कुछ सूखे पत्ते और सूखी लकङियाँ
कुछ सूखी उम्मीदें और सूखी उलझने
निराशाएँ भी सूखी और मन भी सूखा
यह तो मानों अकाल हो गया।
कहाँ से मिलेगी आद्रता?
कब भीगेगा मन?
सूखी धरती हुई सख्त,
मन भी हुआ कठोर,
कहाँ मिलेगी गीली धरती?
कैसे भीगेगा मन?
आसमान भी फीका पङ गया,
तारें भी हुए बेचमक,
कहाँ होगा नीला आसमान
जिसमें हो टिम-टिम तारे,
कहाँ मिलेंगे जलभरे बादल?
जैसे ही वे बरस जाएँगे,
वैसे ही खिल उठेंगे सूखे पत्ते और सूखी लकङियाँ,
चमक उठेंगी उम्मीदें और जागेंगी उलझने
निराशाएँ भी मारेगी हिलोरें और मन भी होगा भरा-भरा
जैसे मानों आएगा बसंत।
पर अभी तो-
कुछ सूखे पत्ते…………मन भी सूखा।