आदमी मुसाफिर है, आता है, जाता है।
आते-जाते रस्ते में यादें छोङ जाता है,
क्या साथ लाए, क्या तोङ आए,
रस्ते में हम क्या क्या छोङ आए,
मंजिल पे जाके याद आता है।
अब हम विभवनगर पहुंच गए थे। अभी तक मकान मालिकों के साथ रहने का अनुभव बहुत सुखद नहीं रहा था।
परंतु विभवनगर के इस मकान में हमारा सबसे सुखद अनुभव था। मकान मालिक के व्यवहार में बहुत अपनापन था।यहाँ दो साल बहुत शांति से बीते थे।गुड़गांव में भी मकान मालिक किराएदारों को अधिक सुविधा देते थे और अब अग्रवाल परिवार के साथ रहकर लगा कि आगरा में भी किराएदारों को भिन्न नहीं समझा जाता है।
यह दो मंजिला मकान था। नीचे की मंजिल में मकान मालिक रहते थे। ऊपर हमारे दो कमरे थे, दोनों कमरे बङे थे। दोनों कमरों के बीच में किचन थी।किचन भी बङी थी।
वास्तव में यह एक छोटा कमरा या बङा स्टोर था। हमारे लिए एक स्लेब और सिंक लगा कर उसे किचन बना दिया था। उसी में हमने अपना फ्रिज रखा था।घर बहुत साफ था, उसे सजाने संवारना अच्छा लगता था।कमरों में अलमारियों थी।ऊपर पहुँचते ही पहले छत थी व छत के एक तरफ ड्राइंग रूम, फिर किचन व उसके साथ बैडरूम था। तीनों एक- दूसरे के साथ जुङे थे। एक कमरे में प्रवेश करके, अंदर ही अंदर किचन व दूसरे कमरे में जा सकते थे।
तीनों के दूसरे दरवाजे बाहर छत पर खुलते थे, बैडरूम के दूसरा दरवाजे के खुलने पर जाल था, जिससे नीचे रहने वालों को रोशनी मिल सके। जाल के ठीक नीचे उनका आंगन था।इसी जाल से हम आशा भाभी (श्रीमती अग्रवाल से बातें करते थे।) ऊपर जाल के एक तरफ शौचालय था, दूसरी तरफ स्नानघर था।
अग्रवाल परिवार खानदानी बिजनेसमैन थे। उनकी आगरा के सदर बाजार में दो दुकानें थी। तभी एक अन्य दुकान विभवनगर के पास शहीद नगर में अपने बेटे के लिए खुलवा दी थी। गर्मियों में गुलाब का शरबत नीचे आंगन में ही बनता था व दुकानों पर बिकता था।
पुरानी परंपरा के अनुसार बङे भाई यानि अग्रवाल साहब ने अपने परिवार के व्यापार को संभाला था।
उनका छोटा भाई भी हमारे घर के ठीक सामने रहता था। छोटा भाई बङे भाई का बहुत सम्मान करता था। बिजनैस साझा था तो दोनों परिवारों का खर्चा बङे भाई ही देखते थे।
दोनों भाईयों में जितना प्रेम था, उतना ही जिठानी देवरानी एक- दूसरे से दूर भागती थीं आशा भाभी अपनी देवरानी पूष्पा भाभी को नीचा दिखाने का कोई मौका नहीं छोङती थीं पुष्पा भाभी भी अपनी जिठानी से दूर रहना पसंद करती थीं।
यूं सभी त्योहार-पूजा एक साथ होता था। पता नहीं, आशा भाभी को पुष्पा भाभी से क्या परेशानी थी? वह पुष्पा भाभी के हर काम में नुक्ताचीनी निकालती थीं ।उनके अनुसार उनकी देवरानी को घर-बच्चे संभालने नहीं आते थे।
पुष्पा भाभी इससे बहुत परेशान रहती थीं। पति घर की राजनीति में पङना नहीं चाहते थे। सुबह जल्दी जाकर रात देर से घर आते थे।
दोनों भाइयों की आयु में बहुत अंतर था। पुष्पा भाभी के बच्चे छोटे थे। तीन बेटियाँ और एक बेटा। तीनों बेटी स्कूल में पढ़ रही थी। बेटा बहुत छोटा था, मीशु की आयु का था।मीशु और उसने एक साथ एक छोटे स्कूल में जाना शुरू किया था।
आशा भाभी के दो बेटे और एक बेटी थी। बेटी की शादी हो गई थी, उसके भी एक बेटी थी। बङा बेटा पूना में इंजीनियरिंग पढ़ रहा था। छोटा बेटा भी काॅलेज में था, उसके पैर में पोलियो के कारण लचक थी। उसी के लिए उन्होंने शहीद नगर में एक दुकान खोली थी।
इस नई दुकान के लिए पूरा घर-खानदान मेहनत करता था। आशा भाभी भी जाकर बैठती थी।
आशा भाभी की मेहनत व अक्ल से मैं लाजवाब थी।घर में एक कामवाली रखी थी, परंतु वह स्वयं घर में हर तरह के स्वादिष्ट पकवान बनाती थीं । सर्दियों में तो प्रतिदिन भिन्न-भिन्न स्वादिष्ट पकवान बनते थे।
मुझ से कहती कि कैसे सरदी मनाती हो? जो बाजरा व मक्का के पकवान बनाना नहीं जानती हो। हर त्योहार पर उनके घर से आने वाली खुशबू से मन सुगंधित हो जाता था, फिर जब प्लेट लग कर हमारे पास आती तो हम उनके कायल हो जाते थे।
इसके अतिरिक्त वह घर से सिलाई का छुटपुट काम भी पति से छूपकर करती थी या पति अनदेखा करते थे।
वह कहती थीं, ” अरे ये मर्द लोग तो हिसाब से पैसे देते हैं, मैं अपना काम करती हुं तो मेरा हाथ खुला रहता है। बेटी-दामाद व नवासी के लिए, कुछ करने का मन होता है, तो कर पाती हुँ।
फिर नई दुकान खुली है, नए काम को जमने में कम से कम एक वर्ष तो लगता है और मेहनत व किस्मत मिलाकर दो वर्ष और लग जाते हैं ।कम से कम 2-3 वर्ष का धैर्य रखना पङता है, नए काम का अच्छा रिजल्ट मिलने में……।”
उनकी इस बात को मैंने गांठ में बाँधा था।
आशा भाभी जितना अच्छा खाना बनाती थी, उतना अच्छा बोलती भी थी व जो बोलती वो खरा होता था।वह सबकी मदद करती थी, हर मौके पर वह सबके साथ मौजूद रहती थी, पूरी गली में उनका सम्मान था।
वह आयु में मुझ से बङी थी इसीलिए तो मेरे मन में उनके लिए सम्मान था ही पर उनके स्वभाव और व्यवहार ने मेरे मन पर अमिट छाप छोङी थी।
उन्होंने संयुक्त परिवार का हर सूख दुख झेला था। घर की बङी बहु के सभी दायित्व खुशी-खुशी निभाए थे। कभी-कभी वह मेरे पास आकर बैठती थी या जबरदस्ती मुझे अपने पास बुला लेती थी, हम सीढ़ियों पर बैठ जाते थै।वह सबसे नीचे सीढ़ी पर मैं सबसे ऊपर सीढ़ी बैठते थे। वह अपने जीवन संघर्ष की कहानी सुनाती, जिन पर कभी वह हँसती और कभी मन खराब होने पर उन यादों पर कङवी भी हो जाती थी।
मुझे बातो-बातों में घर चलाने की शिक्षा भी देती थी। बच्चों की परवरिश पर भी उनकी छोटी-छोटी सीख बहुत याद आती है। उन्होंने समझाया,” माँ की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण होती है, जहाँ कभी पिता पीछे हो तब माँ को अपने बच्चों के लिए खङा होना पङता है। उन्हें दुनिया को समझने के लिए, संघर्ष क्षेत्र में कूदने के लिए, माँ का ही विश्वास और हौसला मिलना चाहिए ।
जब मेरे करंट लगा, मेरे लिए काम करना कठिन था।बिना कहे वह मेरी तकलीफ समझ गई थीं, बोली,” धीरज रखो, हिम्मत मत हारना, यह समय निकल जाएगा।” उनके इस वाक्यांश ने मेरा आत्मविश्वास बढ़ाया था।
आशा भाभी जितनी मीठी सबके साथ थी, न जाने क्यों उतनी ही कङवी वह अपनी देवरानी पुष्पा के साथ थी। दोनों भाइयों का रिश्ता राम-भरत के समान था तो जिठानी – देवरानी का रिश्ता कुनैन की गोली था।
पुष्पा भाभी यूं तो अपनी जिठानी की बुराई नही करती थी पर उनकी नुक्ताचीनी से परेशान थी।
वह कहती, “मैं अपनी जिठानी जैसी होशियार नहीं हुँ,पर अपने घर के काम मैं ही करती हुँ। उनके देवर तो सुबह-सवेरे जाकर रात देर घर लौटते हैं । घर-बाहर मैं ही संभालती हुँ।”
न जाने क्यों आशा भाभी को अपनी देवरानी की कमियों को दुनिया में बखान करने की आवश्यकता थी। आशा भाभी के गुण तो सर्वसिद्ध थे। उन दोनों के बीच किसी प्रतिस्पर्धा का अर्थ नहीं था।
मेरे साथ तो पुष्पा भाभी का व्यवहार भी बहुत अच्छा था, आशा भाभी को कोई परेशानी नहीं थी , यदि मैं पुष्पा भाभी के पास चली जाती या पुष्पा भाभी मेरे पास आ जाती थीं। आशा भाभी आत्मविश्वासी व अनुभवी महिला थीं, वह मेरे स्वभाव की निष्पक्षता और तटस्थता को समझती थीं। अतः उन्हें मुझ से कोई खतरा नहीं था।
पुष्पा भाभी के तीन बेटियाँ थी। सबसे छोटी तो अक्सर सेतु और मिंटू के साथ खेलती थी। एक बेटा था, जो मीशु के बराबर था।
बेटे का नाम सारांश था, पूरे परिवार का लाडला था, अपने ताई-ताऊ के आँखों का तारा था। वे सब ही जब सारांश के लिए कोई चीज़ लेते तो मीशु के लिए भी लेते थे।
दोनों परिवार के बच्चों में आपस में बहुत प्यार था। आशा भाभी अपने देवर के बच्चों को व पुष्पा भाभी अपनी जिठानी के बच्चों पर अपना स्नेह अर्पण करतीं थी । सिर्फ द्वेष जिठानी-देवरानी के बीच ही था।यह कोई नई बात नहीं थी, इतिहास के पन्नों पर जिठानी – देवरानी के ऐसे रिश्तों के किस्से लिखे मिल जाएंगे ।
धीरे-धीरे मुझे पता लगा कि सारांश पुष्पा भाभी का अपना बेटा नहीं है, सारांश को गोद लिया गया था।शायद इसी कारण ताई-ताऊ सारांश पर अधिक ही लाड दिखाते थे। दुनिया-समाज को यह दिखाना आवश्यक था कि गोद लिए बच्चों को अपने बच्चों से कम नहीं समझना चाहिए ।
पर कभी-कभी जेठ- जिठानी के स्वाभाविक वाक्यांश भी पुष्पा भाभी को तीर की तरह चुभ जाते थे।जैसे-” सारांश, तु हमारे पास रह, तेरी माँ तुझे मारेगी, वह तुझे प्यार नहीं करती है।”
मैं हैरान थी कि तीन बेटियाँ थी, फिर एक बेटा क्यों गोद लिया है? क्या बेटे की लालसा इतनी बङी होती है या फिर कोई और बात?
एक दिन मौका मिला, तो पुष्पा भाभी ने अपना दर्द-ए-हाल बयां कर दिया था। उन्होंने जो बताया, उसके अनुसार उन्होंने तीन बेटियों के बाद चौथे बच्चे के लिए मना कर दिया था। उन्होंने कहा,” बेटे की लालसा में चौथा बच्चा! मेरे में तकलीफ़ उठाने की हिम्मत नहीं थी।”
जब उनकी छोटी बेटी 6 वर्ष की थी, तब अपने छोटे भाई का वंश और नाम चले, इसके लिए अग्रवाल साहब ने कोशिश कर एक नवजात शिशु (लङका) लाकर, पुष्पा भाभी की गोद में डाल दिया था पुष्पा भाभी की इच्छा के विरुद्ध हुई इस घटना ने पुष्पा भाभी को क्षुब्ध कर दिया था। उनके लिए तो बेटियाँ ही बेटे समान थी।
उन्होंने स्वीकार किया कि आरंभ में तो उन्हें बहुत गुस्सा था, परंतु बेटियों ने अपने इस छोटे भाई को खुशी-खुशी अपनाया था, बङी बेटी जो अपने भाई से 13-14वर्ष बङी थी, अपने भाई का बहुत ध्यान रखती थी। उस समय शायद ही बेटियाँ अपनी माँ के तर्क व व्यवहार को समझ सकती थी।
धीरे-धीरे उन्होंने इस बच्चे को अपना लिया था। इस समाज में एक स्त्री को अपनी खुशी से माँ बनने का अधिकार भी नहीं होता है। कानून एक औरत को गर्भ धारण करने, न करने का हक देता है, पर कानून को समाज कब समझता है? औरत की बेबसी और ममता पर यह घटना कुठाराघात थी।
पता नहीं कब और किसने शुरू किया कि वंश बेटे से चलता है।जवाहर लाल नेहरू का नाम इंदिरा गाँधी से ही चला है, उनके वंशज नेहरू परिवार ही माने जाते हैं।
फिर वंशवाद , जातिवाद इत्यादि मनुष्य की मानसिकता को संक्रीण बना रहें है।
पुष्पा भाभी को समझ आ गया था कि यह दूसरे का बच्चा है, उसका लाड-प्यार और ध्यान नहीं करेंगी तो, अवश्य दुनिया उसे उनसे पराया कर देगी।
हमारे दाएं व बाएं तरफ गुप्ता परिवार ही थे।दोनों परिवार परस्पर रिश्तेदार थे।दाएं तरफ गुप्ता जी दो भाई थे। बङे भाई ऊपर के भाग में रहते थे, छोटे भाई नीचे रहते थे।उनके बङी उम्रदराज माता-पिता भी थे। दोनों भाई अपने माता-पिता का बहुत ध्यान रखते थे, सास के बहुत नखरे थे, इसीलिए एक समय का खाना बङी बहु बना कर खिलाती थी, दूसरे समय का छोटी बहु बनाती थी।सास का अपने बेटे-बहुओं पर बहुत रौब था।पोते – पोती बङे थे। बङे भाई के बच्चों की तो शादी भी हो गई थी और छोटे भाई के बच्चे भी शादी योग्य थे।
यूं तो दोनों बहुएं सास की बुराई तो न करतीं परउनके किस्से हँस कर सुनाती थी। जो समय गुज़र गया, उसमें कष्ट भी था, तो भी क्या? अब तो बीत गया तो उसे हँस कर याद करना चाहिए।
बाएं तरफ के पङोसी गुप्ता जी, इन्हीं बुजुर्ग सास के छोटे भाई थे।अतः वह अपना रौब अपने भाई और उसके परिवार पर भी रखती थीं ।
इन गुप्ता अंकल के तीन बेटे थे। दो बेटे विदेश में थे व एक बेटे की असमय मृत्यु हो गई थी। गुप्ता अंकल अपने स्वर्गवासी पुत्र के परिवार को संभाल रहे थे।स्वर्गीय पुत्र के दो बेटे थे, जो उस समय दसवीं , आठवीं में पढ़ते थे।गुप्ता अंकल की पेंशन आती थी।स्वर्गवासी पुत्र किसी प्राइवेट कंपनी में काम करता था अतः उसकी पत्नी को कोई पेंशन या नौकरी का लाभ नहीं मिला था।विदेश में रहने वाले बेटे, अपने भाई के परिवार के लिए खर्चा भेजते थे, उन्हें विश्वास था कि इन बच्चों की जिंदगी उनके चाचा-ताऊ बना देंगे। बच्चे भी विदेश जाने के सपने देख रहे थे।
विधवा बहु ने शायद समाज के लिए, अपनी विधवा माँ को अपने पास रख लिया था। बहु के कोई भाई नहीं था, पर चाचा के लङके बहुत मानते थे व माँ को खुशी-खुशी अपने पास रखना चाहते थे।लेकिन परिस्थिति देख, उन्होंने माँ को बेटी के पास छोङ दिया था।माँ को बेटी के घर कोई परेशानी न हो तो माँ को खर्चा भी देते थे। समाज की यह भी रीत है कि बेटी के घर का खाना नहीं होता है। गुप्ता अंकल अपनी बूढ़ी विधवा समधिन से कुछ लेना नहीं चाहते थे।अतः माँ बेटी को पैसा देती थी।
आशा भाभी ने बताया कि विजया (विधवा बहु) के पास भी यही पैसे होते थे। चूँकि गुप्ताजी घर का सब खर्चा संभालते थे और जरूरतों का भी ध्यान रखते थे, पर बहु के हाथों में कुछ पैसा नहीं देते थे, कभी समझते भी नहीं थे कि उसकी भी कुछ व्यक्तिगत जरूरतें या शौक हो सकते हैं ।
गुप्ता अंकल इंसान तो बहुत अच्छे थे, इस बुढ़ापे में जवान बेटे का गम और फिर उसके परिवार की जिम्मेदारी, बहुत हिम्मत के साथ उठा रहे थे। कहीं छोटी नौकरी भी करते थे।घर में किसी प्रकार की कमी नहीं होने देते थे।
परंतु मर्द कहाँ समझ पाते है कि घर में रह रही औरत को भी पैसा चाहिए। शौक तो दूर की बात जरूरत भी नही समझते है। कुछ भी कहे, पर पैसा भी आत्मविश्वास और हिम्मत देता है।
विजया भाभी बहुत सीधी महिला थी, अपने ससुर का बहुत एहसान मानती थी, पर एहसान की आवश्यकता ही क्यों पङी? गुप्ता अंकल अपनी बहु से अर्थोपार्जन के लिए कोई काम करा सकते थे।परंतु पुरानी सोच कि घर की बहु कोई काम क्यों करें ?
आशा भी विजया भाभी की परेशानी समझती थी, अतः सिलाई-बुनाई का काम जो वह स्वयं करती थी, विजया भाभी को भी गुप्ता अंकल से छिपाकर देती थीं ।
औरत को अपनी स्थिति संभालने के लिए, घर में ही लङाई लङनी पङती है।आपको अपना हक, आपके अपनों से ही लेना पङता है।
जब हम गुड़गांव शिफ्ट हुए, तब गुप्ता जी ने हमें खाने पर बुलाया था। यहाँ भी आस-पङोस में सबसे अच्छा रिश्ता बना था।आने से पहले मैं सभी परिवारों से मिलकर आई थी, लखनऊ की तरह यहाँ से भी विदाई भाव-भावभीनी थी।
फिर से गुड़गांव पहुँचने से पहले मुझे बुदकी परिवार के विषय में अवश्य लिखना चाहिए । बुदकी साहब कश्मीर एम्पोरियम के मैनेजर थे। जब उनका परिवार कश्मीर से आया, तब गलती से वह हमारे घर पहुंच गया था। तभी उनकी पत्नी का स्वभाव व अपनापन बहुत अच्छा लगा था। कश्मीर से विस्थापित पंडितों का दर्द इनसे मिलकर गहरा जाना था।
परिवार में उनके दो बेटे व एक बेटी थी। वे शहीद नगर में किराए के मकान में रहने लगे थे। शहीद नगर व विभव नगर पास-पास थे। उनकी सलाह पर ही हमने अपने बच्चों का एडमिशन विभव नगर के इस स्कूल में कराया था। उनके बच्चे भी उसी स्कूल में पढ़ते थे।
जब हमारा मन होता था, हम उनसे मिलने जाते थे। उनसे उनकी संस्कृति, परंपराओं का ज्ञान हुआ था। शिवरात्रि उनका विशेष पर्व होता था।
मिसेज बुदकी बहुत प्यार से मिलती थी, बहुत सादा रहन-सहन, दिखावटीपन बिलकुल नहीं था। बैठने के लिए जमीन पर ही गद्दे होते थे, उस पर सफेद चादरें बिछी होती थी।
हमारे बच्चों का उनके घर बहुत मन लगता था। मिंटू-मीशु का तो मिसेज बूदकी विशेष लाड करती थी। वह मुझे कश्मीर की बातें बताया करती थीं । कश्मीर छोङने का दर्द उनकी बातों से झलकता था, अपना मकान, अपनी ज़मीन छोङने का दर्द…….
हम छोङ आए उस ज़मीं को,
जो हमारा आशियाँ था।
आज इस नई ज़मी को,
हमने अपना जहां बना लिया है।
हमारे दर्द को कोई क्या समझे,
हमने तो इस दर्द को अपना बना लिया है।
आज उस विराने स्वर्ग में,
हमारे बचपन, हमारी जवानी की,
दास्ताने गूंजा करती है।
वो दिन भी आएगा,
कोई पुरातत्वविद खोद उस ज़मीं से,
पाएगा हमारे पुर्वजों की कहानियां ।