कविता- 1

‘भाग गई’

यह कल ही की तो बात है, जब हाथ में हाथ डाले बैठे थे साथ,
वचन वायदे करते थे साथ,
सारी दूनिया भूल कर रहेंगे साथ।
मर्यादा की झोली फैलाए माता-पिता बैठे थे पास,
पर मुझे तो देना था तेरा साथ।
दूनिया ने कहा भाग गई- किसी ने कहा भाग कर आई।
जो किया मैंने किया, लङकी को डोली में विदा होना होता है,
मैं बिन डोली आई तेरे द्वार।
तुझे नही कहा भाग गया, किसी ने नही कहा भाग कर आया,
तु तो बैठा था अपने द्वार।
जो लांछना थी वो मेरी थी, जो सहना था वो मैंने था,
समझौते भी तो मेरे थे, तेरे साथ, तेरे परिवार के साथ।
चूंकि मैं भाग आई थी।
माता-पिता बैठे थे फैलाए झोली,
लांघ में आई मर्यादा उनकी।
अब तु कहता चली जा, निकल जा,
अब न संभलता हमारा साथ,
सच अब न निभता साथ।
पर तु तो बैठा अपने द्वार,मैं जाऊँ किस द्वार?
जाती फिर कोई कहता भाग गई।
जो भी था तुझे समर्पित था,
जो त्यागा तुझ पर त्यागा था।
कुछ न अब अपना मेरे पास।
क्या जाऊँ उस पार?
क्या वही ठौर अब मेरे पास?
नहीं! मुझे तो रहना इसी पार,
अब जो मर्यादा होगी वो मेरी अपनी होगी।
जो वायदे होगे वो मुझ से मेरे अपने होंगे।

कविता- 2

एक सवाल- एक उत्तर’

सवाल उठा है कि एक औरत क्यों लेती है, एक मर्द का सहारा?
क्या करें कोई दूसरी औरत देती नही सहारा!
औरतों को दिए गए संस्कार ऐसे
कि एक औरत करती दूसरी औरत को बेसहारा।
औरत को तो यूँ ही पानी में डाल दिया जाता है।
तैरना सिखाते नहीं, तैर कर पार जाने को कहा जाता है।
लहरों की थपेङों को खाते हुए, स्वयं हाथ पैर मारते हुए,
तैरना सीख गई तो सीख गई/ और नहीं!
डूबती है तो डूब जाए,
गर भंवर में फंस भी गई तो?
हिम्मत फिर भी न हारेगी,
इतना विश्वास है उस पर सबको,
और थक हार गई तो क्या?
डूब ही तो जाएगी।
उस हताशा में गर कोई हाथ, बढ़ता है उसकी ओर,
तो क्या तिनके का सहारा नहीं लेगी वह?
चांस तो लेगी न!
वो तिनका है या मात्र धोखा,
बिना परखे कैसे समझ पाएगी वह?
क्या तुम मज़ाक उङा रहे हो उसका? कि
एक औरत क्यों लेती एक मर्द का सहारा?
क्या करें कोई दूसरी औरत देती नहीं सहारा।
जैसे हम डूबती, उठती, बहती और लहरों का ही
सहारा लेती कर गई पार,
तुम भी इसी तरह रख हौसला बुलंद,
हो जाओगी पार।
गर लहरों और हवा की दिशा रही अनुकुल तुम्हारे,
तो फिर क्या चिंता? कर ही जाओगी पार।
और गर हो वो प्रतिकुल तो भी क्या?
कुछ जल्द ही तो डूब जाओगी,
क्या फर्क पङता है?
पानी तो यूँ ही बहा करता है।
वो बढ़ा हुआ हाथ मित्र का था या गैर का,
यह तो परख के पता लग ही जाएगा,
पर उससे क्या उस गैर का चरित्र निखर जाएगा?
स्त्री तो पानी में ही है-
उसका चरित्र तब भी पानी की तरह निर्मल रह जाएगा ।
क्या तुम्हे बुरा लग रहा है? कि
एक औरत क्यों लेती एक मर्द का सहारा।
गर बढ़ा हुआ हाथ मित्र का है, तो
स्वयं तो डूबने से बचेगी ही,
यकिन मानों दूसरों को भी बचा पाएगी।
मर्द क्या जाने, तिनके के सहारे का अर्थ,
बेशक वो तिनका धोखा ही क्यों न हो,
मर्द के सहारे के लिए तो वह है न!
डूबने न देगी वो उसको,
अपनी प्राण- प्रतिष्ठा रख बचाएगी वो-
तैरना न जानती हो तब भी,
एक माँ पुत्र को तो किनारे पहुँचाएगी ही,
एक पत्नी पति को तो सहारा दे जाएगी।
और फिर मर्द को तो तैरना आता है!
तब भी उसके सहारे को है न!
माँ, पत्नी, प्रेमिका………
और फिर एक मर्द को दूसरा मर्द भी सहारा दे जाएगा।
राम के साथ तो लक्ष्मण थे,हनुमान थे,
पूरा राजपरिवार था….
सीता को किस सहारे छोङा जंगल में?
ऋषि बाल्मिकि का ही सहारा मिला उसको,
वो भी तो पुरूष थे न!
द्रोपदी के चीर-हरण में,
गर कृष्ण न बनते सहारा?
तो……
जो थे तो देव पुरुष ही न!
एक औरत क्यों लेती एक मर्द का सहारा?
क्या करें कोई दूसरी औरत देती नही सहारा।

कविता-3

भूली-बिसरी यादें ‘

भूली बिसरी यादों में जब कभी डूबती उतरती हुँ,
कुछ खट्टी, कुछ मीठी यादें यूँ ही गुजरा करती हैं।
पर कभी कोई तीखी याद आज भी तीर सी चुभ जाती है।
खट्टे को तो मीठे में बदलना आ गया है,
पर
तीखे का क्या करूँ?
वो तो इतना तीखा है कि,
आज भी सीना जला जाता है।
भूली बिसरी यादों में जब कभी डूबती उतरती हुँ।
यादों की पोटली से मीठे बेर फुदक फुदक बाहर आते हैं।
कुछ खट्टे बेर भी होते है, जिन्हें मैं लपक कर पकङा करती हुँ।
पर यह तीखा बैर कैसे आया? समझ नहीं पाती हुँ,
वो तो कहीं गहरे दबाया था।
खट्टे को तो स्वाद से खाना आता है,
तीखे का क्या करुँ?
वो तो आँखों में आँसु लाता है।
वापिस पोटली में डालना चाहती हुँ,
पर वो हो न पाता है।
कुछ ज्यादा ही सताता है।
भूली बिसरी यादों में जब कभी डूबती उतरती हुँ।

कविता-4

स्वाधीनता के उपलक्ष्य में ‘

स्वाधीनता के उपलक्ष्य में,
आज किया एक सवाल,
क्या मैं स्वतंत्र हुँ?
क्या अपना जीवन स्वेच्छा से जीने के लिए स्वतंत्र हुँ?
कुछ अधिकार-कुछ कर्त्तव्य
क्या अधिकारों के लिए रही स्वतंत्र?
या
सिर्फ कर्त्तव्यों के लिए रही स्वतंत्र?
या
उन्हें निभाने के लिए भी रही किसी के आधीन।
क्या अपनी सोच में स्वतंत्र हुँ?
या
परंपराओं और कुरीतियों व अंधविश्वासों की बेङियों में बँधी हुँ।
जानती हुँ गलत है अपने लिए व समाज के लिए भी,
फिर भी इसीलिए निभाती सङी-गली परंपरा-
कि दूसरे चाहते हैं।
तो क्या मैं स्वतंत्र हुँ?
आज भी दूसरे के घर कितना दहेज़ आया,
देखती हुँ।
क्यों करती हुँ मैं ऐसा?
जानती हुँ दहेज प्रथा गलत है,
तो क्या मैं विचारों से स्वतंत्र हुँ?
बिल्ली रास्ता काट जाए,
दिल धङक जाता है-
क्या वाकई मेरा मस्तिष्क आज़ाद है?
कल संदेश आया,
किसी जाति के लिए अनाप-शनाप आया,
दूसरों को प्रेषित नहीं किया,
पर
विरोध भी नहीं किया।
क्यों खुल कर न बोली?
यह गलत है, गलत है।
मैं अपने विचारों से स्वतंत्र नहीं,
अपनी सोच से स्वतंत्र नहीं।
आज भी मैं परतंत्र हुँ,
जो दूसरे चाहते हैं, वह करती हुँ।
प्रजातंत्र की भेङों में,मैं भी शामिल हुँ,
मैं भेङ नहीं बनना चाहती-
पर बन गई हुँ।
नहीं मै स्वतंत्र नही हुँ।

कविता-5

खानाबदोश ‘

आज फिर अपनी कुछ निशानियाँ, अजनबियों के लिए छोङ,
ये खानाबदोश आगे बढ़ चले हैं।
अपनी यात्रा के अगले पङाव पर बाँधेंगे अपने तंबु,
जहाँ उन्हें कुछ अजनबियों के उसी पङाव से रह कर,
गुज़र जाने के अहसासों के साथ अपने को जीवन्त रखना होगा।
खानाबदोश अपने गीत गाते होंगे और स्थानीयवासी उन गीतों को गुनगनाते रहेंगे, ऐसे इन अज़नबियों से एक रिश्ता निभाते रहेंगे।