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मासिक अभिलेखागार: मार्च 2019

सीखने- सिखाने की कोशिश- (भाग-8)

23 शनिवार मार्च 2019

Posted by शिखा in Uncategorized

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हम यह जानते हैं कि देश में भ्रष्टाचार की बीमारी व्यापक रुप से फैली हुई है। हम सब के खून में भ्रष्टाचार बसा हुआ है। हम इच्छा से या अनिच्छा से भ्रष्टाचार के शिकार होते भी हैं और दूसरों को इसका शिकार बनाते भी है। कोई कितना भी सदाचारी हो वह भी मुसीबत पङने पर कमजोर पङ ही जाते हैं।
परंतु दुख तब होता है जब लोग समाजसेवा के नाम पर गरीबों को ठगते है, मुर्ख बनाते हैं।मुझे इनकी कङवी सच्चाई से रूबरू होने का भी अवसर प्राप्त हुआ था।

अक्सर अध्यापकों और गायकों को अधिक बोलने या गले में आवाज़ की नली पर अधिक जोर देने के कारण, आवाज नली में उपस्थित गाठें उभर आती है, जिससे उनकी आवाज़ तो ख़राब होती ही है साथ ही दर्द भी होता है। मैं इस तकलीफ की शिकार हो गई थी अतः डाक्टर की सलाह से स्कूल में पढ़ाना छोङ दिया था।स्वस्थ होने के बाद दो सामाजिक संस्थाओं में काम किया था।

इन सामाजिक संस्थाओं में वे बच्चें पढ़ने आते जो सरकारी स्कूलों में पढ़ते थे, शाम को डेढ़ दो घंटे के लिए यहाँ ट्यूशन पढ़ते थे। इन संस्थाओं का उद्देश्य था कि चूंकि सरकारी विद्यालयों में ठीक से पढ़ाया नहीं जाता है अतः उन कमियों को यहाँ दूर किया जाए।
जिसके लिए उनके पास कार्यकर्ता थे, जो इन बच्चों को पढ़ाते थे। पर दुख हुआ यह देखकर कि इस उद्देश्य की मात्र खानापूर्ति हो रही थी। एक कार्यकर्ता के पास 30-40 अलग-अलग आयू वर्ग व अलग-अलग कक्षाओं के विद्यार्थी थे। यह कार्यकर्ता इन बच्चों की पढ़ाई में आने वाली कठिनाईयाँ को दूर करना तो दूर वह तो उनकी कठिनाईयाँ समझ भी नहीं पाते थे।

इनमें से एक संस्था ने बच्चों की नियमित उपस्थिति के लिए, प्रत्येक बच्चे को मासिक 100रूपये देने का प्रावधान किया था, अतः बच्चें लालच में नियमित आते लेकिन उन्हें पढ़ाने के लिए न तो उनके पास अच्छे व पर्याप्त शिक्षक थे न अच्छी शिक्षण सुविधाएँ थीं। यहाँ भी एक कार्यकर्ता के पास 40 से अधिक बच्चे थे।जिनमें से किसी के पास फटी काॅपी थी तो किसी के पास वह भी नहीं थी । कार्यकर्ता व बच्चे समय बिताकर चले जाते थे ।
बच्चों के लिए यहाँ आना खेल था और अभिभावकों के लिए भी कुछ आर्थिक सहायता चूंकि एक परिवार में अगर 5-6बच्चे हैं तो थोङी आय ही सही पर उनके लिए यह भी सहारा था।

मैंने एक दिन देखा कि सभी बच्चों को अच्छे कपङे पहन कर आने के लिए कहा गया था। शायद वह 14 नवंबर का दिन था बालदिवस, फिर दीवाली का त्योहार भी आने वाला था। अतः उस दिन संस्था में कई प्रतियोगिताएँ आयोजित की गई थी। मुझे रंगोली प्रतियोगिता का निरीक्षण करना था। लङकियों की रंगोलियों से प्रांगण जगमगा उठा था।उन छात्राओं ने बताया कि उन्होंने रंगोली बनाना अपने-अपने विद्यालयों में सीखा है। इस संस्था में कला या संगीत शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं है ।

कुछ समय मिलने पर मैं उस स्थान पर गई जहाँ संगीत व नृत्य प्रतियोगिता हो रही थी। बच्चे अपनी पसंद के फिल्मी गीत गा रहे थे व नृत्य कर रहे थे। एक कमरे में चित्रकला प्रतियोगिता हो रही थी और नन्हें कलाकार अपना कला कौशल अपने चित्रों में बिखेर रहे थे। इसके अतिरिक्त एकल नाट्य प्रतियोगिता को देखते हुए मैं सोच रही थी, ये कलाकार स्वयं पारंगत हैं, यदि इन्हें प्रशिक्षण दिया जाए तो इनकी कला सोने की तरह चमक सकती है।
पर इस संस्था में यह सब एक दिन का तमाशा था, यहाँ इनके इन गुणों को विकसित या निखारने की सोच भी नज़र नहीं आ रही थी।

हम कार्यकर्ताओं ने ही मिलकर प्रतियोगिताओं का परिणाम तैयार किया, फिर संस्था के संचालकों और अधिकारियों ने विजेताओं के नामों की घोषणा करते हुए उन्हें पुरस्कार भी दिए। कई फोटो लिए गए।
यह समझा जा सकता था कि ये सब किसलिए किया जा रहा है।इन सभी फोटो को दिखाकर व रजिस्टर में सभी छात्रों की नियमित उपस्थिति गिनाकर, संस्था सरकार से अनुदान प्राप्त करेगी। विदेशी दानकर्ता भी इनकी इन झूठी तस्वीरों की सच्चाई जाने बिना इन संस्थाओं को प्रसन्नता से दान करेंगे। इस तरह संचालक अपने खातों को तो भर लेंगे, पर इन गरीब बालकों के लिए वे कुछ सार्थक कार्य करेंगे ऐसी दृष्टि नहीं नज़र आई थी।

ये सामाजिक संस्थाएँ किसी राजनीतिक दल या मंत्री के सरंक्षक में फल-फूल रही थी।
दुख इस बात का है कि ये लोग गरीबो को झूठी दिलासाएँ देकर इन्हें मूर्ख बनाते हैं और बच्चों का भविष्य निखारने के स्थान पर उनका मजाक बनाते हैं।

परंतु ऐसा नहीं कि सभी सामाजिक संस्थाएँ धोखा हैं, कुछ लोग बहुत मन से काम कर रहें है। बाद में मैंने जिस संस्था में कार्य किया था, वह संस्था विकलांग व मानसिक दृष्टि से पिछङे विशेष बच्चों के लिए कार्य कर रही है। यहाँ काम करके खुशी मिल रही थी।
अपना विद्यालय खोलने के शुरूआत के दिनों में मेरे पास ऐसे विशेष एक- दो बच्चे पढ़ने आए थे पर कई कठिनाईयों के कारण मैंने उन्हें अपने विद्यालय में प्रवेश के लिए मना कर दिया था। अब मुझे इन बच्चों को जानने का अवसर मिला था।

इस संस्था ने इन विशेष बच्चों के लिए सभी सुविधाओं का प्रबंध किया था। समस्त चिकित्सा सुविधाओं के अतिरिक्त, इनकी शिक्षा के लिए प्रशिक्षित अध्यापिका व तकनीकि शिक्षा का भी प्रबंध था।
चूंकि इन बच्चों को पढ़ाने के लिए मैं प्रशिक्षित नही थी इसलिए मैं इस संस्था में ऑफिस का काम देख रही थी। पर जब समय मिलता मैं बच्चों के साथ समय व्यतीत करती थी। इन बच्चों से मिला इनका निश्छल प्रेम आज भी मन को खुशी देता है।

ऐसे विद्यालय भी होते हैं जो गरीब और निम्न तबके के बच्चों के लिए खोले जाते हैं।फीस बहुत कम होती है। ऐसे भी एक विद्यालय में पढ़ाने का अवसर मिला था। मैंनें देखा कि कुछ परिवारों के लिए कम फीस देना भी कठिन था। इसका मुख्य कारण था कि पिता के पास काम नहीं होना या काम करने की इच्छा भी नहीं होना अथवा उनका शराबी होना । कारण जो भी हो पर फीस न देने के कारण कुछ बच्चों को स्कूल में अपमानित होना पङता था। इन परिवारों में बच्चों की परवरिश के लिए कोई गंभीर सोच नहीं होती है।

जो अपने बच्चों के लिए सपने देखते हैं, वे मेहनत मी करते हैं। इन बच्चों के अच्छे भविष्य के लिए वे उन्हें इन स्कूलों में भेजते है। इस स्कूल में अध्यापिकाएँ बहुत मन से पढ़ाती थी। पर पढ़ाई में कमज़ोर बच्चों के लिए कोई विशेष कार्यक्रम नहीं बनाया गया था।

मैं यहाँ 6th से 8th कक्षाओं को इंगलिश पढ़ा रही थी । यहाँ कक्षाओं में 20-25 बच्चे ही थे, इसीलिए हम सभी विद्यार्थियों पर ध्यान दे सकते थे। मैं छठी कक्षा की कक्षा अध्यापिका थी, यह मेरी ख़ास कक्षा भी थी क्योंकि यह विद्यालय की सबसे अनुशासित कक्षा थी। मै इन्हें इंगलिश पढ़ा रही थी, वे सब बहुत रुचि व शौक से इंगलिश पढ़ रहे थे, जो समझ नहीं आता तो प्रश्न भी करते थे, तब पढ़ाने में आनंद भी आता था।

मुझे संतुष्टि थी कि यहाँ विद्यार्थियों की नींव अच्छी थी, पर सिर्फ उन्हीं विद्यार्थियों की नींव मज़बूत थी जो यहाँ आरंभ से पढ़ रहे थे। पर जो विद्यार्थी दूसरे स्कूलों से या सरकारी स्कूलों से आए थे, उनकी स्थिति बहुत ख़राब थी। उनके अभिभावकों ने पिछले स्कूलों से निकाल कर उन्हें इस स्कूल में प्रवेश इसीलिए कराया होगा कि इन विद्यार्थियों की पढ़ाई में सुधार आएगा । मुख्याध्यापिका ने उन बच्चों को पैसे के लिए प्रवेश दे तो दिया पर उनकी कमियाँ दूर करने के लिए विशेष प्रयास नहीं करे ।

ये छठी से दसवी कक्षा के विद्यार्थी थे, जो मात्र इसीलिए पास होते आए थे कि सरकारी नीतियों के अनुसार आठवीं कक्षा तक सभी विद्यार्थियों को पास किया जाए।
आरंभ में मैं बहुत हैरान रह गई थी, पहले सत्र की परीक्षा ली गई थी और सातवीं से दसवीं तक सभी कक्षाओं के एक- दो विद्यार्थी ऐसे थे जिन्होंने पेपर में कुछ नहीं लिखा था या लिखा भी था तो वो जिस भाषा में लिख रहे थे वह किसी की भी समझ के बाहर था । मैंने मुख्याध्यापिका को वे पेपर दिखाए, उन्होंने कहा, ” आप इन्हें नंबर मत दीजिए व इनके पेपर अभिभावकों को दिखाएँगे।”

मेरे लिए यह अत्यंत हताशा का दिन था, जब रिजल्ट में मुख्याध्यापिका ने ज़ीरो से पहले चार लिखकर उसे चालीस बना दिया और विद्यार्थी को पास कर दिया था। उनका तर्क था, ” क्या करें सरकारी नीति के अनुसार इन्हें फेल नहीं कर सकते और इनके अभिभावक इस नीति के आधार पर हम से लङाई करेंगे कि उनके बच्चे को फेल क्यों किया?”

सब कुछ स्पष्ट था कि ये विद्यार्थी बिलकुल निश्चित है कि वे कभी फेल नहीं हो सकते, अतः पढ़ना समय की बरबादी है,वे स्कूल सिर्फ इसीलिए आते कि उनके अभिभावक जबरदस्ती भेजते थे, यहाँ वे समय बिताने और अध्यापिकाओं की डाँट या मार बेशरमी से सहते पर मन में किसी के लिए सम्मान भी नहीं रखते थे। और क्यों रखते क्या हम उनके भविष्य के लिए कुछ कर रहे थे?

पहली बार जब उन्होंने शायद किसी बहुत छोटी कक्षा में पेपर में कुछ नहीं लिखा होगा और रिजल्ट पास का आया होगा, उसी दिन उन्हें यह खेल मज़ेदार लगा होगा। बङे होने तक यह खेल खेलने की आदत बन चूकी थी।

हम किसे बेवकूफ बना रहे थे, इन बच्चों को, इनके अभिभावकों को या स्वयं अपने को….। हम क्या स्वयं शिक्षा का अर्थ जान सके हैं? हमने शिक्षा को पास-फेल का खेल बना दिया है।

नीति निर्धारकों ने ऐसी नीति बनाते समय, किस सोच को आधार बनाया था? क्या यह ख्याल बनाया कि हमारे देश के प्रत्येक नागरिक के पास आठवी कक्षा का सार्टिफिकेट होगा? अगर यही सोच थी तो जिसने भी आठवी कक्षा तक पढ़ाई की उसको आठवीं का सार्टिफिकेट तो मिल ही गया है, पर ज्ञान? क्या उन्हें जो कक्षा में पढ़ाया गया उसका ज्ञान है, जो किताबें उन्हें दी गई वे उन्हें पढ़ सके उसमें दिए गए ज्ञान को ग्रहण कर सके?

ऐसे विद्यार्थी क्या आठवी के बाद आगे की कक्षाओं को पढ़ सके? नहीं, आगे की कक्षाओं को पास करने के लिए पढ़ना जरूरी था और पढ़ना उन्हें आता नहीं था। बेसिक शिक्षा का ज्ञान भी उन्हें नहीं था।

अब नीति में परिवर्तन आया है कि पांचवी कक्षा तक किसी विद्यार्थी को फेल नहीं किया जा सकता है ।आठवीं से नीचे पांचवी तक पास होने की छूट दी गई है पर उसका लाभ?
क्या बदलेगा? एक पांच साल का विद्यार्थी परीक्षा में कुछ लिख कर नहीं आता हैं, वह जानता है उसने कुछ नहीं किया पर वह अगले साल दूसरी कक्षा में पढ़ाई करेगा, फिर तीसरी….। उसे पहली कक्षा की भी पढ़ाई नहीं आएगी और वह पांचवी कक्षा में होगा। उसके लिए स्कूल क्या होगा?
क्या यह मासूमों की ज़िन्दगी से खिलवाङ नहीं है?

पास- फेल का ज्ञान से मतलब नहीं हैं, पर शिक्षा का तो ज्ञान से मतलब है । क्या नीति- निर्धारकों को सभी शिक्षकों और विद्यालयों के संस्थापकों को इस नीति का स्पष्ट उद्देश्य नहीं समझाना चाहिए। प्रत्येक विद्यार्थी पर पास- फेल का बोझ नहीं डालना है, पर उसे शिक्षा तो देनी है, यदि किन्ही कारणों से वह अपनी कक्षा की पढ़ाई नहीं सीख सका है तो इसका अभिप्राय यह नहीं है कि उसे अगली कक्षा की किताबें पकङा दी जाए।

ऐसे विद्यार्थियों के लिए कोई विशेष व्यवस्था की जाए, कारणों पर ध्यान दिया जाए और उनकी मदद की जाए। शिक्षा का अर्थ ज्ञान है जो बोझिल नहीं हो सकता है। हमारा कर्तव्य है कि किसी के लिए भी ज्ञान को बोझिल न बनने दें।

यह बात समझ नहीं आती कि सरकार का डंडा है कि सभी बच्चों को पास करना है और इसी कारण सभी को पास कर दिया जाता है, यह जानते हुए भी कि उस विद्यार्थी को अभी इस कक्षा की पढ़ाई नहीं आई है, उसे अगली कक्षा में भेज कर अपना कर्तव्य पूर्ण कर दिया जाना कैसे ठीक है?
यह गरीब व अनपढ़ माता- पिता कैसे समझे कि इनके बच्चे सिर्फ कागजों में पास होते हैं ?।

मुख्याध्यापिका जो स्कूल प्रबंधक की ही बेटी थी, अपनी शादी की तैयारी में व्यस्त रहीं, फिर नई ससुराल की समस्याओं से घिरी थी।
फिर भी इन कम आयु की मुख्याध्यापिका से इस विषय पर चर्चा करने की कोशिश की पर उन्होंने मुझे डंडा पकङा दिया और कहा, ” यहाँ जो विद्यार्थी आते हैं वह डंडे की भाषा समझते हैं।”

यह पहला स्कूल देखा जहाँ अध्यापिकाएँ स्कूल में डंडा लिए घूमती थी। पर मैं ऐसा नहीं कर सकती थी। अन्य अध्यापिकाओं से बात करने पर पता चला कि इन एक-दो विद्यार्थियों का सभी विषयों में ऐसा ही हाल था।

मैंने ही इन छात्रों से बात करने का प्रयास किया और कहा पेपर खाली दिया तो दूबारा पेपर कराऊँगी। उन्हें समझाया कि सभी प्रश्न का उत्तर दें, रटा हुआ नही है तो भी प्रश्न समझ कर स्वयं उत्तर बना कर लिखने का प्रयास करें।
इंगलिश में उत्तर देना कठिन था पर मेरे विचार से रट कर लिखना अधिक कठिन था। उन्हें कहा कोशिश करने पर नंबर दिए जाएंगे। अब जो कोशिश कर सकते थे उन्होंने कोशिश शुरू कर दी, कम से कम परीक्षाओं को खेल समझना बंद किया। यूँ ये विद्यार्थी विशेष रूप से लङके बेहद लापरवाह हो गए थे और पढ़ाई में बहुत पिछङ चुके थे, पर मेरी कोशिश ज़ारी थी।

आठवी कक्षा का सामाजिक ज्ञान हिन्दी में था, यह भी मैं पढ़ा रही थी, अतः सभी विद्यार्थियों को मैंने प्रोत्साहित किया कि वे रट कर न लिखे, अपनी भाषा में उत्तर दें। स्वयं उत्तर तलाशे, अन्यथा उन्हें तो गाइडे पकङा दी गई थी। मैंने गाइडे हटा दी और कहा कठिनाई हो तो मेरी सहायता लें।
जो बच्चे रट नहीं सकते थे वह खुश हुए, मुझे खुशी थी कि आठवी कक्षा के सभी विद्यार्थी सामाजिक ज्ञान में रूचि ले रहे थे। अपने शब्दों में उत्तर न केवल लिख रहे थे अपितु स्वयं विचार कर भी अपना तर्क या तथ्य जोङने लगे थे।

मैं चाहती थी कि उनका दिमागी व्यायाम हो,और यह धीरे- धीरे शुरू हो गया था। कठिन था, चूंकि बच्चों को स्वयं विचार कर अपने शब्दों में लिखने की आदत नहीं थी, पर उन्हें कोशिश करना अच्छा लग रहा था।
मैं खुश थी कि कुछ विद्यार्थी अपनी स्वयं लिखी कहानी, कविताएँ मुझे पढ़ाते और मेरा प्रोत्साहन उन्हें खुशी दे रहा था।

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सीखने-सिखाने की कोशिश- (भाग-7)

06 बुधवार मार्च 2019

Posted by शिखा in Uncategorized

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मैंने इस प्रतिष्ठित स्कूल में कक्षा प्रथम को पढ़ाया था। यह एक पुराना व प्रसिद्ध स्कूल था। फ़ीस भी अधिक नहीं थी। मध्यम व निम्न मध्यम वर्गीय परिवारों के बच्चे यहाँ पढ़ने आते थे। स्कूल में बच्चों की संख्या का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि प्रत्येक कक्षा के 9 सेक्शन थे। प्रथम कक्षा के ही सेक्शन A से सेक्शन I तक थे। तब भी एक सेक्शन में 40-45 विद्यार्थी थे।

हम सभी अध्यापिकाओं को एक समान कार्य कराने की हिदायत थी। मैं और कान्ता मैडम नई अध्यापिकाएँ थी। हमें अपनी सीनियर अध्यापिकाओं के कार्यों की नकल ही अपनी कक्षा के बच्चों को करानी होती थी, कोई भी मौलिक कार्य नही करा सकते थे। सभी सेक्शनस की अध्यापिकाओं के बीच प्रतियोगिता रहती थी कि किस की कक्षा का विद्यार्थी सभी प्रथम कक्षाओं मे उच्चतम स्थान प्राप्त करेगा।

प्रथम कक्षा में सभी विषय कक्षा अध्यापिका को ही पढ़ाने थे, पर कंप्यूटर की अध्यापिका अलग थी। नैतिक शिक्षा जैसा कोई विषय नहीं था। दुख की बात थी कि कोई खेल का पीरियड नहीं दिया था। बाद में हम सभी अध्यापिकाओं के बार-बार अनुरोध करने पर प्रथम कक्षा को खेल व ड्राइंग पीरियड भी मिले व उनके लिए खेल व ड्राइंग अध्यापिकाएँ भी मिलने से हम कक्षा अध्यापिकाओं का कार्य आसान हो गया था।

मेरा पहला दिन था उस स्कूल में और मैं अपना कार्यभार संभालने से पूर्व कुछ औपचारिकताएँ पूर्ण कर रही थी। हमारी इंचार्ज ने मुझे कुछ फार्म भरने के लिए दिए व बताया कि कल से आप ‘प्रथम जी’ की कक्षाध्यापिका का पद संभालेंगी। मैं स्टाफ रूम में बैठी, वे सब फार्म भर रही थी कि वहाँ उपस्थित एक अध्यापिका ने प्रश्न किया कि “आप को कौन सा सैक्शन मिला?”
मेरे जवाब देते ही “जी” वहाँ बैठी सभी अध्यापिकाएँ एक साथ ही बोली,” अरे! अभिषेक की क्लास, फिर तो बहुत मुश्किल आने वाली है।” बाद में ऐसी प्रतिक्रिया सभी दे रहे थे, मानों वह पांच-छः साल का बालक कोई आफत का परकाला हो। जिस अध्यापिका से मैं अपने कार्य की जिम्मेदारी ले रही थी, वह बोली, ” मैंने तो अभिषेक से मुक्ति पाई, अब आप संभालें ।” फिर मुस्करा कर बोली,” वैसे बाकी क्लास तो ठीक है पर एक अभिषेक पूरी क्लास के बराबर है।”

अगले दिन मैं अभिषेक से मिलने के लिए उत्सुक लिए कक्षा प्रथम जी में पहुँची, पूरी क्लास में नज़र दौङाई कि अभिषेक कौन हो सकता है? कक्षा के आगे भाग के कोने में एक तरफ एकमात्र डेस्क था, वह खाली था। मैंने विद्यार्थियों से बात करना शुरू करी व उनसे उनका परिचय लेना आरम्भ किया तभी दरवाजे पर एक बालक आकर खङा हुआ और वह कक्षा में आने की अनुमति मांग रहा था, कक्षा में फुसफुसाहट हुई कि अभिषेक आ गया….। मैंने देखा सिर पर अच्छी तरह तेल लगाए, व बाल भी ढंग से बने थे, कपङे भी साफ, जूते भी चमकते हुए थे, कहीं कोई कमी नहीं थी। आँखों में शरारत थी व चेहरे पर उद्दंडता थी या मेरे पुर्वाग्रह के कारण मुझे उसमें शैतानियत नज़र आ रही थी।

वह अंदर आया और मुझे गुडमाॅर्निग भी कहा व उसी कोने के एकमात्र डेस्क पर जाकर बैठ गया था, बिलकुल अकेला। मैंने देखा और कहा,” सबसे अलग क्यों बैठे हो? कक्षा में किसी दूसरे विद्यार्थी के साथ क्यों नहीं बैठते हो?” कहते हुए मैंने कक्षा में नज़र दौङाई कि उसे कहाँ किसके साथ बैठा सकती हुँ कि उससे पहले ही सभी बच्चे बोल उठे कि ” नहीं! हम इसे अपने पास नहीं बैठा सकते हैं।”

कक्षा माॅनिटर रूबी बोली,” मैडम यह बहुत गंदा बच्चा है, सभी मैडम इसे यहाँ अलग बिठाती हैं।” अभिषेक भी शैतानियत भरी हँसी लिए मुस्करा रहा था।

मुझे यह प्रबंध पसंद तो नहीं आया था पर जिस तरह सभी बच्चों की प्रतिक्रिया थी, उसे देखते हुए मैंने उस समय चुप रहना ही ठीक समझा था। काम कराते समय मैंने पाया कि उसकी काॅपियाँ फटी हुई थी। कोने में बैठा होने के कारण उसको ब्लैक बोर्ड से काम उतारने में भी कठिनाई थी। अवसर मिलते ही उसने कक्षा के एक लङके को जाकर एक घूँसा मारा अर्थात अलग बैठने के बाद भी वह अन्य बच्चों को परेशान कर रहा था।
लंच के बाद मैंने उसे रूबी के पास बैठा दिया, रूबी को अच्छा नहीं लगा, पर मैंने कहा, ” अभिषेक सबसे अलग नहीं बैठेगा, सबके साथ बैठेगा।”
अभिषेक से भी कहा कि वह रूबी को तंग नहीं करेगा। उस समय तो वह भी खुश था और शांत बैठा रहा था।

छुट्टी के समय मुझे उसकी माँ मिली तब मैंने उनसे अभिषेक की सभी काॅपियाँ फटी होने के विषय में बताया व नई काॅपियाँ कवर लगा कर भेजने को कहा। लेकिन उनकी प्रतिक्रिया व जवाब से बहुत दुःख हुआ।

वह हँसते हुए बोली,” अरे, फिर फाङ दी काॅपियाँ, कोई बात नहीं मैडम कोई दिक्कत नहीं हैं, नई खरीद देंगे। क्या करे बहुत शैतान है? हमने पहले वाली मैडम को भी बोला था कि काॅपियाँ फट जाए तो बता दिया करे, पैसे की कोई समस्या नही है।”

उनके इस गैरजिम्मेदारना जवाब से हैरान हो कर मैंने उन पर ठीक से निगाह डाली, देहाती परिवेश, शायद बहुत कम शिक्षित, लेकिन इससे क्या फर्क पङता है क्योंकि शिक्षा का जिम्मेदारी से कोई संबध नहीं होता है। उस समय मेरे पास उन्हें समझाने का समय नहीं था, पर मैंने उन्हें अगले दिन मिलने के लिए बुलाया था।

उनके बारे में पता लगा कि कई वर्षों की प्रतीक्षा के बाद उन्हेँ संतान प्राप्ति हुई है, संतान वह भी पुत्र, अतः अभिषेक के लिए सब कुछ न्योछावर कि उसका भला बुरा भी नहीं सोचना है। पिता कोई कारोबार करते थे, पैसे की कोई कमी नहीं थी। यह भी सुना कि वह एक बदलिहाज व्यक्ति है कि कोई अध्यापिका उनसे बात करना पसंद नहीं करती है ,बच्चे की शिकायत पर वह उल्टा अध्यापिकाओं को कङे ज़वाब देते है।यह भी कि फिर उन्हें इतना गुस्सा आता है कि वह अपने लाडले की जूते-चप्पलों से पिटाई लगा देते है।पर आँख के तारे की सभी जिदे व मांगें भी पूरी करते है।
मुझे बिलकुल समझ नहीं आते ये माता-पिता, बच्चों के लाड-प्यार में भी आगे और मारने में भी पीछे नहीं है।

माँ से मिलने पर उन्हें काॅपी, कागज और उस पर किए गए काम का महत्व समझाया यह भी कि बच्चे को मार कर नहीं संभालते व दृढ़ता पूर्वक कहा कि कक्षा में हम ध्यान रखेंगे और घर पर आप ध्यान रखें कि काॅपी- किताबें न फटे।

कक्षा में मैंनें अभिषेक को बारी-बारी से हर बच्चे के साथ बिठाना शुरू किया था, अभिषेक को समझाया कि सबके साथ बैठना है तो किसी को तंग नहीं करना है। पर एक दिन में ऐसे उद्दंडी बच्चे को बदला नहीं जा सकता था। उसके कारण मुझे भी सचेत रहना पङता था कि वह कक्षा में परेशानी न खङी कर दे।गालियाँ तो ऐसी देता था, वो उसके परिवेश का ही परिणाम था। कहा जाता है कि बच्चे की प्रथम पाठशाला उसका परिवार होता है। अतः उसके माता-पिता से मिलना जरूरी था।

उसके पिता से भी P.T.M(parent-Teacher meeting) में बात हुई थी। देखने में ही वह उज्जड और अक्खङ दिखते थे, पर उन्होंने मेरी बातों को ध्यान से सुना था और व्यवहार में भी लिहाज था। शायद इसीलिए कि मैं अभिषेक की शिकायत नहीं कर रही थी, सिर्फ समस्या बता रही थी। वह गाली दे रहा है नहीं ‘वह सीख रहा है।’ सीख रहा है इस पर मैंने ज़ोर दिया था। और यह भी कि समस्या घर से आ रही है, इस सच्चाई को उन्होंने समझा था।

कक्षा में मैंने ध्यान किया कि वह सीधे बच्चों को कम परेशान करता है। उसकी परेशानी दूसरे शरारती बच्चों के साथ अधिक थी, अतः उसकी शिकायतों पर भी ध्यान दिया था।
काफी कोशिशों के बाद मुझे यह समझ आया कि जो पढ़ाया जाता है, उसे समझ आता है व अब प्रश्न करने पर वह उत्तर भी उत्साह पूर्वक देता था। अब काॅपियाँ नहीं फटती थी, इसीलिए उसकी ट्यूशन टीचर उसे पढ़ा पाती थी, जिससे परीक्षा में सही नंबर प्राप्त करता था। कक्षा में सभी बच्चों के बीच बैठकर वह खुश था।

जैसा मैंने पहले भी बताया था कि शैतान बच्चे दुःसाहसी होते हैं, अभिषेक इसका सबसे अच्छा उदाहरण था। हमारी कक्षा ऊपरी मंजिल में थी। एक दिन नीचे मैंदान में कोई खेल खेला जा रहा था, अभिषेक पानी पीने कक्षा के बाहर गया था। तभी वह खेल देखने के लिए सीधे रेलिंग से ही कूदना चाहता था, यदि किसी बङी कक्षा के विद्यार्थी ने उसे न देख लिया होता तो मैं उसके माता-पिता को अपना मुँह नहीं दिखा सकती थी। अब मैं उसे कक्षा से बाहर कभी अकेले नहीं भेजती थी।

सत्र के अंत तक वह बहुत संभल चूका था। वह दूसरी कक्षा में पहुँचा । उसकी दूसरी कक्षा की अध्यापिका मुझे मिली और एक प्रकार से मेरे काम में कमी निकालते हुए बोली कि “आपने अभिषेक की लिखाई पर ध्यान नहीं दिया था, अब मैं सिखा रही हुँ तो बहुत अच्छा लिख रहा है।
मैंने उन्हें जवाब नहीं दिया क्योंकि मेरे लिए यही कामयाबी थी कि वह काम कर रहा है और अब कोई अभिषेक से परेशान नहीं है। मुझे अभिषेक के लिए खुशी हो रही थी कि उसे एक अच्छी अध्यापिका मिली है जो उसके साथ मेहनत कर रही हैं।

हमने कई वर्षों की परतंत्रता से कङे संघर्ष के बाद मुक्ति पाई है। उस गुलामी ने हमें कई तरह से अपमानित और प्रताङित किया था। लेकिन इसके बाद भी हम आज भी अपनी सोच और संस्कारों के इतने गुलाम है कि हम बिना विचारे गर्व के साथ दूसरे का जातिगत, छुआ-छुत के आधार पर अपमान करते हैं। दुःख तब बहुत होता है जब यह भेद रंग के आधार पर किया जाता है। हम हिन्दूस्तानी गोरे कब हुए? सिर्फ थोङा- बहुत रंग के शेड में अंतर मिल सकता है। अगर हम इस थोङे अंतर पर आपस में एक दूसरे का अपमान कर सकते हैं तब अंग्रेजों को बुरा क्यों कहा जाता है? वे तो विदेशी थे, हम पर राज करने आए थे। ऐसी सच्ची घटनाएँ व कहानियाँ पढ़ने व सुनने को मिलती है जिनमें गोरों द्वारा रंग के कारण हमारे लोगों को प्रताङित किया गया था और अंग्रेज़ों के विरूद्ध हमारा खून खौल उठता है । पर हम स्वयं अपने ही लोगों के साथ भेद-भाव का कैसा व्यवहार कर जाते हैं? यह सोचा है?

कबीर जी ने कहा है,” दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्त,
अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत।”

मैं अपनी प्रथम कक्षा ले रही थी तभी मेरे पास एक नोटिस आया कि हमें एक कार्यक्रम के आयोजन के लिए अपनी प्रथम कक्षा में से एक छात्रा का चुनाव करना है। छात्रा का उच्चारण शुद्ध व स्पष्ट हो, उसमें आत्म विश्वास हो, स्मरण शक्ति अच्छी हो व आवाज भी अच्छी होनी चाहिए। छात्रा को तितली या परी की भूमिका मिलेगी।

मेरी कक्षा में 40-42 बच्चों में से छात्राएँ सिर्फ 10 ही थी। यह हमारा दुर्भाग्य है कि इतनी जनसंख्या के बाद भी लङकियों की संख्या बहुत कम है, उस पर उन्हें शिक्षित करने की दिशा में सोच निराशाजनक है।

मैंने सभी छात्राओं पर निगाह डाली, सभी परी व तितली दिख रही थी। मुझे ऐसी छात्रा का चुनाव करना था जो इन सब योग्यताओं में खरी उतरे। और मैंने संध्या को देखा, सांवली सलोनी संध्या जब अपनी मधुर आवाज़ में कविता पाठ करती थी, तो उच्चारण में एक-एक नुक्ता और बिंदू भी पता लगते थे और पूरी कक्षा आनंद लेती थी। मुझे उससे योग्य कोई न दिखी और मैंने उसका नाम भेज दिया।

रिहर्सल का पहला दिन था संध्या भी संगीत अध्यापिका के पास रिहर्सल के लिए गई थी। अन्य बच्चे मेरे द्वारा दिया कक्षा-कार्य कर रहे थे। तभी प्रथम कक्षा इंचार्ज संध्या के साथ आईं और मुझ से हैरानी से सवाल किया ,” आपने इसे अपनी कक्षा से चुना है? कोई और योग्य छात्रा नहीं मिली?”
मैंने प्रत्युत्तर में पूछा, ” क्यों क्या हुआ, संध्या ने क्या किया? ” उन्होंने मुझ से इस तरह से देखा जैसे मैं नासमझ हुँ और धीरे से बोली,” शक्ल तो देख ली होती?”
मैंने संध्या को उसकी सीट पर भेजा और उनसे पुछा, ” क्या संध्या के उच्चारण, आवाज़ या आत्मविश्वास में कमी है?”
उनका जवाब था,” नहीं, पर हम इन्हें परी या तितली बनाना चाहते है और यह सांवली है, आपकी कक्षा में अन्य कोई गोरी सुंदर छात्रा होगी?”
उनसे बिना बहस किए मैंने कहा कि “मेरी कक्षा में से तो संध्या को ही लिया जाएगा अन्यथा किसी को भी नहीं लिया जाए।”
कार्यक्रम में संध्या ने भाग लिया और अच्छी प्रस्तुति दी थी। और मैं आज तक सोचती हुँ कि क्या तितली या परी सांवली नहीं होती क्या ?

जैसे हम होते है वैसे ही हमारी कल्पनाएँ होती है तो परी भी हमारी जैसी होगी और तितली? उसके रंग तो किसी विशेष रंग से बंधे नहीं होते है।

कारण जो भी हो यह एक बच्चे के मन में हीन भावना का अहसास भरना था। हम इस तरह जाने-अनजाने बच्चों के अंर्तमन को कलुषित करके उनके विकास को बाधित करते हैं।

कबीर जी यह भी कहते है,” कबीर गर्व न किजीये, देहि देखि सुरंग,
बिछुरै पर मेला नहीं, ज्यों केंचुली भुजंग।”

हमें चूंकि अपनी सीनियर अध्यापिका के कार्यों का ही अनुसरण करना था तो मैं वैसा ही कार्य करा रही थी। लेकिन एक दिन कक्षा में तोते के विषय में पाठ पढ़ा कर उसका अभ्यास कार्य करा रही थी। प्रश्न था कि तोता किस रंग का होता है? पाठ के अनुसार सीनियर अध्यापिका ने उत्तर में सिर्फ हरा रंग ही लिखाया था। परंतु मेरी कक्षा के सचिन ने मुझ से कहा कि उसने तो चिङियाघर में लाल और नीले रंग के भी तोते देखे हैं। उसकी बात में सच्चाई थी, पाठ लिखने वाले को इस बात का ध्यान रखना चाहिए था। कक्षा के अन्य विद्यार्थी भी अब सचिन की बात का समर्थन कर रहे थे। अतः यहाँ मैंने उत्तर थोङा बदल कर लिखा दिया था।

अन्य घटना इससे मिलती-जुलती घटी कि पाठ था परिवार के सदस्य क्या-क्या काम करते है। पाठ के अनुसार माता खाना बनाती है व घर के अन्य काम करती हैं। पिता नौकरी या पैसा कमाने के लिए अन्य कोई कार्य करते है और बाजार से फल, सब्जी इत्यादि लाते हैं।
अब उसी के अनुसार अभ्यास प्रश्न था कि” आप के घर में बाजार का सामान कौन लाता है?
उत्तर लिखाया गया था,”पिता”
नवीन लिखते हुए रुक गया , क्योंकि उसने उत्तर दिया,” मेरे पापा कुछ नहीं करते, सब काम माँ करती है।”
साथ ही अङ भी गया” मैं उत्तर में पिता नहीं लिखूँगा।”

उसके साथ कुछ दूसरे विद्यार्थियों की भी यही प्रतिक्रिया थी।
यही नही फिर उनसे पाठ पर चर्चा करी तो जो उत्तर मिले उसने मुझे सोचने के लिए मजबूर किया।
कुछ विद्यार्थी मुझे बता रहे थे कि उनकी माँ भी नौकरी करती है या अन्य कार्य करती है और पैसा घर लाती हैं। यह 5-6 वर्ष के बच्चे मुझे याद दिला रहे थे कि समाज बदल रहा है और वह इसी बदले समाज को जानते है।

जो तथ्य बच्चे देख रहे थे उसे किताब लिखने वाले ने क्यों नहीं देखा?
मैंने उन्हें उत्तर लिखने के लिए चुनाव करने दिया कि वे जैसा अपने परिवार में देख रहे है उसके अनुकुल उत्तर दे सकते हैं।

परीक्षा में विद्यार्थियों के पेपर जाँचने का नियम था कि कक्षा अध्यापिका अपने विद्यार्थियों के पेपर नहीं जाँचती थी अन्य सैक्शन की कक्षा अध्यापिका जाँचती थी। अतः मैंनें अन्य अध्यापिकाओं को बताया कि” मैने उत्तरों में क्या बदलाव किए है?” वे सब मुझ से सहमत होते हुए भी हैरान थी कि “आपकी कक्षा के विद्यार्थी इतने सवाल क्यों करते है?” शायद मै उन्हें अपनी बात कहने की स्वतंत्रता दे रही थी।

मेरे विचारों से हमें बच्चों से अवश्य सभी विषयों पर चर्चा करनी चाहिए, जिससे उनमें सोचने- विचारनें के प्रति रुझान विकसित हो सके, साथ ही अपने विचार प्रकट करने की झिझक दूर हो। हमें उन्हें सुनना चाहिए और यह विश्वास देना चाहिए कि आप उन्हें समझ रहे हैं।
लेकिन इसके लिए आवश्यक है कि कक्षा में छात्रों की संख्या कम हो, जिससे अध्यापक आसानी से चर्चा के लिए समय दे सके व प्रत्येक बच्चे को सुन सके। अन्यथा जैसा होता है कि रटे रटाए तरीके से पाठ पढ़ाया गया और काम करा दिया गया। न अध्यापक कुछ विचारे न बच्चे अपने मन के सवालों को सुलझा सकें।

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