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मासिक अभिलेखागार: अक्टूबर 2017

​ किसकी चोट

27 शुक्रवार अक्टूबर 2017

Posted by शिखा in Uncategorized

≈ 22s टिप्पणियाँ

किसका दर्द गहरा? तुम्हारा या मेरा?
किसकी तकलीफ अधिक गहन?

तुम्हारी या मेरी?

किसने किसको अधिक चोट पहुँचाई?

तुमने या मैंने?

जो भी कहो- 

दर्द में तो हम दोनो ही है।

लेकिन तुम तो सांमतवादी रहे,

चोट पहुँचाना तो सिर्फ तुम्हारा अधिकार रहा ।

मैंने तो बस अपना बचाव किया, और!

तुम इसी में चोटिल हो गए,

 ऐसे क्या देखते हो?

ओह! तुम तो अपने को प्रगतिवादी कहते रहे।

पर मेरे सामने तो तुम सामंतवादी ही रहे न!

जब भी जिस रूप में आए-

पिता, बङा भाई, छोटा भाई, पति और पुत्र भी।

तुम्हारे अधिकार,सिर्फ अधिकार

मेरे अधिकार भी मेरे कर्तव्य,

तुम्हारे प्रति मेरे कर्तव्य,

चाहे जिस रुप में तुम मिलो।

कर्तव्य में हो जाए कमी तो?

तो तुम मुझे प्रताङित करते रहे-

(सामाजिक, आधिकारिक व वैयक्तिक प्रताङना भी।)

चाहे जिस रुप में मैं तुम्हें मिली-

पुत्री, बङी बहन, छोटी बहन, पत्नी और माँ भी।

तो फिर किसका दर्द गहरा?

मैं? जो सदियों से प्रताङित होती रही।

या तुम?

मैंने तो सिर्फ अपना बचाव ही किया था।

और तुम चोटिल हो गए।

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​           यादें

27 शुक्रवार अक्टूबर 2017

Posted by शिखा in Uncategorized

≈ 15s टिप्पणियाँ

आज फिर यादों ने जगाया मुझे,
मुझ से मेरे बचे बकायों का हिसाब मांगा,

कैसे दूँ हिसाब? अभी तो चुकाने का सोचा भी नहीं,

कहाँ से करूँ हिसाब? बकायों की लिस्ट लंबी जो रही।

समय गुजरता जाता है, मैं डर से आँखें मीचे पङी हुँ,

ये यादें भी ना जाने कौन-कौन से बकायें ढूंढ  के सामने ला रही है,

वो जिन्हें मैंने अपना बचपना समझा था,

वो जो लगा था, यह तो अधिकार था मेरा

पता नहीं किस-किस से रुठी मैं,

पता नही कब-कब, किस- किस को नाराज़ किया मैने,

मैने सवाल किया, वो बचपना था मेरा, बकाया कैसे बन गया?

यादें हँस कर बोली, भूल गई? तब भी तो दिल दूखा था किसी का।

जब भी तुम से किसी दिल को चोट पहुँची, वो चोट तुम्हारी बकाया बन गई।

मैं सिर पकङे बैठी थी, फिर पूछा, और मेरा दिल? वो भी तो टूटा कई बार,

 ये तो सब करते न! फिर मेरे बकाए इतने क्यों?

यादें फिर जोर से हँसी, बोली, यादें हम तुम्हारी है किसी और की नही।

तुमने ही हमें अपने दिल में बसाया 

आज फिर यादों ने जगाया मुझे।

एक सच्चाई- एक सोच (भाग-2)

15 रविवार अक्टूबर 2017

Posted by शिखा in Uncategorized

≈ 11s टिप्पणियाँ

कुछ दिन पहले खबर आई कि सुमन अब इस दूनिया में नहीं रही है। सुमन? वही सुमन जिसकी 12 वर्ष की आयु में शादी हो गई थी और उसने 14 वर्ष की आयु में पहली संतान को जन्म दिया था। अब उसकी आयु 34 वर्ष की थी, पांच बच्चे है, बङी दो लङकियों का विवाह उनकी 16-17वर्ष की आयु में कर दिया था, उसके बाद वह दो बेटे और एक बेटी को बेसहारा छोङ गई है। 

मृत्यु का कारण? वह गर्भवती थी, तीन महीने के गर्भ को गिराना चाहती थी, अतः बिना डाक्टर की सलाह के उसने कोई भी दवाई खाली, बच्चा तो पेट में ही मर गया जिसके ज़हर से सुमन भी नहीं बच सकी थी। पिछले 20 वर्ष से वह यही कर रही थी या तो बच्चों को जन्म देती या गर्भपात कराती थी। पता नही सुमन किसी डाक्टर के पास क्यों नही गई, कोई गर्भनिरोधक उपाय क्यों नही करें? आजकल तो मुफ्त ही सरकारी चिकित्सा व्यवस्था मिलती है। सुमन गाँव की लङकी थी, पर शहर में रहती थी, अच्छे पढ़े-लिखे लोगों के घर काम करती थी। ऐसा तो हो नहीं सकता कि उसे गर्भ निरोधक उपायों के विषय में पता नहीं हो,अवश्य पता होगा, लेकिन फिर भी ऐसा क्यों हुआ होगा? इस मृत्यु को क्या कहें? दूर्घटनावश मृत्यु, मुर्खतापूर्ण कदम, आत्महत्या या हत्या।

इन सब का फैसला करने से पहले हम सरकारी आंकङों पर एक नज़र डालते है? मातृ मृत्यु दर व शिशु मृत्यु दर कितनी है और बाल विवाह के आंकङो को भी समझ लेते है।

WHO की रिपोर्ट के अनुसार हमारे देश मे प्रतिवर्ष 1.36 लाख महिलाओं की मृत्यु होती है। हर साल 4लाख शिशुओं की मृत्यू 24 घंटे के अंदर हो जाती है। शिशु मृत्यु दर में भारत का विश्व में स्थान पांचवाँ है भारत इस स्तर में अफ्रीकी देशों से भी पीछे है।भारत में सबसे ज्यादा मातृ मृत्यु दर वाले प्रदेशों में सबसे अग्रणी असम, उत्तरप्रदेश व उत्तराखंड है। भारत विश्व के उन 10देशों मेः आता है जहाँ मातृ मृत्यु दर बहुत अधिक है।

मातृ मृत्यु दर और शिशु मृत्यु का मुख्य कारण है कि लङकी का छोटी आयु में विवाह व छोटी ही आयु में गर्भधारण करना। उसके पश्चात जल्दी-जल्दी गर्भवती होना, जिससे लङकी का कच्चा शरीर और कमज़ोर होता जाता है। इसके कारण गर्भपात भी होते हैं। अधिकांशतः ग्रामीण व आदिवासी क्षेत्रों में पूर्णतः व सुचारू रूप में चिकित्सा सुविधा न होना भी माँ व शिशु की मृत्यु के कारण होते है। माना यह जाता है कि देश में पहले से मातृ मृत्यु दर और शिशु मृत्यु दर में कमी आई है। परंतु हम जानते हैं  कि अभी भी स्थिति बहुत दयनीय ही है। हम अभी भी अपने ग्रामीण वासियों और आदिवासियों की सोंच में बदलाव लाने में असफल रहे हैं। अभी भी वहाँ घर पर दाई द्वारा प्रसव कराने को महत्व दिया जाता है तथा वे सरकारी सुविधाओं का भी लाभ नहीं उठाते हैं। हमारे प्रचार तंत्र में अभी बहुत कमी है, लोगों को जागरूक करने में हम असफल रहे हैं, लोग अपनी परिपाटियों की सोच को बहुत गहरे पकङे है।सिर्फ कानून और योजनाएँ बनाने से फर्क नहीं पङ सकता है। सरकार व सामाजिक संस्थाओं को अपने प्रचार व जागरूकता अभियान में तेजी लाने की आवश्यकता  है।

वे ग्राणीण दलित स्त्रियाँ जो जीवनयापन के लिए शहरों में आती हैं, उन्हें तो समस्त चिकित्सा सुविधा सरकारी अस्पतालों में प्राप्त हो सकती है। फिर भी वह प्राप्त नहीं करती हैं, जैसे सुमन। सच्चाई यह है कि सरकारी तंत्र व सामाजिक संस्थाएँ इन स्त्रियों की मानसिकता को बदलने में असफल रहे हैं। ये स्त्रियाँ घर से बाहर आकर काम भी करती है अर्थात ये औरते आत्मनिर्भर होती हैं, पर इनके पति शराबी व कामचोर होते हैं। पूरे परिवार का पालन पोषण इन स्त्रियों पर ही निर्भर होता है।इस सबके पश्चात भी स्त्री पुरूष की मानसिकता का सामना नहीं कर पाती है। यह जानते हुए भी कि बार-बार गर्भ धारण करना उनके स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है अतः उसके लिए उपाय किए जा सकते है, वे ऐसा नहीं कर पाती हैं क्योंकि उनके पति व परिवार के अन्य सदस्य(सास-ससुर) उन्हें ऐसा नहीं करने देते हैं, ये औरते अपने लिए लङते-लङते मर जाती हैं। अतः इन स्त्रियों के साथ इनके पति व परिवार के अन्य सदस्यों को जागरूक करना बहुत जरूरी है।इन औरतों में इतनी हिम्मत नहीं होती कि पति की अनुमति के बिना गर्भनिरोधक उपाय अपना सकें। इनके परिवारों भें घरेलू हिंसा साधारण बात है,पर यह बात इतनी भी साधारण नहीं है, ये कभज़ोर औरतें स्वास्थ्य से कमज़ोर होने के साथ-साथ पतियों से मार खाते हुए, शारीरिक चोटें खाती हुई और कमज़ोर होती जाती है साथ ही अपना मनोबल भी खोती जाती हैं, अतः पति का विरोध नहीं कर पाती व गर्भनिरोधक उपाय नहीं अपना पाती हैं।पतियों को फर्क नहीं पङता उनके कितने भी बच्चे पैदा हो जाए क्योंकि उनकी परवरिश की जिम्मेदारी से उन्हें सरोकार नहीं होता है।

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