(तृतीय अध्याय – करण)
-उलझते-सुलझते धागे –
हमारे अलग होने के दर्द को बच्चों ने बहुत झेला है। अक्सर लोग अपनी तकलीफ़ों को स्वयं निमंत्रित करते हैं।अगर हम अपने रिश्तों को महत्व नहीं देते तो अंज़ाम कष्टदायी होता है। यही हमारे साथ हुआ था।
अगर नैना नहीं जाती तो भी क्या होता? उन दिनों मैं सिर्फ गुस्से में था… शायद थोङे दिनों में मेरा गुस्सा शांत हो जाता और मैं सब स्वीकार कर लेता, पर अगर शांत नहीं होता तब ?
नैना ने कोशिश की बात करने की पर मैं सुनना नहीं चाहता था । फिर भी अगर वह रहती तो उसके सब्र का बाँध तो तब भी टूटता, अगर घर नहीं छोङती तो झगङे तो होते ही….।रात-दिन के कलह से बच्चों की परवरिश कैसी होती? तब भी उन्हें बहुत सहना होता। अभी बच्चों को हमारा अलग-अलग ही पर प्यार तो मिला और क्लेश के बीच रहते हुए, हम साथ तो होते पर हमारा प्यार व देखभाल नहीं मिल पाती।
एक अन्य महत्वपूर्ण बात है कि हमने दूसरी शादी नहीं की ।नैना ने तो शायद सोचा भी नहीं होगा पर मेरे पास तो प्रस्ताव आए थे, घर मे सबने ज़ोर भी डाला था, मन में भी आया कि कर लूँ दूसरी शादी, अपने को एक चांस देने का मन भी हुआ पर बच्चों को न खो दूँ! इस भय ने मुझे शादी करने से रोक दिया था।
दुष्यंत को बुरा लगा कि मैंने उसकी माँ को दोष दिया या यह भी सही है मैं भी उसे कहाँ समझ रहा हुँ, वह जो करना और सीखना चाहता है उसमें कमियाँ ही निकालता रहता हुँ।
दुष्यंत बातुनी है,जो उसके मन में होता है कह देता है, वह आता है तो उसकी बातों से घर में रौनक आ जाती है। पर वह भावुक भी है, प्रत्येक बात को गहराई से लेता है। जब छोटा था, तब मेरे गुस्से से डर जाता था। नैना के जाने से मेरे अंहकार को बहुत चोट पहुँची थी और मैं चाहता था कि वह ज़माने की ठोकरे खा कर फिर मेरे दरवाजे आए, जबकि जानता था ऐसा नहीं होगा । इसीलिए मैं बच्चों की जिम्मेदारी लेना नहीं चाहता था, सोचा जब बच्चों को अकेले संभालेगी, उनके सारे खर्चे उठाएगी तब थक हारेगी, तो मैं तमाशा देखूँगा। भूल गया बच्चों को तो वही संभालती थी, बात सिर्फ खर्चे की ही तो थी।
यही होता है हम अपने-अपने अहं को जिताने के लिए बच्चों को मोहरा बनाते हैं। हमने भी यही तो किया था। जब बच्चे मुझ से मिलने आते तब भी मैं गुस्से में ही होता, यह डर मज़बूत हो जाता कि वह नहीं आएगी । समाज के सामने जिस अपमान और जिल्लत का सामना करना पङ रहा था उससे मैं तिलमिला रहा था यह भूल गया था कि बच्चों को भी समाज का सामना करना पङ रहा होगा और उनके मासूम मन पर कैसी गुज़र रही होगी।
मुझे तो सिर्फ अपना अपमान याद था, मुझे छोङ कर नैना ने मेरा अपमान किया था।
सबके कहने से मैं उसके पास गया था, उसे वापिस लाने के लिए, एक नई शुरूआत की बात भी की थी, पर वह नहीं मानी …. और मैं अपमानित हो कर वापिस आ गया था।
मेरी तकलीफ बच्चों के सामने ही उबल पङती थी, उनके सामने भी मैं एक पिता की तरह नहीं, अपितु एक चोट- खाए पुरूष की तरह ही होता था। बच्चे सहम रहे हैं, यह देख कर भी मैं अनदेखा करता रहता , अगर दुष्यंत बिमार नहीं पङता, उसकी बिमारी ने मुझे सचेत किया कि अगर बच्चे भी मेरे जीवन से चले गए तो मेरे जीवन में खुशी कहाँ बचेगी!
आज फिर दुष्यंत नाराज़ हो कर गया है, यह घर उनका वो घर नहीं है, जहाँ शाम को लौट कर आना ही है, यहाँ इनका कोई कोना नहीं है, वैसा सामान नहीं है, जिसके बिना….,इस घर को भी उनके प्रतिदिन आने की आदत नहीं हैं। पर कभी-कभी यह भी उनके न आने के अहसास से गमगीन हो जाता है। यूँ इस घर में भी उनके अपने कोने है, उनके सामान की अलमारियाँ, उनका कमरा, पलंग, सब वैसा ही उनका अपना है जैसे पहले था, जब भी दोनों आते हैं उनके कोने खिल उठते है, वैसे तो पूरा घर खिल उठता है।
दुष्यंत के बनाए चित्र, रंग ब्रश फोटो….। उसके जाने के बाद भी, उसकी रौनक का अहसास दे जाते हैं। पर ये सब उसकी वो जरूरतें नहीं जिसके लिए उसका आना अनिवार्य हो…
विचित्रा अब रहने नहीं आती है, पर यह घर उसका 8-10 दिन में प्रतीक्षा करने लगता है। जब से उसकी माँ इस घर को छोङ गई है, विचित्रा ने ही इस घर को संभाला है। 10 वर्ष की विचित्रा सप्ताह में एक बार आती थी पर आते ही अपने नन्हें हाथों से घर को संवारना शुरू कर देती थी। मैं जानता था कि उसे इस घर व मुझे छोङ जाने का दुःख था साथ ही इसीलिए अपनी माँ से नाराज़ भी थी ।मैं खुश था कि वह अपनी माँ के इस फैसले से बहुत नाखुश है। विचित्रा बहुत कम बोलती है, लेकिन उसका चुप गुस्सा पता लगता है। मैं भी कभी उससे बात करने का अधिक प्रयास नहीं करता हुँ। वह शुरू से चुपचाप मेरा ध्यान रखती थी, उसकी निगाहें मेरी हर छोटी व बङी जरूरत समझ लेती व मुझे पता भी नहीं लगता था और वे पूरी भी हो जाती थी, जब छोटी थी तब वह अपने चाचा व बुआ की सहायता ले लेती थी। पर अब तो वह सिर्फ बङी नहीं समझदार भी हो गई है।
मैं जानता हुँ कि वह धीरे-धीरे अपनी माँ के बहुत करीब हो गई है। पर मेरे और उसके बीच दूरी नहीं होते भी एक दीवार है।यूँ वह मुझे बहुत अच्छी तरह समझती व पहचानती है।
मैंने कभी उस दीवार को हटाने की कोशिश नहीं की है, क्योंकि मैंने उसे अपनी पुत्री से अधिक दुनियावी दृष्टि रखते हुए उसे एक सामान्य लङकी के रूप में ही देखा । इसीलिए जब वह घर संभालती तो उसकी प्रशंसा करता उस पर दुलार भी आता पर साथ ही अंदर से यह स्वीकार करता कि एक लङकी को यह सब आना चाहिए।
मेरे मन में कहीं यह रहता कि यह लङकी है तो अवश्य अपनी माँ पर ही गई है, जबकि जानता था कि उसके मन में अपनी माँ के लिए नाराज़गी भरी हुई है।
दुष्यंत तो अब कई बार हँसते हुए कहता है, “पापा, मैं नहीं, दीदी आप पर गई है।”
वह बहुत अच्छी हाॅकी खिलाङी थी, मैं भी अपने समय में काॅलेज टीम में था। फिर भी मैंने विचित्रा के खेल को प्रोत्साहित नहीं किया अपितु मैं अफसोस करता कि दुष्यंत किसी ऐसे खेल में भाग नहीं लेता है।
मैं हमेशा यह चाहता था कि दुष्यंत की विचार शैली बहुत पैनी हो, हर विषय में उसकी गहरी पकङ हो, इसके लिए मैं हमेशा दुष्यंत के साथ किसी न किसी विषय पर चर्चा करता था। चर्चा के समय अगर विचित्रा अपने कोई विचार प्रकट करती तो उसे प्रोत्साहित करने के स्थान पर अनसुना कर देता।जबकि जानता था कि वह वाद-विवाद प्रतियोगिता में पुरस्कार जीतती है, परिणामतः उसने मुझ से दूरी बना कर रखी थी।
दुष्यंत कहता है,”आपने कभी दीदी को सुना नहीं, वह तो स्वयं ही हर विषय में अच्छी पकङ रखती थी, और उसकी विचार शैली बहुत स्पष्ट होती है। आपको दीदी से भी बातें करनी चाहिए थी।”
पर इन सबके बाद भी वह कभी मेरी लापरवाहियों के लिए मुझ पर गुस्सा भी करती, तब कम बोलने वाली विचित्रा न जाने कैसे मुखर हो जाती और मैं चुपचाप उसकी फटकार सुनकर मुस्कराता रहता था । शायद हर पुरूष को हर समय एक माँ चाहिए होती है।
दुष्यंत सही कहता है, विचित्रा में मैं अपने गुण देख पाता हुँ। जब उसने समाजशास्त्र विषय चुना था तो मैंने यही सोचा था कि इतना कठिन विषय कैसे कर पाएगी? आज वह लेक्चरार है । मुझे अपनी बेटी पर गर्व है।
मैं जानता हुँ कि मैंने उसके साथ अन्याय किया है, जो कम बोलता है, उससे भी हमें बात करनी चाहिए, आखिर मैं तो उसका पिता हुँ। उसने कभी मुझ से कुछ नहीं मांगा था । दुष्यंत की ही फरमाइशे चलती थी, मैं दुष्यंत के लिए कुछ लेता तो विचित्रा के लिए भी लेता और विचित्रा बिना किसी नखरे के खुशी-खुशी ले लेती थी। एक-दो बार ऐसा हुआ कि दुष्यंत ने मुझे बताया कि विचित्रा को ड्रेस पसंद नहीं आई है। मैने उससे कहा ,” बेटा, इस बार इसे रख लो, अगली बार तुम्हारी पसंद की लाऊँगा।” पर उसने विश्वास दिलाते हुए कहा, ” दुष्यंत झूठ बोलता है, मुझे बहुत पसंद है।”
कुछ समय पहले ही दुष्यंत ने मुझे बताया था,” पापा, दीदी के मेरे से भी ज्यादा नखरे हैं। माँ तो हमेशा उसके साथ बाजार जा कर परेशान हो जाती है, उसे आसानी से वस्तुएँ पसंद नहीं आती हैं। वह आपकी पसंद पहनती है या अपनी…….।”
” उसने आपके दिए सारे गिफ्ट आज तक संभाल कर रखे हैं, मेरे तो पता नहीं कहाँ गए?”
मेरी बेटी बहुत समझदार है, उसके मन में मेरे लिए कितना प्यार व सम्मान है। शायद खुन के रिश्ते ही हमें समझ पाते हैं।
अपने और दुष्यंत के बीच आए इस दुराव के लिए मुझे विचित्रा से ही बात करनी चाहिए। पर वह भी बहुत दिनों से नहीं आई है।8-10 दिन में उसका चक्कर लग जाता है पर इस बार तो 15 दिन हो गए है। 2-3 दिन में फोन करके मेरी दवाई व खाने के लिए पुछताछ करती रहती है, इस बार फोन भी नहीं आया….। शायद दुष्यंत ने सब बताया होगा तो वह भी नाराज़ हैं। तभी नहीं आई,उसके स्पर्श के बिना घर कैसा विरान लग रहा है। देख रहा हुँ, चादरें इत्यादि गंदे है,जगह-जगह जाले हो रहे हैं। यह कामवाली अम्मा भी कोई भी काम अपनी अक्ल से नहीं करती है। पर विचित्रा के लिए भी यह सिर्फ उसके पापा का घर है। यहाँ तो सिर्फ इन दोनो की बचपन की यादें हैं, वे यादें जिनमें हम सब साथ रहते थे।
मैं जानता हुँ कि वह नाराज़ है इसीलिए नहीं आई है। तब भी उसने आना बंद कर दिया था, उसका दिल टूटा था।मैं उसकी बारहवीं कक्षा के परिणाम से बहुत गर्व महसूस कर रहा था और इस उपलक्ष्य में घर पर एक छोटी पार्टी रखी थी। उसके सभी मित्र आए थे, लङके भी थे।मुझे लङकों से कोई परेशानी नहीं थी। पर विचित्रा सबसे जिस तरह बात कर रही थी, वे सब कुछ मेरे लिए आश्चर्य की बात थी। मैंने कभी विचित्रा को इतना खुश और उछल- कूद व शोर मचाते नहीं देखा था और वो भी सब लङकों के साथ….। मुझे अचानक अहसास हुआ कि मेरी बेटी बङी हो गई है। यह भी कि अब हमें उसकी विशेष सुरक्षा का ध्यान रखना चाहिए।
” क्या कर रही है, उसकी माँ?”
उसी समय मेरे व्यवहार में आए बदलाव को सबने महसूस किया था, पार्टी बेरौनक हो गई थी।उस दिन विचित्रा दुखी हो कर गई थी ।मैंने उसकी माँ को फोन पर बहुत सुनाया था ।
और उसका जवाब था, ” तुम कभी अपनों पर विश्वास करना नहीं सीख सके। तुमने अच्छा नहीं किया, आज तुमने अपनी बेटी को भी अपने से दूर कर दिया है।।”
कुछ दिन वह नहीं आई थी फिर उसकी बुआ मीरा ने उसे समझाया और शायद उसकी माँ ने भी समझाया था।
उसके बाद उसने मेरे से एक विशेष दूरी बना ली थी और थोङी अधिक गंभीर हो गई थी।
पर 15दिन हो गए है, दोनों की कोई खबर नहीं है, मैंने भी दोनो को फोन नहीं किया कई बार सोचा करूँ, पर नहीं किया…..।
इसी सोच-विचार में बैठा था कि देखा अम्मा ने अपनी बेटी के साथ घर की सफाई जोर-शोर से शुरू कर दी है।
मैंने पुछा,” आज कैसे इतनी सफाई?”
“दीदी का फोन आया था, कल आ रही हैं, साथ ही कह रही थी कि घर साफ मिलना चाहिए। आप तो जानते हैं कि हम कितना भी कर लें, दीदी को कमी नज़र आ ही जाएगी। अब की बार तो बहुत दिन बाद आ रही हैं।”
विचित्रा आ रही है, यह सुनकर खुशी हुई पर बुरा लगा कि उसने मुझे फोन क्यों नहीं किया?
उसका जवाब भी अम्मा ने ही दिया “आपका स्वीच ऑफ था तो मुझको ही बोली कि आपको बता दूँ ।” और जो सामान खत्म हो रहा है, उसकी लिस्ट भेज दें तो वह मंगवा लेगी।
मैंने धीरे से कहा कि “कहीं बाहर गई हुई थी क्या? इतने दिन से कोई ख़बर नहीं?”
अम्मा एकदम हैरत से बोली,” अरे ! क्या आपको नहीं मालुम?”
फिर धीरे से बोली,” बहनजी का एक्सीडेंट हो गया था तो 2-3 दिन हाॅस्पिटल में रहीं थी। अब ठीक हैं, चिन्ता की बात नही है।”
मैं एकदम बोला,”मुझे खबर तो करनी थी।
“सोचने लगा, बच्चों को पैसे की जरूरत न हो, अकेले दोनो संभाल रहे हैं, इन बच्चों का भी मेरे सिवाय कौन है?
अपने पर गुस्सा आ रहा था कि” मैंने ही बच्चों को फोन क्यों नहीं किया? न जाने किस संकोच में रहता हुँ। अपने आप सोच लिया कि बच्चे नाराज़ हैं।”
फिर सोचा विचित्रा को कहुँ कि कल दुष्यंत को भी साथ लाए।
क्रमशः