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शिखा…

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मासिक अभिलेखागार: अक्टूबर 2020

(नए मकान नए परिवेश) (भाग- एकादशम्) (मामी जी)

14 बुधवार अक्टूबर 2020

Posted by शिखा in Uncategorized

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गुङगांव जीवनयात्रा मामी जी के बिना पूर्ण नहीं हो सकती है।
अपितु यूं कहना चाहिए कि मामीजी के बिना मेरा जीवन वृतांत अधूरा है।
कुछ रिश्तों का संबध आपके पूर्वजन्म से होता है।मामीजी से मेरा रिश्ता भी हमारे पूर्वजन्म से जुङा है।
हमें छाबङा साहब के मकान में शिफ्ट हुए अधिक समय नहीं हुआ था, छाबङा साहब भी तब दिल्ली शिफ्ट नहीं हुए थे।

उस उतरती शाम को जब अंधेरा धीरे-धीरे गहराने लगा था, मैं रसोई में रात के खाने की तैयारी में लगी थी, तभी एक आवाज़ मीठी पर जोरदार थी, मेरे कानों तक पहुँची थी। मैं हैरान थी, कोई मेरा नाम पुकार रहा था।

“क्या यहाँ कोई शिखा रहती हैं?” मेरा नाम! स्पष्ट उच्चारण !साथ में सम्मान की महक भी थी। मैं सोच रही थी कि गुङगांव में कौन मुझे मेरे नाम से पुकार रहा है? मेरा नाम तो पतिदेव भी नहीं पुकारते थे!

रसोई से बाहर आई, देखा एक सांवली महिला आयु लगभग 35-40 की होगी, गैलरी में खङी थीं। हँसते हुए उन्होंने पुछा,” आप शिखा? शांति जीजी की बेटी हो न!” मैंने उत्तर दिया “हाँ” और तुरंत याद आया कि गोपाल मामा (मम्मी का मायका जयपुर का है।) की ससुराल गुङगांव की है और मम्मी कह रही थी कि मामा से उनकी ससुराल का पता पूछकर मुझे बताएंगी।

यानि यह महिला गोपाल मामा की सरहेज (साले की पत्नी) थी। नाम- मीरा। हमारे लिए तब से मामी जी हो गई थी।वह अपने ननद और ननदोई के आदेश पर मेरी खैर खबर लेने आई थी।रिश्ता दूर का है, पर वह अपनों से भी बढ़कर है।

गुङगांव में जब भी मायके की याद आए, तो पहुंच जाती थी, ‘मामीजी के घर’। तब उनके पति अथार्त मामाजी(गोपाल मामा के साले) से अधिक परिचय नहीं हो पाया था। मामीजी की सास जो अब मेरी नानी थी, हम से बहुत प्यार से मिलती थी और हम से मिलकर बहुत खुश होती थी।

मिंटू के जन्म की कहानी भी मामीजी के बिना अधूरी है। मेरी तबियत अचानक खराब हो गई थी।टेलिफोन के साधन भी बहुत सुगम नहीं थे, अतः मम्मी भी तुरंत नहीं आ सकती थीं ।
उस वक़्त मामीजी सारी रात मेरे पास रही थी, दिलासा देती रहीं थी।
सुबह-सुबह अपने घर जाकर बच्चों को स्कूल भेज कर वापिस आई थीं और मेरे पास हास्पिटल में रहीं थी, दर्द के समय ऐसा लग रहा था, मेरी माँ मेरे पास है। मिंटू को सबसे पहले उन्होंने ही गोद मेें लिया था।

आज भी उनका टेलिफोन आ जाए, तो लगता है, मन की सारी चिन्ताएं दूर हो गई हैं ।वह जीवन की अनमोल सीखें बातों-बातों में समझा जाती हैं ।

हम दोनों ने ही एक- दूसरे के जीवन- संघर्ष को बहुत करीब से जाना व समझा है। मैं बहुत कम बोलती हुँ, फिर भी मामी जी बिना कहे मेरे मन की व्यथा समझ जाती हैं । अब मिलना इतना सरल नहीं रह गया है, फिर भी जब संभव होता है,हम फोन पर अपना हाल सुन समझ लेते हैं। सेतु की शादी में मामीजी का सहयोग ऐसा था कि जैसे मम्मी की कमी पूरी कर दी हो।

ऐसा लगता है कि पिछले जन्म में वह अवश्य मेरी माँ या बङी बहन होगी।

रिश्ते अनाम होते हैं,
रिश्ते पहचान होते है,
हमारे मन की साध के,
हमारे दिल के अरमान के,
यह तो जन्मांतर होते है।

1990 अगस्त में हम गुङगांव से लखनऊ की ओर बढ़ चले थे। मामीजी व सभी पङोसियों से भावभीनी विदाई ली।

आज फिर अपनी कुछ निशानियाँ, अजनबियों के लिए छोङ,
यह खानाबदोश आगे बढ़ चले हैं।

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