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मासिक अभिलेखागार: जनवरी 2019

सीखने-सिखाने की कोशिश (भाग-2)

29 मंगलवार जनवरी 2019

Posted by शिखा in Uncategorized

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उस समय(1985) वही विद्यार्थी टयूशन पढ़ते थे, जो पढ़ाई में कमज़ोर होते थे , पर आज होशियार विद्यार्थी भी ट्यूशन पढ़ता है , अधिक से अधिक नंबर प्राप्त करने के लिए, वह अपनी पढ़ाई में कोई कमी नहीं छोङना चाहता है।

रजनी हमारे पङोस में रहती थी, जब मेरे पास पढ़ने आई तब वह दूसरी कक्षा में पढ़ती थी।रजनी से बङी एक बहन और एक बङा भाई था। दोनो भाई- बहन से रजनी बहुत छोटी थी। घर की सबसे छोटी सदस्या होने के कारण उसे अपने सभी बङों का कोप भाजन बनना पङता था। इसका अभिप्राय यह नहीं है कि उसे उसका परिवार प्रेम नहीं करता था। प्यार का सबंध, व्यक्ति के व्यवहार के साथ नहीं होता है। रजनी की माँ किन्हीं परिस्थितिवश बहुत चिङचिङी हो गई थी। परंतु अपने जीवन के कष्टों की झल्लाहट वह अपनी बङी पुत्री अथवा पुत्र पर नहीं निकालती थी। कारण यही रहा होगा कि 18 वर्षीय पुत्री पहली संतान थी, इसीलिए इस पुत्री पर प्रेम अधिक था।और आमतौर पर पुत्र पर माताओं का प्रेम विशेष छलकता है। फिर ये दोनो संतानें उस आयु तक पहुँच गई थी कि वे अब उसकी मददगार बन गई थी, अतः उन पर खिझाहट निकालने का प्रश्न ही नहीं था।

रजनी मात्र आठ वर्ष की थी । और माँ की सबसे छोटी संतान होने के बावजूद, वह अप्रत्यक्ष रूप से माँ के दुःखों का कारण बन गई थी। माँ स्वयं रजनी पर अपना गुस्सा निकालती तो ठीक होता पर माँ रजनी की हर छोटी गलती पर उसे उसके भाई के सामने कर देती थी । 15 वर्षीय बङा भाई रजनी से बङा था पर इतना समझदार नहीं हो सकता था कि उसे एक आठ वर्षीय बच्ची से व्यवहार करने का ज्ञान हो, वह सिर्फ अपनी ताकत का ही प्रयोग कर सकता था। (घर के लङकों को परिवार की समस्त छोटी-बङी बहनों का अभिभावक बनाने की परंपरा पाई जाती है।)। इसक अभिप्राय यह नहीं कि वह चुपचाप सहती थी। भाई से मार खाने पर वह पूरी ताकत से विद्रोह करती तथा शोर मचाती थी।

रजनी के पिता शहर से बाहर नौकरी करते थे, जब कभी वह आते वे रजनी के सुखद दिन होते थे। अन्यथा प्रतिदिन ही उसके रोने की आवाज़े सुनाई देती थी, उसकी माँ ने कहा था, कि रजनी बहुत जिद्दी है, पर अपने पिता से डरती है। मुझे लगा कि घर के स्वामी के आने से परिवार में सभी खुश रहते होंगे, उन दिनों माँ अपने दुःख भूल जाती होगी व बङे भाई-बहन कुछ दिन के लिए उस पर रौब गाँठने के अपने अधिकार को एक तरफ रख देते होंगे और इस खुशनुमा माहौल में रजनी भी प्रसन्न ही रहेगी। वैसे भी वह खुशदिल बच्ची थी।
जब तक मै उनके पङोस में रही, तब तक वह मुझ से पढ़ी थी । रजनी हमेशा हँसती रहती थी, बातुनी रजनी मुझे अपनी सहेलियों और स्कूल के बारे में बताती थी। पढ़ना उसे मुसीबत लगता था , परिवार के सदस्यों के व्यवहार का प्रभाव उसके मस्तिष्क पर पङ रहा था। पढ़ाई में वह कम दिमाग लगाती थी, उसे सवाल समझाने के लिए मैं उसे दैनिक जीवन के उदाहरण देती थी। पाठ याद करना उसे पसंद नहीं था । हमारे देश की शिक्षा की रटन पद्धति उसके अनुकुल नहीं थी। मैं उसे पाठ कहानी की तरह समझाती थी व स्वयं उत्तर खोजने और लिखने के लिए प्रोत्साहित करती। थी।

अधिकांशतः अभिभावक अपने कष्टों और परिस्थितियों का बोझ अंजाने ही अपने बच्चों पर डाल रहे होते हैं। जिसका प्रभाव बच्चे के संपूर्ण विकास पर पङता है।

1997 में मैंने एक प्री नर्सरी विद्यालय में अध्यापन कार्य किया था। प्री नर्सरी का उद्देश्य 2+ आयु के बच्चों को घर से बाहर रहने व स्कूली माहौल के लिए अभ्यस्त करना होता है। उस समय प्रतिष्ठित विद्यालयों में प्रवेश के लिए विद्यार्थी का साक्षात्कार होता था, उस साक्षात्कार के आधार पर मैरिट लिस्ट बनती थी, उसमें विद्यार्थी का नाम होने पर ही प्रवेश मिलता था। प्री-नर्सरी में इन छोटे बच्चों को साक्षात्कार के लिए निपुण बनाने का प्रयास किया जाता था। मैंने इस विद्यालय में छोटे बच्चों को पढ़ाने की नई तकनीके सीखी थीं।
सभी अभिभावक अपने बच्चों को अपनी पसंद के विद्यालय में प्रवेश कराने के लिए बहुत चिन्तिंत होते थे और उसका दबाव वे इन नन्हें मासूमों पर डालते थे । अगर बच्चा उस प्रवेश प्रक्रिया में असफल रहता तो उसके अभिभावक निराश हो जाते कि उनका बच्चा प्रतिभाशाली नहीं है। दुःख इस बात का था कि अभिभावक अपनी प्रतिभा पर दृष्टि भी नहीं डालते और अपनी असफलताओं के लिए अपनी परिस्थितियों को दोष देते हैं। इन सबसे उत्पन्न कुंठाए अपने बच्चों पर बरसाते है। परंतु अगर माता-पिता प्रतिभाशाली रहे हो और इनके बच्चे असफल हो जाए तो मानो इन पर दुःखों का पहाङ ही टूट जाता है।

जब बच्चों का किसी प्रतिष्ठित विद्यालय में प्रवेश नहीं हो पाता था तो अभिभावक दान रूपी रिश्वत देने को तैयार रहते थे। एक बात और अज़ीब सामने आई थी। एक बच्चे की माँ ने बताया कि अपने बच्चे के विद्यालय की प्रवेश प्रक्रिया में अभिभावकों के साक्षात्कार के दौरान बच्चे की माँ जो एक नौकरी पेशा महिला थी से प्रश्न किया गया था कि ” आप चूंकि नौकरी करती हैं तो बच्चे की पढ़ाई पर कैसे ध्यान दे सकेंगी?” यह प्रश्न बच्चे के पिता से क्यों नहीं किया गया था? प्रश्नकर्ता विद्यालय की प्रधानाचार्या और अध्यापिका थीं।( वे भी नौकरीपेशा महिलाएँ थीं)।

एक अन्य प्रश्न अभिभावकों से किया जाता था, यदि वे अंग्रेजी बोलने में कमज़ोर होते थे, कि “आप अपने बच्चे को घर में अंग्रेजी बोलने का माहौल कैसे दे पाएँगे?” जबकि अभिभावक शिक्षित थे।

आज प्रवेश प्रक्रिया के दौरान बच्चों का साक्षात्कार बंद हो गया है। यह अच्छी बात है कि अब शिक्षण पद्धति में बदलाव लाने के प्रयास हो रहे हैं।

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सीखने- सिखाने की कोशिश – भाग : 1

20 रविवार जनवरी 2019

Posted by शिखा in Uncategorized

≈ 2s टिप्पणियाँ

सीखने सिखाने की कोशिश से अभिप्राय है कि जब भी आप किसी को कुछ भी सिखाते हो तो आप भी कुछ सीखते हो। यह भी अवश्य सुना होगा कि ज्ञान बाँटने से ही बढ़ता है। मैं भी शिक्षिका इसीलिए बनी कि ज्ञान बाँटने की प्रक्रिया में मैं भी अपने अधूरे ज्ञान में वृद्धि कर सकू। शायद इसी कोशिश ने मुझे अध्यापिका बना दिया था।

परंतु बचपन में हर बच्चे की तरह मैं भी प्रतिदिन अपने विचार बदलती होंगी, बिलकुल ‘तोतोचान’ की नायिका की तरह जो सब्जी बेचने वाले से प्रभावित हो कर सब्जीवाली बनना चाहती तो कभी सफाईवाली बनना चाहती थी।

कई बार माता-पिता भी बच्चे के जन्म के साथ बच्चे का भविष्य निश्चित कर देते हैं कि उनका बच्चा बङे हो कर क्या बनेगा ? एक बार एक के.जी. कक्षा के विद्यार्थी के पिता अपने बेटे की प्रगति जानने के लिए मुझ से मिलने आए। मैं उसकी अध्यापिका उस बालक की प्रगति से संतुष्ट थी परंतु उसके पिता संतुष्ट नहीं हुए और नाराज़ होकर अपने पुत्र से बोले, “तुम नहीं पढ़ोगे तो बङे होकर पत्थर ढोने या चाय बेचने का काम करना होगा।” मैं यह सोच कर मन ही मन मुस्करा रही थी कि एक चार वर्षीय बच्चे के लिए यह दोनो ही काम दिलचस्प हो सकते हैं। मुझे यह समझ नहीं आ रहा था कि यह अपने चार वर्षीय बच्चे से एक अठारह वर्षीय युवक समझकर क्यों बात कर रहे है?

मैं शायद आरंभ से ही अध्यापिका बनना चाहती थी। मेरी प्राइमरी कक्षा की अध्यापिका ने मेरे गुणों को समझ लिया था तभी जब कक्षा के कुछ विद्यार्थी कोई कार्य नहीं कर पाते थे तब उन्हें उस काम को सिखाने की जिम्मेदारी मुझे दे दी जाती थी।

सबसे अच्छी तरह जो याद है वो है डाॅक्टर बनने का सपना जो बहुत मन से देखा व जिया भी था। लेकिन जब गरीब मज़दूर बच्चों को काम करते देखती या जो नहीं करते उन्हें यूँ ही मिट्टी में डोलते देखती तो दुःख होता कि ये बच्चे क्यों पढ़ नहीं सकते हैं। पर अभी भी बहुत करुण स्थिति है कि आज भी हमें सङक पर भीख मांगते, काम करते बच्चे दिखते है जो स्कूल या पढ़ाई के विषय में कुछ नहीं जानते हैं। इन्ही बच्चों को पढ़ाने के विचार ने मेरे मन में अध्यापिका बनने के ख्याल को जन्म दिया था। पर आज मैं दुख के साथ कह सकती हुँ कि मैं इसमें कामयाब नहीं हो सकी हुँ । अलबत्ता अपने 35 वर्ष के अध्यापन कार्यकाल में कोशिश रही कि मैं गरीब बच्चों को भी शिक्षित करुँ।

आज मेरे मन में इच्छा जागी कि मैं अपनी शिक्षिका के रुप में प्राप्त अनुभवों की चर्चा करते हुए, देश की शिक्षण पद्धति और बच्चों व अभिभावकों के मनोविज्ञान को भी समझने का प्रयास करूँ।

सर्वप्रथम जो मेरा विद्यार्थी था वह मेरा पांचवी कक्षा का सहपाठी आकाश था, मेरी अध्यापिका ने पढ़ाई में व शारीरिक रूप से कमज़ोर आकाश की सहायता करने की जिम्मेदारी मुझे क्यों सौंपी, इसका मुझे ज्ञान नहीं है। आकाश को नज़र बहुत कम आता था, इसी कारण वह पढ़ाई में पिछङ गया था। वह बुद्धु बालक नहीं था, पर पढ़ाई में कमज़ोर होने के कारण उसकी सहज चंचलता कहीं दब गई थी। पढ़ाई में पिछङने में उसका कोई दोष नहीं था।

मैं जब अपनी एन.टी.टी की पढ़ाई कर रही थी, तब मैंने दो गरीब बच्चों को पढ़ाया था। मेरे पिताजी का कहना था कि विद्या दान के लिए है व जब आप किसी को पढ़ाते हो तो स्वयं भी ज्ञान पाते हो, अतः घर में ट्यूशन पढ़ाओ तो फीस मत लो।
परंतु मेरा तर्क था कि इन बच्चों व इनके अभिभावकों को शिक्षा का महत्व नहीं पता हैं, इन बालकों को नियमित बुलाने के लिए फीस लेनी आवश्यक है। मैंने उनसे बहुत कम फीस ली थी। ऐसा नहीं कि ये लोग इतनी कम फीस नहीं दे सकते हैं अपितु सही कारण यही है कि शिक्षा उनकी प्राथमिकता नहीं होती है।

सरकारी विद्यालयों में अधिकांशतः गरीब तबकों के बच्चें पढ़ने आते हैं, जिनकी पढ़ाई पर इनके घर पर ध्यान देने वाला कोई नहीं होता है। इनके माता- पिता इन्हें पढ़ने तो स्कूल भेज देते हैं, पर वे बच्चों में पढ़ाई की रुचि पैदा नहीं कर पाते है और हमारे सरकारी विद्यालयों में इन बच्चों में शिक्षा के प्रति रुचि बनी रहे ऐसी कोई शिक्षण पद्धति विकसित नहीं की गई है।

जब से यह शिक्षा नीति बनी है कि आठवीं कक्षा तक किसी विद्यार्थी को फेल नहीं किया जा सकता है, तब से पढ़ाई में कमज़ोर से कमज़ोर विद्यार्थी आठवीं पास का सार्टिफिकेट प्राप्त कर लेता है। दुःख की बात है कि उन्हें पहली कक्षा की पढ़ाई भी नहीं आती है। ये विद्यार्थी अपनी भाषा में भी लिखकर अपने भाव प्रकट नहीं कर पाते हैं। यह खुशी की बात है कि सरकारी नीति में परिवर्तन आ रहा है।

परिस्थितिवश मैंने विद्यालयों में शिक्षण कम किया था, परंतु ट्युशन के माध्यम से मैं शिक्षण से जूङी रही थी और बच्चों के गुणों और मन को समझने में कुछ सफल रही हुँ।

शादी के बाद जब ट्युशन कार्य करना आरंभ किया था, तब मेरे सर्वप्रथम विद्यार्थी थे, दो भाई परेश व उमेश । ट्युशन में विद्यार्थी का सीधा संपर्क अपने अध्यापक/ अध्यापिका से होता है। कई बार उनका सबंध इतना गहरा बन जाता हैं कि विद्यार्थी अपना मन पूर्णतः अध्यापक के सामने खोल देता है। अध्यापक के लिए उसके मन और दिमाग को समझने में सहायता मिलती है।

परेश तीसरी कक्षा का विद्यार्थी था, वह बहुत शैतान था, पर दिमाग का तेज था ।पढ़ने में उसका मन नहीं लगता था। उमेश शरारती था पर उसे पढ़ना पसंद था अतः कुदरती वह पढ़ने में मन लगाता था।

आप सोच सकते हैं कि दोनो बालकों के लिए शैतान व शरारती दो अलग-अलग शब्दों का प्रयोग क्यों किया गया है? मेरे विचार से शैतान बच्चा एक उद्दंडी बच्चा होता है जिसे संभालना बङों के लिए कठिन कार्य होता है। इनका दिमाग बहुत तेज़ी से न केवल चलता है अपितु खुरापाती कार्यों पर अधिक चलता है, क्योंकि ये अतिरिक्त बहादुर होते हैं, इसीलिए दूसरों के अनुभवों से अधिक अपने अनुभवों पर भरोसा करते हुए नए-नए प्रयोग करने में झिझकते नहीं है। तभी इनकी एकाग्रता पढ़ाई में नहीं लगकर अपितु ऐसे कार्यों में अधिक लगती है जिसमें उनकी शारीरिक व बौद्धिक क्षमता का एकसाथ उपयोग हो। इन बच्चों की विशेष योग्यता को अगर सही समझ कर प्रशिक्षित किया जाए तो यह सही मंजिल पा जाते हैं।

इन बालकों की देखभाल करते हुए, इनके अभिभावकों को अतिरिक्त सावधानी बरतनी पङती है। परेश एक शैतान बच्चा था, इसीलिए उसकी माँ से अधिक उसके पिता का उस पर नियंत्रण था, परंतु पिता के पास सिर्फ एक ही उपाय था, उस पर बेहद गुस्सा करना या उसकी पिटाई कर देना। पिता के ऐसे नियंत्रण से वह अधिक जिद्दी ही बन सका था। यह भी पाया गया है कि ये बच्चे भावुक भी होते है। अपने से अधिक उमेश को प्रशंसा मिलने से उसमें गुस्सा भी बढ़ रहा था। फिर भी वह अपने छोटे भाई और माता-पिता के प्रति बेहद संवेदनशील भी था। उसे उसकी चुस्ती-फुर्ती और तकनीकी कार्यों में अतिरिक्त कौशलता दिखाने के लिए प्रशंसा भी मिलती थी, इसीलिए परेश अपनी इस योग्यता को प्रदर्शित करने का कोई अवसर नहीं छोङता था, विशेषतः जब उसके पिता कोई तकनीकी काम करते थे।

सभी बच्चें शरारती होते ही है, खेलने, कूदने और मस्ती करने में, सभी बच्चों को मज़ा आता है। अपितु यदि बच्चा शरारती नहीं है, तब यह एक समस्या है। शैतान या शरारती होना समस्या नहीं है।

उमेश चूंकि शरारती था और उसको एकाग्रता बनाने में कोई प्रयास नहीं करने पङते थे। अतः अपनी पढ़ाई ध्यानपूर्वक कर लेता था। वह पढ़ाई में रूचि भी लेता था व उसे समझ थी कि पढ़ाई पूरी किए बिना उसे खेलने को नहीं मिलेगा। उसे खेल का मैंदान और खेल स्पष्ट नज़र आते थे। वह बिना जल्दबाज़ी करें, पढ़ाई ठीक से पूरी कर खेल के लिए दौङ पङता था।

ऐसे बच्चे थोङे डरपोक भी होते है, इन्हें थोङा डर दिखाकर शांत बिठाया जा सकता है । ये बच्चे अपने बङो को नाराज़ नहीं करना चाहते हैं। इनकी एकाग्रता अच्छी होती है अतः इनकी पसंद के विषय में इन्हें प्रशिक्षित करना आसान होता है।

इन दोनों भाईयों की विशेषताओं के अंतर को दर्शाने के लिए मैंने शैतान व शरारती बच्चों का वर्गीकरण किया है। यूँ मेरे विचार में प्रत्येक बच्चा अनोखा है उसमें अपनी अलग खूबियाँ होती है।

मेरी कविताएँ

11 शुक्रवार जनवरी 2019

Posted by शिखा in Uncategorized

≈ 15s टिप्पणियाँ

कविता- 1

‘भाग गई’

यह कल ही की तो बात है, जब हाथ में हाथ डाले बैठे थे साथ,
वचन वायदे करते थे साथ,
सारी दूनिया भूल कर रहेंगे साथ।
मर्यादा की झोली फैलाए माता-पिता बैठे थे पास,
पर मुझे तो देना था तेरा साथ।
दूनिया ने कहा भाग गई- किसी ने कहा भाग कर आई।
जो किया मैंने किया, लङकी को डोली में विदा होना होता है,
मैं बिन डोली आई तेरे द्वार।
तुझे नही कहा भाग गया, किसी ने नही कहा भाग कर आया,
तु तो बैठा था अपने द्वार।
जो लांछना थी वो मेरी थी, जो सहना था वो मैंने था,
समझौते भी तो मेरे थे, तेरे साथ, तेरे परिवार के साथ।
चूंकि मैं भाग आई थी।
माता-पिता बैठे थे फैलाए झोली,
लांघ में आई मर्यादा उनकी।
अब तु कहता चली जा, निकल जा,
अब न संभलता हमारा साथ,
सच अब न निभता साथ।
पर तु तो बैठा अपने द्वार,मैं जाऊँ किस द्वार?
जाती फिर कोई कहता भाग गई।
जो भी था तुझे समर्पित था,
जो त्यागा तुझ पर त्यागा था।
कुछ न अब अपना मेरे पास।
क्या जाऊँ उस पार?
क्या वही ठौर अब मेरे पास?
नहीं! मुझे तो रहना इसी पार,
अब जो मर्यादा होगी वो मेरी अपनी होगी।
जो वायदे होगे वो मुझ से मेरे अपने होंगे।

कविता- 2

‘एक सवाल- एक उत्तर’

सवाल उठा है कि एक औरत क्यों लेती है, एक मर्द का सहारा?
क्या करें कोई दूसरी औरत देती नही सहारा!
औरतों को दिए गए संस्कार ऐसे
कि एक औरत करती दूसरी औरत को बेसहारा।
औरत को तो यूँ ही पानी में डाल दिया जाता है।
तैरना सिखाते नहीं, तैर कर पार जाने को कहा जाता है।
लहरों की थपेङों को खाते हुए, स्वयं हाथ पैर मारते हुए,
तैरना सीख गई तो सीख गई/ और नहीं!
डूबती है तो डूब जाए,
गर भंवर में फंस भी गई तो?
हिम्मत फिर भी न हारेगी,
इतना विश्वास है उस पर सबको,
और थक हार गई तो क्या?
डूब ही तो जाएगी।
उस हताशा में गर कोई हाथ, बढ़ता है उसकी ओर,
तो क्या तिनके का सहारा नहीं लेगी वह?
चांस तो लेगी न!
वो तिनका है या मात्र धोखा,
बिना परखे कैसे समझ पाएगी वह?
क्या तुम मज़ाक उङा रहे हो उसका? कि
एक औरत क्यों लेती एक मर्द का सहारा?
क्या करें कोई दूसरी औरत देती नहीं सहारा।
जैसे हम डूबती, उठती, बहती और लहरों का ही
सहारा लेती कर गई पार,
तुम भी इसी तरह रख हौसला बुलंद,
हो जाओगी पार।
गर लहरों और हवा की दिशा रही अनुकुल तुम्हारे,
तो फिर क्या चिंता? कर ही जाओगी पार।
और गर हो वो प्रतिकुल तो भी क्या?
कुछ जल्द ही तो डूब जाओगी,
क्या फर्क पङता है?
पानी तो यूँ ही बहा करता है।
वो बढ़ा हुआ हाथ मित्र का था या गैर का,
यह तो परख के पता लग ही जाएगा,
पर उससे क्या उस गैर का चरित्र निखर जाएगा?
स्त्री तो पानी में ही है-
उसका चरित्र तब भी पानी की तरह निर्मल रह जाएगा ।
क्या तुम्हे बुरा लग रहा है? कि
एक औरत क्यों लेती एक मर्द का सहारा।
गर बढ़ा हुआ हाथ मित्र का है, तो
स्वयं तो डूबने से बचेगी ही,
यकिन मानों दूसरों को भी बचा पाएगी।
मर्द क्या जाने, तिनके के सहारे का अर्थ,
बेशक वो तिनका धोखा ही क्यों न हो,
मर्द के सहारे के लिए तो वह है न!
डूबने न देगी वो उसको,
अपनी प्राण- प्रतिष्ठा रख बचाएगी वो-
तैरना न जानती हो तब भी,
एक माँ पुत्र को तो किनारे पहुँचाएगी ही,
एक पत्नी पति को तो सहारा दे जाएगी।
और फिर मर्द को तो तैरना आता है!
तब भी उसके सहारे को है न!
माँ, पत्नी, प्रेमिका………
और फिर एक मर्द को दूसरा मर्द भी सहारा दे जाएगा।
राम के साथ तो लक्ष्मण थे,हनुमान थे,
पूरा राजपरिवार था….
सीता को किस सहारे छोङा जंगल में?
ऋषि बाल्मिकि का ही सहारा मिला उसको,
वो भी तो पुरूष थे न!
द्रोपदी के चीर-हरण में,
गर कृष्ण न बनते सहारा?
तो……
जो थे तो देव पुरुष ही न!
एक औरत क्यों लेती एक मर्द का सहारा?
क्या करें कोई दूसरी औरत देती नही सहारा।

कविता-3

‘भूली-बिसरी यादें ‘

भूली बिसरी यादों में जब कभी डूबती उतरती हुँ,
कुछ खट्टी, कुछ मीठी यादें यूँ ही गुजरा करती हैं।
पर कभी कोई तीखी याद आज भी तीर सी चुभ जाती है।
खट्टे को तो मीठे में बदलना आ गया है,
पर
तीखे का क्या करूँ?
वो तो इतना तीखा है कि,
आज भी सीना जला जाता है।
भूली बिसरी यादों में जब कभी डूबती उतरती हुँ।
यादों की पोटली से मीठे बेर फुदक फुदक बाहर आते हैं।
कुछ खट्टे बेर भी होते है, जिन्हें मैं लपक कर पकङा करती हुँ।
पर यह तीखा बैर कैसे आया? समझ नहीं पाती हुँ,
वो तो कहीं गहरे दबाया था।
खट्टे को तो स्वाद से खाना आता है,
तीखे का क्या करुँ?
वो तो आँखों में आँसु लाता है।
वापिस पोटली में डालना चाहती हुँ,
पर वो हो न पाता है।
कुछ ज्यादा ही सताता है।
भूली बिसरी यादों में जब कभी डूबती उतरती हुँ।

कविता-4

‘ स्वाधीनता के उपलक्ष्य में ‘

स्वाधीनता के उपलक्ष्य में,
आज किया एक सवाल,
क्या मैं स्वतंत्र हुँ?
क्या अपना जीवन स्वेच्छा से जीने के लिए स्वतंत्र हुँ?
कुछ अधिकार-कुछ कर्त्तव्य
क्या अधिकारों के लिए रही स्वतंत्र?
या
सिर्फ कर्त्तव्यों के लिए रही स्वतंत्र?
या
उन्हें निभाने के लिए भी रही किसी के आधीन।
क्या अपनी सोच में स्वतंत्र हुँ?
या
परंपराओं और कुरीतियों व अंधविश्वासों की बेङियों में बँधी हुँ।
जानती हुँ गलत है अपने लिए व समाज के लिए भी,
फिर भी इसीलिए निभाती सङी-गली परंपरा-
कि दूसरे चाहते हैं।
तो क्या मैं स्वतंत्र हुँ?
आज भी दूसरे के घर कितना दहेज़ आया,
देखती हुँ।
क्यों करती हुँ मैं ऐसा?
जानती हुँ दहेज प्रथा गलत है,
तो क्या मैं विचारों से स्वतंत्र हुँ?
बिल्ली रास्ता काट जाए,
दिल धङक जाता है-
क्या वाकई मेरा मस्तिष्क आज़ाद है?
कल संदेश आया,
किसी जाति के लिए अनाप-शनाप आया,
दूसरों को प्रेषित नहीं किया,
पर
विरोध भी नहीं किया।
क्यों खुल कर न बोली?
यह गलत है, गलत है।
मैं अपने विचारों से स्वतंत्र नहीं,
अपनी सोच से स्वतंत्र नहीं।
आज भी मैं परतंत्र हुँ,
जो दूसरे चाहते हैं, वह करती हुँ।
प्रजातंत्र की भेङों में,मैं भी शामिल हुँ,
मैं भेङ नहीं बनना चाहती-
पर बन गई हुँ।
नहीं मै स्वतंत्र नही हुँ।

कविता-5

‘ खानाबदोश ‘

आज फिर अपनी कुछ निशानियाँ, अजनबियों के लिए छोङ,
ये खानाबदोश आगे बढ़ चले हैं।
अपनी यात्रा के अगले पङाव पर बाँधेंगे अपने तंबु,
जहाँ उन्हें कुछ अजनबियों के उसी पङाव से रह कर,
गुज़र जाने के अहसासों के साथ अपने को जीवन्त रखना होगा।
खानाबदोश अपने गीत गाते होंगे और स्थानीयवासी उन गीतों को गुनगनाते रहेंगे, ऐसे इन अज़नबियों से एक रिश्ता निभाते रहेंगे।

यह कैसा प्यार?

02 बुधवार जनवरी 2019

Posted by शिखा in Uncategorized

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निर्मला चाय का कप हाथ में लिए खिङकी के पास खङी आसमान में सुबह की लाली को निहारते हुए पुराने दिनों में खो गई थी। इस एक महीने में वह यही कर रही है, अपने इस मायके के घर के हर कोने में कितनी यादें बसी हैं, उन्ही यादों में बार-बार डूब जाती है।भाभी, भैय्या और कृति से वह अपने बचपन की ही बातें करती रही है। अम्मा और बाबूजी का नाम बार-बार ज़ुबान पर आता और आँखें भीग जाती, पर वह उन्हें छलकने से रोक लेती थी, वे सब भी समझते हुए बिना ज़ाहिर किए उसके साथ बातों में डूब जाते थे।उसने एक दिन भी रंजीत का जिक्र नहीं किया, उन सभी ने भी यह सोच कर नहीं किया कि उसका दर्द ताज़ा है। पर उसके बचपन में भी तो रंजीत मौज़ुद था। इसी खिङकी से वह रंजीत को आता देखती थी, तुरंत दुपट्टा गले में डाल, किताबें उठा नीचे दौङ पङती थी। अम्मा का कहना था कि “ज़वान लङका पढ़ाएगा तो नीचे ड्राइंग रुम में हमारे बीच में ही बैठ कर पढ़ाई होगी।” भैय्या ने कहा भी, ” रंजीत मेरे बचपन का दोस्त है, आप भी उसे जानती हो, स्वभाव का थोङा टेढ़ा है पर शरीफ है। बैंक में ऑफिसर, पढ़ाई में हमेशा अव्वल रहा है। मेरे बहुत कहने पर ही वह निम्मो को पढ़ाने के लिए तैयार हुआ है। गुस्सा उसके नाक पर रहता है, हमारी बातुनी निम्मो उसके सामने मुहँ नहीं खोल पाएगी।” अम्मा फिर भी बोली थी, ” अभी तक तो तुम पढ़ाते रहे थे, तब भी तो यह पढ़ लेती थी, नंम्बर भी अच्छे आते थे। इसी साल इसकी ग्यारवीं का बोर्ड और तुम्हें अपनी नई बीबी के साथ सैर- सपाटे से फुर्सत नहीं है”। बङे भैय्या से 10 वर्ष और छोटे भैय्या से 7 वर्ष छोटी निर्मला सबकी लाडली थी। बाबुजी तो उस पर निहाल ही रहते थे, जो भी थोङी बहुत सख्ती करती थी ,वह अम्मा ही करती थी, पर बाबुजी की मृत्यु के बाद वह भी थोङी ढीली हो गई थीं।

निर्मला भी बाबुजी के बाद, मन में उदासी छुपा कर सबको खुश रखने की कोशिश करती, उसका खुशदिल और हँसमुख स्वभाव सबके दिल को खिला-खिला रखता था। बाबुजी की जिद्दी बेटी अब माँ की हर बात मानती थी। जब भी पढ़ाई से समय मिलता अम्मा उसे सिलाई-कढ़ाई, बुनाई सिखाती थी। घर को सजाने का तो उसे बचपन से शौक था।वह अपने घर को खूब मन से सजाती थी। पर वह पढ़ना भी बहुत चाहती थी, वह एक प्रशासनिक अधिकारी बनने के सपने देखा करती थी।

लेकिन उसका किशोरावस्था का नासमझ दिल उसके सभी सपने उङा ले गया था। बङे भैय्या की शादी में मिली थी वह रंजीत से, देखते ही दिल धङक उठा था, वह 16 साल की उम्र ही ऐसी थी।जैसे सपने देखने लगी थी वह आजकल, वैसा ही राजकुमार उसके सामने था।सच ही रंजीत के सामने उसकी ज़ुबान बंद ही रहती थी, इन 43 सालों में भी वह कहाँ कह पाती थी उससे अपने मन की बात, पता नहीं यह डर था या प्रेम अथवा उसके प्रति सम्मान था।वह जानती थी कि रंजीत उससे बहुत प्रेम करता है जैसे वह उससे प्रेम करती थी। यह प्रेम ही उनके रिश्ते की मज़बूत डोर था। अम्मा कितना गुस्सा हुई थी!, भैय्या ने कहा कि ” रंजीत ने मेरी मासूम बहन को बहकाया है।” छोटे भैय्या ने समझाया,”अभी तु बहुत छोटी है, भूल गई अपने सपनों को? कितनी पढ़ाई करना चाहती थी तु?” भाभी बोली, ” यह प्रेम नहीं आकृर्षण है, और मुझे तो तुम्हारे इस प्रेम में भय भी दिख रहा है,सब जानते है रंजीत का स्वभाव।” उसकी जिद् के सामने सब हार गए थे और शादी तो धूमधाम से ही की थी। ऐसी जिद्दी, नाज़ो-नखरों से पली निर्मला अपने प्रेमी पति के सामने बिलकुल गऊ ही थी। बङे भैय्या और रंजीत की मित्रता भी खत्म हुई और इस नई रिश्तेदारी ने ऐसी खटास पैदा की…..कि

इन 43 सालों में अपने मायके एक या दो बार ही निर्मला आ पाई थी । दोनों भैय्या ने निर्मला के लिए बहुत झुकने की कोशिश की थी।पर रंजीत की अकङ कम ही नहीं हुई थी।

रंजीत की मृत्यु को तीन महीने हो गए है,भैय्या-भाभी ने कभी उसे छोङा नहीं था, उसके हाल लेते रहते थे, दोनो भाई रंजीत के व्यवहार को अनदेखा कर उससे मिलने भी आते थे।रंजीत के जाने के बाद भी वे दोनों उससे आग्रह करते रहे कि अब तो वह अपने मायके चले।उसके दोनो बेटों ने भी बहुत समझाया था,”आप मामा के साथ समय बिताओगी तो आपका मन बदलेगा।” पर रंजीत के बाद दो महीने तक तो उसे कुछ समझ ही नहीं आ रहा था, कैसे वह उसके बिना रह पाएगी? शादी के बाद शायद ही कभी वह रंजीत के बिना एक दिन भी रही थी। कहीं जाने का, किसी से मिलने का मन नहीं था। पर उस दिन भाभी जब मिलने आई तो उसके लिए कढ़ी बना कर लाई थी, एक कौर मुँह में डालते ही जैसे इतने वर्षों का स्वाद ही नहीं अपितु अम्मा-बाबूजी भी सामने थे,और उस दिन जो आँसुओं का बाँध टूटा था, वह रंजीत के लिए नहीं था, वह 43 वर्ष पुराना था, जिसमें न जाने क्या और कितना कुछ बह रहा था।

एक महीना भाभी से कितनी बातें हुई,भाभी जानना चाहती थी कि कैसे बीते उसके 43 वर्ष।निर्मला कैसे शुरु करें इन 43 वर्षो का जीवन -वृतांत। रंजीत कठोर अवश्य थे पर हिंसक नहीं थे ( जो भाभी जानना चाहती थी।)। उन्होंने उसे जीवन की सभी सुख- सुविधाएँ दी थी,बिना कहें उसे हर चीज़ मिलती थी,हल्के से सर्दी जुकाम में भी उसकी पूरी तिमारदारी करते थे। यह भी सच है कि वह प्रेमी थे पर दीवाने नहीं थे। घर में उनकी इच्छा के बिना पत्ता भी नहीं हिलता था।और न जाने क्यों निर्मला ने भी कभी उनका विरोध नहीं किया था, उसे उनकी बुद्धि पर इतना विश्वास था कि वह जो भी कहते, करते हैं, उसी में सबकी खुशी है।इसीलिए उसे कभी नही लगा कि उसे रंजीत से डर लगता था( जैसा भाभी कह रही थी)। वह तो उससे प्रेम करती थी उसका सम्मान करती थी पूर्णतः वह रंजीत के रंग में रंगी थी। भाभी ने पूछा, ” और क्या मायके आने का मन नहीं करता था?” “शुरु में बहुत करता था फिर आदत हो गई थी, आदत बहुत बूरी चीज़ होती है, फिर यह जीवन चक्र ऐसा उलझाता है कि बस समय बीतता जाता है पता ही नहीं लगता है, आरंभ में ही रंजीत ने अपना स्थानांतरण बंगलौर करा लिया था, इस दूरी से बहुत कुछ छूट गया था।” निर्मला यह सब बताते हुए शायद अपने जीवन को समझ रही थी। अपना 60वाँ जन्मदिन भैय्या-भाभी के साथ मना कर एक नई खुशी के साथ वह वापिस लौटी थी।गाङी से उतरते ही सामने वाली रमा दीदी दिख गई,बोली,” अच्छा हुआ भैय्या के घर रह आई, चेहरे पर कितनी रौनक आ गई है।” वह थोङी देर उनसे बातें करती रही थी। उसको हँसता-मुस्कराता देख,दीदी बोली,” ऐसे ही खुश रहा करो”। घर में घूसते ही सभी पोते-पोती उससे लिपट गए। वह भी अपने कुनबे के बीच अनोखी खुशी के अहसास से भरी थी। तभी बङी बहु निशा बोली, ” माँ आप इस साङी में बहुत अच्छी लग रही हो, यह बादामी रंग आप पर बहुत खिल रहा है, आपने पहले यह रंग कभी नहीं पहना न?” बेटी विशाखा उसके गले में हाथ डाले बोली,”हमारी गोरी-गोरी माँ को पापा बस लाल हरे रंग पहनाते थे।” छोटी बहु गरिमा बोली, ” माँ, क्या आप उन रंगो से कभी बोर नहीं हुए?” “अरे बोर कैसी? तेरे पापा की पसंद बहुत अच्छी थी ,हर त्योहार पर नई साङी मिलती थी।” हँसते हुए निर्मला बोली।

अपने कमरे में आकर शीशे के सामने खङी हुई, तो स्वयं अपने को देख हैरान थी, आज शीशे में एक लंबे समय बाद वह अपने को देख रही थी, इससे पहले वह जिसे देखती थी, वह तो रंजीत की ही परछाई होती थी। यह सब क्या है?वह सोच रही थी। वह जब कुआँरी थी, तब आईना उससे उसको मिलाता था और आज फिर एक लंबे समय बाद, वह अपने से मिल रही है, कितनी बदल गई…..है। फिर सोचा कि यह बदलाव एक सुहागन से एक विधवा के रुप का है।अब समाज में बदलाव आ गया है इसीलिए पहनावे और रहन -सहन में कोई अंतर नहीं है।फिर भी बङी बिंदी की जगह छोटी बिंदी लगाई है, रंजीत को बङी बिंदी पसंद थी और उसे….। रंजीत उसकी ज़िन्दगी से गए हैं पर उनका प्यार और उनकी सोच हमेशा उसके साथ रहेंगे, यही सोचते हुए उसकी आँखों में पानी भर आया था।

निर्मला को अपने में आए बदलाव पता नहीं लग रहे थे, पर बाकी सब महसूस कर रहे थे उसकी निश्चितता, उसकी बैखौफ बेपरवाही।बच्चे कैरम खेल रहे थे, वह भी उनके बीच खेलने बैठ गई बच्चों के साथ उसकी हँसी की आवाज़ से अचंभित बेटे-बहु उसमें आए परिवर्तन को देख रहे थे और उसके लिए खुश थे।विशाखा सोच रही थी,” मेरी माँ हँसते हुए कितनी सुंदर दिखती है।” उसने सोचा, माँ से कहे कि “उनका यह बिंदास रूप बहुत सुंदर है। पर रुक गई कि कहीं वह सचेत न हो जाए और फिर अपनी खोल में घूस जाए। जैसे उन्हें नहीं पता कि उनका पापा से प्रेम भय मिश्रित था, वैसे ही उन्हें पता नहीं लगना चाहिए कि उनका व्यक्त्तित्व निर्भीक होता जा रहा है।

उस शाम माली आया तो बङे बेटे पुलकित के साथ वह भी बाहर आई और माली से बोली, “क्या सफेद गुलाब लगा दोगे?” और कहते ही उसने कुछ झिझक के साथ पुलकित की ओर देखा, पुलकित बोला, माँ, आपका जो मन है वो पौधा आप बगीचे में लगवा लो, आपका ही बगीचा है।” माली बोला,”मैडम, पौधों के लिए खाद् भी लाया था, आप डालेंगी या मैं डाल दूँ।” निर्मला का मन बगीचे में बहुत लगता है, अपने हाथ से कटाई-छटाई करती है।पर पौधे वही लगते थे, जो रंजीत चाहता था। बगीचा ही नहीं वह घर का हर कोना-कोना साफ व सुंदर अपनी इच्छानुसार देखना चाहता था। जिसके लिए निर्मला बहुत मेहनत करती थी, कहीं उसके मन जैसा न हो तो वह कहता कुछ नहीं अपितु क्रुद्ध भाव लिए अपने हाथ से साफ करने लगता था। कई बार वह साज-सज्जा में कुछ बदलाव करती तो वह तुरंत फिर अपनी इच्छानुसार ठीक कर देता था। निर्मला कहती भी कि ,” मैंने जैसा करा वह भी तो अच्छा लग रहा है, ऐसे ही रहने दें।” उसका जवाब होता, ” मुझे अच्छा नहीं लग रहा है,पर तुम्हें तो अपने मन का करना है।” बिना कुछ कहे भी उसका गुस्सा झलकता रहता था। ऐसा नहीं कि वह उसके गुस्से से डरती थी पर वह रंजीत को परेशान देख नहीं सकती थी इसलिए स्वयं रंजीत के मन का कर देती थी। और रंजीत को खुश देख वह भी प्रसन्न होती थी फिर यह अहसास भी नहीं होता था कि कभी उसने अपना मन मारा है। सच तो यही था कि वह न केवल उससे प्रेम करती थी अपितु उसकी दीवानी थी।दूसरे कहते कि वह रंजीत से डरती है पर वास्तविकता में यह उसकी श्रद्धा थी।

दोनों बेटे शहर से बाहर रहते थे, पुलकित चंडीगढ़ और छोटा बेटा सुमित अहमदाबाद रहता था।आजकल लंबी छुट्टियाँ ले कर आए थे, अब जाने की तैयारी थी। पुलकित बोला, माँ, रिज़र्वेशन करानी है,आपके लिए कौन सा दिन ठीक रहेगा? निर्मला हतप्रभ सी बोली, “मुझे कहाँ जाना है?” माँ इतने दिन से कोई न कोई आपके पास आकर रह रहा है, पर अब हमारा रुकना मुश्किल है।हम यहाँ आपको अकेला नहीं छोङ सकते हैं।आप हमारे साथ चलो, बच्चों के साथ आपका मन लगा रहेगा।”

निर्मला ने सबको देखा, फिर धीरे से बोली,” मुझे कुछ समय अपने साथ रहना है, अपने को समझना है।” सबने हैरानी से एक-दूसरे को देखा, लेकिन उसके बच्चे थे, उससे ज्यादा उसे समझते थे। बोले,”ठीक है, पर अकेली!” निर्मला बोली,” सोचती हुँ कि आगे के दोनों कमरे किराए पर दे दूँ।” विशाखा उसके दोनों हाथ पकङ कर बोली, ” जैसी माँ की इच्छा, फिर मैं तो पास ही रहती हुँ।” निर्मला ने दोनो बेटों के चिंतित चेहरे देख कहा, ” बाद में तुम्हारे पास ही आकर रहुँगी”। दोनो बोले,” कोई बात नहीं, अब जैसा आपका मन।” निर्मला स्वयं अपने फैसले पर हैरान थी, पहले उसने ऐसा कुछ विचार नहीं किया था। आज पहली बार उसने स्वतंत्र रुप से अपने लिए फैसला लिया था।

अगले 10 दिन बच्चों के लिए अचार-मुरब्बें और मठरी-लडडु बनाने में बीत गए थे।इन सब कामों के बीच गपशप भी चलती रही थी। बातों में ज्यादा रंजीत का ही जिक्र होता था। अब सिर्फ दुःख के साथ ही नहीं, मुस्कराते हुए भी उसे याद करते थें। बच्चे अपने पापा को और पोते-पोती अपने दादाजी को याद करते थे, निर्मला को सहज देख वे सब खुलकर रंजीत का नाम लेते थे। निर्मला को खुशी हुई कि इस बार पुलकित अपने पिता की आलोचना नहीं कर रहा था अपितु वह अपने बच्चों के सामने अपने पिता से सीखी शिक्षाओं का बखान कर रहा था।उनका दिया ज्ञान, अनुशासन, ऊँचे नैतिक मूल्य इन तीनों के जीवन में बहुत मूल्यवान प्रमाणित हुए हैं। निर्मला का मन यह देख संतुष्ट हुआ कि तीनों बच्चों के मन से अपने पिता के लिए गिले-शिकवे समाप्त हो गए हैं।अन्यथा पुलकित ने पिता के अङियल स्वभाव के कारण ही चंडीगढ़ पोस्टिंग ली थी।

दोनों बेटों के जाने के बाद विशाखा दो दिन उसके पास ही रही, फिर निर्मला ने उसे अपना घर संभालने की सलाह दी। विशाखा और उसके पति दोनों डाॅक्टर हैं, नातिन अभी छोटा है।

निर्मला जानती है कि वह कभी अकेली नही रही है।उसे इसकी आदत डालनी हैं। रंजीत कहीं भी बाहर जाते, उसे साथ ले कर जाते थे।सब्जी लानी हो या अन्य सामान अथवा सुबह -शाम की सैर हो निर्मला को साथ जाना ही पङता था।बेशक सामान रंजीत की ही पसंद का होता था,पर उसे निर्मला का साथ अच्छा लगता था। पहले वह हमेशा उससे अपने ऑफिस की बातें करता था।अपने अहंकारी और हठी स्वभाव के कारण उसे ऑफिस में परेशानी का सामना भी करना पङता था। उसके स्वभाव ने उसके मित्रों और रिश्तेदारों को उससे दूर रखा था। पर रिटायरमेंट के बाद इन 10 वर्षो मे उसमें बहुत परिवर्तन आया था। और निर्मला की दिनचर्या तो और भी अधिक उसके चारों ओर बँध गई थी। जब वह ऑफिस जाता था तब वह फिर भी अपने मन का कुछ जीती थी। बंगलौर में वह कभी-कभी पङोस में चली जाती थीं या पङोसनें ही आ जाती थी। विशाखा के होने के बाद, बेटी की ज़रुरतों और खुशी के लिए उसने अपने को सजग और चुस्त बना लिया था।

रिटायरमेंट के बाद वे अपने शहर वापिस लौटे थे, तीनों बच्चें अपनी-अपनी गृहस्थी में व्यस्त हो गए थे। अकेलापन निर्मला को नहीं रंजीत को अधिक महसूस होता था।इसीलिए निर्मला उसके साथ बनी रहती थी।
रंजीत ही अधिक बोलता था, निर्मला तो सिर्फ श्रोता ही थी।अब ऑफिस की नहीं, उसके बचपन की, स्कूल-काॅलेज़ की बातें वह पूरे चाव से सुनती थी। कभी वह उसे पास बिठाकर अख़बार भी पढ़कर सुनाता था। पिछले तीन वर्षों में वह अधिक बीमार रहने लगा था। एक दिन वह अचानक बोला, ” निर्मला, तुम सिर्फ सुनती हो, बोलती नहीं हो, तुम भी अपने जीवन का कुछ बताओ।” निर्मला हैरान समझ नहीं सकी क्या कहे? उसका बचपन भी तो यहीं बीता था, और उससे पहले का जीवन कैसे याद करें? उसने सोचा, “रंजीत सिर्फ मुझे सुनना चाहता है।” उसने उसे अपने तीनों बच्चों के बचपन को सुनाना शुरु किया जिसे सुनाते हुए वह भी खुश होती और रंजीत भी हैरानी और मज़े लेकर सुनता था।और यही तो था उसका जीवन- रंजीत और बच्चे।
उसने बच्चों के जाने से पहले ही घर की व्यवस्था अपनी सुविधानुसार करा ली थी। वह नहीं चाहती थी पर बच्चे कामवाली बाई रख गए थे। बोले, ” पूरे जीवन पापा के कारण सारे काम अकेले करती रही हो, अब कुछ आराम करो” रंजीत कामवाली बाई को देखकर ही चिढ़ जाता था, जब कभी वह बीमार होती तब वह निर्मला को तो पूरा आराम देता और स्वयं बच्चों के साथ घर का काम संभालता पर इस समय बच्चों की बहुत आफत आती थी विशेषरूप से विशाखा तो फंस ही जाती थी क्योंकि वह लङकी थी (और एक लङकी को तो बहुत काम छोटी उम्र में ही आने चाहिए।)। यह सब देख निर्मला थोङी तबियत संभलते ही घर की बागडोर अपने हाथ में ले लेती थी। यह सब सोचते हुए निर्मला को दुख नहीं हो रहा था न उसे लग रहा था कि उसने कुछ सहा था अपितु यह सभी पुरानी बातें उसके चेहरे पर मुस्कान ला रहे थे।
जहाँ उसकी पूरी कोशिश रहती कि वह रंजीत के अकेलेपन की साथी बनी रहे, वहीं दूसरी ओर उम्र की थकान उसकी ओर भी बढ़ने लगी थी विशेष रुप से ये अंतिम तीन वर्ष…..। रंजीत तो हमेशा से ही उस पर निर्भर था, अब तो वह अपने को बहुत ही असहाय महसूस करता था। इन सबसे निर्मला भी चिङचिङी हो जाती थी, उसे दिखने लगा था कि अब अधिक दिन का साथ नहीं रहा है, भविष्य की कल्पना भी नहीं करना चाहती थी पर फिर भी उसकी खीझाहट निकल ही जाती थी, रंजीत उसे खीझता देख हैरान रह जाता था।जहाँ रिटायरमेंट के शुरु साल निर्मला ने बहुत धीरज के साथ तालमेल से बिताए थे, वहीं अब धीरज टूटने लगा था। अक्सर वह पुरानी बातें करते-करते रंजीत के स्वभाव और व्यवहार को दोष देने लगती थी, जो निर्मला कभी रंजीत के सामने बोल नहीं पाती थी, वह निर्मला बच्चों के दूर जाने के लिए भी रंजीत को जिम्मेदार ठहराती थी। तब एक दिन रंजीत बोला था, ” मुझे पता नहीं था कि तुम मेरे साथ इतनी दुःखी थी। मैं तो तुमसे बहुत प्रेम करता हुँ इसीलिए तुम पर अपना अधिकार समझता था। मैं सोचता था कि एक तुम्ही मुझे,मेरे विचारों और स्वभाव को समझती हो, पर मैं गलत था।” उस दिन रंजीत बहुत दुःखी हुआ था। निर्मला को भी अहसास हुआ कि वह इतना कैसे बोल गई थी? आज भी सोचती है कि जब शांति और धीरज के साथ इतने वर्ष बिताए थे तो……. क्यों कङवी हुई? जहाँ वह रंजीत को बिलकुल दुःखी नहीं देख सकती थी, कैसे वह उसे इतना दुख दे पाई थी।

एक दिन विशाखा को उसने अपने मन के इस संताप और पछतावे को बताया था। विशाखा बोली, “आपने कुछ गलत नहीं किया, आप उनसे बहुत प्रेम करती थी इसलिए हमेशा उनके विषय में सोचा, आपने अपने विषय में कभी सोचा ही नहीं था। पर आपका अवचेतन मन तो क्लेश में था, इसीलिए जब आपने महसूस किया कि अब आप अकेली रह जाएँगी तब आपके असुरक्षा के भय ने आपके अवचेतन मन के क्लेश को बाहर निकाल दिया था। कुछ गलत नहीं हुआ, सिर्फ इतना है कि यह बहुत पहले होना चाहिए था।”

निर्मला सोचती हुई बोली, ” पहले कभी लगा नहीं कि मैं उनके मन का करके गलत कर रही हुँ, वह जैसे थे, उसी रुप में उन्हें स्वीकार करके खुश थी। और आज भी नहीं लगता कुछ गलत किया था। फिर मैं जानती थी कि वह समझ नहीं पाएँगे, उनकी समझ इस तरह देख ही नहीं सकती थी। अब भी मैंने जो भी कहा बेशक कङवाहट से कहा, पर वे कहाँ मेरी चिङिचिङाहट व कष्ट समझ सके थे। उन्होंने तो इसका अर्थ यही निकाला था कि मैंने उनसे कभी प्रेम ही नहीं किया था अपितु मैं बेमन से उनके साथ रही थी।”

” मुझे लगा कितनी बङी गलती हो गई मैंने स्वयं अपने प्रेम को नीचे गिरा दिया, इतने वर्षों की तपस्या को मिट्टी में मिला दिया था। मैंने इतने वर्ष खुशी – खुशी और बहुत सहजता से बिताए थे। मुझे उनका साथ पसंद था। तु पता नहीं कैसे कह सकती है?” ” यह अवचेतन मन…. मैं नहीं जानती, मै सिर्फ इतना जानती हुँ कि मेरे हृदय ने उन्हें चाहा था, उनके स्वभाव, उनका गुस्सा, उनकी मनमानी… सबको गहराई से समझा था और उसके अनुसार अपने को ढाला था।” विशाखा ने माँ के दु:ख को समझा और कहा , “उन्होंने बेशक आपका दु:ख न समझा हो पर आपके प्रेम को समझा था और यह सच है कि वह आपको बहुत प्रेम करते थे पर अपने से ज्यादा नहीं करते थे।और आपने सिर्फ उनसे प्रेम किया पुरानी फिल्मी नायिकाओं की तरह उन्हें आराध्य मान लिया था। काश आपने अपने से भी प्रेम किया होता! तब यह बातें जो आपने उनसे इस समय की थी ,वो बहुत पहले हो जाती और वह मुश्किल से समझते या नहीं समझते पर आपके मन को अवश्य आज़ादी मिलती। ”
निर्मला बाद में भी विशलेषण करती रही कि ” क्या अपने को रंजीत के अनुसार ढाल कर गलती करी थी, अपनी इच्छाओं को अनदेखा करना गलत था?” ” रंजीत के साथ वह भी जिद्दी और अङियल बन जाती तो घर युद्ध का मैदान बन जाता। फिर सच है कि उसे रंजीत के मन का करके खुशी मिलती थी। अपने मन पर कभी ध्यान ही नहीं गया। क्यों?”

“क्या वाकई एक अवचेतन मन होता है? क्या जिस बात पर हमारा ध्यान नहीं जाता है, वह बात वहाँ ज़मा हो जाती है? उसे याद आया कि कई बार वह रंजीत के साथ कपङों की खरीदारी पर जाती थी तो वह अपनी पसंद के कपङों को देखती थी, खरीदने का मन भी होता था, पर खरीदती रंजीत की पसंद का, तो क्या इस तरह जब-जब वह अपने मन का अनदेखा करती थी, वे सब अवचेतन मन में जाता था ?” अब निर्मला के पास बहुत समय होता था तो वह पङोस में जाने लगी,सुबह- शाम पार्क जाने पर उसकी कई सहेलियाँ बन गई थी, उनके साथ वह बाजार जाती व वे सब मिलकर पिक्चर या घूमने भी जाते थे। इससे भी अधिक अच्छा लगा था जब वह पास की लाइब्रेरी की सदस्य बनी और किताबें पढ़ना शुरू किया था।
पर उसके जीवन में एक अन्य परिवर्तन आया जब उसकी कामवाली बाई अनीता ने कहा, वह अपनी बेटी को सिलाई सिखाना चाहती है, लेकिन उसका बाप उसे घर से ज्यादा दूर भेजना नहीं चाहता और सरकारी सिलाई केन्द्र घर से बहुत दूर है। उसने बताया कि दसवीं के बाद उसकी पढ़ाई भी बंद करा दी है।
निर्मला ने अनीता की बेटी सुमन को सिलाई सिखाने का निश्चय किया और साथ ही उसका बारहवीं का फार्म भी भरा दिया था। धीरे-धीरे उसके पास सुमन की तरह अन्य छात्राएँ भी आने लगी थी। निर्मला इन्हें सिलाई-कढ़ाई सिखाती व पढ़ने के लिए भी प्रोत्साहित करती थी व यथायोग्य उनकी सहायता भी करती थी। निर्मला स्वयं अनुभव कर रही थी कि उसके आत्मविश्वास मे वृद्धि हुई है। उसके व्यक्तित्व में आए निखार से खुश होकर विशाखा ने फिर यह सवाल किया,” यह सब इससे पहले क्यों नहीं किया?”
निर्मला बोली,” पहले समय नहीं था, और अब भी इत्तफ़ाक से मौके मिलते गए, तु भी कैसे प्रश्न करती है? फिर रंजीत के सामने यह संभव नहीं था, तुझे पता है न! अपने घर के लिए भी मैं कुछ सिलाई- बुनाई उसके सामने नहीं कर सकती थी। वह जानता था, मुझे यह सब करना अच्छा लगता है व बहुत अच्छा करती हुँ, तब भी…”
“याद है मुझे, पर स्वेटर आपके हाथ के बुने पहनते थे, लेकिन ऊन- सिलाई इधर- उधर रखी देख गुस्सा करते थे।” विशाखा बोली,
“फिर बता क्या मैं सोच सकती थी? वह तो चाहते थे कि मैं सिर्फ उनके काम करू और उनकी बातें सुनु। फिर घर के कित…. ने काम? समय ही कहाँ था?” निर्मला अतीत को याद करती हुई बोली।
विशाखा ने एक ओर तर्क रखा कि,” यह सच हैं कि पापा एक कठिन व्यक्ति थे, पर आपने भी अपने लिए नहीं सोचा, कभी अपनी बात उनके सामने नहीं रखी थी। हमें अपने लिए भी सोचना चाहिए और आप ऐसा कर सकती थी। याद है! जब भैय्या विज्ञान नहीं पढना चाहते थे, तब वह काॅमर्स में पढ़ाई आपके कारण कर सके थे और मैं भी डाॅक्टर आप ही के कारण बन सकी हुँ। आपने ही हमें अपनी बात पापा से कहने का हौसला दिया था, साथ ही दृढ़ता से हमारे साथ उनके सामने डटी थी कि हम वही करेंगे जो हम करना चाहते है।”
निर्मला यह बात सुनकर धीरे से मुस्कराई और बोली, ” हाँ, उनकी सोच ऐसी थी कि वह चाहते थे उनके बेटे डाॅक्टर या इंजीनियर बने, इसीलिए पुलकित को मेडिकल साइंस दिलाई थी। पुलकित बहुत निराश व दुखी था, मुझसे बोला, ” मैं डाॅक्टर नहीं बनना चाहता।”
” तब पहली बार मुझे लगा कि मुझे अपने बच्चों के लिए हिम्मत करनी होगी। मैं पहले उसके स्कूल गई उसके प्रिंसीपल व अध्यापकों से बात करी व यह भी कहा कि पुलकित के पापा को भी समझाना होगा, प्रिंसिपल व अध्यापकों से मिलने के बाद ही उन्हें समझ आया था पर मुझ पर बहुत नाराज़ हुए कि मैं बच्चों को सिर पर चढा कर रखती हुँ।” “सुमित की विज्ञान में रुचि थी, इसीलिए कठिनाई नहीं आई पर तु डाॅक्टर बनना चाहती थी, शुरू से पढ़ाई में बहुत होशियार थी, और रंजीत की वही पुरानी सोच कि लङकियों पर इतना पैसा क्यों खर्च किया जाए। लेकिन मैने तुझ से कहा कि तु उनसे बात कर। साथ में मैं भी तेरे साथ अङी थी व उन्हें लङके- लङकी में भेद करने के लिए खूब खरी- खोटी भी सुनाई थी। आज तो सोचकर भी हँसी आती है।तेरे लिए तो मैं भिङने के लिए तैयार रहती थी।”

निर्मला बच्चों के लिए भी बहुत तो नहीं पर ज्यादा जरूरी होता तो अवश्य रंजीत से बात करती थी, यह भी इतना आसान नहीं होता था, जब वह देखता कि उसके चुप गुस्से का किसी पर कोई प्रभाव नहीं रहा, वह बच्चों की इच्छा के लिए अङती व बहस करती तो उससे सहन नहीं होता, उसका क्रोध बढ़ता जाता, वह खूब शोर मचाता, यह बात ओर है कि किसी पर हाथ नहीं उठाता। लेकिन आज निर्मला मानती हैं कि उसका चीखना-चिल्लाना, उठा-पटक किसी आतंक से कम नहीं होता था। उसकी अनिच्छा की किसी भी बात पर वह शांति से चर्चा करना पसंद नहीं करता था। ऐसे समय वह निर्मला पर आरोप लगाता कि वह बच्चों के माध्यम से अपनी मनमानी करना चाहती है। उसे बुरा लगता कि निर्मला का डर खत्म हो रहा है, वह चाहता कि घर के सभी सदस्य उससे डरे। पर उसे अंदर ही अंदर यह डर था कि उसके बेटे बङे होकर उस पर हावी हो जाएंगे, तब वह अपना गुस्सा दिखाने के लिए और सामान की पटका-पटकी करता था, यह कमाल था कि बिना किसी को शारीरिक चोट पहुँचाए वह सबको मानसिक रूप से आंतकित रखता था।

वह नहीं चाहती थी कि बच्चें डरपोक बने इसलिए वह उन्हें अपने मन की करने की छूट देती, उसकी पूरी कोशिश रही कि बच्चें अपने मन का जीवन चुने और जीए। इसी कोशिश में उसने पुलकित को बी.काॅम श्री राम काॅलेज दिल्ली से करने के लिए प्रोत्साहित किया था, चूंकि बैंक की नौकरी के कारण अक्सर तबादला होता रहता था और उस समय भी यही स्थिति आ गई थी, रंजीत का स्थानांतरण लखनऊ शहर में हुआ था।अतः पुलकित को वह खुशी-खुशी दिल्ली भेजने को तैयार हो गया था, पुलकित के नंबर भी अच्छे आए थे, उसे एडमिशन आसानी से मिल गया था।उसके बाद पुलकित कभी पिता के साथ रहने को तैयार नहीं हुआ था, छुट्टियों में भी सिर्फ निर्मला और भाई- बहनों के कारण आता था। सी.ए. बनने में उसे रंजीत से सहायता अवश्य मिली और रंजीत भी उसकी उन्नति से खुश था, पर बचपन की गाँठे वह खोल नहीं सका था, पुलकित ने शादी भी अपनी इच्छा से दूसरी जाति में की थी। पिता-पुत्र के बीच स्वाभाविक संवाद बन ही नहीं पाया था।
सुमित अपने पिता के अनुसार अपने को ढाल लेता था या फिर बङे पुत्र से दूरी के कारण छोटे पुत्र के साथ रंजीत कुछ नर्म भी था।मगर निर्मला को यह भय रहता कि पिता की इच्छा पूरी करने में कहीं सुमित अपना मन कभी खोल ही न पाए।जब सुमित को आई. टी. इंजीनियरिंग बैंगलौर में एडमिशन मिला तो सब खुश थे और निर्मला राहत महसूस कर रही थी कि अब सुमित का स्वतंत्र व्यक्तित्व निखरेगा। सुमित ने विवाह भी अपनी स्वजाति में किया था। सुमित से ही रंजीत की बात-चीत होती थी।
विशाखा सबसे छोटी व लङकी होने के कारण निर्मला के साथ ही लगी रहती थी, रंजीत के मन में उसके लिए लाड तो था पर वह दुलारी नहीं थी जैसे निर्मला अपने पिता की दुलारी भी थी।
रंजीत के मन में एक अनजाना भय भी था कि विशाखा भी कहीं निर्मला की तरह छोटी आयु में ही……। इसीलिए वह उस पर बिलकुल विश्वास नहीं करता था व सख्ती से पेश आता था।
जब निर्मला को रंजीत के इन विचारों का ज्ञान हुआ तब पहली बार उसका दिल टूटा था। उसने रंजीत के सख्त व्यवहार और पुरातन विचारों को स्वीकार किया था या यूँ भी कहा जा सकता है कि उसने रंजीत के गुणों से नहीं अवगुणों से भी प्रेम किया था। पर रंजीत के इस विचार से उसका दिल ही टूट गया था। उसने अपने को बहुत अपमानित महसूस किया था। अंतिम वर्षों में जब वह रंजीत से खुल कर कङवा बोलने लगी थी, तब उसने रंजीत को धिक्कारा था कि” प्रेम तो दोनों ने किया था तो मुझे ही दोष किस लिए? विवाह की जल्दी रंजीत को थी, वह तो बहुत छोटी थी, रंजीत के प्रभाव में आसक्त उसकी इच्छा को ही अपना धर्म मानती गई थी।”
हालांकि निर्मला के मन में भी भय था कि वह नाजुक उम्र उसकी बेटी के विकास को, उसके सपनों को अवरूद्ध न कर दें। पर इसका अर्थ यह नहीं कि उसके लिए वह उस पर सख्ती करती या अविश्वास करती थी अपितु वह उसकी मित्र बनी, वह उसे दूनिया की ऊँच-नीच समझाती और उसने उसे अपना संपूर्ण जीवन खुल कर बताया, पर अपने प्रेम को कभी गलत नहीं कहा, फिर भी अपने व्यक्तित्व के विकास की अवरुद्धता अवश्य दर्शाई थी।

यही कारण है कि विशाखा उसे अच्छी तरह समझती है। निर्मला चाहती थी कि विशाखा अपने जीवन के फैसले स्वतंत्र रूप से लेने के योग्य बने।विशाखा शुरू से मैडिकल में जाना चाहती थी, इसीलिए निर्मला ने उसे प्रोत्साहित किया, जब वह भी पढ़ाई करने के लिए हाॅस्टल चली गई तब निर्मला बहुत अकेली हो गई थी। बच्चों को तो उनके स्वतंत्र विकास के लिए उसने उन्हें दूर भेज दिया था। पर वह स्वयं? तब भी उसका मन, इच्छा, दायरा रंजीत के अनुसार ही बँधा रहा, इसी प्रेम बंधन को उसने अपना धर्म समझ कर खुशी-खुशी निभाया था।
लेकिन यह विशाखा किस अवचेतन मन की बात करती हैं, जबकि उसने अपना जीवन रंजीत के साथ बिना किसी कष्ट को महसूस किए, जीवन गति को स्वीकार करते हुए आनंद के साथ जीया है।क्या वाकई कोई अवचेतन मन हैं जो कुंठाए अपने में ग्रहण करता जाता है?
निर्मला अपने पिछले 43 साल के जीवन को सोचना नहीं चाहती है, वह जीवन में आगे बढ़ना चाहती है। वह आज को भरपूर जीना चाहती है। पर फिर भी वह अपने में आए परिवर्तनों को स्वयं महसूस कर रही है। अब वह कोई भी कार्य करती है, छोटा या बङा, अपने लिए या दूसरे के लिए, यह ध्यान में नहीं होता कि कोई रोकेगा, टोकेगा या टीका- टिप्पणी करेगा। अब वह कोई भी काम किसी को खुश करने या किसी ओर की खुशी के लिए नहीं करती है। अब कुछ भी करना या न करना उसके अपने मन की बात हो गई है। अब तो वह हँसती भी स्वयं के लिए है। यहाँ तक कि वह उदासी के पल भी भरपूर जीती है। वह हैरान है कि वह वाकई अपने को स्वतंत्र महसूस करती है।
लेकिन फिर वह विशाखा की बात पर विचार करती कि क्या वह पहले भी इस स्वतंत्रता को पा सकती थी? लेकिन उसे तो इस आजादी का अहसास ही नहीं था, इस आजादी से मिली खुशी की, उससे मिली बेखौफ साँसों की उसे अनुभूति ही नहीं थी।
पर पूर्णतः यह सच नहीं है, शायद कहीं कुछ खुल कर ज़ीने की चाह ही थी कि जब तीनों बच्चें अपनी पढ़ाई के लिए शहर के बाहर थे तब एक बार रंजीत के ऑफिस जाने के बाद वह अकेली घर से बाहर गई थी और तब रंजीत की पोस्टिंग मुम्बई थी।
मुम्बई घूमने की चाह में वह घर से बाहर नहीं निकली थी,उसने शहर को जानने के लिए नहीं अपितु अपने को कुछ देर आज़ाद करने के लिए उसने अपने कदम बाहर बढ़ाए थे। आज याद करती है तो अपने पर हँसी आती है कि कैसे उसे लग रहा था कि आस-पास चलते लोग उसे ही देख रहे हैं, वह एक बस पर चढ़ी, बहुत घबराते हुए कडंक्टर से टिकट लिया था। पर बहुत दूर जाने की हिम्मत नहीं थी इसलिए दो स्टाॅप के बाद ही उतर गई थी। उसे इस बात का डर नही था कि वह खो जाएगी या सङक पर कोई उसे परेशान करेगा, उसे तो इस बात का डर था कि कहीं रंजीत किसी काम से उधर न आ जाए अथवा वह घर ही जल्दी आ जाए…। फिर भी वह उस काॅफी हाउस में घूस गई और वहाँ काॅफी पीते हुए अपने अंदर साहस और आत्मविश्वास को महसूस किया था। यह जानते हुए भी कि रंजीत जल्दी नहीं आ सकता वह जल्दी घर आ गई थी पर उस दिन बहुत खुश थी।

यह बात उसने विशाखा को अब बताई तो वह बोली,” माँ, आपको इस तरह बाहर निकलते रहना चाहिए था, और पापा के भय को अपने अंदर से निकालना चाहिए था। उनको पता लगता तो भी उनकी परवाह नहीं करनी थी।”
” बेटा, उनके विरुद्ध जाने पर वह और बंदिशे लगाते और क्रोधित भी होते, जब तुम लोगों के मन व जरुरतों के लिए बोलती थी, तब भी कितना शोर मचाते थे, और अगर मैं अपने मन का करती तो मेरी आफत ही आ जाती, नहीं?” कहते हुए निर्मला ने विशाखा की ओर देखा तो पाया उसकी आँखों में अपनी माँ के लिए ममता भरे आँसू थे।
फिर उसने निर्मला के कंधे पर हाथ रखा और बोली,” माँ, अभी भी आपकी आँखों में डर भरआया है, यह बात करते हुए आपका चेहरा भय से पीला हो गया है, जबकि पापा अब नहीं है।”
“जानती हो, आपने अपने डर को प्रेम का ज़ामा पहना रखा था, यह सच है कि आप उनसे प्रेम करती थी, लेकिन जो प्रेम आपको अपने से करना था उस के चारों ओर आपने भय की मज़बूत दीवारें बना ली थी, जिसे आपने अपने पति के प्रति श्रद्धा व सम्मान का नाम दिया था।”
“इसलिए आपने अपने सिवाए सबसे प्रेम किया, तभी जब हमारी खुशी की बात आती तब आप डरती नहीं, अपितु उनसे पूरी ताकत व तर्क शक्ति के साथ जूझती थी, वह भी बहुत नाराज़ होते पर बात मान जाते थे, चाहे बात हमारी पढ़ाई की हो या हमारे अंतर्जातिय विवाह की हो, जिस तरह आप हमारे लिए लङी, अपने लिए भी लङना चाहिए था।”

निर्मला विशाखा की बात सुनते हुए बोली, ” तुम लोगों की इच्छा व खुशी स्वीकार करने में उनकी हार नहीं थी पर जब बात मेरी होती तो वह इसमें अपनी पराजय समझते।”
” और जब आप विरोध करने लगते हैं तो सामने वाला आपको समझता नहीं है अपितु वह आपके विरोध को पूरी ताकत से दबाता है। आप उससे प्रेम पूर्वक भी अपनी थोङी -सी खुशी या अधिकार माँगते हैं तो उनके अहं को चोट पहुँचती है।”
” और फिर उनके अहं से टकरा कर क्या घर की शांति खत्म नहीं हो जाती है, अगर पति- पत्नी दोनों ही अपनी-अपनी खुशी देखने लगेंगे तो परिवार कैसे सुखी रहेंगा।”
विशाखा तपाक से बोली, ” घर की सुख- शांति की जिम्मेदारी सिर्फ पत्नी पर क्यों? फिर पहले ही डर जाना और अपनी खुशियों को अनदेखा करना तो बहुत गलत है। इन सबके बाद भी क्या हुआ? क्या उनका कोई बेटा उनके पास रहने को तैयार हुआ? क्या शांति थी?।”
” मैं आपको दोष नही देती माँ, पर यह अहंकारी पुरूष आपके डर का और आपके रीतियों से चले आ रहे संस्कारों का लाभ उठाते है। जानती हो माँ जहाँ पति- पत्नी एक दूसरे की इच्छा का सम्मान करते हैं, वही घर वास्तव में सुखी रहते है। अपनी इच्छा व खुशी का स्वयं भी मान करना चाहिए उसे अनदेखा नहीं करना चाहिए। अहंकार गलत है पर अपना मान करना गलत नहीं है।”
निर्मला ने सवाल किया, ” क्यों पुरूषों को भी तो विवाह निभाने के संस्कार मिलते है और पत्नी अङी और क्रोधित स्वभाव की हो सकती है, तब…. ?
विशाखा बोली ,” सहना गलत है, वह स्त्री हो या पुरूष हो, फिर भी पुरूष सत्तात्मक समाज में ऐसी अहंकारी स्त्री की आलोचना होती है, जबकि पुरुषों के लिए माना जाता है कि वे तो ऐसे ही होते हैं। समाज उसकी भी आलोचना कर सकता है पर तिरस्कार नहीं करता है लेकिन ऐसी अंहकारी स्त्री को समाज के लिए हानिकारक माना जाता है।”
निर्मला विशाखा के तर्कों पर विचार करते हुए सोच रही थी कि उसने इस दृष्टि से कभी जीवन को देखा ही नहीं था।
एक वर्ष बाद रंजीत की बरसी पर फिर सब सम्मलित हुए थे, इस एक वर्ष में निर्मला का बदला हुआ स्वरूप मिला। साल में एकबार वह पुलकित के पास और एक बार सुमित के पास गई थी, बिलकुल अकेले यात्रा करने की सलाह विशाखा ने ही दी थी।
निर्मला ने गरीब लङकियों को समर्थ करने का कार्यक्रम तो सफलता पूर्वक चलाया ही इसके साथ ही उसने प्रत्येक आयु व वर्ग की महिलाओं के लिए एक क्लब खोला जिसमें वे सब विभिन्न विषयों पर चर्चा करते हुए, अपने से प्रेम करना और अपना मान करना भी सीखते थे।
निर्मला अचंभित है कि आज के युग में भी अधिकाश लङकियाँ अपनी खुशियों और मान को अनदेखा करके घर मे शांति बनाने की कोशिश में लगी है, जबकि वह उच्च शिक्षित व नौकरी पेशा भी है। नई पीढी के लङकों को अभी अपने अहं से जुझना पङ रहा था, वे आधुनिकता और पुरातनता के बीच झूल रहे हैं।
यह क्लब था कोई महिलाओं की सामाजिक संस्था नही थी। यहाँ प्रत्येक सदस्य अपने अनुभव दूसरों को बताता और चर्चा होती व एक नई सोच तैयार होती थी। यह स्पष्ट था कि यह क्लब पुरूष विरोधी नहीं था। महिलाएँ अपनी सोच पर कार्य करने के साथ पुरूषों की सोच पर विचार करती थी, और कैसे अहंकारी और हठी पुरूषों के साथ व्यवहार किया जाए। इस क्लब का विश्वास था कि समाज की उन्नति के लिए स्त्री व पुरूष दोनों के विचारों में बदलाव आवश्यक है। यह आवश्यक है कि दोनो एक दूसरे का सम्मान करें। यहाँ नफरत की बातें नहीं की जाती थी इसीलिए प्रेम से कोई परहेज नहीं था बशर्ते प्रेम का अर्थ अपने मान को त्याग करना न हो। अपने को भी प्रेम करों व दूसरे के प्रेम का सम्मान करो।इस क्लब का यही उद्देश्य था।
निर्मला खुश थी कि वह अपने जीवन के अनुभवों से नई पीढ़ी में एक नई सोच की पौध लगा रही है।

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