाँ जला दी,कितने मासूम निर्दोष मारे गए है(‘कितनों’ का प्रयोग इसलिए किया गया है कि सरकारी आंकङों पर विश्वास नहीं किया जा सकता है)

अब लेखकों का मन द्रवित होगा और वे कहानी,कविता और लेख लिखेंगे, फिल्मकार फिल्में बनाएंगे पर फिर भी समाज ऐसे ही चलता रहेगा, दंगे होते रहेंगे, किरदार तो बदलेंगे पर उनका जीवन नहीं बदलेगा।

‘किसकी कहानी’ में एक लेखक, एक पाठक और एक किरदार भी है। यह किरदार का सवाल  लेखक से है कि कहाँ तरक्की हुई है? जब किरदारों का जीवन आज भी वही है जो उसकी कहानी लिखने से पहले था, यहाँ तक कि लेखक के जीवन में भी क्या बदलाव आया है?

किरदार एक मौची है, मौची जिसे आप और हम सालों-साल से एक पेङ के नीचे जूता पेटी लिए हुए बैठा देख रहे हैं। जब हम छोटे थे, तब भी मोची था, बङे हुए और बूढ़े भी हुए पर मौची उसी तरह पेङ के नीचे बैठा आपके जीवन में अहम् भूमिका निभाता रहा है, मौची की शक्ल बदल गई होगी पर ‘मौची’ तो वही रहेगा। यह तो मात्र एक उदाहरण है, आप अपने अंदर झांकिए, आसपास को ध्यान से देंखे और समझे, क्या कुछ बदला है? क्या वाकई बदलाव आया है?

                                         

                                                   मर्द

‘मर्द’ कौन होता है? एक मर्द तब मर्द होता है, जब उसका किसी औरत से रिश्ता होता है, वह औरत उसकी बेटी,बहन, पत्नी या प्रेमिका हो सकती है और कभी माँ भी हो सकती है। मर्द तब मर्द होता है जब वह अपनी इन रिश्तों से बँधी स्त्रियों पर अपना मालिकाना हक समझता है।वह समझता है कि इन स्त्रियों के जीवन की डोर,उनके आत्मसम्मान की डोर उसके हाथ में है, वह अपनी इच्छा से उस डोर को ढीला या कस सकता है, यह उसका अधिकार ही नहीं उसकी जिम्मेदारी भी है।ज्यादा स्पष्ट करने की आवश्यकता नहीं है, आप जानते है कि पिता के सवाल, उसकी बंदिशे फिर भी एक पुत्री मान-मर्यादा के लिए स्वीकार करती है।बङा भाई है, तो खीझ कर ही सही, परिवार के दायरे को समझ कर उसकी बेमतलब की रोक टोक सह जाती है। पर अगर वह छोटा भाई है तो वह अपमानित होती है लेकिन दूनिया द्वारा समाज की व्यभिचारिता, कलुषता का भय दिखाने पर सब झेल जाती है।शादी के बाद पति, वह तो स्वामी ही माना जाता है, उसे अधिकार है अपनी पत्नी से उसकी स्वतंत्रता छीनने का, पति की आज्ञा के बिना कोई कार्य नहीं कर सकती है। पति कुछ भी जायज या नाजायज करें उस पर उंगली नहीं उठा सकती है और पत्नी का जायज भी पति को जवाबदेही होता है।

फिर आता है पुत्र-दुःख होता है जब वह अपनी इच्छा व खुशी के लिए भी अपने पुत्र का मुँह देखती है।

         इस कहानी की नायिका रमा अपने पति बख्शी के दूसरी स्त्री के साथ संबधों से बेजार हो जाती है,नतीज़ा तलाक तक पहुँचता है, उनका पुत्र कपिल है, रमा को कपिल की चिन्ता है, वह सोचती है कि वह कपिल को दिलासा देगी कि वह उसकी माँ उसके पास है। पर होता विपरीत है बेटा माँ को दिलासा देता है कि वह उसका बेटा है उसके पास।कपिल अपने बचपन में ही मर्द बन जाता है, इसलिए जब रमा का एक अन्य पुरूष के साथ सबंध बनते है तब कपिल अपनी माँ से एक मर्द की तरह व्यवहार करता है।

कहानी यही कहना चाहती है कि स्त्री को अपने अस्तित्व के लिए, स्वतंत्रता के लिए हमेशा किसी न किसी मर्द के प्रति जवाबदेही होना पङता है।
                                                               धुआँ

धुआँ गुलज़ार की वह कहानी है जिसने मुझे फिर मुझे जाति व धर्म के प्रश्न पर उलझा दिया है।

यह कहानी भी यही सवाल उठाती है कि व्यक्ति बङा या धर्म। धर्म भी क्या है? मेरे विचार से धर्म वही है जो हमें प्रेमपूर्ण मानवता का व्यवहार करना सिखाता है। वह ही व्यक्ति धार्मिक व्यक्ति हो सकता है जो सबसे प्रेमपूर्ण व्यवहार करता है, नफरत नहीं फैलाता है, हर प्राणी को समान समझता है।

इसलिए सवाल यह नही है कि व्यक्ति बङा या धर्म? सवाल यह है कि व्यक्ति बङा या जाति। जाति के नाम पर हम अपने ही लोगों को मारते हैं।

कहानी में चौधरी मुसलमान थे, उन्होने अपने धर्म को पूरे दिल से निभाया था। दीन दुखियों की सेवा करना ही उनका धर्म था। जिसकी सहायता करते थे उसकी जाति नही दखते थे। दुःखी, निर्धन व्यक्ति हिन्दू , मुसलमान किसी भी जाति का हो सकता था।

उन्ही चौधरी ने ख्वाहिश कर दी कि उन्हें मरने के बाद कोई नाम नहीं चाहिए इसलिए मरने के बाद वह अपने मुर्दा शरीर को दफनाना नही चाहते बल्कि जलाना चाहते थे और उसकी राख गाँव की नदी में बहाना चाहते थे।चौधरी जैसे सीधे सच्चे इंसान थे वैसी उनकी सीधी सच्ची इच्छा थी। उनकी सोच जातिवाद से ऊपर थी।

चौधरी तो अपनी इच्छा वसीयत में लिख गए और उनकी पत्नी चौधराइन ने उनकी इच्छा पुरी करने की ठान ली थी, जिसका पुरजोर विरोध जाति के ठेकेदारो ने किया, यही नही इस भय से कि चौधराइन उनकी जाति के नियमों और परंपराओं के विरूद्ध न चली जाए, उन्होने चौधराइन को उसकी हवेली में आग लगाकर जिन्दा जला दिया व चौधरी की लाश को कब्र मे ही दफना दिया था।

जातिवादी धर्म को निभाने के लिए मानवतावादी धर्म की बलि चढ़ा दी गई और हमेशा चढ़ाई जाती रहेगी जब तक हम धर्म को सही अर्थों में नहीं समझेंगे।