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मासिक अभिलेखागार: फ़रवरी 2020

दायरे सोच के

28 शुक्रवार फरवरी 2020

Posted by शिखा in Uncategorized

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अंतिम अध्याय – करण

– बसंत की नई धूप –

विचित्रा से बात हुई, “उसने बताया कि दुष्यंत भी आएगा, फिर उसे मुम्बई जाना है, वहीं के काॅलेज में एडमिशन लिया है, अभी फ्रांस नहीं जा रहा है।”
शायद पैसे का इंतजाम नहीं हुआ होगा तभी फ्रांस का विचार बदल दिया होगा
, मुझे उससे पूछना चाहिए था । मैं अपने बच्चों के काम नहीं आऊँगा तो कौन आएगा?

यह सब सोच ही रहा था कि वे दोनो आ पहुँचे। उनके आते ही मेरा घर जी उठा है। किसी तरह नहीं लग रहा कि उन्हें मेरे से कुछ नाराज़गी व शिकायत हो ।विचित्रा आते ही रसोई में घुस गई है, आज उसके हाथ का स्वादिष्ट खाना मिलेगा। और दुष्यंत की बातें चल रही हैं। उसे पता है कि मुझे क्रिकेट की बातें पसंद है, इसीलिए वही बातें छेङ रखी हैं, शायद नहीं चाहता कि मैं उससे उसकी पढ़ाई की बात करूँ। पर नहीं….। यह तो अचानक अपने कोर्स के बारे में बात करने लगा है।

दुष्यंत कह रहा है, ” पापा, मैं आपको अपने मुम्बई काॅलेज में एडमिशन लेने के विषय में बताना चाहता था, पर माँ के एक्सीडेंट के कारण हम बहुत व्यस्त हो गए थे। फिर सोचा कि आप को मिलकर विस्तार से बताऊँगा।”
“हाँ, विचित्रा ने बताया था,पर तुम लोगों को तो मुझे खबर करनी चाहिए थी। मुझे अच्छा नहीं लगा कि तुम परेशानी में थे और मुझे बताना उचित भी नहीं समझा था, अपने पापा को भी गैर मान लिया।” मैंने थोङी नाराज़गी दिखाई तो दुष्यंत की जगह विचित्रा बोली, ” हाँ, पापा यह हमारी गलती थी।”

शायद विचित्रा नहीं चाहती थी कि दुष्यंत के मुँह से कोई टेढ़ा जवाब निकले इसीलिए उसने ज़वाब दिया है। मतलब विचित्रा को पिछली बार मेरे और दुष्यंत के बीच के विवाद के विषय में पता है।
दुष्यंत फिर बताने लगा,” मैं हमेशा मुर्तिकला में विशेषज्ञता प्राप्त करना चाहता था, पर माँ को लगता था कि इसमें अपना स्थान बनाने के लिए बहुत संघर्ष करना होगा। मैं भी द्वविधा में था तो सोचा कि पैंटिग यानि चित्रकला में आगे की पढ़ाई करूँ इसीलिए फ्रांस के विषय में विचार बनाने लगा था ।”
“मैं तो बेटा, पैसा देने को तैयार था, तुमने मुझे बताया नहीं।” मैं बीच में ही बोलने लगा।

पर मेरी बात काट कर वह बोला,” अरे नहीं पापा, पैसे की बात नहीं है, आप को बताता हुँ कि कैसे मेरे अंदर की उलझन समाप्त हुई और मैं सही फैसला ले पाया हुँ।”
“आपको पता है कि ललित कला एकेडमी में हम छात्रों को प्रदर्शनी की सुविधा मिलती है। इसी संदर्भ में मेरे प्रोफेसर साहब का फोन आया कि “दुष्यंत, हम तुम छात्रों के लिए एक प्रदर्शनी लगा रहें हैं, तो तुम भी अपनी दो-तीन मुर्तियाँ प्रदर्शनी के लिए दे दो।”
“मैं हैरान कि उन्होंने मेरे चित्र नहीं मांगे!” दुष्यंत हैरानी के साथ बता रहा था कि वह बोले ,” हमें तुम्हारी बनाई मुर्तियाँ बहुत पसंद आती हैं। इस प्रदर्शनी में सभी कलाओ के नमूने रखे जाएंगे, सभी छात्रों के उत्कृष्ट कलाकारी के नमूने रखने है, जिसके लिए मैं तुम्हारी मुर्तियों को ही चुन रहा हुँ।”
मैं भी यही जानता था कि दुष्यंत चित्र बहुत सुंदर बनाता है, पर वह मुर्तिकार भी है यह तो अभी पता चला है। सच तो यह है कि मैंने कभी जानना ही नहीं चाहा था।

दुष्यंत अपनी धुन में बोले जा रहा था, ” पापा, इन्ही प्रोफेसर साहब ने मुझे इस मुम्बई काॅलेज के फार्म भरने की सलाह दी थी।”
मैंने जल्दी से उसे फिर बीच में रोकते हुए कहा ,” बेटे, एडमिशन में तो फिर भी पैसा लगा होगा न!। मुझ से क्यों नहीं मांगे? पहले भी तो….”

इस बार फिर विचित्रा बोली,” आपसे ही लेते रहेंगे, अभी तो कोर्स शुरू भी नहीं हुआ है।”
और दुष्यंत बोला,” पहले आप मुझ से सुनो कि जब से यह फैसला लिया, मैं बहुत खुश हुँ, अपने मन का काम करने में ही सबसे बङा सुख है।”
“और तुम्हारी माँ क्या कहती हैं? वह तो मुर्ति कला के कोर्स के लिए मना कर रही थी न!” मैंने जिज्ञासा से पूछा क्योंकि मैं जानना चाहता था कि माँ ने पुत्र को कितना समझा!
जवाब विचित्रा ने दिया, ” माँ से अधिक कौन समझ सकता है कि अपने मन का काम करने में कितनी खुशी मिलती है । हमें बचपन से उन्होंने हमेशा अपने मन और दिमाग से फैसले लेने की सलाह दी है।”
” उन्होंने मुझे मुर्तिकला चुनने के लिए मना किया था क्योंकि इसमें बहुत संघर्ष है। पर उन्हें पता है कि अपने जुनून के काम में सिर्फ सुख होता है, संघर्ष नहीं होता है।” दुष्यंत बोला।
” आपको पता है कि चंडीगढ़ के राॅकगार्डन के निर्माता नेकचंद सैनी और फिनलैड के स्कल्पचर पार्क के निर्माता वैयियो रोक्कोनैन ने अगर सफलता , संघर्ष या पहचान जैसे भावों से काम किया होता तो क्या वे इतना सुंदर काम कर पाते? उन्होंने अपना समय अपनी उर्जा उस कार्य में लगाई जिसमें उन्हें खुशी मिलती थी और आज उनका निर्माण सबको खुशी दे रहा है।”
” अभी मुझे बहुत कुछ सीखना है, जानना है, अभी तो मेरे ज्ञान का सफर आरम्भ हुआ है।” दुष्यंत को सुनते हुए मैं सोच रहा था कि मेरा बेटा कितना समझदार है।

फिर मैंने विचित्रा की ओर देखा और उससे सवाल किया,”तुम्हारी क्या प्लानिंग है?”
” तुम कौनसा अपने मन का काम कर रही हो?”
मैंने देखा कि वह मेरे सवाल करने से खुश हुई है। उसने भी बताना शुरू किया,” पापा, आपको पता है कि मैं समाजशास्त्र में रिसर्च कर रही हुँ। मैंने M Phil के समय ही ग्रामीण परिवेश को अपना मुख्य विषय चुना था। इसी विषय को गहराई से जानने के लिए मैं इसमें रिसर्च कर रही हुँ और इसके लिए सिर्फ किताबें ही नहीं पढ़नी हैं अपितु गाँव-गाँव जाकर उस परिवेश का गहराई से अध्ययन करना है।”

मैं सोच रहा था कि आज की पीढ़ी के सोचने का ढंग कितना आधुनिक है, हम भी जब युवक थे तो हम भी बङी-बङी बातें करते थे। समाज को बदलने की बातें करना, पूरी दुनिया पर अपना आक्रोश प्रकट करना हमारे तब आधुनिक विचार थे। लेकिन व्यवहार में हम अपने बङों की इच्छानुसार पहले सरकारी नौकरी में लगे फिर उनकी इच्छानुसार शादी भी कर ली थी। अपने मन का काम, जुनून, खुशी ….. यह सब कभी नहीं सोचा । या फिर सोचा भी तो उस दृढ़ता और विश्वास के साथ नहीं निभाया था, तो अंततः एक सही अच्छे वेतन की नौकरी अच्छे जीवनयापन के लिए जरूरी है, यही समझा और यही निभाया। यह तो तलाक पता नहीं कैसे बीच में आ गया था।शायद समझा नहीं कि बाते करने से नहीं अपितु अपने विचारों और व्यवहार में बदलाव लाने से समाज बदलता है। समाज व्यक्ति से ही बना है, अतः प्रत्येक व्यक्ति अपनी सोच, विचार और व्यवहार में बदलाव लाएगा तब समाज सुधरेगा । जिसने थोङा भी इस बदलाव को समझा उसका जीवन सफल रहा। आज की पीढ़ी तो तलाक का भी समर्थन करती है।

यह सही भी है, साथ में घुट- घुट कर जीने से अच्छा है कि अलग रहे। पर हमारे समाज में विवाह संस्था पर बहुत विश्वास रखा जाता है। विवाह, जिससे एक परिवार की नींव बनती है। यह मीठा सच है कि परिवार से जीवन का सच्चा सुख मिलता है। इस सुख के आधार स्तंभ पति-पत्नी ही होते है। अतः इन दो व्यक्तियों में आपसी विश्वास व सामंजस्य होना आवश्यक है ।एक दूसरे के लिए ह्रदय में सम्मान होना आवश्यक है। परिवार के प्रत्येक व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में उसे सहयोग देना महत्वपूर्ण है। व्यक्ति के विकास से, परिवार का विकास है और फिर समाज का विकास है।

हम सदियों से परिवार में तो रहते आ रहे है, पर वह अंदर ही अंदर टूटते- बिखरते परिवार होते हैं । अगर परिवार के किसी भी सदस्य को परिवार में सम्मान प्राप्त नहीं है व सदस्य के व्यक्तित्व का विकास नहीं हो रहा है तो वह एक स्वस्थ परिवार नहीं हो सकता है। कहा जाता है कि पेङ की एक डाली भी सूख जाती है तो धीरे-धीरे पूरा पेङ ही सूख जाता है।और तलाक इन्हीं टूटते- बिखरते परिवारों की परिणति है।
मैं देख रहा हूँ कि यह पीढ़ी तलाक का समर्थन करती है पर एक- दूसरे के आत्मसम्मान को भी महत्व देती है।
आज अपने बच्चों को खुश देख, मैं आत्मग्लानि से मुक्त हो गया था।

समाप्त

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दायरे सोच के

13 गुरूवार फरवरी 2020

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(चतुर्थ अध्याय – दुष्यन्त )

– जवाबों के पुल –

दीदी ने बताया कि पापा ने बुलाया है । दो दिन बाद मुझे मुम्बई के लिए निकलना है। इतने दिन पापा के पास नहीं जा पाया और फोन भी नहीं किया। मुझे उनसे मिल कर जाना हैं। उस दिन दीदी को बताया था कि, “कैसे पापा को जवाब दे कर आया हुँ।”

मैंने सोचा था कि दीदी नाराज़ होगी और कहेगी, ” हमेशा बिना सोचे बोलता है।” पर नहीं, इस बार ऐसा नहीं हुआ था । उसने कहा, ” कोई बात नहीं, एक बार तो दबा हुआ आक्रोश निकलना था।”

मैंने दीदी की ओर देखा…. हम दोनो ने एक समान दर्द भोगा है, शायद दीदी ने अधिक भोगा है । शुरू में वह माँ से नाराज रही और पापा से भी दूरी बनी रही थी ।पापा का प्यार तो था पर उसके लिए वो अपनापन नहीं था।

थोङी देर में दीदी बोली, ” देखा जाए तो हमें मम्मी-पापा को दोष नहीं देना चाहिए, यह उनका जीवन था, उनको अधिकार था अपने जीवन का फैसला लेने का, अधिक तकलीफ़ों के साथ रहने से अच्छा था कि कम तकलीफ़ों के साथ रहना, आसान तो नहीं रहा होगा ऐसा फैसला लेना। अगर हम दुख में थे तो वे भी कम दुखी नहीं थे। फिर ठीक ही तो किया, अगर हमारे कारण इस बेमानी रिश्ते में रहते तो और भी बुरा लगता।”

” अब अपने दो ब्रेक-अप के बाद सोचती हुँ कि यह रिलेशनशिप खून के रिश्तों से अलग होता है ।शादी के बाद तो पूरा जीवन साथ रहना है। फिर अगर इतनी असमानताएँ हों, कष्ट हो और अपमान भी हो तो कैसे कटता होगा इतना लंबा सफर!”

” हमारी माँ यह फैसला ले पाई, बहुत तो ले ही नहीं पाते है। अधिकांश औरतें इससे भी अधिक अपमानित स्थिति में ताउम्र रहती हैं। हाँ, मैं स्वीकार करती हुँ कि जबरदस्ती की शादी पुरुष भी निभाते है, पर कष्ट और अपमान ज्यादा औरत के साथ ही जुङे हैं।”

” माँ से पहले के समय में तो यह सोचना भी पाप था। तब यह धर्म माना जाता था, ‘ जिस आंगन में डोली गई उसी आंगन से अर्थी निकलेगी।’ और पुरूष भी अगर अपनी पत्नी को छोङ देते थे तो समाज में उनकी अवमानना होती थी, फिर भी औरत को दोष मिलता था कि उसने पति सेवा में कमी रखी होगी।सहना तो औरत का धर्म है।”

“पर दीदी, प्रेम तब भी होते थे और उसकी नियति शादी ही हो यह जरूरी नहीं था, फिर प्रेम असफल, मतलब ब्रेक अप। अब इसे इस तरह लिया जाता है कि शादी से पहले प्रेम मतलब relationship और न निभ सके तो ब्रेक अप। शादी के बाद न निभे तो तलाक जो एक खासा मसला बन जाता है। जबकि शादी से पहले कितने भी ब्रेक-अप हो सकते हैं।” मैंने अपनी बात स्पष्ट करते हुए आगे तर्क रखा, ” तलाक हो या ब्रेक-अप तकलीफ तो होती ही है पर तलाक से बच्चे भी प्रभावित होते हैl”

दीदी ने सोचते हुए जवाब दिया,” जीवन का सफर अज़ीब होता है, सब सोच विचार के बाद भी विवाह हो, तब भी कुछ बदल सकता है, मुझे लगता है महत्वपूर्ण है कि आपस में प्रेम बना रहे और एक-दूसरे के प्रेम के प्रति विश्वास और सम्मान होना जरुरी है।”

मैं विचार करने लगा कि बात सही है, महत्वपूर्ण बात यह नहीं थी कि माँ और पापा बहुत अलग थे, बात आपसी समझ और सम्मान की ही थी।

मुझे याद आया मैंने एक बार माँ से पूछा था कि यह क्यों हुआ? तब मैं छोटा ही था और माँ से यूँ ही कुछ भी पूछ लेता था।

माँ का जवाब था, ” सब मेरे कारण।”

मैं असमंजस में था और वह बोली,” ज्यादा नहीं सोचते, तुम्हारे पापा और माँ तुम दोनो को बहुत प्यार करते हैं, साथ नहीं रहेंगे पर तुम्हारे लिए हमेशा साथ है। हमेशा यही याद रखो, अपने माँ और पापा के आपसी रिश्ते के बारे में तुम्हें नहीं सोचना है।”

उसके बाद मैंने कभी माँ से कुछ नहीं पुछा है । पर क्या यही बात थी कि माँ ने समझ नहीं रखी? या फिर….।
मैं सोच में था कि दीदी बोली, ” माँ कहती थी कि अहं और आत्मसम्मान में एक पतले धागे के समान भेद होता है, पर गहरा होता है। सबको अपने आत्मसम्मान के लिए संघर्ष करना चाहिए।”
” क्या तुमसे माँ ने पापा के साथ अपने रिश्ते के टूटने के विषय पर बात की ?” मैं ने उत्सुकता से पुछा
” माँ कभी अपने अतीत पर बात करना पसंद नहीं करती है, उन्हें अपने फैसले पर पूर्ण विश्वास रहा है, उनका आज हम ही रहे हैं ।” दीदी बता रही थी और मैं माँ को और जानना चाहता था।
माँ हमेशा कहती हैं कि अपमानित और प्रताड़ित करने की आदत पङना बहुत भयंकर होता है, तब आप अपने प्रियजनों को ही सबसे अधिक तकलीफ़ देते हैं। इसमें अपने को भी गिराते जाते हैं व आप दूसरे का नहीं अपना आत्मसम्मान कुचलते जाते हैं ।

पर इससे भी अधिक खतरनाक बात होती है जब आपको अपमानित व प्रताड़ित होने की आदत पङ जाती है। तब आप स्वयं अपने को मारते हैं , ऐसी स्थिति में आप अपने प्रियजनों के लिए भी कुछ नहीं कर सकते हैं । ऐसा व्यक्ति मृतप्राय होता है।

दीदी ने बताया, ” माँ ने उन्हें कहा कि वह अपने आत्मसम्मान के लिए वह घर छोङ आई थी, वह अच्छी तरह जानती थी कि अपने ‘मैं’ के लिए नहीं , अपनी आत्मा को बचाने के लिए यह कदम उठाना आवश्यक था।”

” पर उन्होंने हमारे लिए….?” यह प्रश्न करते- करते अटक गया था।
दीदी बोली,” माँ जानती थी कि वह तो तकलीफ़ से निकल आई हैं , पर उनके नासमझ बच्चें तकलीफ़ में है, हमारे दर्द के समय वह हमारे साथ रहना चाहती थी, इससे अधिक वह कुछ कर नहीं सकती थीं । ”

मैं आज अपने प्रश्नो के उत्तर पा सका हुँ।

अपने जीवन के अतीत की बखिया उधेङने से कोई लाभ नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति को अपने लिए फैसले लेने का अधिकार है। महत्वपूर्ण यह है कि हमें जीवन में आगे बढ़ना चाहिए , हम बढ़ेगे तो समाज भी बढ़ेगा। नए विचारों का स्वागत करना चाहिए और प्रयोग में लाना चाहिए , इसी में मानव का विकास है।

मुझे जीवन के प्रति एक नई दृष्टि मिली है।

कल पापा से मिलने जाना है। उनके प्रति मेरी समझ बदली है। अब मैं अधिक तटस्थ हो कर,सब देख सकता हूँ । उनसे अब अधिक खुलकर बात कर सकता हूँ । माता-पिता के आपसी रिश्ते का प्रभाव अब हमारे पिता- पुत्र के रिश्ते पर नहीं पङेगा।

और मुझे तो आगे बढ़ना है, अपनी कला को निखारना है।

क्रमशः

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