तीसरा मकान
नया शहर – नए लोग – 2
अम्मा जी हमेशा खुश नज़र आती थी, उनकी कङक आवाज पूरे मकान में गुंजती रहती थी, आस -पङोस में उनका बहुत मान था, कोई न कोई उनसे मिलने आता रहता था।
अम्मा जी के जीवन का दुःख नज़र नहीं आता था, अनुभवी अम्मा जी अपने दुख और परेशानी में भी सहज दिखती थी।
जब हम शिफ्ट हुए थे, तब उनका चौथा बेटा घर से चार महीने से गायब था। किसी से पता चला था कि वह हरिद्वार में है।वह पहले भी दो बार भागा था, फिर कुछ दिन में लौट आया था। पर इस बार समय अधिक हो गया था।
आरम्भ में चूंकि मैंने उसे देखा नहीं था और न ही उनके परिवार के किसी सदस्य ने उसका जिक्र किया था, तो मुझे पता नहीं था कि अम्माजी के चार बेटे हैं ।
एक दिन मैंने देखा कि अम्माजी और उनकी छोटी बेटी शमा बहुत खुश थे। दुख छिपाने में कितने भी प्रवीण क्यों न हो, जब खोई खुशी मिलती है, तो वह छलक ही जाती है।
वैसे तो शमा मुझ से कम बात करती थी, पर उस दिन बहुत खुश थी, उसी ने बताया, ” बहुत दिन बाद भाई आ रहा है, उसे बैगन का भर्ता बहुत पसंद है, मैं स्वयं बनाऊँगी ।” बहनें ही भाई के लिए हमेशा ढाल बनी रहती
हैं । उसके हर सुख-दुख में सच्ची साझीदार होती है।
उसके आने के बाद बाबुजी ने उसके लिए एक आर्टिफिशियल ज्वैलरी की दुकान खुलवा दी थी। उद्देश्य यही था कि काम जमेगा तो स्वयं जमेगा, परंतु उसकी प्रवृति ऐसी न थी। पता चला था जब तक पिता रहे, वह आता- जाता रहा था और उनकी मृत्यु के बाद वह गया तो वापिस नहीं आया था। पता नहीं कौन गलत होता है, वह बच्चा जो अपना जीवन अपनी मर्जी से जीना चाहता है, किसी मोह या बंधन में बंधना नहीं चाहता या उसके माता-पिता . …
अम्माजी की तीन बेटियाँ थी, बङी बेटी दिल्ली में रहती थी, उसका रहन- सहन सबसे भिन्न था। दूसरी बेटी किसी गांव में रहती थी। सबसे छोटी बेटी ही सबसे छोटी संतान थी। शमा का मन पढ़ाई में नहीं लगा था। उसकी बङी बहन की बेटियों और उसकी आयु में विशेष अंतर नहीं था। अतः उसका मन दिल्ली में ही लगता था। यहाँ भाभियों की खिचपिच में उसका मन नही लगता था।
जब हम वहाँ पहुँचे थे, तब वह अपनी बङी बहन के साथ दिल्ली में थी। जब आई तो मुझ से मिलने कमरे में आई थी।
मकान मालिक की बेटी थी तो व्यवहार में वह ठसक झलक रही थी। पतली- दुबली, सांवली -सलोनी व माडर्न भी थी। यह ननदों को पता होता है कि उन्हें अपनी भाभियों पर रौब रखना चाहिए इसलिए वह भी अपनी भाभियों के साथ गरूर के साथ रहती थी। दोनों बङी भाभियों के साथ फिर भी कुछ लिहाज था, पर सबसे छोटी भाभी मीना के साथ उसका व्यवहार कठोर था।
उसने स्कूली शिक्षा भी पुर्ण नहीं की थी पर घर के काम में होशियार थी। लङकियाँ पढ़ाई नहीं करती तो माता – पिता को फर्क नहीं पङता है, उन्हें सिर्फ उनके लिए अच्छा घर- वर मिलने की चिंता होती है।
शमा घर की सबसे छोटी संतान व बङे भाई-बहन अपने-अपने जीवन में मसरूफ थे। उसके विवाह की जिम्मेदारी कोई लेना नहीं चाहता था।
अपितु बङी बहन की बेटी व बङे भाई की बेटी का प्रेम विवाह बहुत खुशी-खुशी कर दिया गया था। उनके लिए अपने बच्चों की जिम्मेदारी अधिक महत्वपूर्ण थी।
अम्माजी – बाबुजी के पास दहेज देने के लिए धन नहीं था। बाद में पता चला था कि उसका विवाह किसी विधुर से कर दिया गया था, जिसके दो या तीन बच्चे थे, शादी के बाद वह सुखी थी। दहेज प्रथा के कारण न जाने कितनी लङकियों को ऐसे समझौते करने पङते हैं। यूं सुख-दुख कैसे मिलने होते हैं , किसे पता होता है?
सेतु ने घुटनों चलना शुरू कर दिया था, बाहरी दुनिया उसे आकर्षित करती थी। अपने कमरे के दरवाज़े अब मैं बंद नहीं रख सकती थी। इस प्यारे बच्चे से मिलने, उसके साथ खेलने के लिए सभी आस-पड़ोस के बच्चे आते थे।
सर्दियाँ भी आ गई थी, इस सर्द मौसम में उसे धूप में ले जाना आवश्यक था। लेकिन अब भी मैं अपने दुख के साथ अपने में बंद थी, अतः सेतु को लेकर छत पर जरूर जाती थी, पर उस समय जब कोई छत पर नहीं होता था।
पर सेतु इंदू भाभी को देखते ही हँसने लगता था। इंदू भाभी भी अक्सर मेरे पास आ जाती थी और मेरी चुप्पी को अनदेखा कर सेतु के साथ खेलती, हँसती थी और मेरे मन की उदासी दूर कर मेरा मन तरोताजा कर देती थी।
मैं जान ही नहीं पाई थी कि उनके यह प्रयास मेरे लिए ही थे अगर उस दिन उन्होंने मुझ से न कहा होता, ” मैं आपके मन का दुःख समझ सकती हुँ।”
मैं आश्चर्य से उन्हें देख रही थी, इंदू भाभी, प्रेमा भाभी और अम्माजी भी कितने अपनेपन से मेरा दुख समझ ही नहीं रहे थे,अनकहे शब्दों के साथ बांट भी रहे थे।
अम्माजी तो हमारे दूसरे मकान में जाने के बाद भी उतने ही प्यार से मिलने आती थी।
किसी से कैसा अपनत्व भरा रिश्ता जुङता है, हमें पता ही नहीं चलता है। इसी अपनत्व भरे रिश्ते में एक नाम और था।पिंकी और उसकी मम्मी ‘भाभीजी’ के साथ बना रिश्ता । इन रिश्तों की उम्र समय के साथ देखा जाए तो बहुत लंबी नहीं होती है पर भावनाओं की दृष्टि से देखें तो यह रिश्ते सदा हमारे दिल में बसे रहते है।
अम्माजी के मकान के पास ही रहती थी, ‘ भाभी जी’ । सभी उन्हें भाभी जी ही कहते थे, विधवा थी, आयु 40 भी नहीं थी। बेटा दीपु 14 वर्ष और बेटी पिंकी 10 वर्ष की थी। पारिवारिक व्यापार था, जिसमें उन्हें उनका हिस्सा मिलता था, पुश्तैनी मकान में अपने हिस्से में रहती थी। परंतु व्यापारिक शेयर पर्याप्त नहीं मिलता था, अतः वह स्वयं घर से कुछ न कुछ काम करती थी। दीपु भी स्कूल से आकर प्रेमा भाभी के साथ बाइडिंग का काम करता था।
पिंकी और भाभीजी अक्सर मेरे पास आते थे, पिंकी के साथ सेतु बहुत खुश रहता था। पिंकी अपने साथ अपनी सहेलियों को भी ले आती थी। वे सब मिलकर मेरे कमरे में नाचती- गाती और कमरे में रौनक भर देंती थी। मुझे तब पता नहीं था कि मेरा मन बच्चों के साथ लगता है।
भाभी जी की बातों में जहाँ संघर्ष की कहानी थी, वहाँ हँसी मजाक की बातें भी थी। शायद वह मुझे बताती थीं कि जीवन में दुख ही नहीं संघर्ष भी है और संघर्ष के लिए हिम्मत चाहिए । तो जीवन पथ में आगे बढना है तो दुःख से ऊपर उठना होगा।
एक वर्ष बीतते -बीतते मेरी तबियत खराब रहने लगी थी। दुःख और सदमे का प्रभाव शरीर में दिखने लगा था। डॉक्टर अधिक से अधिक आराम करने को कहते थे। यहाँ पानी भरी बाल्टी उठा कर बाथरुम तक ले जानी पङती थी।
उस घर में आते ही दो महीने में दो गहरे आघात लगे थे। अतः उस घर के लोग कहने लगे थे कि ‘यह मकान आपको suit नहीं किया है। जबकि मैं सहमत नहीं थी। जो हमें छोङ गए, वो उस मकान में नहीं रहते थे। सुख-दुख तो जीवन का हिस्सा है, इसमें किसी मकान का क्या दोष?
महत्वपूर्ण उस मकान में रहने वाले सदस्य थे, जिनसे मिले अपनेपन के कारण वो कठिन समय बीत सका था।
जिन्हें समझे थे हम पराए,
वे ही थे हमारे अपने,
दर्द से जब निकले,
तब याद उनकी आई,
वे ही थे हमारे हमदर्द ,
यह बात समझ में आई।