आज फिर अपनी कुछ निशानियाँ, अजनबियों के लिए छोङ,
यह खानाबदोश आगे बढ़ चले हैं।
अपनी यात्रा के अगले पङाव पर बाँधेंगे अपने तंबु,
जहाँ उन्हें कुछ अजनबियों के उसी पङाव से रह कर,
गुज़र जाने के अहसासों के साथ अपने को जीवन्त रखना होगा।
खानाबदोश अपने गीत गाते होंगे और स्थानीयवासी उन गीतों को गुनगनाते रहेंगे, ऐसे इन अज़नबियों से एक रिश्ता निभाते रहेंगे।
एस.के का लखनऊ से तबादला हो गया था।हमने लखनऊ से निकलने की तैयारी आरंभ करी व निश्चित तिथि पर हमने सबसे विदा ली तब सभी पङोसी हमसे मिलने आए थे। सबसे मिलनसार पङोसी हमें लखनऊ में ही मिले थे। करण की मम्मी ने हमारे रास्ते के लिए खाना भी पैक किया था। मिसेज सिंह ने हमारा विदाई भोज किया था। मैं वहाँ से निकलते हुए भावविह्लल हो गई थी।
आगरा उत्तरप्रदेश का प्रसिद्ध ऐतिहासिक नगर तथा पर्यटन स्थल है। यह नगर यमुना नदी के तट पर एक शहर है।1504 में सिकंदर लोदी ने अपनी राजधानी को दिल्ली से आगरा स्थानांतरित किया था।
आगरा में विश्व के सात अजूबों में एक ताजमहल स्थित है। इस नगरी में अनेक स्मारक है।बाबर की विरासत को आगे बढ़ाने वाले अकबर, जहांगीर एवं शाहजहां के संरक्षण में आगरा कला, संस्कृति, शिक्षा एवं व्यापार का सबसे अहम केंद्र बनकर उभरा था।आगरा संगरमर एवं पत्थरों पर की गई महीन नक्काशी से युक्त शिल्पकारी का भी महत्वपूर्ण केंद्र है।
आगरा में मकान तो अच्छी कालोनी में मिला था पर एक ही कमरे का था । मकान तो अच्छा व बङा था, उसमें मकानमालिक व एक अन्य किराएदार भी रहते थे।
सुबह-सवेरे छः बजे हम वहाँ पहुँच गए थे। आगरा मैं पहले भी आई हुई थी, अतः आगरा की उबङ-खाबङ सङकों से परिचित थी । परंतु लखनऊ की साफ-सुथरी, बङी, चौङी, सङकों के बाद आगरा की सङकों को देख तौबा हो रही थी। उसी प्रकार लखनऊ के स्वतंत्र दो कमरे के फ्लेट के बाद यह एक कमरा…. सोचा थोङे समय बाद बदल लेंगे।
गैलरी से होते हुए, हम मकान के पिछले भाग में गए थे।
गैलरी में ही बाथरूम व शौचालय थे और किसी के साथ शेयर भी नहीं करना था।मन को शांति मिली पर अभी अशांति का विषय सामने आना था।
एस.के. दो दिन पहले ही सारा सामान रखवा गए थे, फिर हमें लखनऊ लेने गए थे। तो जब हम कमरे में पहुंचे तो देखा कमरा सामान से अटा पङा था, बैठने क्या खङे होने की भी जगह नहीं थी । एक बार लगा कैसे इस कमरे में इतना सामान समाएगा। यूं गृहस्थी एक ही कमरे से शुरू की थी, पर कब सामान बढ़ गया पता ही नही चला।
मकान के ठीक सामने भैंसों का तबेला भी था, खैर हम पीछे थे तो इतना महसूस नहीं होता था।
कमरे के दूसरी तरफ एक अन्य दरवाजा भी था, जो पीछे आंगन में खुलता था । यहाँ आंगन को आंगन ही कहते थे। यहाँ भाषा में हिन्दी की खङी बोली का ही अंदाज़ था। सेतु शीघ्र ही लखनवी अंदाज भूल गया था।बच्चे आसानी से नई जगह व नई भाषा अपना लेते हैं।
आंगन में ही हमारे कमरे के साथ किचन थी, किचन में सामान रखने के लिए ऊपर टांड बने थे। कमरे में भी ऐसी व्यवस्था थी।कुछ सामान बिना खोले वहीं जमा दिया था। कमरे और किचन से आंगन में एक टीन की शेड दी थी। हमार बङा ट्रंक वही रखा जा सका था। बाद में वहाँ बच्चों के खाने- खेलने की अच्छी व्यवस्था हो गई थी।
आंगन के दूसरी तरफ जेट पम्प लगा था। पीने का पानी वहीं से लेकर भरना होता था। किचन और बाथरूम के नलों में सिर्फ टंकी का पानी आता था।किचन के साथ एक अन्य दरवाजा भी था जो मकान- मालिक के भाग में खुलता था और वे जब चाहे उस आंगन में आ सकते थे।
यह व्यवस्था हमें सुबह-सुबह जाते ही पता नहीं लगी थी। हम तो कमरे में जगह बनाने में जुट गए थे। बच्चों के खाने-पीने की व्यवस्था करनी थी। किसी तरह बच्चों को बैठाने की व्यवस्था कर, किचन का जरूरी सामान व स्टोव लगाना आवश्यक था।
एस. के. बच्चों के दूध नाशते का प्रबंध करने बाजार गए थे।
तभी देखा जेट-पम्प चल गया है, मैंने देखा सब जल्दी-जल्दी आकर अपना पानी भर रहे थे। मेरा तो अभी सामान ही नहीं खुला था। किसी तरह एक डोल लेकर पहुंची ही थी और पानी भर ही रही थी कि मकान मालकिन मिसेज जैन की बेटी ने आकर मोटर बंद कर दी थी। मैंने उससे कहा कि” मैं तो अभी पानी भर ही नहीं पाई हुँ, पर उसने टका सा जवाब दिया कि मोटर बंद करने का टाइम हो गया है।मोटर सिर्फ 10-15 मिनट ही चली थी।
मैं बहुत विश्वास के साथ मिसेज जैन के पास गई कि वह मेरी प्रार्थना स्वीकार कर लेंगी और पांच मिनट मोटर चला देगी, जिससे मैं इतना पानी तो भर लूं कि खाना बना सकु।
लेकिन मिसेज जैन तो ऊसूलों की बहत पक्की निकली, किसी प्रकार मेरी बात सुनने को तैयार नही थी—–एक ही रट —–“हम आपके लिए रूल नहीं बदल सकते हैं। एक अन्य किराएदार भी रहते हैं ।” मैंने उन्हें याद दिलाया कि आपने हमें पहले यह रूल नहीं बताया था, छोटे बच्चों के लिए एक बाल्टी तो भरने दीजिए । तब मेरे बच्चों पर दया करके उन्होंने अपनी एक बहुत छोटी पानी से भरी बाल्टी पकङा दी थी। मन हुआ सारा पानी उनके सिर के ऊपर डाल कर आ जाऊं ।पर संयम से काम लिया। समझ तो आ गया था कि स्थान ही नहीं, लोग भी तंग मिले हैं। जहाँ पानी को लेकर हिसाब-किताब ——– गुजारा कठिन था।
खैर उस दिन पानी भी बाहर से लाया गया था। फिर उनके ऊसूलों का सम्मान करते हुए, पानी की समस्या को गहन न बनने देने का प्रयास करने लगी थी।चूँकि मोटर देर तक नहीं चलती थी तो टंकी भी पूरी नहीं भरती थी। धीरे-धीरे समझ आया कि मिसेज जैन व मिसेज शर्मा(दूसरी किराएदार) टंकी के पानी को भी अपनी बाल्टियों में भर लेतीं थी।
यह तो अच्छा था कि हमारे बाथरूम में कार्पोरेशन के पानी का नल लगा था। जिसमें सुबह – शाम व दोपहर में भी थोङी देर पानी आता था। जो पीने के लिए बिलकुल नहीं था ।सरकार सुविधाएं तो देती है, पर संचालन ठीक से न होने के कारण सब अधूरा ही रह जाता है।अगर काॅरपोरेशन का पानी साफ होता तो कठिनाई नहीं होती, हम गुङगांव और लखनऊ में काॅरपोरेशन के पानी का प्रयोग पीने के लिए भी करते थे।पङोस में भी सब काॅरपोरेशन का पानी ही पीते थे। जेट पम्प कहीं नहीं था। तब आज की तरह आरो भी नहीं होते थे।पर गुङगांव में पानी कम आता था व किचन में काम करने में कठिनाई थी। तब पानी स्टोर करने के लिए एक छोटी टंकी किचन में रख ली थी। लखनऊ में भी पानी समय समय से आता था।वहां भी वह टंकी बाबाथरूम में रख ली थी, पानी स्टोर रहता था तो मैं अपनी सुविधानुसार काम कर पाती थी।
यहाँ भी बाथरूम में वह टंकी रख ली थी।बाकि बाल्टी इत्यादि बर्तन भी भर लेती थी। इस समस्या का समाधान कर ही लिया था।
सेतु का पास के स्कूल में दाखिला करा दिया था। मकान मालिकन से तो मैंने दूरी बना रखी थी, अलबत्ता वह अपनी मीठी व झूठी मुस्कान के साथ कभी -कभी मेरे पास आ जाती थीं । मिन्टू उनके छोटी बेटी-बेटा के लिए खिलौना बन गया था। मिसेज जैन भी उसका बहुत लाङ करती थीं। मै काम करती तब वह उनके पास खेलता रहता था।
मिसेज जैन के तीन बेटियाँ और दो बेटे थे।बङी बेटी का विवाह आगरा से बाहर हुआ था।मंझली बेटी का विवाह हमारे सामने हुआ था। छोटी बेटी काॅलेज में पढ़ती थी। जैन साहब आर्म्स फैक्ट्री में काम करते थे, उन्होंने अपने बङे बेटे को भी उसी फैक्ट्री में लगवा दिया था। छोटा बेटा अभी स्कूल में ही पढ़ता था।
दूसरी किराएदार मिसेज शर्मा से मेरी दोस्ती हो गई थी।वह हलवाई की बेटी थी। घर में ही खोया बनाती थी। विभिन्न मिठाइयाँ व समोसे आदि पकवान भी बहुत स्वादिष्ट बनाती थीं ।
शर्मा जी बैंक में अकाउंट आॅफिसर थे। अपने माता-पिता के लाडले छोटे बेटे थे। माता-पिता के लिए वह आज भी छोटे ही थे और उन्हें भी इससे कोई आपत्ति नहीं थी। अतः घर- दुनिया की जिम्मेदारी उनके पिता व पत्नी ही निभाते थे। वह अपनी पत्नी को घर खर्च के पैसे थमा कर निश्चित हो जाते थे। मिसेज शर्मा को कोई कमी व जरूरत होती तो वह अपने ससुर से ही कहती थी। ससुर की जायदाद अच्छी थी वह अपने छोटे बेटे यानि शर्मा जी को बुद्ध मानते थे। जबकि शर्मा जी की अपने आॅफिस में बहुत साख थी ।
यूं वह थे तो बहुत सादे व लापरवाह व्यक्ति कि उनकी पत्नी सर्दियों में उनके चेहरे पर अपने हाथ से क्रीम लगाती थीं।मुझे बहुत हँसी आती थी कि कोई पुरूष कैसे अपनी पत्नी के सामने भी बच्चा बना रह सकता है।
और मिसेज शर्मा जब उनकी बाइक साफ करती थीं तो मैं सोचतीं कि कुछ औरतें क्यों इतनी कर्मनिष्ठ होती हैं । जो अपने पतियों को उनका स्वयं का काम भी नहीं करने देती हैं ।कहते हैं न! पहले माता- पिता ने बिगाङा फिर पत्नी के लाड ने कसर पूरी कर दी और यह पुरूष बङा नहीं हो सका।
शर्मा जी शायद अपने पिता व पत्नी से इतना प्यार करते थे कि उनकी लाड भरी ज्यादतियाँ मुस्कराते हुए झेल जाते थे।
क्रीमवाला एपिसोड इत्तफाक से मेरे सामने ही घट गया था, और उनकी झेंपी मुस्कान देख मुझे भी झेंप आ गई थी । पति-पत्नी का यह अंतरंग क्षण बीच आंगन में न घटा होता तो इस मनोरम दृश्य की खूबसूरती की मैं दर्शक न बनती। पत्नी की लाड भरी तिनकती डाँट और पति का झेंपना।
मैं हैरान रह गई थी जब एक दिन मैंने सुना उनके पिता शर्मा जी को अपने आॅफिस में छुट्टी की अर्जी देने की सलाह दे रहे थे व उसमें क्या और कैसे लिखना है यह ज्ञान भी दे रहे थे और शर्मा जी सिर्फ गर्दन हिलाते हुए उनके सामने से निकल गए थे।
मिसेज शर्मा ने बताया कि उनके ससुर जी की भी दुकाने हैं और शर्माजी दुकानें संभालना नहीं चाहते थे, पढ़ाई में होशियार थे, एम़ काॅम. करके,सरकारी बैंक की नौकरी कर ली थी। व्यापारियों की सोच में नौकरी से मिलने वाला सीमित वेतन अपर्याप्त ही होता है।पुत्र लाडले के साथ जिद्दी भी थे,अतः उन्होंने अपने मन का काम ही किया था।
उनके दो बेटियाँ थी, बङी बेटी शिखा सातवी में और छोटी श्वेता पांचवी में पढ़ती थी। मिंटू थोङा बोलने लगा था और श्वेता को टीनु कहता था। दोनों बच्चों का दोनों लड़कियों के साथ बहुत मन लगता था।
कानपुर में जगन (बङी ननद का बेटा) की शादी फरवरी में थी। हमारा परिवार इस मकान में रमने लगा था।
फरवरी में कानपुर गए, तभी मैंने जाना कि मैं फिर गर्भवती थी। पहली दो गर्भावस्था में बहुत तकलीफ रही थी, तीसरी बार बहुत घबरा रही थी। मैं दो बच्चों के साथ संतुष्ट थी, बेटी की भी अब चाह नहीं थी।
अबार्शन में भी शारीरिक तकलीफ़ के साथ मानसिक तकलीफ़ भी बहुत होती है। मिंटु से पहले उस अबार्शन में अनुभव किया था।
अतः यही निश्चय किया कि आरंभ से ही किसी अच्छी डा. की निगरानी में रहा जाए व उसे अपनी शारीरिक परेशानी बताई जाए। संयोग से डा. अच्छी मिल गई थी।उसकी सलाह से काम व खान-पान पर ध्यान देने लगी थी।
तभी मैंने जाना कि मिसेज शर्मा भी गर्भवती थी। तीसरे बच्चे के जन्म के लिए वह भी तैयार नहीं थी अतः घबरा रही थी, फिर श्वेता तो दस वर्ष की हो गई थी। उन्हें शर्म भी महसूस हो रही थी।
शायद मेरी हिम्मत बनी रहे, इसीलिए उनका साथ मिला था। उन्होंने मुझ से कहा था कि आपको बेटी की चाह है और मुझे बेटे की तमन्ना है।पर हम दोनों की यह इच्छा पुरी नहीं होगी। मिसेज शर्मा ने इसी कारण गर्भावस्था का समय तनाव में काटा था। मैंने डिलीवरी से पहले ही मकान बदल लिया था। बहुत दिन बाद उनसे एक मेले में मुलाकात हुई थी। उन्होंने अपनी तीसरी बेटी से मिलाया था।उस समय भी वह उदास थी।
समाज की निर्ममता का भय माँओं के मन में समाया रहता है, यह भय ही मिसेज शर्मा के चेहरे पर दिखता था।
उस मकान से निकलने का कारण पानी की समस्या और मिसेज जैन का कुटिल व्यवहार था।
गर्मियों में पानी की समस्या अधिक हो गई थी।मैं अब पानी भरने का काम स्वयं नहीं कर सकती थी। डा. की सलाहनुसार इस बार भी शरीर को अधिक से अधिक आराम आवश्यक था। अब हर काम के लिए एक माई रख ली थी।गर्मियों में जगन अपनी नवनवविवाहित पत्नी सुषमा को लेकर आया था। मेरी परेशानी देख अपने मामा को मकान बदलने की सलाह दे कर गया था।
फिर जगन की बङी बहन नीरू अपने पति आनंद जी व बच्चों के साथ रहने आई थी। पानी की समस्या उस पर मकान मालकिन का कूटिल व्यवहार देख शांत रहने वाले आनंद जी को भी गुस्सा आ गया था। नीरू ने कहा, “मामाजी, अभी मकान देखो और हमारे सामने बदल लो, मामीजी के लिए इस हालत में बहुत मुश्किल होगी।”
ईश्वर कृपा से मकान मिला, मकान में दो छोटे कमरे थे, पर अपार्टमेंट की तरह सब अंदर ही था। अतः छोटे बच्चे के साथ बाहर हवा में निकलने नहीं पङेगा। यहाँ भी गैलरी से जाकर पीछे की ओर हमारे कमरे थे।कमरे एक-दूसरे से जुङे थे।
कमरों के पीछे के दरवाजे, पीछे आगन में खुलते थे। यहाँ भी आंगन में ही जेट पम्प लगा था पर बाथरूम व रसोई के नलों में भी पम्प का पानी आता था, अतः बाहर से पानी लाने की समस्या नहीं थी। टंकी भी पूरी भरी जाती थी व जरूरत पर दुबारा पम्प चला दिया जाता था।
चूंकि मकान मालिक व उनका परिवार सज्जन दीखते थे, हमने इस मकान में अपनी रिहायशी बदलने का फैसला लिया था।
नीरू व आनंदजी का पूर्ण सहयोग मिला था।अतः मकान बदलने में कोई परेशानी नहीं हुई थी नीरू ने तो रसोई का सारा सामान लगा दिया था। मैं नीरू व आनंनदजी की हमेशा शुक्रगुजार हुँ।
जुलाई1992 में हम नए मकान में आए थे और 13अक्टूबर 1992 में मीशु का जन्म हुआ था।सब कुछ बहुत शांति से व तनावरहित रहा था।
यह जीवन है, इस जीवन का यही है -रंग-रूप
कुछ कष्टों के बाद ही मिलते है अनुपम सुख।