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मासिक अभिलेखागार: फ़रवरी 2019

सीखने-सिखाने की कोशिश- (भाग-6)

27 बुधवार फरवरी 2019

Posted by शिखा in Uncategorized

≈ 6s टिप्पणियाँ

हम अपने जीवन से हर पल कुछ सीख रहें होते हैं।समय आगे चलता जाता है, उसके साथ हमारा जीवन भी बढ़ता जाता है इसीलिए कहते है कि इस जीवन सफर में अतीत के पीछे न भाग कर आज पर ध्यान देते हुए भविष्य की ओर बढ़ते चलना चाहिए।

किन्हीं परिस्थितियों वश हमें अपना यह स्कूल बंद करना पङा था। उस समय बुरा लगा था, पर धीरे-धीरे समझ आया कि परिस्थितियाँ भी हमें आगे बढ़ने, कुछ नया सीखने की प्रेरणा देने के लिए आती हैं।

मैंने अपना ट्यूशन कार्य कभी बंद नहीं किया था, जब स्कूल चल रहा था तब भी शाम को मेरे पास बच्चे ट्यूशन पढ़ने आते थे और यह कार्य मैं निरंतर आज तक कर रही हुँ। मैं अपने ट्यूशन कार्य के विषय में अपने अगले भागों में लिखूँगी, क्योंकि ट्यूशन के बच्चे तो जैसे मेरे घर के सदस्य हैं । वे तो मेरे घर आकर मुझे नित नया पाठ सीखा जाते हैं।
मैंने उसके बाद एक प्रतिष्ठित स्कूल में काम किया था। उस विद्यालय के अपने अनुभवों के विषय में लिखने से पूर्व मैं कक्षा प्रथम के पाठ्यक्रम की विस्तार से विवेचना करने जा रही हुँ।

मैं यहाँ प्राइवेट स्कूल(अंग्रेजी माध्यम) के प्रथम कक्षा के विषयों की ही बात करूँगी। इसलिए भी कि लोगों का अमीर या गरीब सबका सरकारी विद्यालयों पर से विश्वास उठा हुआ है, उनकी भरसक कोशिश रहती है कि उनका बच्चा अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में पढ़े।जिस कारण शहरों में अंग्रजी माध्यम के प्राइवेट स्कूल बहुत मिलेंगे और कई गाँवों में भी ऐसे प्राइवेट स्कूल मिल जाते हैं।

यहाँ प्रथम कक्षा में हिन्दी व अंग्रेजी दो भाषाएँ पढ़ाई जाती हैं, गणित के अतिरिक्त पर्यावरण संबधी(E.V.S) व सामान्य ज्ञान (G.K) भी पढ़ाए जाते है।
नर्सरी से कक्षा प्रथम तक बेसिक भाषा सीखा दी जाती है। भाषाओं का अक्षर ज्ञान व शब्द ज्ञान भली-भांति सीखने से ही आगे की कक्षाओं में लाभ होता है। चूंकि पढ़ाई का माध्यम अंग्रेजी हैं, तो यह आवश्यक है कि अंग्रेजी भाषा के शब्द निर्माण व वाक्य- विन्यास उन्हें समझ आए और वह उसमें निपुण हो जाएं। उन्हें दोनों भाषाओं के व्याकरण का बेसिक ज्ञान देना आवश्यक है।

यह खुशी की बात है कि किताबें बहुत अच्छी व ध्यान पूर्वक लिखी गई हैं, परंतु विद्यालयों में पाठ्यक्रम निबटाने की जल्दी होती हैं। यह समझे बिना कि कक्षा के प्रत्येक विद्यार्थी ने पाठ ग्रहण किया है या नहीं, अध्यापक अगला पाठ आरम्भ कर देते हैं। ऐसे लगता है कि जैसे वे किसी काॅलेज में सिर्फ लेक्चर देने जाते हों।

मेरे विचार से भाषा को मात्र एक विषय न समझ कर उसे शिक्षा के विटामिन समझा जाना आवश्यक है। जैसे अच्छे स्वास्थ्य के लिए विटामिन आवश्यक है।वैसे शिक्षा के लिए भाषा आवश्यक है। अगर कोई विद्यार्थी पढ़-लिख कर भी अपने को किसी भी भाषा में लिख कर व्यक्त नहीं कर सकता तो इससे अधिक दुःख की बात क्या हो सकती है। भाषा ही तो अभिव्यक्ति का साधन है।

अंग्रेजी तो विदेशी भाषा है जो हमारे देश के परिवारों में बोली नहीं जाती है, अतः विद्यार्थी को कठिनाई हो सकती है। परंतु ऐसा होना नहीं चाहिए क्योंकि विद्यार्थी नर्सरी कक्षा से इंगलिश पढ़ता है अर्थात 3-4 वर्ष की आयु से भाषा सीखता है, यह वह आयु होती है जब बालक आसानी से भाषाएँ सीख सकता है। परंतु अधिकांश विद्यालयों में भाषाएँ भी इतनी जल्दबाजी में पढ़ाई जाती है कि एक बच्चा छोटे वाक्य बनाना सीख नहीं पाता है और बङे वाक्य कक्षा में सिखाने शुरू कर दिए जाते हैं।

हिन्दी भाषा सीखने में भी बङी कठिनाई आती है। हिन्दी भाषायी प्रदेशों में जहाँ प्रत्येक घर की भाषा हिन्दी होती है, वहाँ भी एक शब्द के उच्चारण व लहजे में भिन्नता पाई जाती है। बच्चे घर में जो बोली बोलते हैं वह स्कूल में नहीं सिखाई जाएगी यहाँ वह भाषा सीखते हैं, अतः अध्यापक का कर्तव्य है कि वह शब्दों का सही उच्चारण व प्रत्येक शब्द का प्रयोग करना अपने विद्यार्थियों को सिखाएँ।

परंतु अध्यापक बहुत जल्दी में होते हैं। कारण पाठ्यक्रम में दो अन्य विषय भी होते है-E.V.S &G.K. इन अतिरिक्त विषयों की किताबों और दिए हुए ज्ञान में कोई परेशानी नहीं है। यह आवश्यक भी है कि विद्यार्थियों को पर्यावरण संबधी व सामान्य ज्ञान मिलना चाहिए। लेकिन क्या यह दोनो विषय एक नहीं हो सकते हैं?

परंतु इन विषयों के पाठों को न केवल पढ़ाया जाता है, अपितु उनके प्रश्न- उत्तर लिखाए जाते हैं, रटाए जाते हैं और फिर उनकी परीक्षा भी ली जाती है। परीक्षा क्यों? अभी विद्यार्थी भाषा की कक्षा में छोटे शब्दों और वाक्यों को ही बनाना लिखना सीख सका है। पर इन विषयों के बङे-बङे शब्दो का उसे न केवल उच्चारण सीखना है अपितु उसकी spelling भी समझनी हैं, रटनी है और फिर परीक्षा भी देनी है।

हम उन्हें इन विषयों का ज्ञान, चर्चा द्वारा, कहानी और चित्रों द्वारा भी दे सकते हैं ।छोटी-छोटी टेली फिल्मस के माध्यम से भी सिखाया जाता है, आजकल स्कूलों में स्मार्ट क्लास में इसी विधि से पढ़ाया जाता है।अगर संभव हो तो उन्हें व्यावहारिक ज्ञान दिया जाए जैसे पेङ- पौधों के ज्ञान के लिए उन्हें बगीचें में ले जाएं । पर मेरी समस्या यह है कि उसके बाद परीक्षा क्यों? जो देखा-समझा, वो कितना-देखा समझा का सवाल क्यों?

मेरा अनुभव है कि बच्चों से चर्चा करते हुए, उन्हें अपने से जोङते हुए, यदि पाठ समझाया जाता है तो प्रत्येक बच्चा उस पाठ को ग्रहण कर पाता है। जैसे- खरगोश और कछूए की कहानी से सभी बच्चे समझते है कि खरगोश तेज दौङता है और कछुआ धीरे। पेङों व फूलों के भागों के विषय में तथा वे अपना भोजन कैसे बनाते है उन्हें व्यावहारिक प्रयोगों के माध्यम से आसानी से सीखा सकते हैं। यह सिर्फ मेरे विचार नहीं है अपितु सभी विद्वान शिक्षाविदों के विचार हैं, मैं तो उन विचारों को पुनः स्मरण कर रही हुँ।

परीक्षा के लिए पाठ पढ़ाना और उसे रटाना यही शिक्षण विधि की अहम भूमिका बन गई है। कोई भी विषय जब परीक्षा के उद्देश्य से पढ़ाया जाता है तो उसमे से ज्ञान विलुप्त हो जाता है। परीक्षा शब्द में इतना बोझ है कि अध्यापक और अभिभावक दोनो ही भयभीत हो उस बोझ को बच्चों पर डालने लगते हैं। उनकी एक ही कोशिश होती है कि बच्चे पाठ का अभ्यास कार्य अच्छी तरह रट लें कि परीक्षा में सभी उत्तर अच्छे लिख सके व नंबर मिलने पर अध्यापक खुश कि उसने अच्छा पढ़ाया और अभिभावक भी खुश कि वे बच्चे को पाठ अच्छी तरह रटा सके थे ।

लेकिन परीक्षा में लिखने के लिए बच्चे का भाषा ज्ञान अच्छा होना आवश्यक है, पर चूंकि प्रथम कक्षा में छात्रों की भाषा में उतनी प्रवीणता नहीं होती हैं कि वह स्वयं अपने ज्ञान के अनुसार उत्तर लिख सके इसीलिए उन्हें उत्तर रटाए जाते हैं।
कई स्कूलों में परीक्षा नहीं ली जाती पर छोटे-छोटे class test लिए जाते हैं और उनके आधार पर रिपोर्ट कार्ड जरूर बनती है ताकि माता-पिता अपने बच्चे की प्रगति जान सके। रिपोर्ट कार्ड में अब छोटी कक्षाओं के लिए ग्रेड पद्धति भी है।अभिभावक की मानसिक समझ वही रहती है और वे A+ व B+ की तुलना में फंसे रहते हैं।

एक अन्य विषय बच्चों पर लादा जाने लगा है । कंप्यूटर आज के युग की प्राथमिक आवश्यकता है तो बच्चों को उसका ज्ञान होना चाहिए।कक्षा प्रथम से एक कंप्यूटर की किताब लग जाती है और फिर कंप्यूटर लैब में तो बच्चे कम जाते हैं पर उन्हें किताब के पाठ रटाए जाते हैं, फिर उसकी भी परीक्षा ली जाती है।

एक विद्यालय के प्रथम कक्षा के छात्र को पढ़ाते हुए मैं परेशान थी कि मुझे उसे सात विषय पढ़ाने थे और इन सभी विषयों की परीक्षा भी होनी थी।
विषय थे-1: गणित
2: हिन्दी
3: इंगलिश
4: ई.वी.एस
5: जी.के.
6: नैतिक शिक्षा
7: कंप्यूटर
ड्राइंग भी आठवाँ विषय था, जिसमें उसकी बहुत रूचि थी।
अब फिर यह प्रश्न कि नैतिक शिक्षा की परीक्षा क्यों ? इस विषय की किताब में रोचक कहानियाँ थी, जिन्हें वह खुशी से सुनता था। अभी उसकी इंगलिश इतनी अच्छी नहीं थी कि वह स्वयं पढ़ सके व समझ भी सके। पर कठिनाई यह थी कि इसकी भी परीक्षा होनी थी।

विद्यार्थी जिसे सब ज्ञान है,पर वह परीक्षा में प्रश्न समझ नहीं सका, या पढ़ नहीं सका है क्योंकि वह सभी अक्षरों व शब्दों को पढ़ नहीं पाता या समझ नहीं पाता है( बात कक्षा प्रथम की ही हो रही है)।अतः उत्तर नहीं लिख सकता है।
एक विद्यार्थी जिसे सब ज्ञान है व पढ़ व समझ भी सकता है परंतु लिखने में कठिनाई है या लिख पाता है परंतु spelling mistake करता है अथवा speed कम है, दी गई निश्चित अवधि तक वह पेपर पूरा नहीं कर पाता है, तब नंबर तो कम ही आएँगे।
इन बच्चों पर लिखने का इतना बोझ डाला जाता है कि वे सपने में भी अपने को शब्दों में घिरा महसूस करते होंगे।

मेरी एक मित्र ने अपने स्कूल में जहाँ वह एक काउंसिलर के पद पर कार्यरत थी, ऐसे बच्चों के लिए उस स्कूल के मुख्याध्यापिका व अध्यापिकाओं से विवाद किया और उन्हें सहमत किया कि जिन बच्चों को सब ज्ञान है व वे परीक्षा में पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दे सकते हैं, पर लिखने में कमज़ोर है उन्हें भी उनके ज्ञान के आधार पर नंबर दिए जाएं।

नंबर न मिलने पर व उस पर भर्त्सना झेलने के कारण उनका पढ़ाई से, व नित कुछ नया सीखने से रूचि खत्म हो जाती है।
मेरे विचारों का आधार बङे प्रतिष्ठित प्राइवेट विद्यालयों और छोटे प्राईवेट विद्यालयों में सामान्यतः अपनाई गई शिक्षण विधियाँ है।

निष्कर्ष में कह सकते है कि कक्षा तीन तक बच्चों की भाषाओं पर विशेष ध्यान दिया जाए । उनके शब्दों के उच्चारण व लिखने में उनके वाक्य विन्यास को मज़बूत किया जाए।प्रत्येक अध्यापिका का कर्तव्य है कि भाषा सीखने में प्रत्येक बच्चे को जो कठिनाई आ रही हैं उसे समझे व दूर करें। यदि अध्यापकों पर भी कार्य बोझ कम हो, पाठ्यक्रम पूरा करने का दबाव न हो तो वह स्वतंत्र रूप से अपने कार्य को पूर्ण निष्ठा से निभा सकते हैं।
गणित को भी खेल-खेल में सिखाने का अधिक प्रयत्न किया जाए, अन्य विषयों को भी रूचिकर विधियों से पढ़ाया जाए। बच्चे ज्ञान स्वयं सहजता से प्राप्त करें। सभी बच्चें ज्ञान प्राप्त करें यह आवश्यक है पर वह ज्ञान कितनी मात्रा तक ग्रहण करें इसका दबाव नहीं डाला जाना चाहिए। तथ्य उन्हें समझाएँ जाए व रटाए न जाए उन्हें स्वतः रूचि अनुसार समझने की स्वतंत्रता भी देनी आवश्यक है।

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सीखने-सिखाने की कोशिश-(भाग-5)

20 बुधवार फरवरी 2019

Posted by शिखा in Uncategorized

≈ 9s टिप्पणियाँ

जैसा कि मैंने पहले ही बताया है कि उस समय नर्सरी कक्षा में प्रवेश के लिए बच्चों का साक्षात्कार होता था और हमें अपने प्री-नर्सरी स्कूल में बच्चों को इसी साक्षात्कार के लिए तैयार करना होता था। माता-पिता बहुत तनाव में होते थे व बच्चों पर भी दबाव होता था।

मलाईका बहुत तेज दिमाग की व नाज़ुक बच्ची थी। वह कक्षा की सभी गतिविधियों में उत्साहपूर्ण भाग लेती थी। वह कक्षा की एक बातुनी छात्रा थी, ऐसा कोई कारण नज़र नहीं आता था कि वह साक्षात्कार के समय जवाब नहीं दे पाएगी। परंतु वह तभी खुल कर बात करती थी जब उसे परिचित वातावरण मिले। अजनबियों से वह बात नहीं करती थी।

इसके विपरीत अपूर्वा बहुत शांत छात्रा थी, वह भी सभी गतिविधियों में भाग लेती थी व बहुत जल्दी सब सीखती थी। वह सभी कार्य इत्मीनान व आत्मविश्वास से करती थी पर कम बोलती थी।
अतः साक्षात्कार के समय नई जगह व नए लोग, उस पर बच्चे को माता-पिता के बिना एक अलग कमरे मे ले जाया जाता था। मलाईका जैसे संवेदनशील बच्ची ने तो कोई भी जवाब देने से व किसी भी अन्य गतिविधि में भाग लेने से इंकार कर दिया था।

लेकिन अपूर्वा को कठिनाई नहीं हुई थी क्योंकि स्वभावतः उसमें सहजता थी अतः अजनबी लोगों के बीच भी उस वातावरण में उसका आत्मविश्वास बना रहा था। प्रत्येक बच्चे का अपना स्वभाव होता है, एक समान वातावरण में समान शिक्षा पाकर भी वे भिन्न व्यवहार करते हैं।

अपूर्वा और मलाईका दोनो ही बहुत होशियार थी। परंतु अपने प्राकृतिक स्वभाव के कारण एक विशेष वातावरण में दोनों का व्यवहार भिन्न था।
यह खुशी की बात है कि अब इस प्रक्रिया को बंद कर दिया है।

पढ़ाई समझने की आयु से पहले ही हम बच्चों को इतना डरा देते हैं कि पढ़ाई उन्हें किसी भयंकर जानवर जैसी प्रतीत होती है।

सभी बच्चे सामान्यतः रंगों की पहचान आसानी से कर लेते हैं पर खुशी नहीं कर पा रही थी, मैं और मेरी सह-अध्यापिकाएँ प्रतिदिन उसके लिए नए प्रयास करते थे। चित्रों में रंग भरना उसे पसंद था, अक्षरों की पहचान भी सीख रही थी। चित्रों में अपनी पसंद से अलग-अलग रंग भरती थी, सिर्फ रंगों के नाम बताने में गङबङ कर रही थी। उसकी दादी आती वह एक ही शिकायत करती कि हम उसे रंगों की पहचान नहीं करा पा रहे हैं।

मैं नहीं चाहती थी कि उस पर रंगों के नाम सीखने के लिए दबाव डालू।फिर रंग ही तो प्रतिभा की एकमात्र पहचान तो नहीं है।बाद में स्वयं उन्होंने यह स्वीकार किया कि खुशी के पिता को colourblindness है, व घर के अन्य सदस्यों को भी है। जो समस्या जेनेटिक है उसका क्या किया जा सकता है? पर मैंने उन्हें समझाया कि अभी बहुत छोटी है थोङा अधिक समय लग सकता है पर बेसिक रंग पहचान लेगी। यह भी कि वह किसी विशेषज्ञ की सलाह ले सकते हैं।

अक्सर लोग बच्चों की भिन्न विशेषताओं के लिए विशेषज्ञों के पास नहीं जाते हैं, मेरे विचार से उन्हें विशेषज्ञों से मिलना चाहिए।

हम सभी अपनी कमियों से इतने परेशान होते हैं कि हमें डर होता है कि हमारे बच्चे में वह कमी न हो। हमारा यह डर हमारे बच्चे के अंदर प्रवेश कर रहा है, इसका हमें ज्ञान नहीं होता है। जबकि आप उस कमी के बावजूद अपने क्षेत्र में सफल हैं। अपनी कमी को एक भिन्न विशेषता के रूप में स्वीकार करेंगे तो अपने बच्चे की भिन्न विशेषता को समझेंगे और जानेंगे कि यह इतनी भी भिन्न विशेषता नहीं है। एक समान विशेषताओं के लोग भी अनेक मिलते हैं, आप इतने भी अज़ूबे नहीं होते हैं। फिर भी यह सच है कि हर व्यक्ति या हर बच्चे का अपना निजी व स्वतंत्र व्यक्तित्व होता है।

एक अन्य समस्या सामने आई जब एक संयुक्त परिवार के दो बच्चों ने मेरे विद्यालय में आना शुरू किया था। जिठानी-देवरानी के बीच की प्रतिद्वंदिता के शिकार बच्चे हो रहे थे। जिठानी का बेटा अश्विन और देवरानी की बेटी कनिका दोनों बहुत प्यारे बच्चे थे। कनिका बोलने में होशियार थी जैसा कि माना जाता है कि लङकियाँ बोलने में तेज़ होती हैं। (हालांकि यह भी जरुरी नहीं है।) कनिका का उच्चारण भी बहुत सही व स्पष्ट था। वह कक्षा में बोली सभी कविताओं और कहानियों को सुनकर, घर पर जाकर ज्यों का त्यों सुनाती थी, यकीनन वह तो घर पर खिलौना होती होगी।

इसके विपरीत अश्विन की भाषा अभी साफ नहीं थी, वह कनिका से दो महीने छोटा भी था। उसे खेल-कूद बहुत पसंद था। उसे घर जाकर स्कूल की बातें करना पसंद नहीं था, फिर कनिका तो सब बताती ही थी।

जिठानी को यही महसूस होता कि हम कनिका पर विशेष ध्यान देते हैं।वह बार-बार एक ही बात कहती कि अश्विन कोई कविता नहीं सुनाता था। जबकि कनिका कक्षा में सिखाई प्रत्येक नई कविता को तुरंत घर जाकर पूरे अभिनय के साथ सुनाती थी। मैंने उन्हें समझाना चाहा कि-

“इसमें हमारी कोई योग्यता नहीं है, यह कनिका की अपनी योग्यता है। उन्हें दोनो बच्चों की तुलना नहीं करनी चाहिए। अश्विन भी प्रतिभाशाली है, सिर्फ वह आपको कविताएँ नहीं सुनाता है, तो इस कारण से पीछे नहीं है। वह समूह में कविताएँ बोलता है व आनंद लेता है और एकल में भी कोशिश करता है।”

क्योंकि उसकी भाषा तब तक उतनी स्पष्ट नहीं थी, अतः घर पर सुनाने में झिझकता था, बच्चे बहुत संवेदनशील होते हैं, वह जानते हैं कि उन्हें अभी शब्दों का उच्चारण करने में सफलता नहीं मिली है। जैसे हम बङों के लिए कहते हैं कि सबके अपने भेद (secret) होते हैं वैसे बच्चों के अपने भेद होते है।

कविताएँ याद करने या न करने से किसी की याददाशत की शक्ति को परखा नहीं जा सकता है। मुझ जैसे तो बहुत मिलेंगे जिनके लिए कविता या गाना याद करना पहाङ पर चढ़ाई चढ़ने जैसा था।

मैंने उन्हें समझाने का प्रयास किया कि “आपके बच्चे की आयु अभी पूरी तीन वर्ष भी नहीं है।इस छोटी आयु के बच्चों की ऐसी प्रगति ( जैसे-भाषा की स्पष्टता) की तुलना नहीं की जानी चाहिए । बच्चा अपनी आयु के बढ़ने के साथ धीरे-धीरे सब सीख जाता है। बच्चे सही उच्चारण 4-5 वर्ष की आयु तक भी सीख पाते हैं, परंतु इससे बच्चे के बौद्धिक विकास का अनुमान लगाना उनके साथ अन्याय करना है।”

मैंने उन्हें कहा कि वह अश्विन की अन्य योग्यताओं पर ध्यान दें व उसकी बिना तनाव के परवरिश करें।
अश्विन की माँ एक उच्च शिक्षित 25 वर्षीय युवती थी। मुझे नहीं पता उन्होंने मेरी सलाह कितनी समझी?

प्री- नर्सरी में बच्चे 2 से 4 वर्ष की आयु के होते है। इस आयु-वर्ग के बच्चों की प्रगति में बहुत भिन्नता पाई जाती है। बच्चे अपने स्वभाव के अनुसार प्राकृतिक रूप से अपनी मानसिक व शारीरिक प्रगति करते हैं। कुछ बच्चे शारीरिक गतिविधियों में तेजी से प्रगति करते हैं, कुछ बच्चों में बौद्धिक गतिविधियों की प्रगति स्पष्ट नज़र आती हैं।हमें सिर्फ इस पर ध्यान देना चाहिए कि प्रत्येक बच्चा सभी गतिविधियों में प्रगति कर रहा हो।पर प्रगति की गति पर विशेष ध्यान नहीं देना चाहिए, क्योंकि गति कम या अधिक हो सकती है।

परंतु यदि एक बच्चा बहुत सुस्त हो वह शारीरिक क्रियाकलापों में बहुत धीमा हो या रूचि नहीं ले रहा हो, अथवा उसकी बौद्धिक प्रगति नहीं हो रही हो तो हमें विशेषज्ञों की सलाह लेनी चाहिए।

हमें ध्यान रखना चाहिए कि हमारी चिन्ताएँ बच्चों पर प्रकट न हो। यह हमेशा याद रखना आवश्यक है कि शारीरिक व बौद्धिक दृष्टि से भिन्न होते हुए भी बच्चों की संवेदनाएँ जागृत होती है, वे आपका दर्द समझते हैं, जिसका प्रभाव उनके विकास में पङता है।

महान वैज्ञानिक थाॅमसन एडिसन को उनके बचपन में ही यह कह कर स्कूल से निकाल दिया गया था कि ‘उनकी बौद्धिक क्षमता बहुत कम है, अतः उन्हें पढ़ाया नहीं जा सकता है।’ एडिसन की माँ ने अपने बालक से इस निराशाजनक तथ्य को छिपाया व उसे प्रोत्साहित करते हुए स्वयं पढ़ाया और एडीसन की योग्यता पर विश्वास करते हुए उन्हें अपना पूर्ण सहयोग भी दिया था।

‘तोतोचान’ को भी मात्र इसीलिए विद्यालय से निकाल दिया गया था कि उसे कक्षा की गतिविधियों से अधिक कक्षा से बाहर की गतिविधियाँ रोचक लगती थी। परंतु तोतोचान की माँ को अपनी पुत्री पर विश्वास था और उसके नए विद्यालय के मुख्याध्यापक ने उसे अपना पूर्ण भरोसा दिया था।

जब बात माँ की हो रही है, तो मैं एक माँ का जिक्र करना चाहुँगी। मेरे प्री-नर्सरी विद्यालय के शुरुआती दिन थे, मैं और एक आया, यही स्टाफ था। सिर्फ 10 विद्यार्थी थे। एक दिन मुझसे मिलने वह आईं और उन्होंने कहा कि उनकी आठ वर्षीय बेटी किसी दिमागी बिमारी के कारण सामान्य बच्चों की तरह नहीं है। वह एक विशेष स्कूल अथवा संस्था में जाती है पर डाॅक्टर की सलाह थी कि वह सामान्य विद्यालय में भी जाए ।

मैं उनकी बेटी नम्रता से मिली नहीं थी पर मैंने उन्हें सहयोग करने का आश्वासन दिया था । लेकिन जब मैं नम्रता से मिली तो पाया वह स्वयं चल नही सकती थी, स्वयं खा- पी नहीं सकती थी…। बोलने में भी बहुत कठिनाई थी। मुझे लगा कि कठिन होगा क्योंकि मेरे पास वे सुविधाएँ नहीं थी, मैं उस तरह प्रशिक्षित नहीं थी। पर मैं एक अध्यापिका व माँ थी, मैं उन्हें मना नहीं कर सकी थी, मुझे लगा कम से कम नम्रता खुश रहेगी और मैंने कहा कि वह आरम्भ में उसे मेरे पास सिर्फ एक घंटे के लिए ही भेजे।

दो दिन नम्रता खुश रही अन्य बच्चें भी उसे स्वीकार कर रहें थे, पर तीसरे दिन किसी बच्चें के साथ हुई छोटी अनबन से वह बहुत उत्तेजित व क्रोधित हो गई थी । मैं इन बच्चों के मनोविज्ञान व व्यवहार से परिचित नहीं थी । मैं कुछ समझती इससे पूर्व उसे दौरा(fit) पङ गया था। मेरे पास डाॅक्टरी सुविधा नहीं थी, सिर्फ एक प्राथमिक चिकित्सा का डिब्बा था, क्योंकि उसका घर पास था अतः उसकी माँ को ही बुलाया था।

उन्होंने कहा कि ” क्योंकि नम्रता जानती थी कि उसने गलती की है इसीलिए यह फिट नहीं पङा है अपितु उसका नाटक है। आप दूसरे बच्चों की तरह उसे डाँट व प्यार से समझा सकती है। वह सब समझती है। नम्रता भी सामान्य बच्चों जैसी ही है।”

पर मैं बहुत घबरा गई थी, मेरे पास अन्य मासूम बच्चें भी थे, जिनकी जिम्मेदारी मेरी थी। मैंने उन्हें बहुत अफसोस के साथ मना किया था।मैं संवेदनशील थी पर हिम्मती नहीं थी। मैं कोई ऐसा प्रयोग नहीं करना चाहती थी, जिससे मैं पूर्णतः अपरिचित थी।

मैं जानती हुँ कि उन्होंने बुरा नहीं माना था, क्योंकि उन्हें तो अपनी बेटी को दूनिया की समस्त खुशियाँ देने के लिए बहुत संघर्ष करना था। मैं हमेशा इन माँओं के सामने नतमस्तक हुँ जो अपने इन विशेष बच्चों को समाज के सभी अधिकार दिलाने के लिए अग्रसर रहती हैं।

सीखने- सिखाने की कोशिश ( भाग-4 )

13 बुधवार फरवरी 2019

Posted by शिखा in Uncategorized

≈ 7s टिप्पणियाँ

कुछ समय बाद मैंने अपना एक छोटा विद्यालय खोलने का फैसला लिया । ‘Rose Garden Pre Nursery School’ का बोर्ड बन गया और मेरा विद्यालय शुरू हुआ, पर बिना विद्यार्थियों के कैसा विद्यालय?

हमने यथासंभव प्रचार किया था और मैं नित विद्यार्थियों की प्रतीक्षा करती, पुछताछ करने तो लोग आते पर अभी दाखिले नहीं हो रहे थे। ईश्वरीय कृपा से यह इंतज़ार खत्म हुआ, जब समीप के एक छोटे विद्यालय की प्रबंधक मुझे मिलने आई और कहा कि किन्हीं कारणवश उन्हें अपना विद्यालय बंद करना पङेगा । उन्होने अपने विद्यालय का फर्नीचर हमे बेच दिया । सत्र का आरम्भ ही था अतः उनके पास सिर्फ पाँच विद्यार्थी थे, वे सब मेरे पास आ गए थे। अब मैंने पाँच विद्यार्थी और एक आया ऊषा के साथ अपना प्री-नर्सरी विद्यालय शुरू किया था ।

मेरा पहला स्वतंत्र कार्य और अपनी रचनात्मकता व कार्यक्षमता को परखने व निखारने का यह मेरा प्रथम स्वावलंबी कदम था। अभी तक दूसरे के आधीन व निर्देशानुसार कार्य किया था । इन मासूमों के कोमल मन को समझते हुए, इन्हें दूनियावी नियमों के अनुकुल ढलना सिखाना था । लेकिन वास्तविकता में इन बच्चों ने मुझ से मेरा परिचय कराया था। यह पाँच बच्चे मेरे अन्वेषण के आधारस्तंभ थे।

सोमी, चंचल, अभिषेक, पीयूष और गीतांजलि के साथ मेरी नित सीखने-सिखाने की प्रक्रिया मुझे एक नया पाठ पढ़ा जाती थी।
पीयूष बहुत ही होशियार और आत्मविश्वासी बच्चा था। प्रत्येक नया पाठ अथवा खेल उसकी जिज्ञासु बुद्धि को तुरंत जागृत करता था।ऐसे बच्चे कम होते हैं जो हर कार्य पूर्ण मनोयोग से करते हो और शीघ्रता से सीखते हो ।

चंचल गोलु-सी प्यारी बच्ची थी।रंगों की पहचान उसने इतनी बारिकी से समझी थी कि तीन वर्ष की उस आयु में भी चित्र में रंग भरते समय उसके रंगों का चुनाव देखते बनता था। इस आयु में आकृतियाँ बनाना आसान नहीं होता पर चंचल बहुत आसानी से सीख जाती और फिर बहुत तन्मयता से उसमें रंग भरती थी। कुछ साल बाद उसके पिताजी मिले थे, बहुत खुशी के साथ उन्होने जानकारी दी थी कि चंचल चित्रकारी में इनाम जीतती रहती है।

सोमी एक सरदार परिवार की बेटी थी, आरंभ में सिर्फ पंजाबी बोलती थी, उसकी पंजाबी मेरी समझ के बाहर थी। ऊषा ही बताती कि वह क्या बोल रही है? सोमी जब कक्षा में प्रवेश करती तब ही लगता जैसे वह नृत्य करती हुई चल रही हो। उसे नृत्य करना, कविता व poem बोलना बहुत पसंद था।धीरे-धीरे वह इंगलिश और हिन्दी बोलने व समझने लगी थी।

गीतांजलि बहुत चुप रहती थी। वह स्वयं अभी साढ़े तीन वर्ष की थी और उससे छोटे एक बहन और भाई भी थे। वह घर की बङी बेटी बनने से बङप्पन के दबाव में थी। सोमी और चंचल कक्षा में आते ही मुझ से बोलना शुरू कर देते थे। कई बार तो वे अपनी बातें बताने के लिए बहुत ही बेताब होती थीं। इसके विपरीत गीतांजलि से बात करने के लिए मुझे कोशिश करनी होती थी, कोई भी कहानी व कविता सुनाते समय उस पर विशेष ध्यान देना होता था। वैसे गीतांजलि सब बहुत शीघ्रता से सीख लेती थी। उसे कक्षा में आनंद आने लगा था पर वह पहल कम करती थी । बाद में धीरे से वह अपनी बात मुझ से कहने लगी थी।

अभिषेक इन सभी बच्चों में सबसे बङा था उसकी आयु 5 वर्ष थी। उसे बोलने में परेशानी थी, उसकी स्पीच थैरेपी चल रही थी। इसी कारण अभी वह किसी विद्यालय में पढ्ने नहीं जाता था। पर उसे शब्द ज्ञान था। वह कोशिश करता और किताबों में से कहानी कविता पढ़ कर सुनाता था। सभी बच्चे उसकी बात (जो कठिनाई से समझ आती थी) बहुत ध्यान और धीरज से सुनते थे।सभी बच्चे अभिषेक को प्यार करते थे।

धीरे-धीरे नए विद्यार्थियों का आना शुरू हुआ, मेरी कक्षा भरने लगी थी। बाद में मैंने अपनी सहायता के लिए दो अन्य अध्यापिकाएँ रखी थी। प्री नर्सरी स्कूल में विद्यार्थी सिर्फ एक वर्ष के लिए प्रवेश लेते हैं, एक वर्ष बाद उनका एडमिशन बङे विद्यालयों में हो जाता है। हमारे पास नए विद्यार्थी आते उन्हें दूनियावी वातावरण के अनुकुल अभ्यस्त करते हुए हम भी कुछ नया सीखते जाते थे।

मुझे अपने इस छोटे विद्यालय में बहुत आनंद आता था। बच्चों के साथ नई-नई गतिविधियाँ करते, उन्हें तरह-तरह के खेल खिलाते थे । मैंने प्रत्येक शनिवार खेल का दिन रखा था, उस दिन हम मैंदान में खेलने वाले खेल ही खेलते थे।उन्हें दौङ प्रतियोगिता में आनंद आता था। गेंद से भी कई खेल खेलते थे। म्यूजिकल चेयर खेलने में सभी बच्चे आनंद लेते थे।

इसके अतिरिक्त उनकी कविताओं और कहानियों पर हम उनसे अभिनय कराते थे। सभी बच्चें उसमे भाग लेते थे, समूह में भी भागीदारी होती व व्यक्तिगत तौर पर भी प्रत्येक बच्चा कुछ न कुछ अभिनय अवश्य करता था। हमारा उद्देश्य उनके संकोच को दूर करना होता था व उनकी वाकशक्ति को स्पष्ट करना व बढ़ावा देना होता था।

कहानी, कविता के अतिरिक्त हम उन्हें उनके आसपास के लोगो का अभिनय करने के लिए प्रेरित करते थे। उनकी कल्पना शक्ति लाजवाब होती थी। उन्हें हम संवाद नहीं देते थे वे स्वयं अपने सीमित शब्द भंडार से चुन कर संवादों की गढ़ना करते थे। अपने आसपास के परिवेश से जो भी सीखा व समझा था, वे खुल कर सामने आता था। कुछ बच्चे संकोची होते है उन्हें खुलने में समय लगता था पर कुछ का अभिनय देखकर व संवाद सुनकर हम दाँतों तले ऊँगली दबा लेते थे।

कुछ बच्चें स्वाभाविक ही वाचाल और खुले होते है, पर ऐसे बच्चें भी होतें जिनका स्वभाव शर्मीला और संकोची होते है। उन्हें अगर शुरु से प्रोत्साहन मिले तो वे भी खुल सकेंगे और अपने को अभिव्यक्त करने में झिझकेंगे नहीं, कम बोलना किसी का चुनाव हो सकता है, पर सबको आत्मविश्वासी होना आवश्यक है।

यह सच है कि पुत के पाँव पालने में नज़र आते हैं, हम चाहे तो उनकी प्रतिभा को परख कर उन्हें निखारने का प्रयास कर सकते हैं।पारस, संदीप, कनिका व वंशिका का अभिनय के प्रति रूझान स्पष्ट नज़र आता था। चंचल, पीयूष, कुणिका व देवेन्द्र के चित्र प्रभावशाली होते थे तो वीणा, महक, सोमी की नृत्य के साथ भावभंगिमा बहुत दिल मोहने वाली थी।

यूँ तो सभी बच्चे खेलों में रुचि रखते हैं, पर कई आरम्भ से ही सराहनीय प्रदर्शन कर हमारा ध्यान आकृषित कर लेते हैं।

खेलों के प्रति रूझान के विषय में यह ध्यान देने योग्य बात है कि प्रत्येक बच्चा न केवल खेलना पसंद करता है बल्कि वह किसी न किसी खेल में विशेष रूझान रखता है अतः प्रत्येक बच्चे को न केवल खेलने दिया जाए अपितु उसे उसकी पसंद व प्रतिभा के अनुकुल खेल में प्रशिक्षित भी किया जाना चाहिए।

सीखने- सिखाने की कोशिश (भाग-3)

05 मंगलवार फरवरी 2019

Posted by शिखा in Uncategorized

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कुछ समय बाद मैंने एक अन्य विद्यालय में पढ़ाना शुरू किया था। इस विद्यालय में मुझे L.K.G कक्षा पढ़ाने को मिली थी। एक कक्षा में 45 विद्यार्थी थे । यहाँ भी सिलेबस का बोझ अध्यापिका और विद्यार्थियों दोनो पर था। इस कक्षा में 4वर्ष से 5वर्ष की आयु तक के बच्चे पढ़ते थे। आरम्भ में एक सप्ताह मैंने उस कक्षा की पुर्व अध्यापिका के साथ पढ़ाया था।

बच्चें अपनी अध्यापिका से बहुत गहरे जुङे होते हैं, विशेष रुप से छोटी कक्षाओं के बच्चे घर से बाहर विद्यालय के वातावरण में अपनी अध्यापिका के सानिध्य में सुरक्षित महसूस करते हैं। अपनी अध्यापिका से बिछोह उनके लिए कष्टदायी होता है। इस कक्षा की भी ज्योति मैडम विद्यालय छोङकर जा रही थीं, जिसका दुख सभी बच्चों को था और वे सभी मुझे संदिग्ध दृष्टि से देख रहे थे।

कुछ ही दिनों में कक्षा के सभी विद्यार्थी मेरे अभ्यस्त हो गए थे। लेकिन चारू मुझे स्वीकार नहीं करना चाहती थी। ज्योति मैडम के सामने ही यह महसूस हो गया था कि वह भावनात्मक रुप से उनसे बहुत जुङी हुई है। इस बात को स्वयं ज्योति मैडम ने भी स्वीकार किया था कि चारू का उनसे विशेष लगाव है।

ज्योति मैडम के जाने के बाद वह बहुत उदास व चुप रहती थी। वह मुझ पर विश्वास करना नहीं चाहती थी। वह बहुत अनमनेपन से कक्षा में होने वाले कार्यकलापों में भाग लेती थी। मैंने शुरू में उससे बिना उसकी इच्छा के बात करना उचित नहीं समझा व उसकी गलतियों को अनदेखा भी किया। मुझे खुशी हुई जब उसकी माँ मुझ से मिलने आई क्योंकि कई बार अभिभावक अपने बच्चों के मानसिक तनाव को समझ नहीं पाते हैं।

मैंने उनसे कहा,” चारु पढ़ाई तो सीख ही लेगी, परंतु अभी आवश्यक है कि उसे भावनात्मक रुप से मज़बूत किया जाए।” हमें समझना चाहिए कि बच्चों के भी अपने मानसिक कष्ट हो सकते है।
जिनसे हम अधिक जुङाव महसूस करते हैं कभी हम उनसे दूर भी होते है। ऐसी व्यवहारिक बातें भी सीखनी आवश्यक होती है। मुझे खुशी हुई कि घर व विद्यालय में अनुकुल वातावरण मिलने से वह थोङे समय पश्चात अपनी स्वाभाविक चंचलता को पा सकी थी।

इसी कक्षा में नेहा के लिए सीधी लाइनों में लिखना कठिन था। उसे अक्षरों की पहचान व बनावट का ज्ञान था पर काॅपी में लिखते समय लाइनें उसे समझ नहीं आती थी। वह प्रार्थना के समय, अपनी पंक्ति से बाहर आ जाती थी व आँखे बंद करे उल्टी घूम जाती थी, उसके कारण पंक्ति बिगङ जाती थी। वह यह शरारत में नहीं करती थी, अपितु उससे अनजाने में यह होता था, क्योंकि वह सीधी पंक्ति समझ नही पाती थी। इसकी एकमात्र वज़ह थी कि कोई बच्चा देर से बोलना सीखता है अथवा किसी बच्चे को रंगों का भेद समझने में कठिनाई होती है। इन बच्चों पर गुस्सा करना गलत है।

मैं नहीं चाहती थी कि नेहा के आत्मविश्वास में कमी आए, जबकि वह स्वयं जानती थी कि उससे गङबङी होती है । हम अक्सर यह सोचते हैं कि बच्चे अपने इस अलग गुण को समझ नहीं पा रहे हैं, पर सच है कि बच्चों को भिन्नता का अहसास होता है, हमें उनके अहसास को सकारात्मक मोङ देना होता है, हमारी थोङी नकारात्मकता उसके आत्मविश्वास को सोख सकती हैं। यहाँ भी खुशी है कि नेहा की माँ ने मेरे सुझावों को समझा व उस पर काम किया जिसके अनुकुल परिणाम प्राप्त हुए थे। मेरी सलाह पर वह उसे खेल -खेल में वस्तुएँ पंक्ति में रखना सिखाती और कक्षा में भी उसको काॅपी में लिखाते समय विशेष ध्यान कराते व ऐसे खेल खेले जाते जिससे सभी बच्चों की शारीरिक व मानसिक क्षमता का विकास हो ।

इस विद्यालय में पढ़ाते हुए, मुझ से गलती हुई, उसका जिक्र मैं अवश्य करना चाहुँगी। मैं अपनी L.K.G कक्षा के सभी बच्चों को अक्षर ज्ञान कराने में सफल हो रही थी पर एक विद्यार्थी मुकुल के सामने मै असफल थी। कारण सिर्फ मेरी लापरवाही ।

मुकुल अक्सर अनुपस्थित रहता था व बहुत शैतान था। उसके माता-पिता शिक्षित नहीं थे, वे कभी उसकी प्रगति जानने के लिए मुझ से मिलने नहीं आते थे। (यह तथ्य बहुत महत्वपूर्ण रहा होगा उसके प्रति मेरी लापरवाही के लिए) मैं उसकी प्रगति नहीं होने से क्षुब्ध तो थी, पर कोई कोशिश नहीं कर रही थी। मैंने यह धारणा बना ली थी कि उसकी कक्षा में कम उपस्थिति ही उसका कक्षा में पिछङने का कारण है। अतः उसके उपस्थित होने पर भी मैं उसकी कमियों को दूर करने का विशेष प्रयास नही करती थी। जब इसके लिए मुख्याध्यापिका ने आगाह किया तब ही मैं सचेत हुई थी।

एक अध्यापिका को लापरवाह नहीं होना चाहिए। जबकि यह ज्ञात था कि यह छोटी कक्षा बच्चों के मानसिक विकास की नींव होती है । मैंने अपनी अध्यापिका की भूमिका को निभाने की प्रक्रिया को और गहराई से समझा था।

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