ये चाँद बीते ज़मानों का आईना होगा,
भटकते अब्र में चेहरा कोई बना होगा,
उदास राह कोई दास्ताँ सुनाएगी,
करोगे याद तो, हर बात याद आएगी।
सेठी साहब की बङी बेटी दिल्ली रहती थी, अक्सर छुट्टियों में आती तो उसकी बेटी हनी हमारे घर भागी आती थी।सेतु और हनी हमउम्र थे। दोनों में बहुत अच्छी दोस्ती थी।
उनके किराएदारों से भी हमारे अच्छे संबध थे।
उस समय हम इसी मकान में नए आए थे, तब एक दिन एक पतली- दुबली सांवली 18-19 साल की लङकी एक बच्चे को ढूंढते हुए, हमारे घर आई थी, उसकी गोद में एक 2 वर्षीय बेटी भी थी, मैंने पुछा, ” कितना बङा बेटा है?” वह बोली,”चार साल” और मुझे हैरानी में छोङ चली गई थी।
पर उससे अधिक अचंभित छाबङा आंटी के वक्तव्य ने कर दिया था, बोली,” सौतेली माँ कहाँ बच्चों का ध्यान रख पाती हैं।” 18वर्षीय बच्ची और सौतेली माँ! बहुत अजीब लगा।
छाबङा आंटी ने कहानी बताई , ” यह तो इन दोनों बच्चों की मौसी है। इसकी बङी बहन बहुत सुंदर थी, जैसे पहाङी लोग होते हैं । यह तो सांवली है, कैसे भी हिमाचली नहीं लगती है।
एक बारिश के दिन इसकी बङी बहन अपनी बेटी को घर पर सुलाकर, अपने बेटे को स्कूल लेने गई थी। रास्ते में बिजली के खंभे से लटकते तार से उसका छाता टकरा गया और करंट के कारण उसकी तुरंत मृत्यु हो गई थी।
बङी बहन की मृत्यु के बाद, इसके जीजा से इसका विवाह कर दिया गया था। माता- पिता नहीं है और भाई- भाभी ने अपना बोझ इस तरह उतार दिया था। ”
पर जीजा जो अब उसके पति थे, अच्छे थे। उन्हें संध्या (सौतेली माँ) से शादी का गिल्ट भी था। गांव का रिवाज़ और बच्चों की परवरिवश की समस्या भी थी। फिर सोचा, मौसी ही सौतेली मां होगी तो बच्चों को प्यार मिलेगा।
यह -छोटी-सी सौतेली माँ, को बङी बहन से ही माँ का प्यार मिला था।वह भी उसके बच्चों के प्रति संवेदनशील थी।
थोङे दिनों में वह मेरी अच्छी दोस्त बन गई थी।
वह बच्चों को लेकर मेरे पास आ जाती थी। और अपने मन का हाल कह जाती थी।
यह पहाड़ी ग्रामीण कन्या थोङी-बहुत शिक्षित थी।पर शहरी रिवाजों से परिचित नहीं थी।मेरा भी उससे स्नेहपूर्ण लगाव हो गया था।
उसने बताया कि जब बङी बहन की शादी हुई, उस समय वह बहुत छोटी थी।जीजा को अब इसे पत्नी के रूप में स्वीकार करने में हिचक थी, दिवंगत पत्नी का शोक और उसकी यादें इतनी जल्दी कैसे मिट सकती थी।
वह बताती कि आरंभ में उसे सब संभालने में बहुत कठिनाई आ रही थी। पर पति उससे कोई शिकायत नहीं करते थे व स्वयं सब संभालते लेते थे। उससे कहते, ” तु भी तो बहुत छोटी है।”
पर संध्या खुश थी, गांव का वातावरण खुला होने पर भी बंदिशे थी। धीरे-धीरे वह सब सीख रही थी।
कुछ दिनों के बाद उसके पति का स्थानांतरण हो गया था। मुझे उसके जाने का दुःख था तो खुशी भी थी, उसका परिवार अपने दुखद अतीत की गली से निकल गया था। इस गली में उसकी तुलना बङी बहन से की जाती थी और उसकी पहचान सिर्फ एक सौतेली माँ के रूप में ही थी।
मुझे खुशी थी कि उसने अपने इस नए जीवन को अपना लिया था और उसे समझदार पति से एक अच्छी समझ मिली थी।
उनके जाने के बाद सेठी अंकल ने उस हिस्से को वधवा भाभी को दिया था। उनके दो बच्चे थे, इंदू 10 वर्ष की और अमित 8 वर्ष का था। इस मकान में आते ही वह फिर गर्भवती थी। वह बहुत शर्म व झिझक महसूस कर रहीं थी। हमने उन्हें समझाया था कि वह अपने तीसरे बच्चे का स्वागत प्रसन्न मन से करें ।
वह बहुत सुघङता से घर संभालती थी।सरकारी कर्मचारी के वेतन में घर चलाने के लिए बहुत सुझ-बुझ चाहिए। सीमित आय में खर्चे भी सीमित रखने होते है। एक गृहणी के लिए आवश्यक नहीं कि वह नौकरी करे, एक गृहणी भी नौकरी कर सकती है। पर अपने घर व बच्चों पर पूर्ण ध्यान देने के लिए वह नौकरी का विचार त्याग देती है। बहुत कम होते है, जो महिलाओं के इस त्याग का सम्मान करते हैं।
मिसेज वधवा सभी काम स्वयं करती थी, शिक्षित थी, बच्चों को ट्यूशन न भेजकर स्वयं पढ़ाती थी। वधवाजी अपनी पत्नी के सहयोग का सम्मान करते थे व घर के कामों में उनकी मदद भी करते थे।
वह मुझे भी घर संभालने की सीख देती थी।
अभी उनका सबसे छोटा बेटा अजय एक वर्ष का भी नहीं हुआ था कि एक दुर्घटना में वधवा साहब के दिमाग में चोट लगी थी, वह अपनी याददाशत भूल गए थे, कई दिन अस्पताल में रहे थे। मिसेज वधवा ने मुस्कराते हुए, हिम्मत के साथ इस कठिन परिस्थिति का सामना किया था।
1990 में जब हम लखनऊ गए तो उनसे बिछुड़ने का वाकई दुख था। बाद में गुङगांव लौटने पर उनसे मुलाकात हुई थी। वही सादगी, वही अपनापन, जीवन की जद्दोजहद को इतनी सरलता से स्वीकार किया था कि चेहरे को देखकर लगता था, आयु वहीं ठहर गई हो।
हम1986-1990 तक छाबङा अंकल के मकान में ही रहे थे। गली में सभी से अच्छा मेलजोल हो गया था। हम प्रति वर्ष जून मास में रामायण पाठ करते थे, तब सभी गली के लोग आते थे। सेतु के चौथे जन्मदिन पर भी पूरी गली आई थी। ये सभी पङोसने आयु में मुझ से बङी थी, इन सभी ने मुस्कराते हुए यह आशीर्वाद दिया कि “अब सेतु का कोई भाई- बहन आना चाहिए।”
आशीर्वाद फलीभूत हुआ और मिंटू प्रसाद स्वरूप मिला था।
आज भी सबके स्निग्ध चेहरे आँखों के सामने से गुजर रहे हैं ।
बरसता-भीगता मौसम धुआँ-धुआँ होगा
पिघलती शमों पे दिल का मेरे गुमां होगा।
हथेलियों की हिना, याद कुछ दिलाएगी,
करोगे याद तो, हर बात याद आएगी।
आस्था की मम्मी से भी मधुर संबध बने थे। उनके बगल में वह विधवा अध्यापिका, मिसेज मेहरा सादगीपूर्ण सुंदर व सौम्य चेहरा। सिर्फ मैं नहीं सभी कहते सुंदरता इसे कहते हैं ।
उनके साथ के घर में थी मिसेज खन्ना, दोनों पति- पत्नी अध्यापक थे। विद्यालय से आकर थोङा आराम करके, वह घर के सभी काम करती थी। कहती, ” कामवाली आप लोग रखे, हम अगर इनका इंतजार करती रहीं, तो नौकरी नहीं कर सकते हैं ।
उनके सामने बुजुर्ग चौपङा दंपत्ति थे, जब भी मिलते आशीर्वाद की वर्षा करते थे। हमारी धार्मिक निष्ठा की प्रशंसा करते थे।
हमारे घर के ठीक सामने मास्टर जी का मकान था। उनका मकान बहुत सुंदर बना था। उनके एक बेटा व एक बेटी थे। बेटा आर्मी में था, फिर दामाद भी आर्मी आॅफिसर ही ढूंढा था। इन हरियाणवी माता-पिता का दिल बहुत बङा होता है। इनके कारण ही हम देशवासी सुरक्षित रह पाते हैं।
बहुत साल बाद जब हम उस गली में गए, तब देखा, उनके घर का लाॅन एरिया उजाङ पङा था। घर के वीरानेपन को देख मन द्रवित हो गया था। मिसेज सेठी ने बताया कि मास्टरसाहब का बेटा आतंकवादियों की मुठभेड़ में शहीद हो गया था।
अपने आंगन को कर उजाङ,
करते हैं देश को आबाद,
इन शहीदों को हमारा सलाम।
अपने मन को कर वीरान,
गर्व से करते हैं, अपने सपूतों का बलिदान,
इन माता-पिता को हमारा शत-शत प्रणाम।
क्रमशः