गुमशुदा ज़िन्दगी से पूछा मैने, कहाँ गुम हो गई हो?
जवाब जैसे किसी खोह से आया हो, कुछ घुटा, कुछ दबा।
“वहीं जहाँ तुमने मुझे छोङा, जल्द ही लौटने और मिलने का आश्वासन देकर,
अब तो मुझ पर समय की गर्त, धूल और मिट्टी से बढ़ती जा रही है।
यह सवाल तो मेरा होना चाहिए कि कहाँ हो तुम?
किस जीवन ने भुलाया है, तुम्हे? क्यों आत्महीन हो?
क्यों अपने को समझा कमज़ोर और निस्सहाय?
आओ और कुछ कष्ट करो, लौटो और मुझ तक पहुँचो,
अब बंद करो यह हारी हुई बाजी का नाटक।
हटाओ इस मिट्टी के ढेर को, समय की गर्त धो दो,
पा लो मुझे, तुम्ही ने तो छोङा था, अब अपना लो मुझे।
देर न करो गर अब न आ पाए तो यह ढेर मिट्टी का शिला बन जाएगा।
क्या ढूँढ पाओगे तब मुझे तुम?
बनने न देना मुझे तुम किसी दबी हुई सभ्यता का अंश,
कोशिश करो और मुझ तक पहुँचो।”