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मासिक अभिलेखागार: सितम्बर 2020

(नए मकान नए परिवेश) भाग-दशम् (हमारे पङोसी-2)

27 रविवार सितम्बर 2020

Posted by शिखा in Uncategorized

≈ 4s टिप्पणियाँ

ये चाँद बीते ज़मानों का आईना होगा,
भटकते अब्र में चेहरा कोई बना होगा,
उदास राह कोई दास्ताँ सुनाएगी,
करोगे याद तो, हर बात याद आएगी।

सेठी साहब की बङी बेटी दिल्ली रहती थी, अक्सर छुट्टियों में आती तो उसकी बेटी हनी हमारे घर भागी आती थी।सेतु और हनी हमउम्र थे। दोनों में बहुत अच्छी दोस्ती थी।
उनके किराएदारों से भी हमारे अच्छे संबध थे।

उस समय हम इसी मकान में नए आए थे, तब एक दिन एक पतली- दुबली सांवली 18-19 साल की लङकी एक बच्चे को ढूंढते हुए, हमारे घर आई थी, उसकी गोद में एक 2 वर्षीय बेटी भी थी, मैंने पुछा, ” कितना बङा बेटा है?” वह बोली,”चार साल” और मुझे हैरानी में छोङ चली गई थी।

पर उससे अधिक अचंभित छाबङा आंटी के वक्तव्य ने कर दिया था, बोली,” सौतेली माँ कहाँ बच्चों का ध्यान रख पाती हैं।” 18वर्षीय बच्ची और सौतेली माँ! बहुत अजीब लगा।

छाबङा आंटी ने कहानी बताई , ” यह तो इन दोनों बच्चों की मौसी है। इसकी बङी बहन बहुत सुंदर थी, जैसे पहाङी लोग होते हैं । यह तो सांवली है, कैसे भी हिमाचली नहीं लगती है।
एक बारिश के दिन इसकी बङी बहन अपनी बेटी को घर पर सुलाकर, अपने बेटे को स्कूल लेने गई थी। रास्ते में बिजली के खंभे से लटकते तार से उसका छाता टकरा गया और करंट के कारण उसकी तुरंत मृत्यु हो गई थी।

बङी बहन की मृत्यु के बाद, इसके जीजा से इसका विवाह कर दिया गया था। माता- पिता नहीं है और भाई- भाभी ने अपना बोझ इस तरह उतार दिया था। ”

पर जीजा जो अब उसके पति थे, अच्छे थे। उन्हें संध्या (सौतेली माँ) से शादी का गिल्ट भी था। गांव का रिवाज़ और बच्चों की परवरिवश की समस्या भी थी। फिर सोचा, मौसी ही सौतेली मां होगी तो बच्चों को प्यार मिलेगा।

यह -छोटी-सी सौतेली माँ, को बङी बहन से ही माँ का प्यार मिला था।वह भी उसके बच्चों के प्रति संवेदनशील थी।

थोङे दिनों में वह मेरी अच्छी दोस्त बन गई थी।
वह बच्चों को लेकर मेरे पास आ जाती थी। और अपने मन का हाल कह जाती थी।
यह पहाड़ी ग्रामीण कन्या थोङी-बहुत शिक्षित थी।पर शहरी रिवाजों से परिचित नहीं थी।मेरा भी उससे स्नेहपूर्ण लगाव हो गया था।

उसने बताया कि जब बङी बहन की शादी हुई, उस समय वह बहुत छोटी थी।जीजा को अब इसे पत्नी के रूप में स्वीकार करने में हिचक थी, दिवंगत पत्नी का शोक और उसकी यादें इतनी जल्दी कैसे मिट सकती थी।

वह बताती कि आरंभ में उसे सब संभालने में बहुत कठिनाई आ रही थी। पर पति उससे कोई शिकायत नहीं करते थे व स्वयं सब संभालते लेते थे। उससे कहते, ” तु भी तो बहुत छोटी है।”

पर संध्या खुश थी, गांव का वातावरण खुला होने पर भी बंदिशे थी। धीरे-धीरे वह सब सीख रही थी।

कुछ दिनों के बाद उसके पति का स्थानांतरण हो गया था। मुझे उसके जाने का दुःख था तो खुशी भी थी, उसका परिवार अपने दुखद अतीत की गली से निकल गया था। इस गली में उसकी तुलना बङी बहन से की जाती थी और उसकी पहचान सिर्फ एक सौतेली माँ के रूप में ही थी।

मुझे खुशी थी कि उसने अपने इस नए जीवन को अपना लिया था और उसे समझदार पति से एक अच्छी समझ मिली थी।

उनके जाने के बाद सेठी अंकल ने उस हिस्से को वधवा भाभी को दिया था। उनके दो बच्चे थे, इंदू 10 वर्ष की और अमित 8 वर्ष का था। इस मकान में आते ही वह फिर गर्भवती थी। वह बहुत शर्म व झिझक महसूस कर रहीं थी। हमने उन्हें समझाया था कि वह अपने तीसरे बच्चे का स्वागत प्रसन्न मन से करें ।

वह बहुत सुघङता से घर संभालती थी।सरकारी कर्मचारी के वेतन में घर चलाने के लिए बहुत सुझ-बुझ चाहिए। सीमित आय में खर्चे भी सीमित रखने होते है। एक गृहणी के लिए आवश्यक नहीं कि वह नौकरी करे, एक गृहणी भी नौकरी कर सकती है। पर अपने घर व बच्चों पर पूर्ण ध्यान देने के लिए वह नौकरी का विचार त्याग देती है। बहुत कम होते है, जो महिलाओं के इस त्याग का सम्मान करते हैं।

मिसेज वधवा सभी काम स्वयं करती थी, शिक्षित थी, बच्चों को ट्यूशन न भेजकर स्वयं पढ़ाती थी। वधवाजी अपनी पत्नी के सहयोग का सम्मान करते थे व घर के कामों में उनकी मदद भी करते थे।
वह मुझे भी घर संभालने की सीख देती थी।

अभी उनका सबसे छोटा बेटा अजय एक वर्ष का भी नहीं हुआ था कि एक दुर्घटना में वधवा साहब के दिमाग में चोट लगी थी, वह अपनी याददाशत भूल गए थे, कई दिन अस्पताल में रहे थे। मिसेज वधवा ने मुस्कराते हुए, हिम्मत के साथ इस कठिन परिस्थिति का सामना किया था।

1990 में जब हम लखनऊ गए तो उनसे बिछुड़ने का वाकई दुख था। बाद में गुङगांव लौटने पर उनसे मुलाकात हुई थी। वही सादगी, वही अपनापन, जीवन की जद्दोजहद को इतनी सरलता से स्वीकार किया था कि चेहरे को देखकर लगता था, आयु वहीं ठहर गई हो।

हम1986-1990 तक छाबङा अंकल के मकान में ही रहे थे। गली में सभी से अच्छा मेलजोल हो गया था। हम प्रति वर्ष जून मास में रामायण पाठ करते थे, तब सभी गली के लोग आते थे। सेतु के चौथे जन्मदिन पर भी पूरी गली आई थी। ये सभी पङोसने आयु में मुझ से बङी थी, इन सभी ने मुस्कराते हुए यह आशीर्वाद दिया कि “अब सेतु का कोई भाई- बहन आना चाहिए।”
आशीर्वाद फलीभूत हुआ और मिंटू प्रसाद स्वरूप मिला था।

आज भी सबके स्निग्ध चेहरे आँखों के सामने से गुजर रहे हैं ।

बरसता-भीगता मौसम धुआँ-धुआँ होगा
पिघलती शमों पे दिल का मेरे गुमां होगा।
हथेलियों की हिना, याद कुछ दिलाएगी,
करोगे याद तो, हर बात याद आएगी।

आस्था की मम्मी से भी मधुर संबध बने थे। उनके बगल में वह विधवा अध्यापिका, मिसेज मेहरा सादगीपूर्ण सुंदर व सौम्य चेहरा। सिर्फ मैं नहीं सभी कहते सुंदरता इसे कहते हैं ।

उनके साथ के घर में थी मिसेज खन्ना, दोनों पति- पत्नी अध्यापक थे। विद्यालय से आकर थोङा आराम करके, वह घर के सभी काम करती थी। कहती, ” कामवाली आप लोग रखे, हम अगर इनका इंतजार करती रहीं, तो नौकरी नहीं कर सकते हैं ।
उनके सामने बुजुर्ग चौपङा दंपत्ति थे, जब भी मिलते आशीर्वाद की वर्षा करते थे। हमारी धार्मिक निष्ठा की प्रशंसा करते थे।

हमारे घर के ठीक सामने मास्टर जी का मकान था। उनका मकान बहुत सुंदर बना था। उनके एक बेटा व एक बेटी थे। बेटा आर्मी में था, फिर दामाद भी आर्मी आॅफिसर ही ढूंढा था। इन हरियाणवी माता-पिता का दिल बहुत बङा होता है। इनके कारण ही हम देशवासी सुरक्षित रह पाते हैं।

बहुत साल बाद जब हम उस गली में गए, तब देखा, उनके घर का लाॅन एरिया उजाङ पङा था। घर के वीरानेपन को देख मन द्रवित हो गया था। मिसेज सेठी ने बताया कि मास्टरसाहब का बेटा आतंकवादियों की मुठभेड़ में शहीद हो गया था।

अपने आंगन को कर उजाङ,
करते हैं देश को आबाद,
इन शहीदों को हमारा सलाम।
अपने मन को कर वीरान,
गर्व से करते हैं, अपने सपूतों का बलिदान,
इन माता-पिता को हमारा शत-शत प्रणाम।

क्रमशः

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(नए मकान नए परिवेश) भाग-नवम (हमारे पङोसी-1)

21 सोमवार सितम्बर 2020

Posted by शिखा in Uncategorized

≈ 4s टिप्पणियाँ

जीवन में पङोस और पङोसियों के महत्व पर एक बङा लेख लिखा जा सकता है। भारतीय संस्कृति में यह माना जाता है कि अगर पङोस अच्छा है तो कोई चिन्ता की बात नही है क्योंकि आपके सुख-दःख में रिश्तेदार बाद में आते हैं, पहले पङोसी ही खङे होते हैं ।

आज के दौर में भी जब लोग मिलनसार नही रहे हैं, अपनी प्राईवेसी पर अधिक जोर रहता है, तब भी बुरे वक्त पर पङोसी याद आते हैं व पङोसी भी अपना धर्म निभाते हैं ।
यह मेरी खुशकिस्मती रही कि हमें हमेशा पङोस अच्छा मिला है।
अतः गुङगांव से लखनऊ निकलने से पहले उस गली के सभी पङोसियों पर एक नजर तो डालनी ही होगी।

‘ करोगे याद तो हर बात याद आएगी,
गुजरते वक्त की हरमौज ठहर जा आएगी’

हम इस मकान में चार वर्ष रहे थे, आस-पड़ोस में सभी से हमारे संबध अच्छे बन गए थे। पङोसियों से अच्छे सबंध बनाने का श्रेय मैं हमेशा एस.के को
देती हुँ। उनका मिलनसार स्वभाव शीघ्र ही सबको प्रभावित करता था

हमारे दाएं तरफ का मकान एक सरदार परिवार का था, 1984 के दंगों ने उन्हें गुङगांव से निकलने को विवश कर दिया था।
उन्होंने अपना मकान एक अग्रवाल परिवार को किराए पर दिया था।
अग्रवाल परिवार संयुक्त परिवार था, सास, तीन बेटे, दो बहुए, एक छोटी कुआंरी ननद थी।
ससुर नहीं थे तो घर की सारी जिम्मेदारी बङे बेटे ने संभाल रखी थी। अपने पति की इस जिम्मेदारी को गरूर सहित निभाते हुए, परिवार पर अपना दबदबा बङी बहु ने अपने सहज अधिकार के तौर पर लिया था।
घर का सभी काम दोनों बहुएं मिलकर करती थी,पर छोटी बहु अधिक दबी नजर आती थी, उसी के दो बच्चे थे। बङी बहु नि:संतान थी।
सास और छोटी ननद से मेरी दोस्ती हुई थी। सास समझदार थी, उन्होंने फैसला ले रखा था कि बेटी की शादी के बाद बेटों को अलग कर देगी और स्वयं छोटे बेटे के साथ रहेगी।

अग्रवाल परिवार के जाने के बाद यह मकान मिस्टर तनेजा ने खरीद लिया था। मिस्टर तनेजा का परिवार मैनपुरी से शिफ्ट हो कर आया था। मिस्टर तनेजा मुलतः गुङगांववासी थे। बच्चों की उच्च शिक्षा के लिए, उन्हें एक जगह स्थापित करने के उद्देश्य से यह मकान खरीदा गया था। परिवार यहाँ शिफ्ट हो गया था पर उनकी नौकरी मैनपुरी में थी, वह स्वयं महीने में एक बार परिवार से मिलने आते थे।

मिसेज तनेजा के लिए पति के बिना परिवार की देखभाल करना एक चुनौती थी, अतः वह हमेशा तनाव में रहती थी। उनके दो बेटी व एक बेटा था। बङी बेटी बारहवीं कक्षा में पढ़ रही थी, बेटा आठवीं कक्षा और छोटी बेटी दूसरी कक्षा में पढ़ रही थी।

मिसेज तनेजा के हमेशा तनाव में रहने के कारण, उनके घर में अशांति बनी रहती थी ।गली में कोई उन्हें पसंद नहीं करता था। मेरे पास वह बेझिझक आती थी ,हम अपना सुख-दुख बांटते थे। पर फिर याद नहीं किस कारण हमारे बीच बात-चीत बंद हो गई थी। शायद मेरी रिश्ते बढ़ाने की अपनी सीमा रेखा थी, जिसे मैं किसी को लांघने नहीं देती थी।

लेकिन तभी एक घटना ने मेरे दिल मेें उनके लिए सम्मान बढा दिया था। यह मेरे दूसरे बेटे मिंटू के जन्म के बाद की बात है। सेतु को बुखार आ रहा था।तेज बुखार उसके दिमाग में चढ़ गया और वह बेहोश हो गया था।हम तुरंत उसे लेकर डाक्टर के पास भागे थे। हमें परेशान जाता देख मिसेज तनेजा ने मिस्टर तनेजा (उस समय गुङगांव में थे) को हास्पिटल भेजा था, मिस्टर तनेजा ने एस. के. को कुछ रूपये पकङाते हुए कहा,” हमने सोचा आप घबराकर भागे हैं , पता नहीं अचानक इस समय पैसे है कि नहीं । संकोच न करें और अन्यथा न लें ।”
मैंने हमेशा मिसेज तनेजा का आभार माना है, हम फिर मित्र बन गए थे।
बुरे वक्त पर जो काम आए वह ही सच्चे मित्र होते हैं।

मिसेज तनेजा ने अपने मकान में आगे के भाग में एक कमरा किराए पर दिया था। उस कमरे में वंदना व राकेश रहने आए थे। उनका बेटा मनु सेतु से छोटा था। कपिल, सेतु और मनु एक साथ खेलते थे। यह महज इत्तफाक था या इसके पीछे कोई मनोवैज्ञानिक कारण भी हो सकता है। हमारे बाएं तरफ के मकान में वधवा भाभी ( इंदू की मम्मी) ने बेटे को जन्म दिया था और उसके लगभग एक साल बाद उषा ने बेटी को और तीन महीने बाद वंदना ने बेटे को जन्म दिया था। फिर हमारे घर मिंटू आया था।

कहा जाता है कि छोटे भाई-बहन के माँ की गोद में आने से बङे बच्चों पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव पङता है, पर कपिल, मनु और सेतु पर बहुत ही सकारात्मक असर हुआ था। वे अब अपने को अधिक आजाद महसूस कर रहे थे। जब हम माएँ अपने नवजात शिशुओं के साथ व्यस्त रहते तब ये बच्चे अपना मनमाना जीवन जीते थे। उसी आजादी ने कपिल को एक चोट दी थी। गेट पर खेलते हुए कपिल गिर गया था और सिर फट गया था, कपिल को लेकर एस. के. डाक्टर के पास भागे थे, साथ बदहवास उषा गई थी। कपिल के सिर पर टांके आए थे। दो दिन बाद फिर कपिल खेलने के लिए मैदान में था। बच्चे जल्दी ही तकलीफ भूल जाते है।

हमारे मकान के बाएँ तरफ सेठी साहब का मकान था । मिसेज सेठी एक सरकारी विद्यालय में अध्यापिका थी। बहुत हल्के- हल्के चलती थी, पैरों में तकलीफ थी। प्रतिदिन रिक्शे से स्कूल जाती थी। मुझे वह बहुत अच्छी लगती थी, जब भी मिलती बहुत प्यार से मिलती थी। उनके दो बेटी और एक बेटा था।

गुड़गांव के इन मकानों की विशेषता थी कि यहाँ आंगन बङे होते थे। फ्लेटवासी, आजकल की पीढ़ी तो आंगन शब्द से परिचित भी नहीं हो सकती है।

मुझे अपनी दादी का पुरानी दिल्ली का मकान याद आ जाता है।घर का दरवाजा खुलते ही आंगन होता था। उसी आंगन में बङे-बङे कार्यक्रम होते थे। मेरे और छोटी बहन के फेरे उसी आंगन में हुए थे।
गुड़गांव के बङे खुले आंगन देख, दिल खुश हो जाता था। हमने भी इसी मकान के बङे आंगन में देवीजागरण किया था।

सेठी साहब के मकान के आंगन के बाएं तरफ एक कमरा और किचेन था। जिसे वह किराए पर उठाते थे। आंगन के दूसरी तरफ उनके कमरे थे।कमरों के आगे दालान भी था पहले ऐसे ही मकान बनते थे, आंगन उसके बाद दालान फिर कमरे होते थे। आजकल तो कहा जाएगा कि खाली जगह छोङ कर, जगह बेकार कर दी है।
अभी भी HUDA के नियम अनुसार आगे- पीछे बेङे (आंगन) बनाना अनिवार्य है।

यह महज इत्तफाक ही था कि चार साल में सेठी साहब के दो किराएदार आए और उनकी पत्नियों से मेरे गहरे सबंध बने थे।

कुछ भूली- बिसरी यादें,
जब मन को छूकर जाती है,
मन भीग जाता है,
कितने अनाम रिश्ते,
तब जग जाते हैं,
यादें गिली हो, मुस्काती है।

क्रमशः

(नए मकान नए परिवेश) भाग अष्टम ( एक नई जीवन दृष्टि )

03 गुरूवार सितम्बर 2020

Posted by शिखा in Uncategorized

≈ 1 टिप्पणी

सेतु ढाई साल का हो गया था, वह मेरी गोद से बाहर निकलने को बेकल हो रहा था। उसे दोस्त चाहिए थे, जिनके साथ वह अपने जैसे खेल खेलता, शैतानी करता, नई- नई खोज करता।
लेकिन घर के आसपास बच्चें नहीं थे । पङोस की आठ वर्षीय इंदु और उसका सात वर्षीय भाई अमित अक्सर सेतु के साथ खेलते थे। पर उनके लिए सेतु एक छोटा मनभावन खिलौना था।
मुझे लगता कि उसके हमउम्र साथी होने चाहिए।

मैं अभी उसे स्कूल के अनुशासन में बाँधना नहीं चाहती थी।स्कूल में उसे हमउम्र साथी तो मिलते पर उन्मुक्त वातावरण नहीं मिल सकता था।
और मेरी मुराद पुरी हुई, जब कपिल आया था।

उन बुजुर्ग दंपत्ति के जाने के बाद, उन कमरों में कपिल अपनी माँ उषा के साथ रहने आया था।

कपिल सेतु का हमउम्र बहुत प्यारा व शरारती बच्चा था। कपिल के पिता डॉक्टर थे और माँ हाउस वाइफ थी। यह परिवार गुड़गांव के ही पास किसी गाँव से आया था। डॉ. साहब की डाॅक्टरी गांव में अच्छी चलती थी, या यूं कहें कि उन्होंने अपना जीवन अपने गांव को समर्पित किया था। अतः वह अपने परिवार के साथ शहर में शिफ्ट नहीं हुए थे।

मैंने एक कहानी पढ़ी थी, जिसमें नायिका अपने परिवार के विरोध को अनदेखा कर, अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देने के लिए, बच्चों को लेकर अकेली शहर आ जाती है।
इस कहानी में भी कपिल की माँ उषा, अपने बेटे के व्यक्तित्व के विकास के लिए,अकेली गुडगांव आकर रहने लगी थी।
अंतर यही था कि उसे अपने पति व परिवार का पुरा समर्थन व सहयोग प्राप्त था । डॉ. साहब सप्ताह में एक बार उनसे मिलने आ जाते थे। अक्सर रात के ग्यारह बजे आते और सुबह पांच बजे चले भी जाते थे।
डाॅ. साहब का परिवार, अपने गाँव का एक प्रतिष्ठित परिवार था, गांव में उनका बहुत मान था। डाॅ. साहब ने कभी शहर आकर प्रेक्टिस करने की नहीं सोची थी, वह बहुत मन से अपने गाँव के लोगों की सेवा कर रहे थे।
गाँव में इनका संयुक्त परिवार था। परिवार के सभी सदस्य मिलकर सभी काम संभालते थे। एक- दूसरे की योग्यता का सम्मान व आपसी अटूट विश्वास अद्वितीय था। उसके ताया ससुर -खेती-बाड़ी संभालते थे। उसके पिता ससुर हिसाब-किताब देखते थे। चाचा ससुर के जिम्मे बाहर के काम थे।
चाचा ससुर ही समय- समय पर आते और उषा और कपिल की जरूरतें संभालते थे।

एक चचेरी ननद गुङगांव में ही रहती थी, वह और उसके पति हर समय उसकी कठिनाई में उसके सहारे थे। अतः डॉ. साहब उषा और कपिल की ओर से पुर्णतः निश्चित थे।। वे इत्मीनान से अपनी डाक्टरी सेवा पर ध्यान दे पा रहे थे।

उषा कोई ग्रामीण महिला नहीं थी। वह दिल्ली शहर में पली बङी थी। उसके पिता का तबादला होता रहता था, अतः उसकी परवरिश में अनेक शहरों की संस्कृति का प्रभाव था। उसने ग्रामीण जीवन शादी के बाद ही जाना समझा था।

उषा ने Home science में डिग्री प्राप्त की थी। उषा सुंदर व स्मार्ट थी। दिल्ली शहर की लङकी के लिए ग्रामीण ससुराल ही क्यों चुनी गई थी ? हम दुनिया है, जो सीधी बात को भी भेदना चाहते हैं ।

सोचा प्रेम में सब संभव है, अगर उषा सुंदर थी, तो डाॅ.साहब भी कम न थे, इस पर सज्जनता चेहरे पर चमकती थी। भावुक प्रेमिका अपने प्रेमी के साथ कहीं भी रहना पसंद करती हैं।

पर यह प्रेम विवाह नहीं था। अब माता-पिता ने क्यों कर अपनी बेटी के लिए ग्रामीण परिवेश व उसकी कठिनाइयों को चुना था ?

इन सवालों के उत्तर जो उषा से मिले उसके सार में समाज की परिपाटियाँ ही थी और कुछ नहीं ……।

विवाह की अनिवार्यता और वह भी सही उम्र में होना आवश्यक है । सही उम्र निकल गई तो उत्तम जीवनसाथी मिलना कठिन हो जाएगा, विशेषकर लङकियों के लिए. …… लङकियों के जन्म के साथ ही उसका विवाह …. उसके लिए उचित घर- वर की तलाश, एक बहुत बङी जिम्मेदारी, माता-पिता के लिए होती है।

हिन्दुस्तानी माता-पिता यह बहुत दृढ़ता से मानते है कि अपने बच्चों के वे ही भाग्य निर्माता हैं और फिर भी कमी हो जाए तो माना जाता है , ‘ ईश्वर की यही इच्छा होगी।’ पर बच्चों को अपने भविष्य निर्माण में भागीदार नहीं बनाते हैं।

उषा सुंदर थी, पर सुंदरता के मापदंड से ही विवाह सही उम्र में हो जाए, यह आवश्यक नही है। माता-पिता के पास धन की कमी न थी । पर उचित घर-वर नहीं मिल पा रहा था, फिर छोटी बेटी का कद भी बङा होता जा रहा था। उस पर रिश्तेदार ! उनके पास बात करने के लिए एक ही विषय या यूं कहें फिक्र… उनके अपनों के बच्चों का विवाह . ..।

डॉ. साहब व उनके परिवार की सज्जनता व शराफत प्रसिद्ध थी।
यह सोचा कि हमारी संस्कारी लङकी ग्रामीण जीवन की कठिनाइयों को पार कर लेगी। लङकी भी क्यों न करेगी? वह संस्कारी लङकी भी अपने लिए थक चुके माता-पिता को अपनी जिम्मेदारी से मुक्त करना चाहेगी।

एक सुंदर ख्याल यह भी रखा गया कि डॉ. साहब भी कब तक गाँव में ही प्रेक्टिस करेंगे, शहरी आमदनी उन्हें आकृषित करेगी ही और वह शहर आ जाएंगे।
उसने चार साल ग्रामीण जीवन को समझा व पति के मन को भी समझा और अपनी नियति को भी जाना…. फिर गुङगांव अकेले रहने का फैसला लिया।

उसे ससुराल वाकई अच्छी मिली थी। कुएँ से पानी भरना हो या मसाले पीसने हो….. घर में अन्य सदस्यों की सहायता तत्परता से मिलती थी। उसके इस फैसले पर खुशी-खुशी स्वीकृति मिलने में कठिनाई तो हुई पर अंततः सबने एकजुट हो उसको अपना सहयोग और मान दिया था ।

अपने माता-पिता व भाई-बहन सबको उसने अपने इस एकाकी घर में निमंत्रित किया था। अपनी माँ की दी हुई सुंदर कीमती क्राकरी पहली बार निकाली, “गांव के बुजुर्ग ऐसी क्राकरी में खाना नहीं खाते हैं । वे तो व्यंजन भी देसी पारंपरिक ही खाना पसंद करते हैं “।अक्सर ऐसे वाक्यांश उसके मुहँ से सुने जाते थे।

इसका अर्थ यह भी नहीं कि वह खुश नहीं थी, उसने अपने वैवाहिक जीवन को सच्चे दिल से स्वीकार किया था।
वह तो कभी ऐसे ही कोई क्रीच जाग जाती थी। अपने शहरी आधुनिक शहरी रिश्तेदारों के सामने जब अपने ग्रामीण ससुरालवालों की तुलना भी अनजाने ही कर जाती थी।इन ग्रामीणों की सज्जनता व मानवता पर उसे गर्व भी कम नहीं था।

अब उसके मायके से कोई न कोई उसके एकाकी जीवन के संघर्ष को समझने आ ही जाता था। यह तसल्ली भी करता कि डॉ. साहब भी जल्दी ही शहर शिफ्ट हो जाएंगे। पर ऐसा नहीं हुआ, वह अपने गाँव को छोङ नही सके थे।
उषा ने भी अपने इस संघर्ष को स्वीकार कर लिया था।यह कहना अधिक उचित होगा कि उसने अपने पति के जीवन उद्देश्य को गहराई से समझा था।

गुङगांव शिफ्ट होते ही उसने कपिल को पास ही एक play school में प्रवेश करा दिया था। कपिल जब रोता हुआ स्कूल जाता तब मैं सेतु को देख खुश होती कि वह अभी आजाद है।

कपिल संयुक्त परिवार से आया था। अतः वह बहुत जिद्दी था । वह अपने परिवार की कमी महसूस करता था।
उषा कपिल के सभी खिलौने ताले में बंद रखती थी और कपिल को उन खिलौनों से कमरे के अंदर ही खेलने देती थी। क्यों ?
मैं सेतु को बाँधकर रखना नही चाहती थी, फिर वह इसी मकान में ही बङा हो रहा था। सिर्फ कमरे में ही खेलना उसका स्वभाव नहीं था ।
सेतु कपिल के साथ अपने खिलौनों से खेलना चाहता था, पर कपिल ने छीनना और शेयर न करना सीखा था। मैं सेतु को दबाना नहीं चाहती थी और न बच्चों की बात पर झगङा करना पसंद था।
कुछ दिनों बाद सेतु और कपिल का गुङगांव के एक प्रतिष्ठित स्कूल में प्रवेश हो गया था।दोनों एक साथ स्कूल जाते थे। आरंभ में घर से जाते हुए कपिल बहुत रोता था और सेतु खुश- खुश जाता था। हम बहुत खुश थे कि हमारा बेटा बिलकुल नहीं रोता है। परंतु जब P.T.M में गए तो पता चला कि स्कूल में कपिल तो खुश रहता था पर सेतु रोने लगता था और बार- बार कपिल के पास बैठने की जिद करता था।
धीरे-धीरे सेतु और कपिल अच्छे दोस्त बन गए थे। दो साल बाद अगस्त 1989 में कपिल को एक छोटी बहन मिली और दिसंबर में सेतु को एक छोटा भाई मिला । सेतु और कपिल अब और शरारती हो रहे थे।
उषा अपनी इस नई जिम्मेदारी को खुशी-खुशी निभा रही थी। आस-पङोस और चचेरी ननद का परिवार उसकी कठिनाइयों में सहायक थे।डाक्टर साहब का वह ही रूटीन था। उषा और बच्चों को भी अब उसकी आदत हो गई थी।
1990 में हमारा स्थानांतरण लखनऊ हो गया था । हमने सोचा था कि हमारा गुङगांव वापिस लौटना नहीं होगा। पर नियति सात साल बाद फिर गुङगांव ले आई थी तब पता चला उषा ने वहीं पास ही एक मकान खरीद लिया था।

जब समझ लिए हो मन,
तब क्या चिंता करना,
तुम जियो अपना जीवन सार,
मैं हुँ तुम्हारे साथ,
पर मुझे भी पूरा करना है,
अपना जीवन साध।
जो तेरा सार वो मेरा सार,
जो मेरा साध वो तेरा साध।

हम भिन्न नहीं अभिन्न है,
यही जाना जीवन थार।

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