• About

शिखा…

शिखा…

मासिक अभिलेखागार: अप्रैल 2019

समीक्षा

25 गुरूवार अप्रैल 2019

Posted by शिखा in Uncategorized

≈ 4s टिप्पणियाँ

नाटक -‘मुगल- ए- आज़म

निर्देशक – फिरोज़ अब्बास

1960 में प्रदर्शित फिल्म ‘मुगल-ए – आज़म मेरी पसंदीदा फिल्मों में से एक है।यह भव्य फिल्म अपने समय की ही नहीं आज भी कलात्मकता की अनूठी मिसाल है।

इस फिल्म का नाट्य मंचन हुआ है, ऐसा जानने पर यही प्रश्न मन में आया कि क्या फिरोज़ अब्बास खान ने इस अनमोल कला को एक नया आयाम दिया होगा?

नाटक देखने से पूर्व फिल्म के संवाद, संगीत व गाने न केवल कानों में गूँज रहे थे अपितु पूरी फिल्म ही आँखों के सामने चल रही थी।

मंच पर नाटक आरम्भ हुआ और शीघ्र ही हम नाटक में खो चूके थे । संवाद तो वही थे जो कुछ देर पहले कानों में गूँज रहे थे।गीत भी वही जो दिल में बसे थे। परंतु यह फिल्म नहीं थी, नाट्य मंचन था।

यह नाटक कला की सच्चाई का प्रतिरूप बन कर उभरा है। नाट्य मंचन की दूनिया में एक सफल अनोखा अनूठा प्रयास है। हम एक देखी- सुनी कहानी के प्रस्तुतिकरण से हतप्रभ थे। अभिनेताओं द्वारा संवादों को बोलने की शैली उस कहानी को नए रूप में हम तक पहुँचा रही थी।

प्रत्येक गीत व नृत्य का मंचन ह्र्दय को गदगद कर रहा था। शकील बदायुनी लिखित गीत ‘ प्यार किया तो डरना क्या’ मंच पर देख हम अभिभूत थे। अगर के. आसिफ साहब ने इस नृत्य को फिल्माने के लिए कोई भी त्रृटि नहीं छोङी थी, तो निर्देशक फिरोज़ अब्बास साहब ने इस गीत- नृत्य के मंचन में कला को एक नई ऊँचाई में पहुँचा दिया है।

के. आसिफ साहब ने इस गाने के लिए शीशमहल का विशेष सेट तैयार कराया था और फिर गीत के बोलो की गुंज व मधुबाला के नृत्य ने उस शीशमहल में उस दृश्य को जीवंत किया था।

उसी खूबसूरती को फिरोज साहब को इस मंच में बिखेरनी थी, हमारी आँखें भी इस गीत व नृत्य का नाट्यमंचन देखने के लिए बैचेन थी।

दृश्य आरम्भ हुआ, अनारकली के रूप में प्रियंका बर्वे की मधुर आवाज व नृत्य तथा अन्य नृत्यांगनाओं के नृत्य मंच पर अद्भूत छटा बिखेर रहे थे। मंच सज्जा, लाइटों के प्रयोग ने उस दृश्य को इस तरह जीवंत बनाया कि हम फिल्म के फिल्मांकन को भूल गए थे। दृश्य के अंत में सलीम के चारों ओर गुजंता गीत,’ प्यार किया तो डरना क्या’ व नृत्यांगनाओं का अद्भूत नृत्य तथा मंच का सुदंर प्रयोग, रोशनी का सटीक संयोजन सबने मिलकर जैसे के. आसिफ के शीशमहल को मंच पर उतार दिया था। और मुहँ से निकला, ‘वाह!’

नाटक के प्रत्येक दृश्य को स्वाभाविक बनाने के लिए मंच सज्जा पर बहुत बारिकी से काम किया गया था। दरबार का दृश्य, बाग का दृश्य हो अथवा महल का दृश्य देखते हुए मंच आपको निराश नहीं करता है, अपितु उत्साहित करता है।

युद्ध के दृश्य की प्रस्तुति आपको युद्ध में पहुँचा देती है दृश्य को सफल बनाने के लिए रोशनी के प्रयोग के साथ कुछ प्रतीकों का भी सफल प्रयोग किया गया है , फिर अकबर और सलीम के बीच के युद्ध का दृश्यांकन मन द्रवित कर देता है, यह सिर्फ मंच पर दृश्य के प्रस्तुतिकरण का प्रभाव था।

नाट्य मंचन में मंच का सफल उपयोग आवश्यक है और यह तो फिल्म मुगल – ऐ – आज़म का नाट्य मंचन था, यह खुशी की बात है कि फिरोज साहब ने इसमे कोई कमी नहीं छोङी है, तभी यह नाटक भी बना है कला की अनोखी मिसाल।

कलाकारों का अभिनय व संवाद शैली इस नाटक को एक नए अंदाज़ में प्रस्तुत करता है।सभी मुख्य व सहकलाकारों के अभिनय की प्रशंसा के साथ नृत्यांगनाओं के नृत्य की सराहना बहुत आवश्यक है , जिनसे दृश्य सुंदर और प्रभावशाली बने थे।

महारानी जोधा के आदेश पर बहती तानसेन की रागनियाँ व कत्थक नृत्यांगनाओं के घूघँरूओं की झंकार हमारे हृदय को भी संगीत मय कर देती है। और अंत में वह गीत व नृत्य ‘खुदा निगहबान हो तुम्हारा।’ दृश्य को इस खूब सूरती से प्रस्तुत किया गया है कि ‘ उठे जनाज़ा….’ पर आह निकलती है।

अभिनेताओं और अभिनेत्रियों की प्रशंसा मात्र उनके अभिनय के लिए नहीं की जा सकती है उनके गाए गीत उसी प्रकार दिल में प्रभाव छोङते गए जैसे फिल्म के गीत । कलाकारों द्वारा स्वयं मंच पर ही अभिनय और नृत्य के साथ गीत गाए गए हैं। मंच के पीछे से कोई रिकाॅर्ड नहीं बजता हैं। हम प्रत्यक्ष रूप से कलाकारों को गाते हुए देखते व सुनते हैं।कलाकारों का प्रत्यक्ष गायन दृश्यों को देखने का आनंद बढ़ा देता है।

‘ तेरी महफिल में किस्मत आज़माकर हम भी देंखेगे।’ इस कव्वाली की प्रस्तुति कलाकारों के गान व कत्थक नृत्यांगनाओं के नृत्य से बहुत रोचक बन गई थी।

अंत में यही कहना होगा कि सच्चे कलाकार जो अपनी कला के साथ समझौता नहीं करते है, उनकी कला इतिहास रचती है। फिरोज अब्बास खान ने भी इस नाट्य मंचन से नाटक के इतिहास को नया आयाम दिया है।

Advertisement

सीखने-सिखाने की कोशिश-(भाग-10)

19 शुक्रवार अप्रैल 2019

Posted by शिखा in Uncategorized

≈ 2s टिप्पणियाँ

एक ही परिवार में पले- बढ़े बच्चों के स्वभाव व प्रवृतियों में भिन्नता पाई जाती है। प्रत्येक बच्चा अपनी जन्मजात प्रवृति व स्वभाव लेकर आता है ।एक समान शिक्षा- दीक्षा को वे अपनी – अपनी प्रवृति के अनुकुल ग्रहण करते हैं और भिन्न-भिन्न व्यक्तित्व का विकास होता है।

लव,कुश और मेघा ये एक ही परिवार के तीन बच्चे हैं। तीनों ही मेरे छात्र रहे हैं परंतु कुश दूसरी कक्षा से आठवीं कक्षा तक मेरे पास पढ़ा था।लव और मेघा एक ही वर्ष पढ़े थे।

सात वर्ष का कुश आरम्भ में बहुत शर्मीला था। पर उसकी आखें उसकी चंचलता और होशियारी बयां करती थी। उसे पढ़ना अच्छा लगता था पर खेलना भी चाहता था । यह खुशी की बात थी कि वह दोनो के लिए समय का तालमेल बना लेता था। काम करने की गति तीव्र थी और चूंकि मन से पढ़ता था तो काम समझने में देर नहीं लगाता था। उसने मुझ से यह निश्चित करा लिया था कि वह काम अच्छा और जल्दी पूरा कर लेगा तो उसकी जल्दी छुट्टी कर दूँगी जिससे उसे खेलने का अधिक समय मिल सके।

कुश का बङा भाई दस वर्षीय लव भोला, मितभाषी और विनम्र था। लव को पढ़ना बिलकुल पसंद नहीं था।उसे पढ़ने का उद्देश्य समझ नहीं आता था। मेरे पास सिर्फ 2 महीने ही पढ़ा था। ऐसा लगता था कि वह पढ़ना ही नहीं चाहता था, काम बहुत धीमी गति से करता था। खेलना उसे पसंद था पर उसमें यह भावना नही थी कि उसके लिए पहले पढ़ाई अच्छी और जल्दी कर ले।

लव, कुश की बहन मेघा अपने भाईयों से बङी थी।वह आठवीं कक्षा में पढ़ती थी। जैसा कि अधिकांशतः परिवारों में होता है कि लङकी को बाहर पढ़ने तो भेजते हैं पर इस भय के साथ कि कहीं उसके साथ कुछ गलत न हो जाए या वह स्वयं न भटक जाए। मेघा के परिवार में भी ऐसा ही था। लव का ध्यान इसी में रहता कि मेघा किस से बात कर रही है और फिर पूरी खबर घर जाकर माँ को देता था । मेघा बहुत तनाव में रहती थी।

एक ही पारिवारिक, आर्थिक व सामाजिक परिस्थिति में रहते हुए भी उनके व्यक्तित्व का विकास भिन्न ही रहा था। मेघा का विवाह 19 वर्ष में कर दिया गया था, वह अपने परिवार का दायित्व पूर्ण जिम्मेदारी से अवश्य निभा रही है पर उसमें घर से बाहर कोई काम करने का आत्मविश्वास नहीं है।

लव बहुत कम पढ़ाई कर सका था, वह अपने पिता का बिजनेस संभाल रहा है।
कुश ने ही पढ़ाई करी, ग्रेजुएशन करके होटल मैनेजमैंट का कोर्स किया व नौकरी कर रहा है।
प्रसिद्ध शायर निंदा फाजली ने लिखा है-
” पंछी, मानव,फूल, जल अलग-अलग आकार
माटी का घर एक ही, सारे रिश्तेदार।

पायल, हिमांशु और मानव तीनों भाई-बहन मेरे ही पास पढ़ते रहे थे। पायल ने स्कूल की पढ़ाई मेरे पास नहीं करी थी। पर मैंने उसके बचपन से उसे देखा था। हमेशा हँसती दिखती पायल के मन में बहुत दुख था। अपनी बीमारी के कारण वह बहुत चिङचिङी और गुस्सैल हो गई थी ।घर से बाहर वह जितनी खुश दिखती थी घर में उतनी ही परेशानी का सबब थी
बीमारी ने उसे दिमागी समझ से कुछ पीछे जरूर कर दिया था, पर उसकी मेहनत और निरंतर कोशिश व लगन से उसने बारहवीं तक पढ़ाई कर, जे.बी.टी का कोर्स किया व अब ग्रेजुएशन भी कर रही है।मुझे पूरी उम्मीद है कि नौकरी की कोशिशों में भी वह सफलता अवश्य पा लेगी।बीमारी आज भी उसके साथ है, जिसे उसने स्वीकार कर लिया है और एक जिद के साथ उसकी आगे बढ़ने की कोशिश ज़ारी है।

एक लङकी को घर से बाहर भेजने का भय इस परिवार में भी दिखता है,फिर पायल की बीमारी के कारण भी अनचाही अनहोनी घटने की कल्पना से प्रभावित हो, वे उसे घर से बाहर भेजना नहीं चाहते हैं।

लेकिन पायल सब समझते हुए भी अपने पाँव पर खङे होने के इरादे को डिगने नहीं देती है।
सोहनलाल द्विवेदी ने यह कविता पायल के समान हार न मानने वालों के लिए लिखी है-
लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती,………
असफलता एक चुनौती है, स्वीकार करो………
संघर्ष का मैदान छोङ मत भागो तुम…….
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती।

पायल हमेशा अपनी पढ़ाई के लिए या अन्य समस्याओं के समाधान ढूँढने मेरे पास आती है। यह कहना कठिन है कि वह मुझ से कुछ सीखती है या मुझे सिखाती है। सच, यही है कि वह ही मेरी गुरू है।

पायल का छोटा भाई हिमांशु प्रथम कक्षा से आठवी कक्षा तक मेरे पास पढ़ा था। हिमांशु बहुत ही मनोयोग से पढ़ाई करता था ।उसके लिए अध्यापक के शब्द ही पत्थर की लकीर थे। समस्या यही थी कि उसकी माँ कभी उसके नंबरों से संतुष्ट नहीं होती थी। हिमांशु को बिलकुल पसंद नहीं था कि उसकी माँ मुझ से आकर मिले। कारण था कि हिमांशु जितना शरीफ बन कर मेरे पास पढ़ता था, उतना ही वह घर पर शैतानी करता व माँ को परेशान करता था।

हिमांशु नहीं चाहता था कि उसकी माँ मुझ से उसकी शिकायत करे,यह बात तो कोई पसंद नहीं कर सकता है। मेरे बहुत समझाने पर भी उसकी माँ ने अपना स्वभाव नहीं बदला था। मानव के साथ भी वह यही करती थी, मानव हिमांशु का आठ साल छोटा भाई था, वह के. जी. कक्षा से मेरे पास पढता रहा था ।

हिमांशु मेरे पास सीधा बच्चा था पर घर में शरारती था, उसके घर व बाहर दो व्यक्त्तित्व दिखते थे, पर मानव जैसा घर में था वैसा ही बाहर था थोङा जिद्दी व गुस्सैल भी था। मानव मुझ पर अपना बहुत अधिकार समझता था। किसी अन्य बच्चे के सामने मैं उसे कुछ नहीं कह सकती थी।

हिमांशु और मानव दोनो बच्चे दिमाग के तेज थे। नए-नए काम करने में, प्रश्नों को भिन्न-भिन्न तरीके से हल करने में, ये आनंद लेते थे। हिमांशु पढ़ाई के प्रति हमेशा गंभीर रहा था, अपना काम हमेशा पूरा रखता था। उसका ध्यान कभी भटकता था पर फिर पढ़ते समय पूरा ध्यान देता था। इस समय उसने इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूर्ण कर ली है।

मानव को पढ़ाने में बहुत आनंद आता था क्योंकि वह प्रश्न बहुत करता था और बहुत जल्दी सब समझता था।घर में सबसे छोटा होने के कारण उसकी परवरिश बहुत लाड में हो रही थी जिसका वह पूरा लाभ उठा रहा था।जब वह सातवी कक्षा में आया तो मैंने महसूस किया कि वह अधिक खिलाङी हो रहा है अतः पढ़ाई को कम महत्व दे रहा है। पर मैं समझ सकती थी यह दौर कुछ ही समय का है। मानव अब दसवीं कक्षा की पढ़ाई कर रहा है।
पायल , हिमांशु और मानव तीनों ही बच्चे तीव्र दिमाग के होशियार बच्चे हैं। ये तीनों जन्मजात लगन के पक्के हैं।

दोनों परिवार लङकियों को पढ़ाने के लिए विशेष उत्साही नहीं थे। मेघा की शादी छोटी आयु में ही कर दी गई थी। लङकियों को पढ़ाई कोई नौकरी या व्यवसाय कराने के उद्देश्य से नहीं कराई जाती है।उन्हें आत्मनिर्भर बनाने का विचार भी उनके मन में नहीं होता है।

जिन घरों में व्यापार या व्यवसाय करने की परंपरा चल रही हो, वहाँ लङकों को भी पढ़ने के लिए विशेष उत्साहित नहीं किया जाता है।इसीलिए लव के मन में आरम्भ से ही पढ़ाई के प्रति जिम्मेदारी का अहसास नहीं था।फिर भी कुश ने अपनी रूचि से पढ़ाई करी थी। प्रत्येक बच्चा अपनी रूचि से अपने जीवन पथ का चुनाव करता है।

पायल को पढ़ने के लिए बहुत संघर्ष करना पङ रहा है। वह भी अपने भाईयों की भांति आत्म निर्भर होना चाहती है। वह हमेशा से नौकरी करने का सपना देखती रही है जिससे वह अपने माता-पिता पर निर्भर न रहे।
परंतु माता-पिता व भाई भी उसे एक आराम का जीवन देना चाहते हैं,वे नहीं समझ पा रहे हैं कि वह घर का आराम छोङ कर बाहरी दूनिया के धक्के खाना क्यों चाहती है।यदि यह सच है कि वे पायल की बीमारी के कारण भी उसे घर से बाहर नहीं भेजना चाहते है पर यह भी कङवा सच है कि वह स्वस्थ होती तो उसका विवाह कर दिया जाता ।

समझना कठिन है कि इन्हें अपनी बेटियों और बहनों के लिए सुख घर की चहार दीवारी में ही क्यों नज़र आता है? क्या वाकई घर में रह कर ही सुख है? नौकरी को संघर्ष का पर्याय क्यों माना जाता है ? इसीलिए पुरूष यह कहते दिखते हैं कि हम संघर्ष कर रहे है तो तुम लङकियों को क्यों परेशान होना है, तुम आराम से घर देखो।
आत्मनिर्भर होने में स्वाभिमान तो हो सकता है पर संघर्ष कैसे? समाज बदल रहा है, आज लङकियों की शिक्षा के लिए हर वर्ग जागरूक हो रहा है। लङकियाँ आत्म निर्भर भी हो रहीहै, पर कठिनाई के साथ…..। परिवर्तन हो रहा है और समाज विकास की ओर बढ़ रहा है।
हिमांशु और मानव के पिता भी व्यवसायी है, पर दोनों बच्चों की पढ़ाई को भी महत्व दिया गया है, जिससे उनकी सूझ-बूझ बढ़े और अपनी पसंद का व्यवसाय या नौकरी का चुनाव करने के लिए वे सक्षम हो।

सीखने- सिखाने की कोशिश – (भाग-9

04 गुरूवार अप्रैल 2019

Posted by शिखा in Uncategorized

≈ 2s टिप्पणियाँ

जिन विद्यार्थियों को मैं लिखना पढ़ना नहीं सिखा सकी, उनके लिए मैं उतनी ही गुनहगार हुँ, जितनी सरकार की नीतियाँ व स्कूल प्रबंधक इत्यादि। कोई भी स्पष्टीकरण मेरी कमी को भर नहीं सकता है। हम सभी अध्यापिकाओं या अध्यापकों ने चाहे कितना भी अच्छा काम किया हो, यदि हम से पढ़े बच्चों में से कोई एक भी ठीक से पढ़- लिख न सके तो हमें अपनी कमी स्वीकार करनी चाहिए।

मैंने इस कमी को दूर करने के लिए ट्यूशन में बच्चों पर विशेष ध्यान देने की कोशिश की थी। मेरा ट्यूशन का सफर भी लंबा रहा है और निरंतर चल रहा है। ट्यूशन में पढ़ने आए विद्यार्थी तो मेरे अपने बच्चे होते हैं, मेरी कोशिश होती है कि मेरे पास वे किसी दबाव का अनुभव न करें, वे मेरे विद्यार्थी न हो कर मेरे सहयोगी होते है हम मिलकर सीखने-सिखाने की कोशिश करते हैं। ये मेरे नन्हें- किशोर सहयोगी मुझ से खुलकर अपने मन का हाल कहते है।
प्रत्येक बच्चे के विषय में लिखना तो कठिन होगा पर जिन बच्चों से विशेष सीखने को मिला उनकी चर्चा अवश्य करूँगी।
कुछ लङकियाँ बचपन से ही बहुत कोमल व नाजुक होती हैं, पांच साल की नैन्सी भी ऐसी ही थी, बहुत कम बोलती थी, जितना पूछो उतना जवाब मिलता था। आवाज भी बहुत शांत धीमी निकलती थी। अपना काम बहुत तन्मयता से व सुंदर करती थी।

उसकी दादी ने बताया कि वह घर में भी चुप रहती है, सिर्फ मतलब की बात करती है। अपनी तकलीफ व परेशानी भी नहीं बताती है। उसकी दादी ने कहा,” हम इसे आपके पास इसीलिए लाए हैं कि यह बोलना सीखे, बातें करना सीखें।”

मैं उसे कहानियाँ सुनाती, उसके साथ खेलती थी, पर वह उतना ही बोलती थी, जितना जरूरी होता था। कहानी ध्यान से सुनती, उस पर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर भी ठीक देती थी।अपने मन से कोई बात नहीं करती थी। कक्षा-प्रतियोगिता के लिए कहानी व कविता याद करती व सुनाती भी थी, पर आवाज बहुत धीमी थी वैसे स्पष्ट थी । बहुत समझाने से थोङा ऊँचा तो बोलने लगी थी, पर बातें करना पसंद नहीं था।

दो दिन के लिए उसका चार साल का छोटा भाई कपिल मेरे पास पढ़ने आया था। कपिल बहुत शरारती था, वह नैन्सी की हर वस्तु लेता पर नैन्सी उससे भी नहीं लङती थी।पता चला कि घर पर भी जब बहुत परेशान हो जाती है तब बोलती है उसे लङना पसंद नहीं था।इसी बात से घर वाले उसके लिए चिंतित थे।

यह चिंता की बात भी थी इतना शांत रहना, अपने अधिकार के लिए भी नहीं बोलना! घर का माहौल भी अच्छा था, परिवार में सभी उसे बहुत प्यार करते थे।यह उसका जन्मजात स्वभाव था उसे बदलना कठिन था,समय के साथ स्वभाव में परिवर्तन आएगा।पर यह चिंता की बात भी है क्योंकि यदि उसके साथ कुछ भी गलत होगा तब भी वह अपनी तकलीफ अपने पास रखेगी। परिवार उसके प्रति बहुत सचेत था,लेकिन बहुत ध्यान रखने पर भी चूक हो सकती है।

हम उस पर इस छोटी आयु में स्वभाव बदलने के लिए दबाव नहीं डाल सकते हैं। हम धीरे- धीरे उसे बिना डराए समाज की बुराईयों से परिचित करा सकते हैं । कहानियों द्वारा अपने अधिकार के लिए लङना व विद्रोह करना सिखाया जा सकता है।

नैन्सी को एक अच्छा शिक्षित परिवार मिला था जो उसके व्यक्त्तित्व के विकास के प्रति सजग था। अधिकांशतः ऐसे बच्चों को बहुत कठिनाई का सामना करना पङता है। असामाजिक तत्व ऐसे बच्चों को आसानी से अपना शिकार बना लेते हैं।

महान साहित्यकार अज्ञेय ने अपनी पुस्तक ‘ शेखर एक जीवनी’ में लिखा है कि किसी में भी विद्रोह के गुण जन्म से होते हैं और वे प्रत्येक में नहीं होते है। अतः क्रांतिकारी बनाए नहीं जाते हैं, वे जन्मजात होते हैं। जिस कारण कुछ व्यक्ति यह समझते हुए भी कि गलत हो रहा है, पर उसका विरोध नहीं करते हैं, बेशक जो भी हो रहा हो वह उनके लिए भी हानिकारक हो, तब भी वह चुप रहने और सहने में विश्वास करते है। जबकि विद्रोही कुछ भी गलत हो, चाहे वह उनके लिए हानिकारक न हो, पर दूसरे के लिए हो तब भी आवाज़ उठाते हैं, विद्रोह करते हैं।

नैन्सी का शांत स्वभाव उसका जन्मजात गुण था तो अनन्या का स्वभाव विद्रोही था। चार साल की अनन्या को जब बङे बच्चे तंग करते तो वह तुरंत उनका जवाब देती थी। मैं यह देखकर खुश थी कि उसे किसी के साथ भी गलत होना सहन नहीं था।और जब किसी को आवश्यकता होती तो सबसे पहले वह सहायता के लिए आगे बढ़ती थी।

वह जब मेरे पास आती तो बहुत शांत दिखती थी, लेकिन उसकी शरारती आँखे बताती थी कि वह किसी से कम नहीं थी, वह अपने आस-पास के वातावरण के प्रति बहुत सजग थी। जबकि उसका ‘आई क्यू’ अपनी आयू के बच्चों से कुछ कम था पर सिर्फ पढ़ाते समय ही प्रतीत होता था कि उसे देर से समझ आता है परंतु व्यवहारिक ज्ञान में उसे किसी भी रूप में पीछे नहीं कहा जा सकता था।

वह उस छोटी आयु में भी सबकी मित्र बनना चाहती थी और मित्रता निभाना भी जानती थी, इसीलिए सबके कष्ट समझती थी। विद्रोही स्वभाव के बच्चे अधिक भावुक और संवेदनशील होते है।

मंथन दूसरी कक्षा में पढ़ता था, उसे अपने पर पूर्ण विश्वास था और अपनी बूद्धि व समझ से दूसरों को परख कर वह व्यवहार करता था।आरम्भ में वह कुछ नहीं बोलता था पर उसके व्यवहार से उसकी सजगता प्रकट हो रही थी। जैसे वह बता रहा था कि उसे अभी हम पर विश्वास नहीं है । मेरी बातों को सुनते हुए वह भाव शुन्य रहता था ।पहले दिन उसकी किताबों को जैसे ही मैंने हाथ में लिया वैसे ही तपाक से उसने अपनी किताबें मुझ से ले ली और बोला,” आपको नहीं पता मुझे क्या और कैसे पढ़ना है?” उसने स्वयं एक किताब निकाल कर पढ़ना शुरू किया था।

मैं समझ गई थी कि उसे कुछ समय देना होगा और उसका विश्वास जीतना होगा वह न केवल शक्की अपितु स्वाभिमानी बच्चा भी था। अपने सम्मान के प्रति बहुत सतर्क था। कठिनाई यह थी कि कुछ अभिभावक ट्यूशन में बच्चे को भेजकर समझते हैं कि तुरंत बच्चे के रिजल्ट में सुधार हो जाएगा। पर मंथन तो अभी बात भी नहीं करना चाहता था।

दूसरों को परखना या जल्दी विश्वास न करना, क्या उसका जन्मजात स्वभाव था ? अथवा सामाजिक परिस्थतियों व बङों ने यह सिखाया था। वैसे थोङे शक्की सभी बच्चे होते हैं और यह होना भी चाहिए।

जैसे हमारे व्यक्तित्व के दो रूप होते हैं, हम घर के अंदर जो होते हैं वह घर के बाहर नहीं होते है। उसी प्रकार एक बच्चा जैसे घर पर व्यवहार करता है वैसे बाहर नहीं करता है। माता-पिता को उसके बाहरी स्वरूप का ज्ञान भी नहीं होता है।

मंथन की माँ को भी जल्दी थी पर दादी को समझ थी, उन्होंने बताया कि मंथन बहुत जिद्दी है व घर पर तो बहुत शोर मचाता है व जिद न मानने पर चिल्लाता भी है। यहाँ भी वह जिद् तो दिखा रहा था पर अपना गुस्सा दृढ़ता से चुप रहकर व रूखाई से दिखा रहा था।

मंथन ने शीघ्र ही समझ लिया था कि मेरे पास पढ़ने आए अन्य बच्चों में से पांचवीं कक्षा के मानव से उसकी नहीं पटेगी। मानव नर्सरी कक्षा से मेरे पास पढ़ रहा था अतः मेरे पर अपना अधिक अधिकार समझता था। मंथन जब मेरी बात नहीं सुनता तो मानव को अच्छा नहीं लगता था। इस पर मानव भी मंथन से रूखा व्यवहार करता था। मैंने मानव को समझाया कि उसे मंथन के व्यवहार को अनदेखा करना होगा, थोङे दिन में ठीक हो जाएगा। दस वर्षीय मानव के लिए यह समझना व करना कठिन था। क्योंकि उसने सामान्यतः बच्चों को ऐसा व्यवहार करते नहीं देखा था।

मंथन की स्कूल डायरी से पता लगा कि उसने कक्षा के किसी विद्यार्थी की किताब फाङ दी थी । मैंने प्यार से पूछा कि कक्षा में क्या हुआ तब वह गुस्से में बोला,” उसने मुझे मारा था।”
मेरे पुछने पर कि टीचर ने क्या कहा?, उसने बताया,” मैडम ने मुझे मारा था। मैं सबके साथ नहीं बैठता ज़मीन पर सबसे अलग बैठता हुँ।” मुझे अभिषेक की याद आई थी।

मंथन का कक्षा कार्य बहुत खराब और गंदा था। शायद इसीलिए वह अपनी काॅपियाँ नहीं दिखाता था। मैंने देखा कि उसने काॅपी में गलतियाँ रबङ से मिटाने के स्थान पर ऊँगली व थूक से मिटाई थी।

उससे पूछने पर बहुत रूखाई व नाराज़गी से उसने उत्तर दिया, “मम्मी रबङ नहीं देती व पैंसिल भी आधी देती है जो खो जाती है।”
मंथन का कष्ट समझ आ गया था। उसकी माँ का उत्तर था, ” मै क्या करूँ? यह प्रतिदिन पैंसिल रबङ खो देता है।मैं चाहती हुँ यह जिम्मेदार बने।”
मन में आया कहुँ कि ‘पहले आप स्वयं तो जिम्मेदार बने।’ पर नहीं कहा क्योंकि यह सीखने सिखाने में नहीं आता है।
मैंने उन्हें मंथन की स्कूल की काॅपियाँ दिखाई, जिसे उन्होंने शायद ही पहले देखा था। (माँ नौकरी करती थी)
उन्हें दिखाया कि रबङ के बिना वह कैसे मिटाता है और पैंसिल जो पहले ही आधी थी घिस कर छोटी होने पर वह कैसे लिख पाता होगा? खो जाने पर बिलकुल नही लिख पाता होगा और कक्षा में सबके सामने जिल्लत भी सहनी पङती होगी।
मुझे समझ नहीं आया कि अध्यापिका ने मंथन की शरारत की शिकायत तो डायरी में लिख भेजी थी परंतु उसकी पैंसिल- रबङ की समस्या को महत्व क्यों नहीं दिया गया था।
उन्हें कहा कि ‘ कक्षा में मंथन को अलग बिठाया जा रहा है, इस विषय में उसकी अध्यापिका से चर्चा करें कि ऐसे तो वह तनाव में होकर और विद्रोही हो रहा है।

मंथन उस दिन बहुत खुश था क्योंकि अब वह जमीन पर नहीं डेस्क पर बैठने लगा है।
हमारा बच्चा ही शरारती है, यह सोच कर, अनदेखा नहीं करना चाहिए, उसकी बात सुननी चाहिए व अध्यापिका के संपर्क में रहना चाहिए।

मंथन की समस्याएँ सुलझी, साथ ही मैंने उसका विश्वास भी जीत लिया था।
अब प्रश्न यह है कि क्या बच्चे को जिम्मेदारी का पाठ पढ़ाना चाहिए?

जिम्मेदारी का अहसास बच्चे में अवश्य जगाना चाहिए। लेकिन सजा के माध्यम से हम कोई पाठ नहीं सिखा सकते हैं।सजा से बच्चे के मन में आक्रोश ही पैदा होता है।बच्चे को कुछ सिखाने से पहले हमें उस माध्यम व मार्ग को अच्छी तरह परख लेना चाहिए, जिससे बच्चे को सिखाने जा रहे हैं। साथ ही यह नहीं भूलना चाहिए कि हम सिर्फ सिखा नहीं रहे हैं अपितु सीख भी रहे हैं। अतः अपनी सिखाने की प्रक्रिया को जाँचते रहना जरुरी है।

सदस्यता लें

  • प्रविष्टियां (आरएसएस)
  • टिपण्णी(आरएसएस)

अभिलेख

  • नवम्बर 2022
  • अक्टूबर 2022
  • सितम्बर 2022
  • अगस्त 2022
  • जुलाई 2022
  • जून 2022
  • सितम्बर 2021
  • जुलाई 2021
  • जून 2021
  • अप्रैल 2021
  • मार्च 2021
  • फ़रवरी 2021
  • दिसम्बर 2020
  • नवम्बर 2020
  • अक्टूबर 2020
  • सितम्बर 2020
  • जुलाई 2020
  • जून 2020
  • मई 2020
  • फ़रवरी 2020
  • जनवरी 2020
  • दिसम्बर 2019
  • मई 2019
  • अप्रैल 2019
  • मार्च 2019
  • फ़रवरी 2019
  • जनवरी 2019
  • अक्टूबर 2018
  • अगस्त 2018
  • जून 2018
  • फ़रवरी 2018
  • जनवरी 2018
  • दिसम्बर 2017
  • नवम्बर 2017
  • अक्टूबर 2017
  • सितम्बर 2017
  • अगस्त 2017
  • जून 2017
  • मई 2017
  • अप्रैल 2017
  • मार्च 2017
  • जनवरी 2017

श्रेणी

  • Uncategorized

मेटा

  • पंजीकृत करे
  • लॉग इन

वर्डप्रेस (WordPress.com) पर एक स्वतंत्र वेबसाइट या ब्लॉग बनाएँ . थीम: Ignacio Ricci द्वारा Chateau।

Privacy & Cookies: This site uses cookies. By continuing to use this website, you agree to their use.
To find out more, including how to control cookies, see here: Cookie Policy
  • फ़ॉलो Following
    • शिखा...
    • Join 290 other followers
    • Already have a WordPress.com account? Log in now.
    • शिखा...
    • अनुकूल बनाये
    • फ़ॉलो Following
    • साइन अप करें
    • लॉग इन
    • Report this content
    • View site in Reader
    • Manage subscriptions
    • Collapse this bar