दास्ताने मकान व मकान मालिकों की
(भाग-3)
(दूसरा मकान)
(छलकती – खिलती खुशियाँ )
हमने उसी सरकारी काॅलोनी में बने चार मंजिली क्वाटरों में चौथी मंजिल पर एक क्वाटर किराए पर लिया और अपने घर को एक नया खूबसूरत आयाम दिया था।
यह दो बैडरूम का मकान था, हम चाहते थे मम्मीजी साथ रहे। इस बङे स्वतंत्र मकान को अपना रिहायशी बनाने का एक उद्देश्य मकान मालिक की चिक चिक से दूर रहना भी था। मेरे लिए इस अवस्था में शांति से खुश रहना आवश्यक था।
इस स्वतंत्र मकान में जैसे मैं शादी के बाद पहली बार आजादी से जी रही थी। मकान में प्रवेश के साथ ही ड्राइंगरूम था, जिसके एक ओर रसोई और दूसरी ओर बाॅलकनी थी। प्रवेशद्वार से सीधे जाते ही दो बैडरूम थे। फिर शौचालय और स्नानघर थे। दोनों बैडरूम में एक बङी खिङकी थी। कमरों में हवा और धूप आने का बहुत सुख था।
मैं सुबह-शाम बाॅलकोनी में बैठ कर काॅलोनी की रौनक का
आनन्द लेती थी। सर्दियों में छत पर चली जाती थी। हमने इस मकान को बहुत दिलचस्पी से सजाया था। शादी के बाद के सभी पहले त्योहार इसी मकान में मनाए थे। मम्मी जी साथ थी और भाई साहब भी पास ही रहते थे। पहले त्योहारों की अपनी खास यादे होती हैं ।
यूँ तो इस मकान में शिफ्ट होने पर हमें अपने बङों से डाँट भी पङी थी, चौथी मंजिल पर यह मकान और मेरी ऐसी अवस्था के कारण मम्मी जी तो बहुत नाराज थी। पर हम नव युवा दंपत्ति को कहाँ कुछ समझना था,उस पर मेरा बचपना ऐसा कि जैसे पैरों में पंख लगे थे।सीढियों पर तेजी से चढ़ना उतरना, तब थम कर काम करना कहाँ आता था।
ऐसे में तबियत भी बिगङी, और भूल भी समझ आई। सामने के मकान में रहने वाली खन्ना आंटी भी तब बोली, ” मुझे नहीं पता था तुम इस अवस्था में हो, मैं तो तुम्हारे बचपने में अपने बचपने को देख खुश होती थी। पता होता तो तभी रोकती तुम्हें । फिर बहुत प्यार से बोली,” अब तुम लङकी नहीं रही हो अपितु माँ बन रही हो, धैर्य के साथ उसे दुनिया में लाओ, तब तुम उसे दिखाना, अपनी चुस्ती-फुर्ती। और धीरे से पंजाबी में बोली, ” तुझे मेरी नज़र लग गई ।”
डॉक्टरी सलाह से अब अधिक समय बिस्तर पर बिताना था व घर से बाहर निकलना, सीढ़ियों पर उतरना- चढ़ना तो नामुमकिन था। अब खुशमिजाज खन्ना आंटी ही मददगार थी। आंटी जी के दो बेटे थे। बङा बेटा विवाहित था, बहु भी नौकरी करती थी, अतः उससे मिलना कम होता था। किसी पंजाबी परिवार के इतने करीब रहने का मेरा पहला मौका था।
सरसों का साग वो भी पंजाबी तङके में बनाना मेरे लिए कठिन अवश्य था , पर खन्ना आंटी ने सब आसान कर दिया था। आज भी सरसों का साग बनाती हुँ तो उनकी याद अवश्य आती है।
कई बार रात में उनके घर से आने वाली आवाज ने यह बता दिया था कि खुशमिजाज आंटी जी के दिल में भी दर्द है।
मैं अपना अकेलापन दूर करने के लिए उनसे पत्रिकाएं ले कर पढ़ती थी।
एक दिन जब मेरी तबियत में तो सुधार था पर डिलिवरी का समय करीब था। मैं अपने मायके गई थी। मम्मी जी को गैस के चुल्हे पर काम करने की आदत नहीं थी। उस दिन दोपहर में मम्मी जी गैस की नाॅब बंद करना भूल गई थी और सो गई थी। गैस की बदबू घर के बाहर तक पहुँची ही थी, खन्ना आंटी तुरंत हमारे घर पहुंची, घर की काॅलबेल बजाई, दरवाजा खुलते ही गैस की नाॅब बंद करी, खिङकी, दरवाजे खोले, मम्मी जी को संभाला था। हम हमेशा उनके आभारी रहे हैं ।
हमारी बिल्डिंग की तीसरी मंजिल में एक बिहारी परिवार रहता था।वे दंपत्ति भी बहुत मिलनसार थे, अक्सर मिलने आते थे। बिहारी आंटी बहुत सुन्दर कढ़ाई का काम करती थी।
इस सरकारी काॅलोनी की विशेषता यह थी कि यहाँ औरतें खाली नहीं बैठती थी। अथार्त ऐसा कोई भी काम करना जिससे कुछ अतिरिक्त आय अर्जित कर सके। जो महिला जिस कार्य को कुशलता पूर्वक कर सकती थी, उसे ही अपना अर्थोपार्जन का माध्यम बना लेती थी। इस तरह वह घर से ही इस अतिरिक्त आय से अपने पति के कंधा से कंधा मिलाकर गृहस्थी को सही पटरी पर रख पाती थी।
ये वो स्त्रियाँ हैं , जो career नहीं जानती है, इनके सपने अपने परिवार से शुरू होते हैं और वही समाप्त होते हैं फिर भी इनकी मेहनत को कोई पहचान नही मिल पाती हैं , इन्हें भी अपने अस्तित्व की पहचान से कोई सरोकार नही होता है। इनका सिर्फ एक मकसद होता है कि इनकी गृहस्थी की इमारत मजबूत बने।
मैं एक पुरानी प्राइवेट काॅलोनी से इस सरकारी काॅलोनी में आई थी। मैंने शादी से पहले किसी औरत को इस प्रकार निःसंकोच व निशंक होकर ऐसे काम करते नहीं देखा था। यह दुनिया मेरे लिए अलग व प्रेरणादायी थी।
और फिर वह दिन आया जब जाना कि कैसे एक माँ अपनी संतान को पहली बार गोद में लेते ही अपने सब दुःख, दर्द भूल जाती है और एक असीम सुख में खो जाती है। सेतु ने मेरा जीवन एक नए उल्लास से भर दिया था।
पर अस्पताल से घर आने पर पता चला कि हमें अपना यह घर उर्फ मकान अपने मकान मालिक से शेयर करना होगा।
यह हिंदूस्तान है जहाँ भ्रष्टाचार का बोलबाला है। सरकारी मकान उन सरकारी कर्मचारियों को दिए जाते है जिनके पास अपने मकान नहीं होते हैं । यह नियम है कि अगर आपके पास अपना मकान है तो आप सरकारी मकान के अधिकारी नहीं हो सकते हैं। ।अपने नाम पर मिले सरकारी मकान को किराए पर नहीं उठा सकते हैं । फिर भी लोग बेझिझक इस नियम को तोङते रहते हैं । जबकि उन्हें सरकार को भी किराया देना होता है पर वे किराएदार से डबल किराया लेकर लाभ में ही रहते थे।
सरकारी मकान कम और कर्मचारी अधिक होते हैं तब ऐसी भ्रष्टता के कारण जरूरतमंदों को किराए के मकान में ही रहना पङता है, जैसे हमारे पहले मकान के अवास्तविक मकान मालिक गुप्ता जी जिन्हें 20 वर्षों की नौकरी में सरकारी मकान अलाॅट नहीं हुआ था।
हमारे इस मकान के मकान मालिक श्री यादव हरियाणवी थे और शाहदरा में उनका अपना मकान था। फिर भी उन्होंने यह सरकारी मकान अपने नाम अलाॅट कराया था और उसमें स्वयं न रहकर उसे किराए पर देते थे।
लेकिन इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद सरकार की ओर से नियमों के पालन में सख्ती बरती जाने लगी थी।अतः जांच-पड़ताल जोर-शोर से होने लगी थी।
इसी जांच -पङताल के भय से वह हमसे मकान खाली कराना चाहते थे, पर मेरी अवस्था को देख चुप थे। लेकिन उनकी पत्नी श्रीमती यादव सुबह से शाम तक हमारे घर पर बैठती थी कि यदि कोई जांच के लिए आए तो वह प्रमाणित कर सके कि वे इसी मकान में रहते हैं।
श्रीमति यादव पतली व लंबी महिला थी।उनकी भाषा व बातचीत का लहजा पूर्णतः हरियाणवी था। वह बहुत उलझी व अपनी परिस्थितियों से परेशान दिखती थी। उनकी बातों से पता चला कि शाहदरे का मकान बङा था व उनके ससुर के नाम था। अतः श्री यादव के अन्य भाई भी उसी मकान मे अपने – अपने भाग में रहते थे। वहाँ वह स्वतंत्र रूप से रहते हुए भी स्वतंत्र नहीं थी। शायद अधिकांशतः महिलाओं की ख्वाहिश होती है कि कब ससुरालवालों से अलग रहने का अवसर मिलेगा। ( माफी चाहती हुँ, उन महिलाओं से, जो ऐसी सोच नहीं रखती हैं )
अब जब यह मौका मिला था, तो वह इसे छोङना नहीं चाहती थी। अतः उनकी जिद थी कि इस मकान में वे शिफ्ट हो जाएं। पता नहीं कैसे उनकी बुद्धि को यह समझ नहीं आ रहा था कि उनके पति को यह सरकारी मकान अलाॅट हुआ है , यह मकान उनकी निजी संपत्ति नहीं है। हम से वह ऐसे व्यवहार करने लगी थी कि जैसे हमने उनकी संपत्ति पर कब्जा कर लिया हो। मुझे उन पर गुस्सा नहीं आता था अपितु कभी हँसी, कभी दया आती थी। औरते भी किस दायरे में फँसी होती है कि वह सिर्फ अपनी निजता की तलाश ताउम्र करती रह जाती हैं ।
श्री यादव इस मकान में शिफ्ट होना नही चाहते थे शायद वह इसे छोङना चाहते थे परंतु अपनी पत्नी की जिद के आगे मजबूर थे।
अंततः हमें सेतु के एक महीना के होने से पूर्व वह मकान भी छोङना पङा था। एक महीना हम भाईसाहब के साथ रहे थे। उस सरकारी कालोनी में किराए पर मकान मिलना अब कठिन था। चुंकि एस.के. (पतिदेव ) की नौकरी गुडगांव में थी और प्रतिदिन वहाँ की आवाजाही से भागा दौङी भी थी । अतः हमने गुड़गांव शिफ्ट होने का फैसला लिया था। सासु माँ के करीब रहने की इच्छा से ही हम उस काॅलोनी में रह रहे थे। पर अब मजबूर हो कर निकले थे।
एक माँ के लिए अपने बेटे को दूर जा कर गृहस्थी बसाते देखना कष्टकारी होता है। मम्मी जी के लिए भी यह असहनीय दुःख था।
हम भी दिल्ली छोङना नहीं चाहते थे पर तब यह फैसला लेना ही ठीक लगा था। लेकिन यह मालूम नहीं था कि गुरूग्राम हमारे जीवन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण शहर बनेगा।
‘ किस्मत तेरे रंग अनेक, कुछ जाने- पहचाने, कुछ अनजाने-बेगाने।’
‘कारंवा लेकर निकल पङे हम एक नई मंजिल की तलाश में ।’