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मासिक अभिलेखागार: जुलाई 2020

नए मकान नए परिवेश ( भाग- सप्तम) ( कुछ नए अजनबी )

28 मंगलवार जुलाई 2020

Posted by शिखा in Uncategorized

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एक वक्त आता है जब बच्चे माता-पिता के प्रेम की छांव से निकल कर, उस सुरक्षित दहलीज़ को त्याग कर, जीवन के सत् को समझने के लिए, नए रास्तों पर निकलते हैं।
मैं अभी तक अपनों के बीच रहती आई थी।पङोसी भी इतने अपने कि पता नहीं था कि वे पङोसी थे या रिश्तेदार।अपनों का अपनत्व ही जाना था। अजनबियों के साथ व्यवहारिकता की समझ नहीं थी। शादी के बाद ससुराल अजनबी, पति अजनबी और साथ ही आस-पड़ोस भी अजनबी था।

शादी को तीन वर्ष हो गए थे, कुछ-कुछ व्यवहारिकता की समझ बनने लगी थी।अजनबी जिन्दगी, जीवन को नई समझ देने लगी थी।यह स्वीकृति मन और दिमाग को हो गई थी कि माता-पिता की ऊंगली छूट गई है। तब स्वतः जीवन के प्रति अपनी मौलिक दृष्टि बनने लगी थी।

मैं दिल्ली से एक महीने बाद लौटी थी। घर का नक्शा बदला हुआ था। सामने दो अजनबी बुजुर्ग थे। प्रत्येक व्यक्तित्व के प्रभाव से परिवेश भी प्रभावी होता है। अतः घर में प्रवेश करते ही परिवेश में आए बदलाव को महसूस किया था। छाबड़ा परिवार की तरह चहकता हुआ परिवेश अब शांत और थका हुआ महसूस हो रहा था।

आंगन में छाबङा जी के बङे कमरे के सामने एक फोल्डिंग बैड पर एक उम्रदराज बुजुर्ग बैठे थे।और हमारी छोटी रसोई के सामने एक कमर झुकी, पतली कमजोर उम्रदराज बुजुर्ग महिला बैठी अपना काम कर रही थी। इन दोनो के बीच एक पांच वर्षीय कन्या अचंभे से मुझे और सेतु को देख रही थी।

इन अम्माजी का कद बहुत छोटा था और बाबुजी उनसे दुगने लंबे थे।
मुझ से और सेतु से मिलकर दोनों बुजुर्ग बहुत खुश हुए थे। थोङी देर में अम्माजी मेरे लिए पानी व बिस्कुट नमकीन ले आई थी,उन्हें पता था कि चाय मेरे लिए नुकसानदायक है, इसलिए ठंडा शरबत बना लाई थी। उनके इस सदव्यवहार से मैं नि:शब्द थी।

मैं अम्माजी से बहुत प्रभावित थी, कमर झुकी थी,पर धीरे-धीरे सभी काम करती थी, कपङे धोना, खाना बनाना, बर्तन व सफाई सभी काम स्वयं करती थी। वह बहुत कम पानी में साफ और झकाझक कपङे धोती थी, जैसे किसी डिटर्जेंट पाउडर का विज्ञापन होता है। सबसे बङी बात थी कि वह खुश रहती थी, दिखता था कि थक जाती हैं पर कभी उफ करते नही देखा था।

मेरे से उनकी दोस्ती हो गई थी। वह अपने मन की बात मुझसे कह देती थी। ये सिंधी पंजाबी थे, रेवाड़ी के किसी गांव से आए थे। भाषा भी वैसी बोलते थेl मुझसे हिन्दी में बात करती थी पर अधिकांश शब्द हरियाणवी सिंधी होते थे।

अम्माजी के दो बेटियाँ और एक बेटा था, बङी बेटी सोनीपत रहती थी, छोटी बेटी गुङगांव में ही रहती थी।वह ही जब समय मिलता सुबह-शाम माता-पिता से मिलने आती थी व अपनी माँ के काम में मदद भी कर जाती थी।

अम्माजी का बेटा दिल्ली में रहता था, अक्सर सपरिवार उनसे मिलने आता था। उसके एक बेटी थी, जो अम्माजी के साथ रहती थी। दो जुङवां बेटे थे जो तीन साल के थे। शायद जुङवा बच्चों को संभालने की परेशानी को देख पोती दादी-बाबा के पास रहने लगी थी।
बहु मार्डन थी, मैंने उसे कभी अम्माजी की मदद करते नहीं देखा था। अम्माजी भी उसके साथ मेहमानों की तरह व्यवहार करती थी।

अम्माजी- बाबुजी बच्चों के आने से बहुत खुश हो जाते थे।बेटा बहु पोती दीक्षा को अब अपने पास रखना चाहते थे।इस बात पर बाबुजी बहुत दुखी व नाराज़ थे। पांच वर्षीय दीक्षा हमेशा दादा-दादी के साथ ही रही थी, अतः वह भी जाना नहीं चाहती थी। जब भी बेटा आता तब वह बाबुजी को समझाता कि “दीक्षा का अब हमारे साथ रहना जरूरी है।”

बाबुजी को लगता कि ” बेटा स्वार्थी है जब उसे जरूरत थी उसने दीक्षा को उनके पास छोङ रखा था, अब जब वे दीक्षा के मोह में बंध चुके हैं, तब वह उसे हमारे पास से ले जा रहा है। उन दोनों के अकेलेपन का दीक्षा ही सहारा थी।”

कई बार औरतें जो बात व्यावहारिक रूप से समझ पाती है, उसे मर्द समझना नहीं चाहते हैं या समझ नहीं पाते हैं।शायद मैं गलत भी हो सकती हुँ, यह औरत- मर्द की बात नहीं है, अपितु प्रत्येक के व्यक्तिगत व्यक्तित्व की बात हो सकती है।

अम्माजी ने मुझे कहा था,” मुझे भी दीक्षा से उतना ही मोह व प्रेम है, जितना तुम्हारे बाबुजी को है, मैंने ही उसे गोद में रखा संभाला है।
पर एक दिन तो उसे अपने माता-पिता के पास जाना ही है, हम कब तक रहने वाले हैं, अभी उसे बुरा लगेगा पर और बङा होने पर अधिक बुरा लगेगा। हमारी पोती अवश्य है पर अमानत तो बेटे-बहु की ही है न! फिर अब मुझ से भी कहां इतना काम संभलता है। इसके माता-पिता इसकी अच्छी परवरिश कर सकते हैं ।”

हमारे सामने उनकी बङी बेटी व बच्चे उनके पास छुट्टियां बिताने आए थे। उसकी विदाई के समय, उन्होंने रिवाज़ के अनुसार उसे कुछ उपहार दिए थे।उसके उपहार देख, उनकी छोटी बेटी उनसे नाराज हो गई थी।

अम्माजी ने दुःखी हो मुझे बताया था,” बहुत मुश्किल है, बङी बेटी सोचती है कि छोटी बेटी हमारे करीब रहती है तो उसे हम अक्सर कुछ न कुछ देते रहते होंगे, जिससे वह वंचित रह जाती है।
छोटी बेटी इसलिए नाराज़ है कि इतने गिफ़्ट एक साथ हम कभी उसे नहीं देते हैं।”

अम्माजी अपने आर्थिक सामर्थ्य के कारण दुःखी नहीं थी ।उनके मन के संताप का कारण, उनकी बेटियों की नासमझी थी। जिन्हें अपने माता-पिता का प्रेम आज भी धन व उपहार में दिखता था।

इन बेटियों के व्यवहार से जो अशांति मिलती थी, उसने उनकी अपनी बेटियों से मिलने की इच्छा को मंद कर दिया था।

इस बुजुर्ग दंपत्ति को अब किसी से कुछ नहीं चाहिए था। अब अपने बच्चों के लिए एक ही आशीर्वाद था, ‘ अपने-अपने परिवार के साथ सुखी रहें।’
वे अपने जीवन के अंतिम पड़ाव में सिर्फ शांति चाहते थे।

समझ नहीं आता कि हिंदूस्तानी संतानें हमेशा अपने माता-पिता से लेना ही क्यों चाहती हैं। तभी तो कई-कई बीघा जमीनें छोटे-छोटे टूकङों में बंट जाती है।

अम्माजी व बाबुजी सिर्फ छः महीने हमारे साथ रहे थे, दीक्षा अपने माता-पिता के पास चली गई थी तो वे लोग अपने गाँव वापिस चले गए थे । रविन्द्र भी दिल्ली चला गया था।

बीता वक्त गुजर गया,
जो करना था वो कर दिया,
जो होना था वो हो गया,
न कोई उथल-पुथल, न कोई उलझन है,
न कोई नाराजगी, न कोई शिकायत है,
अब तो शांति पथ पर बढ़ना है,
समय है अब थोङा,
तो अब अपने लिए भी है जीना।

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नए मकान- नए परिवेश – षष्ठम भाग

07 मंगलवार जुलाई 2020

Posted by शिखा in Uncategorized

≈ 6s टिप्पणियाँ

चौथा मकान

पराया शहर बनता गया अपना।

यह काॅलोनी पहली काॅलोनी से साफ काॅलोनी थी। वैसे हमारे मकान के सामने एक खाली प्लॉट था, हम हिंदूस्तानियों की समझ हमेशा कचरे के समान ही होती है। आस-पङोस के सभी लोग अपने घर का कचरा इस प्लाॅट पर डालते थे। यूँ सभी के घर जमादार भी कूङा उठाने आते थे, फिर भी न जाने ऐसा कौन सा और कितना कचरा निकलता था कि कुछ बेगार कचरा इस प्लाॅट में भी डाला जाता था।
हम भी भेङचाल की तरह दूसरों का अनुसरण करते थे। बुद्धि में इतनी समझ थी कि घर के अंदर ही नहीं घर के बाहर भी सफाई आवश्यक है। इस गंदगी से न जाने कितनी बिमारियाँ जन्म ले रही थी। पर बुद्धि की इस समझ को व्यवहार में लाने से न जाने क्यों कतराते थे। शायद बुद्धि के उपयोग से अधिक, आदत की गुलामी पसंद होती है।

हमारे मकान मालिक छाबङा अंकल थे। वह दिल्ली में किसी सरकारी विभाग में काम करते थे।

उनकी बङी लङकी चंचल आयु में मुझ से कुछ छोटी थी। चंचल भी दिल्ली में सरकारी नौकरी करती थी। बङा बेटा रविन्द्र काॅलेज में पढ़ता था और सबसे छोटा बेटा यानि छोटू लाॅटरी बेचता था।
यह मकान अम्माजी के मकान से छोटा था पर बहुत खुला बना था।
घर में प्रवेश करते ही एक छोटा आंगन था, यहाँ मुझे पता चला कि आंगन को बेङा भी कहते हैं । इस छोटे आंगन में शहतूत का पेङ लगा था, जिसमें हर दूसरे वर्ष बहुत मीठे शहतूत आते थे।
आंगन के एकतरफ पत्थर की टंकी बनी थी, उसमें भी नल था। छाबङा आंटी स्वयं टंकी में पानी भर देती थी। आंगन के दूसरी तरफ दो शौचालय बने थे, एक मकान मालिक का, दूसरा किराएदार का था। स्नानघर एक ही था।
यहाँ भी मकानमालिक किराएदारों का पूरा ध्यान रखते थे, वे नहीं चाहते थे कि हमें किसी प्रकार की कठिनाई हो।
इस छोटे आंगन से होते हुए एक गैलरी थी, गैलरी के दोनों तरफ एक- एक कमरा था। यह दोनों कमरे हमारे पास थे। दाएं तरफ के कमरे का एक दरवाजा छोटे आंगन में भी खुलता था, दूसरा गैलरी में था। हमने इसी कमरे को अपना ड्राइंग रूम बनाया था।
गैलरी के शुरू में एक चैनल लगा था। जिसे दोपहर में और रात में बंद कर देते थे।
उन्होंने बताया था कि पहले गुड़गांव में बहुत शांति और सुरक्षा थी। परंतु 1984 के दंगों ने स्थिति बदल दी थी। तब पङोस के सरदार परिवार को छाबङा अंकल ने अपने घर शरण दी थी, फिर वे गुड़गांव छोङ कर चले गए थे। वे बहुत भयावह दिन थे। अतः सुरक्षा की दृष्टि से गैलरी में चैनल लगाना पङा था।
गैलरी के बाद एक बङा आंगन था। आंगन के एक तरफ एक छोटी रसोई थी, जो हमारे पास ही थी। उसमें एक सर्विस विंडो भी थी जो हमारे ड्राइंग रूम में खुलती थी।
इस बङे आंगन के दूसरी तरफ एक छोटा स्टोर और उसके बाद एक बङी रसोई थी। आंगन के दूसरी ओर दो बङे कमरे थे। एक कमरे के अंदर एक छोटा स्टोर था, यह कमरा छाबङा परिवार का बैडरूम था और दूसरा ड्राइंगरूम था।
आंगन से ही सीढ़ियाँ छत की ओर जाती थी, इन्हीं सीढियों के नीचे हमारी छोटी रसोई थी। छतें भी दोनों तरफ बहुत बङी-बङी थी।
चंचल व रविन्द्र ने मुझे आंटी कहने से मना कर दिया था । वे मुझे भाभी कहते थे, मुझे भी अच्छा लगा था। अन्यथा गुङगांव में आकर लगा था कि यहाँ आंटी कहने का ही रिवाज़ है।
छाबङा आंटी का नाम सुदेश था और अंकल जब तक घर पर रहते थे, सुदेश- सुदेश की ही पुकार लगाए रहते थे। उनकी आवाज़ तेज थी। सुबह आंख खुलते ही छाबङा अंकल की आवाज़ पूरे मकान में गुँजने लगती थी।

वह अपने छोटे बेटे छोटू से परेशान थे, जिसका मन पढ़ाई में नहीं लगा था और आठवीं के बाद पढ़ाई छोङ दी थी। सुदेश आंटी ने बताया कि उसे आठवीं तक भी पढ़ाई कैसे कराई हम ही जानते हैं ।वह कहती कि यह पढ़ाई तो नहीं कर सकता पर इसकी जिन्दगी तो बनानी है। छोटू यूं बहुत तेज था, उसे कोई बेवकूफ़ नहीं बना सकता था।

सुदेश आंटी सुबह सबसे पहले मंदिर जाती थी, फिर रसोई में घुसती थी। अतः छाबङा अंकल सुबह-सुबह मंङी से ताजी सब्जी लाते, काटते व बनाते थे, साथ-साथ तेज आवाज में छोटू को जगाते थे। उनकी रोज ही छोटू से चिकचिक होती थी। शायद ही छोटू अपने पिता की परेशानी समझ रहा था। वह लाॅटरी से पैसा कमाकर, जीवन की खुशी समझ रहा था। पता नहीं क्यों, मुझे अच्छा लगा था कि यह बच्चा कोई तनाव सिर पर नहीं ले रहा है।

पंजाबी परिवार कामवाली बाई रखना पसंद नहीं करते हैं । सुदेश आंटी सभी काम स्वयं करती थी और यह अच्छी बात थी कि पूरा परिवार उसमें अपना सहयोग करता था।
पंजाबियों को सफाई का भी बहुत ध्यान होता है, अतः सुबह ही चंचल पूरे घर की सफाई कर जाती थी। दोनों आंगन व गैलरी भी पानी से धोकर , पौछा लगा देती थी। उन्होंने मुझे एक दिन भी नहीं कहा कि आपको भी गैलरी और आंगन साफ करना होगा।

सुदेश आंटी बहुत चुस्त थी, सबके घर से जाने के बाद वह शीघ्र ही सारे काम समाप्त कर , कपङे बदल कर तैयार हो जाती थी। कभी – कभी बिजली व पानी का बिल भी भरने जाती थी।

वह भैंस के दूध की मलाई से मक्खन निकालती थी।उन्होंने मुझे भी मक्खन निकालना सिखाया था।

सुदेश आंटी मेरे रिजर्व स्वभाव से परेशान थी, वह मेरे साथ समय व्यतीत करना चाहती थी पर मैं स्वभाव से ही रिजर्व, बाकि इन दिनों कमरे में बंद रहने की आदत जो डाल ली थी।

फिर भी जब समय मिलता वह मुझ से बहुत बातें करती थीं। अपनी तकलीफों की कहानियाँ भी ऐसे हँसते-हँसते सुनाती थी कि जैसे उनके कष्ट की दास्तान न सुनकर ज़िन्दगी का कोई मज़ाक सुन रहे हो।

सेतु का चंचल और रविन्द्र के साथ मन लगता था। मेरी भी चंचल से दोस्ती हो गई थी, एक दिन वह मुझे गुङगांव के सदर बाजार घूमाने ले गई थी। यूं मैं पहले भी इस बाजार में आई हुई थी पर चंचल के साथ घूमते हुए लगा था, बहुत दिन बाद किसी सखी के साथ घूम रही हुँ।

चंचल के लिए एक अच्छे वर की तलाश जोर-शोर से हो रही थी। यूं तो सभी लङकियों के लिए देखने- दिखाने की प्रक्रिया बहुत कष्टदायक होती है। पर यदि लङकी शिक्षित, नौकरीपेशा, आत्मविश्वासी भी है और तब कोई लङका अपने परिवार के साथ उसे मिलने आता और उससे ऐसे प्रश्न पूछे जाते हैं कि जैसे वह सिर्फ शादी की कोई उम्मीदवार ही नही अपराधी भी हो।
सुदेश आंटी की यही प्रमाणित करने की कोशिश रहती कि उनकी बेटी शिक्षित व नौकरीपेशा ही नही है अपितु घर संभालने में भी निपुण है।

ये लङके वाले भी चाहते तो नौकरीपेशा वधु ही है, पर उनके प्रश्न ऐसे होते कि चंचल जैसी आत्मविश्वासी लङकी भी उलझ जाती थी, समझ नहीं आता कि उसे कटघरे में क्यों खङा किया जाता है । मतलब सिर्फ इतना होता कि लङकी नौकरी भी करे और घर संभालने में भी निपुण हो। और उनका बेटा? वह सिर्फ नौकरी करेगा।

लेकिन अपने पर अब हँसी भी आ रही है, और समाज पर दुख और अफसोस भी होता है। आज से सात साल पहले, मैं भी क्या कर रही थी, जब हम सेतु के पीछे पङे की अब वह शादी कर ले। और इसी धुन में लङकी देखने भी चले गए, सेतु के मना करने पर भी उसे कसम देकर ले गई, लङकी उच्चशिक्षित, एक अच्छी कंपनी में, एक अच्छे पद पर आसीन थी।

हमने सोचा था कि हम अपने जमाने के लङकेवाले नहीं है अपितु बहुत उदार व आधुनिक हैं। पर मेरी उदारता ढह गई थी, वे किसी उत्त्तरप्रदेश के शहर से आए थे।हमारा स्वागत ऐसे किया जैसे हम कोई भगवान हो। उस कन्या को जिस प्रकार लाया गया मुझे पुराना ज़माना याद आ गया था।बेटी को पढ़ाया और नौकरी भी सिर्फ इसलिए कराई कि लङका अच्छा मिल जाए। लङकी की इच्छा का कोई महत्व वहाँ नज़र नहीं आया था। हमारी स्वीकृति ही सर्वोपरि थी। पापा याद आ गए, अपनी बेटियों के लिए जब लङकेवालों की स्वीकृति आती तो ऐसे खुश हो जाते, जैसे उन पर एहसान कर दिया हो। मैं तब इसलिए नहीं रोई थी कि इस स्वीकृति के साथ, मेरी विदाई के दिन आ गए थे। अपितु अपने थके और मजबूर पिता को देख रो रही थी…. जिन के जीवन का उद्देश्य मात्र अपनी बेटियों का विवाह करना था।

सेतु ने समझदारी दिखाई और मुझे फिर कोई लङकी देखने से सख्त मना किया था। ज़माना नहीं बदला, पर बदल रहा था, हमारे इस फैसले के साथ कि बच्चे अपने जीवन साथी स्वयं चुनेगे। यूं मेरी बेटी नहीं है, पर जिन घरों से मेरे घर बेटियाँ आई हैं, उन्होंने अपनी बेटियों के चुनाव को सम्मान दिया है। मेरी अपनी बहु- बेटियों ने अपने सबसे गहरे मित्र को अपने जीवन साथी के रूप में चुना है। ये अंतरर्जातिय संबध बने, जिन पर परिवारों की सहर्ष स्वीकृति थी।

समाज लोगो के विचारों में बदलता है, लोग बदलाव चाहते हैं पर व्यवहार में लाने में बहुत समय लगाते हैं।

उन्हीं दिनों अंकल-आंटी जी ने एक महत्वपूर्ण फैसला लिया था। छाबङा अंकल के भाई की दिल्ली सरोजनीनगर मार्कट में एक कपङे की दुकान थी। छोटू को अपने भाई के साथ व्यापार सिखाने के उद्देश्य से अंकल ने सपरिवार दिल्ली शिफ्ट होने का फैसला लिया था।

कई दिनों की कोशिश के बाद उन्हें सरोजनीनगर में एक सरकारी मकान अलाॅट हो गया था। रविन्द्र का काॅलेज का अंतिम वर्ष था और वह समझदार था, वह जानते थे कि वह गुङगांव में अकेले संभल कर रह लेगा। अतः रविन्द्र के लिए अपना ड्राइंगरूम का कमरा छोङ दिया था।बैडरूम व हमारी छोटी रसोई किराए पर एक अन्य किराएदार को दी थी। अब हमने उनकी बङी रसोई ले ली थी।

छोटू पर पढ़ाई का बोझ न डालकर व समय के साथ उसके लिए उसके तेज दिमाग के अनुकुल एक सुनिश्चित भविष्य बना दिया था।

मेरी तबियत में सुधार नहीं हो रहा था, यहाँ डाक्टर ने आॅपरेशन भी बता दिया था। तब मैं कुछ दिन के लिए दिल्ली अपने मायके चली गई थी। होम्योपैथिक इलाज से आराम होने लगा था। एक महीना बाद गुङगांव लौटी तो घर का नक्शा बदल गया था।
जब मै दिल्ली थी, तब ही छाबङा परिवार दिल्ली शिफ्ट हुआ था ।

देखो और समझो, महसूस भी करो,
बदलते मौसम को, बहती हवा को,
बदलते हुए अहसास को जियों,

जो दिखता है, इन चिडियों की आवाज़ में ।
जो समझ सके, इस बदलाव को,

तो सुख दे पाओगे, सुख ले पाओगे।

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