जैसा कि मैंने पहले ही बताया है कि उस समय नर्सरी कक्षा में प्रवेश के लिए बच्चों का साक्षात्कार होता था और हमें अपने प्री-नर्सरी स्कूल में बच्चों को इसी साक्षात्कार के लिए तैयार करना होता था। माता-पिता बहुत तनाव में होते थे व बच्चों पर भी दबाव होता था।
मलाईका बहुत तेज दिमाग की व नाज़ुक बच्ची थी। वह कक्षा की सभी गतिविधियों में उत्साहपूर्ण भाग लेती थी। वह कक्षा की एक बातुनी छात्रा थी, ऐसा कोई कारण नज़र नहीं आता था कि वह साक्षात्कार के समय जवाब नहीं दे पाएगी। परंतु वह तभी खुल कर बात करती थी जब उसे परिचित वातावरण मिले। अजनबियों से वह बात नहीं करती थी।
इसके विपरीत अपूर्वा बहुत शांत छात्रा थी, वह भी सभी गतिविधियों में भाग लेती थी व बहुत जल्दी सब सीखती थी। वह सभी कार्य इत्मीनान व आत्मविश्वास से करती थी पर कम बोलती थी।
अतः साक्षात्कार के समय नई जगह व नए लोग, उस पर बच्चे को माता-पिता के बिना एक अलग कमरे मे ले जाया जाता था। मलाईका जैसे संवेदनशील बच्ची ने तो कोई भी जवाब देने से व किसी भी अन्य गतिविधि में भाग लेने से इंकार कर दिया था।
लेकिन अपूर्वा को कठिनाई नहीं हुई थी क्योंकि स्वभावतः उसमें सहजता थी अतः अजनबी लोगों के बीच भी उस वातावरण में उसका आत्मविश्वास बना रहा था। प्रत्येक बच्चे का अपना स्वभाव होता है, एक समान वातावरण में समान शिक्षा पाकर भी वे भिन्न व्यवहार करते हैं।
अपूर्वा और मलाईका दोनो ही बहुत होशियार थी। परंतु अपने प्राकृतिक स्वभाव के कारण एक विशेष वातावरण में दोनों का व्यवहार भिन्न था।
यह खुशी की बात है कि अब इस प्रक्रिया को बंद कर दिया है।
पढ़ाई समझने की आयु से पहले ही हम बच्चों को इतना डरा देते हैं कि पढ़ाई उन्हें किसी भयंकर जानवर जैसी प्रतीत होती है।
सभी बच्चे सामान्यतः रंगों की पहचान आसानी से कर लेते हैं पर खुशी नहीं कर पा रही थी, मैं और मेरी सह-अध्यापिकाएँ प्रतिदिन उसके लिए नए प्रयास करते थे। चित्रों में रंग भरना उसे पसंद था, अक्षरों की पहचान भी सीख रही थी। चित्रों में अपनी पसंद से अलग-अलग रंग भरती थी, सिर्फ रंगों के नाम बताने में गङबङ कर रही थी। उसकी दादी आती वह एक ही शिकायत करती कि हम उसे रंगों की पहचान नहीं करा पा रहे हैं।
मैं नहीं चाहती थी कि उस पर रंगों के नाम सीखने के लिए दबाव डालू।फिर रंग ही तो प्रतिभा की एकमात्र पहचान तो नहीं है।बाद में स्वयं उन्होंने यह स्वीकार किया कि खुशी के पिता को colourblindness है, व घर के अन्य सदस्यों को भी है। जो समस्या जेनेटिक है उसका क्या किया जा सकता है? पर मैंने उन्हें समझाया कि अभी बहुत छोटी है थोङा अधिक समय लग सकता है पर बेसिक रंग पहचान लेगी। यह भी कि वह किसी विशेषज्ञ की सलाह ले सकते हैं।
अक्सर लोग बच्चों की भिन्न विशेषताओं के लिए विशेषज्ञों के पास नहीं जाते हैं, मेरे विचार से उन्हें विशेषज्ञों से मिलना चाहिए।
हम सभी अपनी कमियों से इतने परेशान होते हैं कि हमें डर होता है कि हमारे बच्चे में वह कमी न हो। हमारा यह डर हमारे बच्चे के अंदर प्रवेश कर रहा है, इसका हमें ज्ञान नहीं होता है। जबकि आप उस कमी के बावजूद अपने क्षेत्र में सफल हैं। अपनी कमी को एक भिन्न विशेषता के रूप में स्वीकार करेंगे तो अपने बच्चे की भिन्न विशेषता को समझेंगे और जानेंगे कि यह इतनी भी भिन्न विशेषता नहीं है। एक समान विशेषताओं के लोग भी अनेक मिलते हैं, आप इतने भी अज़ूबे नहीं होते हैं। फिर भी यह सच है कि हर व्यक्ति या हर बच्चे का अपना निजी व स्वतंत्र व्यक्तित्व होता है।
एक अन्य समस्या सामने आई जब एक संयुक्त परिवार के दो बच्चों ने मेरे विद्यालय में आना शुरू किया था। जिठानी-देवरानी के बीच की प्रतिद्वंदिता के शिकार बच्चे हो रहे थे। जिठानी का बेटा अश्विन और देवरानी की बेटी कनिका दोनों बहुत प्यारे बच्चे थे। कनिका बोलने में होशियार थी जैसा कि माना जाता है कि लङकियाँ बोलने में तेज़ होती हैं। (हालांकि यह भी जरुरी नहीं है।) कनिका का उच्चारण भी बहुत सही व स्पष्ट था। वह कक्षा में बोली सभी कविताओं और कहानियों को सुनकर, घर पर जाकर ज्यों का त्यों सुनाती थी, यकीनन वह तो घर पर खिलौना होती होगी।
इसके विपरीत अश्विन की भाषा अभी साफ नहीं थी, वह कनिका से दो महीने छोटा भी था। उसे खेल-कूद बहुत पसंद था। उसे घर जाकर स्कूल की बातें करना पसंद नहीं था, फिर कनिका तो सब बताती ही थी।
जिठानी को यही महसूस होता कि हम कनिका पर विशेष ध्यान देते हैं।वह बार-बार एक ही बात कहती कि अश्विन कोई कविता नहीं सुनाता था। जबकि कनिका कक्षा में सिखाई प्रत्येक नई कविता को तुरंत घर जाकर पूरे अभिनय के साथ सुनाती थी। मैंने उन्हें समझाना चाहा कि-
“इसमें हमारी कोई योग्यता नहीं है, यह कनिका की अपनी योग्यता है। उन्हें दोनो बच्चों की तुलना नहीं करनी चाहिए। अश्विन भी प्रतिभाशाली है, सिर्फ वह आपको कविताएँ नहीं सुनाता है, तो इस कारण से पीछे नहीं है। वह समूह में कविताएँ बोलता है व आनंद लेता है और एकल में भी कोशिश करता है।”
क्योंकि उसकी भाषा तब तक उतनी स्पष्ट नहीं थी, अतः घर पर सुनाने में झिझकता था, बच्चे बहुत संवेदनशील होते हैं, वह जानते हैं कि उन्हें अभी शब्दों का उच्चारण करने में सफलता नहीं मिली है। जैसे हम बङों के लिए कहते हैं कि सबके अपने भेद (secret) होते हैं वैसे बच्चों के अपने भेद होते है।
कविताएँ याद करने या न करने से किसी की याददाशत की शक्ति को परखा नहीं जा सकता है। मुझ जैसे तो बहुत मिलेंगे जिनके लिए कविता या गाना याद करना पहाङ पर चढ़ाई चढ़ने जैसा था।
मैंने उन्हें समझाने का प्रयास किया कि “आपके बच्चे की आयु अभी पूरी तीन वर्ष भी नहीं है।इस छोटी आयु के बच्चों की ऐसी प्रगति ( जैसे-भाषा की स्पष्टता) की तुलना नहीं की जानी चाहिए । बच्चा अपनी आयु के बढ़ने के साथ धीरे-धीरे सब सीख जाता है। बच्चे सही उच्चारण 4-5 वर्ष की आयु तक भी सीख पाते हैं, परंतु इससे बच्चे के बौद्धिक विकास का अनुमान लगाना उनके साथ अन्याय करना है।”
मैंने उन्हें कहा कि वह अश्विन की अन्य योग्यताओं पर ध्यान दें व उसकी बिना तनाव के परवरिश करें।
अश्विन की माँ एक उच्च शिक्षित 25 वर्षीय युवती थी। मुझे नहीं पता उन्होंने मेरी सलाह कितनी समझी?
प्री- नर्सरी में बच्चे 2 से 4 वर्ष की आयु के होते है। इस आयु-वर्ग के बच्चों की प्रगति में बहुत भिन्नता पाई जाती है। बच्चे अपने स्वभाव के अनुसार प्राकृतिक रूप से अपनी मानसिक व शारीरिक प्रगति करते हैं। कुछ बच्चे शारीरिक गतिविधियों में तेजी से प्रगति करते हैं, कुछ बच्चों में बौद्धिक गतिविधियों की प्रगति स्पष्ट नज़र आती हैं।हमें सिर्फ इस पर ध्यान देना चाहिए कि प्रत्येक बच्चा सभी गतिविधियों में प्रगति कर रहा हो।पर प्रगति की गति पर विशेष ध्यान नहीं देना चाहिए, क्योंकि गति कम या अधिक हो सकती है।
परंतु यदि एक बच्चा बहुत सुस्त हो वह शारीरिक क्रियाकलापों में बहुत धीमा हो या रूचि नहीं ले रहा हो, अथवा उसकी बौद्धिक प्रगति नहीं हो रही हो तो हमें विशेषज्ञों की सलाह लेनी चाहिए।
हमें ध्यान रखना चाहिए कि हमारी चिन्ताएँ बच्चों पर प्रकट न हो। यह हमेशा याद रखना आवश्यक है कि शारीरिक व बौद्धिक दृष्टि से भिन्न होते हुए भी बच्चों की संवेदनाएँ जागृत होती है, वे आपका दर्द समझते हैं, जिसका प्रभाव उनके विकास में पङता है।
महान वैज्ञानिक थाॅमसन एडिसन को उनके बचपन में ही यह कह कर स्कूल से निकाल दिया गया था कि ‘उनकी बौद्धिक क्षमता बहुत कम है, अतः उन्हें पढ़ाया नहीं जा सकता है।’ एडिसन की माँ ने अपने बालक से इस निराशाजनक तथ्य को छिपाया व उसे प्रोत्साहित करते हुए स्वयं पढ़ाया और एडीसन की योग्यता पर विश्वास करते हुए उन्हें अपना पूर्ण सहयोग भी दिया था।
‘तोतोचान’ को भी मात्र इसीलिए विद्यालय से निकाल दिया गया था कि उसे कक्षा की गतिविधियों से अधिक कक्षा से बाहर की गतिविधियाँ रोचक लगती थी। परंतु तोतोचान की माँ को अपनी पुत्री पर विश्वास था और उसके नए विद्यालय के मुख्याध्यापक ने उसे अपना पूर्ण भरोसा दिया था।
जब बात माँ की हो रही है, तो मैं एक माँ का जिक्र करना चाहुँगी। मेरे प्री-नर्सरी विद्यालय के शुरुआती दिन थे, मैं और एक आया, यही स्टाफ था। सिर्फ 10 विद्यार्थी थे। एक दिन मुझसे मिलने वह आईं और उन्होंने कहा कि उनकी आठ वर्षीय बेटी किसी दिमागी बिमारी के कारण सामान्य बच्चों की तरह नहीं है। वह एक विशेष स्कूल अथवा संस्था में जाती है पर डाॅक्टर की सलाह थी कि वह सामान्य विद्यालय में भी जाए ।
मैं उनकी बेटी नम्रता से मिली नहीं थी पर मैंने उन्हें सहयोग करने का आश्वासन दिया था । लेकिन जब मैं नम्रता से मिली तो पाया वह स्वयं चल नही सकती थी, स्वयं खा- पी नहीं सकती थी…। बोलने में भी बहुत कठिनाई थी। मुझे लगा कि कठिन होगा क्योंकि मेरे पास वे सुविधाएँ नहीं थी, मैं उस तरह प्रशिक्षित नहीं थी। पर मैं एक अध्यापिका व माँ थी, मैं उन्हें मना नहीं कर सकी थी, मुझे लगा कम से कम नम्रता खुश रहेगी और मैंने कहा कि वह आरम्भ में उसे मेरे पास सिर्फ एक घंटे के लिए ही भेजे।
दो दिन नम्रता खुश रही अन्य बच्चें भी उसे स्वीकार कर रहें थे, पर तीसरे दिन किसी बच्चें के साथ हुई छोटी अनबन से वह बहुत उत्तेजित व क्रोधित हो गई थी । मैं इन बच्चों के मनोविज्ञान व व्यवहार से परिचित नहीं थी । मैं कुछ समझती इससे पूर्व उसे दौरा(fit) पङ गया था। मेरे पास डाॅक्टरी सुविधा नहीं थी, सिर्फ एक प्राथमिक चिकित्सा का डिब्बा था, क्योंकि उसका घर पास था अतः उसकी माँ को ही बुलाया था।
उन्होंने कहा कि ” क्योंकि नम्रता जानती थी कि उसने गलती की है इसीलिए यह फिट नहीं पङा है अपितु उसका नाटक है। आप दूसरे बच्चों की तरह उसे डाँट व प्यार से समझा सकती है। वह सब समझती है। नम्रता भी सामान्य बच्चों जैसी ही है।”
पर मैं बहुत घबरा गई थी, मेरे पास अन्य मासूम बच्चें भी थे, जिनकी जिम्मेदारी मेरी थी। मैंने उन्हें बहुत अफसोस के साथ मना किया था।मैं संवेदनशील थी पर हिम्मती नहीं थी। मैं कोई ऐसा प्रयोग नहीं करना चाहती थी, जिससे मैं पूर्णतः अपरिचित थी।
मैं जानती हुँ कि उन्होंने बुरा नहीं माना था, क्योंकि उन्हें तो अपनी बेटी को दूनिया की समस्त खुशियाँ देने के लिए बहुत संघर्ष करना था। मैं हमेशा इन माँओं के सामने नतमस्तक हुँ जो अपने इन विशेष बच्चों को समाज के सभी अधिकार दिलाने के लिए अग्रसर रहती हैं।
अनाम ने कहा:
अन्तर्दृष्टि पूर्ण अनुभव आधारित लेख !
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शिखा ने कहा:
Thank you
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अनाम ने कहा:
बहुत ही सधे शब्दों में माता पिता की मनः स्थिति को समझा व अध्यापक होने पर बच्चों को कैसे समझे इस लेख ने समझाया है।आप बधाई की पात्र है।
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शिखा ने कहा:
Thankyou
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Smriti Sneha blog ने कहा:
achhe aur upyogi vichaar share kiye aapne
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शिखा ने कहा:
Thankyou
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Smriti Sneha blog ने कहा:
welcome
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san ने कहा:
By reading all five parts, one can easily understand the difference between education and real education. The observance and preseverance are firmly teamed together through potrayal of your real life experiences in these blogs.
Would strongly recommend to all parents, teachers to read and others aswell since one can easily relate for different walks of life & learn.
Looking forward to more parts !!
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शिखा ने कहा:
धन्यवाद ।
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