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मासिक अभिलेखागार: मई 2020

नए मकान- नए परिवेश

22 शुक्रवार मई 2020

Posted by शिखा in Uncategorized

≈ 4s टिप्पणियाँ

दास्ताने मकान व मकान मालिकों की

(भाग-3)
(दूसरा मकान)
(छलकती – खिलती खुशियाँ )

हमने उसी सरकारी काॅलोनी में बने चार मंजिली क्वाटरों में चौथी मंजिल पर एक क्वाटर किराए पर लिया और अपने घर को एक नया खूबसूरत आयाम दिया था।
यह दो बैडरूम का मकान था, हम चाहते थे मम्मीजी साथ रहे। इस बङे स्वतंत्र मकान को अपना रिहायशी बनाने का एक उद्देश्य मकान मालिक की चिक चिक से दूर रहना भी था। मेरे लिए इस अवस्था में शांति से खुश रहना आवश्यक था।

इस स्वतंत्र मकान में जैसे मैं शादी के बाद पहली बार आजादी से जी रही थी। मकान में प्रवेश के साथ ही ड्राइंगरूम था, जिसके एक ओर रसोई और दूसरी ओर बाॅलकनी थी। प्रवेशद्वार से सीधे जाते ही दो बैडरूम थे। फिर शौचालय और स्नानघर थे। दोनों बैडरूम में एक बङी खिङकी थी। कमरों में हवा और धूप आने का बहुत सुख था।
मैं सुबह-शाम बाॅलकोनी में बैठ कर काॅलोनी की रौनक का
आनन्द लेती थी। सर्दियों में छत पर चली जाती थी। हमने इस मकान को बहुत दिलचस्पी से सजाया था। शादी के बाद के सभी पहले त्योहार इसी मकान में मनाए थे। मम्मी जी साथ थी और भाई साहब भी पास ही रहते थे। पहले त्योहारों की अपनी खास यादे होती हैं ।

यूँ तो इस मकान में शिफ्ट होने पर हमें अपने बङों से डाँट भी पङी थी, चौथी मंजिल पर यह मकान और मेरी ऐसी अवस्था के कारण मम्मी जी तो बहुत नाराज थी। पर हम नव युवा दंपत्ति को कहाँ कुछ समझना था,उस पर मेरा बचपना ऐसा कि जैसे पैरों में पंख लगे थे।सीढियों पर तेजी से चढ़ना उतरना, तब थम कर काम करना कहाँ आता था।

ऐसे में तबियत भी बिगङी, और भूल भी समझ आई। सामने के मकान में रहने वाली खन्ना आंटी भी तब बोली, ” मुझे नहीं पता था तुम इस अवस्था में हो, मैं तो तुम्हारे बचपने में अपने बचपने को देख खुश होती थी। पता होता तो तभी रोकती तुम्हें । फिर बहुत प्यार से बोली,” अब तुम लङकी नहीं रही हो अपितु माँ बन रही हो, धैर्य के साथ उसे दुनिया में लाओ, तब तुम उसे दिखाना, अपनी चुस्ती-फुर्ती। और धीरे से पंजाबी में बोली, ” तुझे मेरी नज़र लग गई ।”

डॉक्टरी सलाह से अब अधिक समय बिस्तर पर बिताना था व घर से बाहर निकलना, सीढ़ियों पर उतरना- चढ़ना तो नामुमकिन था। अब खुशमिजाज खन्ना आंटी ही मददगार थी। आंटी जी के दो बेटे थे। बङा बेटा विवाहित था, बहु भी नौकरी करती थी, अतः उससे मिलना कम होता था। किसी पंजाबी परिवार के इतने करीब रहने का मेरा पहला मौका था।
सरसों का साग वो भी पंजाबी तङके में बनाना मेरे लिए कठिन अवश्य था , पर खन्ना आंटी ने सब आसान कर दिया था। आज भी सरसों का साग बनाती हुँ तो उनकी याद अवश्य आती है।
कई बार रात में उनके घर से आने वाली आवाज ने यह बता दिया था कि खुशमिजाज आंटी जी के दिल में भी दर्द है।
मैं अपना अकेलापन दूर करने के लिए उनसे पत्रिकाएं ले कर पढ़ती थी।

एक दिन जब मेरी तबियत में तो सुधार था पर डिलिवरी का समय करीब था। मैं अपने मायके गई थी। मम्मी जी को गैस के चुल्हे पर काम करने की आदत नहीं थी। उस दिन दोपहर में मम्मी जी गैस की नाॅब बंद करना भूल गई थी और सो गई थी। गैस की बदबू घर के बाहर तक पहुँची ही थी, खन्ना आंटी तुरंत हमारे घर पहुंची, घर की काॅलबेल बजाई, दरवाजा खुलते ही गैस की नाॅब बंद करी, खिङकी, दरवाजे खोले, मम्मी जी को संभाला था। हम हमेशा उनके आभारी रहे हैं ।

हमारी बिल्डिंग की तीसरी मंजिल में एक बिहारी परिवार रहता था।वे दंपत्ति भी बहुत मिलनसार थे, अक्सर मिलने आते थे। बिहारी आंटी बहुत सुन्दर कढ़ाई का काम करती थी।
इस सरकारी काॅलोनी की विशेषता यह थी कि यहाँ औरतें खाली नहीं बैठती थी। अथार्त ऐसा कोई भी काम करना जिससे कुछ अतिरिक्त आय अर्जित कर सके। जो महिला जिस कार्य को कुशलता पूर्वक कर सकती थी, उसे ही अपना अर्थोपार्जन का माध्यम बना लेती थी। इस तरह वह घर से ही इस अतिरिक्त आय से अपने पति के कंधा से कंधा मिलाकर गृहस्थी को सही पटरी पर रख पाती थी।

ये वो स्त्रियाँ हैं , जो career नहीं जानती है, इनके सपने अपने परिवार से शुरू होते हैं और वही समाप्त होते हैं फिर भी इनकी मेहनत को कोई पहचान नही मिल पाती हैं , इन्हें भी अपने अस्तित्व की पहचान से कोई सरोकार नही होता है। इनका सिर्फ एक मकसद होता है कि इनकी गृहस्थी की इमारत मजबूत बने।
मैं एक पुरानी प्राइवेट काॅलोनी से इस सरकारी काॅलोनी में आई थी। मैंने शादी से पहले किसी औरत को इस प्रकार निःसंकोच व निशंक होकर ऐसे काम करते नहीं देखा था। यह दुनिया मेरे लिए अलग व प्रेरणादायी थी।
और फिर वह दिन आया जब जाना कि कैसे एक माँ अपनी संतान को पहली बार गोद में लेते ही अपने सब दुःख, दर्द भूल जाती है और एक असीम सुख में खो जाती है। सेतु ने मेरा जीवन एक नए उल्लास से भर दिया था।

पर अस्पताल से घर आने पर पता चला कि हमें अपना यह घर उर्फ मकान अपने मकान मालिक से शेयर करना होगा।
यह हिंदूस्तान है जहाँ भ्रष्टाचार का बोलबाला है। सरकारी मकान उन सरकारी कर्मचारियों को दिए जाते है जिनके पास अपने मकान नहीं होते हैं । यह नियम है कि अगर आपके पास अपना मकान है तो आप सरकारी मकान के अधिकारी नहीं हो सकते हैं। ।अपने नाम पर मिले सरकारी मकान को किराए पर नहीं उठा सकते हैं । फिर भी लोग बेझिझक इस नियम को तोङते रहते हैं । जबकि उन्हें सरकार को भी किराया देना होता है पर वे किराएदार से डबल किराया लेकर लाभ में ही रहते थे।

सरकारी मकान कम और कर्मचारी अधिक होते हैं तब ऐसी भ्रष्टता के कारण जरूरतमंदों को किराए के मकान में ही रहना पङता है, जैसे हमारे पहले मकान के अवास्तविक मकान मालिक गुप्ता जी जिन्हें 20 वर्षों की नौकरी में सरकारी मकान अलाॅट नहीं हुआ था।

हमारे इस मकान के मकान मालिक श्री यादव हरियाणवी थे और शाहदरा में उनका अपना मकान था। फिर भी उन्होंने यह सरकारी मकान अपने नाम अलाॅट कराया था और उसमें स्वयं न रहकर उसे किराए पर देते थे।
लेकिन इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद सरकार की ओर से नियमों के पालन में सख्ती बरती जाने लगी थी।अतः जांच-पड़ताल जोर-शोर से होने लगी थी।
इसी जांच -पङताल के भय से वह हमसे मकान खाली कराना चाहते थे, पर मेरी अवस्था को देख चुप थे। लेकिन उनकी पत्नी श्रीमती यादव सुबह से शाम तक हमारे घर पर बैठती थी कि यदि कोई जांच के लिए आए तो वह प्रमाणित कर सके कि वे इसी मकान में रहते हैं।
श्रीमति यादव पतली व लंबी महिला थी।उनकी भाषा व बातचीत का लहजा पूर्णतः हरियाणवी था। वह बहुत उलझी व अपनी परिस्थितियों से परेशान दिखती थी। उनकी बातों से पता चला कि शाहदरे का मकान बङा था व उनके ससुर के नाम था। अतः श्री यादव के अन्य भाई भी उसी मकान मे अपने – अपने भाग में रहते थे। वहाँ वह स्वतंत्र रूप से रहते हुए भी स्वतंत्र नहीं थी। शायद अधिकांशतः महिलाओं की ख्वाहिश होती है कि कब ससुरालवालों से अलग रहने का अवसर मिलेगा। ( माफी चाहती हुँ, उन महिलाओं से, जो ऐसी सोच नहीं रखती हैं )

अब जब यह मौका मिला था, तो वह इसे छोङना नहीं चाहती थी। अतः उनकी जिद थी कि इस मकान में वे शिफ्ट हो जाएं। पता नहीं कैसे उनकी बुद्धि को यह समझ नहीं आ रहा था कि उनके पति को यह सरकारी मकान अलाॅट हुआ है , यह मकान उनकी निजी संपत्ति नहीं है। हम से वह ऐसे व्यवहार करने लगी थी कि जैसे हमने उनकी संपत्ति पर कब्जा कर लिया हो। मुझे उन पर गुस्सा नहीं आता था अपितु कभी हँसी, कभी दया आती थी। औरते भी किस दायरे में फँसी होती है कि वह सिर्फ अपनी निजता की तलाश ताउम्र करती रह जाती हैं ।

श्री यादव इस मकान में शिफ्ट होना नही चाहते थे शायद वह इसे छोङना चाहते थे परंतु अपनी पत्नी की जिद के आगे मजबूर थे।

अंततः हमें सेतु के एक महीना के होने से पूर्व वह मकान भी छोङना पङा था। एक महीना हम भाईसाहब के साथ रहे थे। उस सरकारी कालोनी में किराए पर मकान मिलना अब कठिन था। चुंकि एस.के. (पतिदेव ) की नौकरी गुडगांव में थी और प्रतिदिन वहाँ की आवाजाही से भागा दौङी भी थी । अतः हमने गुड़गांव शिफ्ट होने का फैसला लिया था। सासु माँ के करीब रहने की इच्छा से ही हम उस काॅलोनी में रह रहे थे। पर अब मजबूर हो कर निकले थे।
एक माँ के लिए अपने बेटे को दूर जा कर गृहस्थी बसाते देखना कष्टकारी होता है। मम्मी जी के लिए भी यह असहनीय दुःख था।

हम भी दिल्ली छोङना नहीं चाहते थे पर तब यह फैसला लेना ही ठीक लगा था। लेकिन यह मालूम नहीं था कि गुरूग्राम हमारे जीवन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण शहर बनेगा।

‘ किस्मत तेरे रंग अनेक, कुछ जाने- पहचाने, कुछ अनजाने-बेगाने।’
‘कारंवा लेकर निकल पङे हम एक नई मंजिल की तलाश में ।’

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नए मकान- नए परिवेश- भाग-2

09 शनिवार मई 2020

Posted by शिखा in Uncategorized

≈ 2s टिप्पणियाँ

दास्ताने मकान व मकान मालिकों की –

प्रथम मकान- कुछ कङवे अनुभव व मीठे अहसास-

मेरी गृहस्थी का प्रारंभ इसी मकान से हुआ था, अतः यही गृहस्थ जीवन की नींव का पहला पत्थर था। मिस्टर गुप्ता किसी सरकारी विभाग में काम करते थे, लेकिन उन्हें कोई सरकारी क्वाटर नहीं मिला था परंतु उनके किसी मित्र ने अपने नाम का क्वाटर उन्हें किराए पर दिया था।
दो कमरे का क्वाटर था, जिसमें से एक कमरा हमें किराए पर दिया गया था, शायद उनकी कोई आर्थिक मजबूरी रही होगी। पता नहीं वास्तविक मकान मालिक को पता था या नहीं ।
खैर हमारे लिए तो वही मकान मालिक थे। श्रीमती गुप्ता यानि गुप्ताईन मोटी और लंबी थी, पैर में लचक थी। उन्होनें हमें पहले ही दिन अपने पैर के फ्रेक्चर की दास्तान सुनाई थी। उन्होंने बताया था वह अपने कमरे में पैर मोङ कर पलंग पर बैठी थी, तभी ध्यान आया कि गैस पर दूध उबलने रखा था, यह सोच कि दूध उबल न गया हो वह रसोई की ओर भागी पर भाग न सकी चूँकि मोङे हुए पैरों को खोलना भूल गई और गिर गई थी।(मैं यह सुन अचंभित थी) उस समय वह गर्भवती भी थी।
गुप्ता जी अपनी पत्नी के सामने पतले, ठिगने व दब्बू भी लगते थे। उनके तीन बच्चे थे, दो बेटे व एक बेटी।बङा बेटा 16 वर्ष का व बेटी 15 वर्ष की थी। छोटा बेटा तीन वर्ष का ही था।
मोटी गुप्ताईन को सुबह उठने में परेशानी थी, इसीलिए बेटी स्कूल जाने से पहले सुबह उठ कर घर की सफाई करती व पिता के साथ रसोई में उनकी सहायता भी करती थी। जब सब्जी बन जाती, आटा तैयार हो जाता तब गुप्ताईन आकर रोटी बना देती थी। दोपहर में स्कूल से आने के बाद व रात के खाना बनाने में बेटी को मदद करनी होती थी। छुट्टी के दिन भी पिता- पुत्री घर का सभी काम संभालते थे।( किसने कहा कि पति घर के काम में सहयोग नही करते हैं )
मैं पहले कभी किराए के मकान में नहीं रही थी।अतः ज्ञान नहीं था कि किसी के साथ मकान शेयर करने पर कुछ नियमों का पालन करना होगा।
मोटी गुप्ताईन के नियमों से मेरे से ज्यादा सासू माँ परेशान थी। सासू माँ हमारे साथ नहीं रहती थी, वह थोङी दूरी पर जेठजी के साथ उनके क्वाटर में रहती थी। पर हम से मिलने दिन में कम से कम दो बार आती थी।
सबसे अधिक हमें जिस नियम से परेशानी थी, वह सुनने में अजीब लगा था । उन्होंने बाथरूम के बाहर जो चप्पल रखी थी, उसी चप्पल को पहनकर उनका परिवार बाथरूम जाता था उन्ही चप्पलों का प्रयोग हमें करना था, हम अपनी चप्पलों का प्रयोग नहीं कर सकते थे। सुन कर घिन भी आई थी। हमारे परिवार में सभी सदस्यों की बाथरूम चप्पल अपनी अलग थी। और बाथरुम से आकर पैर भी धोए जाते थे, कोशिश रहती चप्पल भी धोई जाए।

मकान में प्रवेश करते ही दालान था, दालान की दाई ओर रसोई थी और रसोई के लगभग साथ ही एक कमरा था, जो हमारा कमरा था, इस कमरे के साथ एक बङा कमरा था वह मकान मालिक का था। दालान के दूसरी तरफ स्नानघर व शौचालय था।

उसी कमरे में जगह बनाकर, एक मेज लगाकर हमने अपने दो चुल्हों वाले स्टोव पर खाना बनाना शुरू किया था। मकान मालकिन आई और बहुत प्रेम से आदेश दिया कि बर्तन घर के बाहर लगे नल पर धोएं जाए।उनके आदेशानुसार सारे झूठे बर्तन उठा मैं घर के बाहर लाॅन एरिया में लगे नल पर पहुँच गई थी। तभी सासु माँ का पदार्पण हुआ और अपनी नई -नवेली बहु को इस प्रकार घर के बाहर बर्तन साफ करते देख उनका गुस्सा आपे बाहर था, एक तो अपनी छोटी बहु को साथ न रख सकने का अफसोस पहले ही गहरा था। खैर किसी प्रकार मम्मी जी को समझाया गया था।

लेकिन धीरे-धीरे गुप्ताईन की छोटी-छोटी बातों की टोका-टाकी ने हमारी सहन शक्ति को समाप्त कर दिया था। सच तो यही था कि उनका तीन बच्चों के साथ, (उसमें दो किशोर बच्चे) एक ही कमरे में गुजारा करना मुश्किल था। इसी कारण अपने बङे बेटे को उन्होंने उसके नाना के घर छोङा हुआ था। गुप्ताईन का मायका अमीर था और अपने पति के वेतन से वह असंतुष्ट थी।

उनका मानसिक कष्ट गहन था, उन्होंने अतिरिक्त आय के उद्देश्य से यह कमरा हमें किराए पर उठाया था। अब वह कठिनाई में थी। परिणामतः अब वह बात-बात पर हम से लङती थी। मैं तो मोटी गुप्ताईन की तेज आवाज़ से दुबक कर कमरे में बैठ जाती थी। मम्मीजी को भी चुप कराकर पति देव ही मोर्चा संभालते थे। उधर दब्बू गुप्ताजी कुछ न बोलते थे।

अंततः हमने उस कमरे से निकलने का फैसला लिया और इस बार एक बङा स्वतंत्र क्वाटर लिया। मम्मीजी भी हमारे साथ रह सकती थी।
पर इस कमरे से ही मैं नन्हीं -मीठी खुशबू अपने में बसाए निकली थी, एक नन्हा सपना जो साकार होना चाहता था। मैं गर्भवती हो गई थी, मन में उल्लास था, मीठे सपने थे।इस पहले मकान ने मुझे एक बङी खुशी दी थी।

कुछ गुपचुप-गुपचुप नन्हें ख्याल थे मेरे,
कुछ मीठे-मीठे अनोखे अहसास थे मेरे।
कभी आनंदित, कभी अचंभित हो जाती मैं ,
वह मेरे अंदर जैसे गुंज रहा था,
हमारा मीठा सपना साकार हो रहा था।

क्रमशः

नए मकान- नए परिवेश

02 शनिवार मई 2020

Posted by शिखा in Uncategorized

≈ 10s टिप्पणियाँ

जीवन सफर में हमें भिन्न-भिन्न राहगीर मिलते हैं जो जीवन को विभिन्न प्रेरणाओं से भर देते हैं ।

विवाहित जीवन के 36वर्षो की यादों की गांठे जब – तब खुलने लगती हैं , तो आँखों के सामने आते हैं, वे लोग जो गाहे-बगाहे जीवन यात्रा को सुगम बनाने में पथ-प्रदर्शक बनें थे।
36 वर्ष में हमने 17 मकान बदले हैं । दिल्ली , गुरूग्राम, लखनऊ व आगरा में हम रहे अब इस समय हम फिर गुरूग्राम में किरायेदार के रूप में रह रहे हैं ।
आज फिर मेरी यादों की पोटली कुलबुलाने लगी है, और फिर वे सब सोए हुए किरदार जागने लगे हैं और मुझे भी जगाकर , मेरा हाथ पकङ अतीत की चौखट तक ले जा रहे हैं।
उनका मन मैं समझ रही हुँ, वे सब फिर मुझ से मेरा परिचय कराना चाहते हैं । लेकिन ये अतीत की गलियाँ आगे-पीछे हो रही हैं , इन्हें क्रमवार ठीक से सजाना होगा, अपने को भटकने से बचाना होगा तभी मैं अपने इन अतीत के कुछ करीबी और कुछ अजनबी सहयात्रियों से फिर एक बार परिचित होते हुए अपने को भी पहचान दे पाऊँगी।

नए मकान

प्रत्येक मकान की पहली सुबह, उसकी खुशबू, उसका रंग पूर्णतः नया और भिन्न होता है।
शादी के बाद का पहला एक कमरे का मकान याद आ रहा है। नए जीवन की पहली शुरुआत की पहली सुबह, नई महक सब बहुत मिठास भरा था।
जब याद कर रही हुँ अपनी गृहस्थी की पहली सुबह की तो एक अन्य खुबसूरत शहर, उसकी सुबह, हमारा हनीमुन याद आ रहा है, तब पहली बार महसूस किया था पर ठीक से जाना न था कि हर स्थान की पहली सुबह की खुशबू, रंगत बिलकुल अलग व नए रूप में होती है।
शिमला की वह सुबह ताजगी भरी थी, मैं हाथ में चाय का कप लिए, होटल के कमरे की बाॅलकोनी में खङी थी। हल्की – हल्की बारिश की महक, लंबे-लंबे पेङो से टपकती, छोटी -छोटी बुंदों को देखते हुए मेरा मन अदभूत हो रहा था।
फिर उसी मौसम में हम थोङा नीचे उतरे थे, एक दिन पहले शाम को हमको यह टूरिस्टों का शहर नज़र आया था, वही शहर सुबह शिमलावासियों का शहर था। छोटे- नन्हें बच्चे अपने माता या पिता का हाथ थामें, हम सबसे बेखबर अपने विद्यालय जाते हुए, उसी शहर में रचे-बसे नज़र आए थे।
यह मेरे लिए नई सुबह के साथ नई खुशहाली की ओर बढ़ने का संकेत था।
फिर गृहस्थी की पहली शुरुआत के पहले मकान की नई सुबह और उसके बाद कई मकान भिन्न-भिन्न शहरों में बदले और हर मकान की पहली सुबह ने हमेशा एक नई अनुभूति दी है।
प्रत्येक मकान की पहली सुबह मैं हमेशा बहुत प्रसन्न होती थी। मैं तनावरहित हो, उस सुबह की हर सकारात्मकता को अपनी झोली में लेने के लिए मंत्रमुग्ध बैठी रहती थी।
आरंभ में नवीनपन की खुशी का अहसास भर हुआ, फिर जब जान लिया कि यह खुशी तो मिलनी ही है, तब मकान चाहे इच्छा से या अनिच्छा से क्यों न बदला हो, पिछले मकान से बेशक बहुत लगाव हो गया हो। उस मकान की बहुत गहरी यादें ही क्यों न छूट रही हो, पर नए मकान की नई सुबह की खुशबू महसूस करने के लिए, उस नई सुबह बेताबी से उठती थी, घर के खिङकी, दरवाजे खोल नई खुशबू का अपने घर में स्वागत करती थी। घर तो वही रहता था न! चाहे मकान कितने भी बदले हो।
तो आज अभी लिखते हुए जाना कि मेरा घर कितनी नई-नई सुबह की सकारात्मक खुशबुओं के रंग में रंगा है।

यह तेरा घर यह मेरा घर,
किसी को देखना हो गर,
तो पहले आकर मांग ले,
मेरी नज़र , तेरी नज़र ,

यह घर बहुत हसीन है।

क्रमशः

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