कवि- हरिशंकर परसाई
कविता- आखिर पाया तो क्या पाया
जब तान छिङी, मैं बोल उठा
जब थाप पङी, पग डोल उठा
औरों के स्वर में स्वर भर कर
अब तक गाया तो क्या गाया?
जिस ओर उठी अंगुली जग की
उस ओर मुङी गति भी पग की
जग के अंचल से बंधा हुआ
खिंचता आया तो क्या आया?
जो वर्तमान ने उगल दिया
उसको भविष्य ने निगल लिया
है ज्ञान, सत्य ही श्रेष्ठ किंतु
जूठन खाया तो क्या खाया?
अब जिस मकान में आए, यह भी एक बैडरूम था, पर खुला मकान था, आगे-पीछे आंगन थे, कमरे खुले बने थे। ड्राइंगरूम से जाते हुए, एक गैलरी थी, उसके पीछे दरवाजे से आंगन था। आंगन में ही स्नानाघर व शौचालय था।
गैलरी के बीच से एक दरवाजा बैडरूम में खुलता था व बैडरूम का दूसरा दरवाजा किचन में खुलता था।बैडरूम में तीन दरवाजे थे, तीसरा दरवाजा पीछे आंगन में खुलता था, किचन का भी दूसरा दरवाजा ड्राइंगरूम में खुलता था।कमरे में अलमारी थी व छत से जुड़े गहरे स्टोर थे।
गैलरी भी इतनी बङी थी कि वह बच्चों का स्टडी रूम हो गया था। आगे के आंगन के एक तरफ से सीढ़ियाँ ऊपर छत पर जाती थी व सीढ़ियों पर भी एक स्टोरनुमा जगह थी। पिछले मकान में छत के लिए सीढ़ियाँ नहीं थी।यह मकान मुख्य सङक पर ही था, अतः बंधा हुआ नहीं लगता था।
यह मकान एस. के. के एक मित्र का था, दोनों पति- पत्नी सरकारी नौकरी करते थे, वे सेक्टर पांच में अपने दूसरे मकान में रहते थे।इस मकान में धीरे-धीरे मेरे पास ट्यूशन के बच्चे बढ़ गए थे। अतः व्यस्त थी।
हमारे मकान के बाएं तरफ गर्ग परिवार था। श्री गर्ग सरकारी स्कूल में गणित के अध्यापक थे व श्रीमती गर्ग एक सरकारी बैंक में कार्यरत थीं ।वह स्वयं अपनी स्कूटी चलाकर बैंक जाती थी।
गुडगांव के अंदर सरकारी ट्रांसपोर्ट नहीं चलता है। अभी दो-तीन वर्षों में कहीं-कही बसें चलने गई हैं। तब कहीं आने-जाने के लिए सिर्फ रिक्शा का सहारा था, ऑटो भी नहीं चलते थे।अधिकांशतः लोगों के पास अपने दो पहिए वाहन थे। तब अपनी कारों का प्रचलन भी बहुत नहीं था। यहां लङकियाँ व महिलाएँ अपने लिए स्कूटी रखती हैं व अपने सभी कार्य स्कूटी से करती हैं।
मुझे यह पहले गणित के अध्यापक मिले थे, जो कोचिंग नहीं करते थे।वह स्कूल से आकर अपने दो बच्चों के साथ व्यस्त रहते थे। वह और बच्चे दोपहर में ही स्कूल से आ जाते थे व मिसेज गर्ग शाम को आती थीं ।
एक बेटी जिसका आगरा के मेडिकल काॅलेज में एडमिशन हो गया था व बेटा भी बारहवीं में था और इंजिनियरिंग के लिए कोंचिग कर रहा था। एक आदर्श परिवार था।
श्रीमती गर्ग बहुत अनुशासन प्रिय थीं ,वह बच्चों को घर से बाहर निकलने नहीं देती थीं । परंतु बच्चों का भी अपना स्वभाव होता है। माँ के दबाव के बाद भी बेटी चुस्त व वाचाल थी। छुट्टियों में जब हाॅस्टल से आती थी तो उसमें आए परिवर्तन दृष्टिगत होते थे।
बेटा सीधा था, माँ के कहने पर था, घर से बाहर नहीं निकलता था। हमारे बच्चे जब शाम को आंगन में टेबिल टेनिस खेलते थे, तब वह कभी-कभी उनके साथ खेलता था, जो उस की माँ को बिलकुल पसंद नहीं आता था। वह मुझे कहतीं कि आपके बच्चे बाहर टेनिस खेलते हैं, तो लोगों की निगाह पङती है, उन्हें नज़र लगती है।( तब मेरे बेटों को डेंगु हुआ था) पर मैं नज़र नहीं मानती हुँ।
मिसेज़ गर्ग व्यवहार कुशल व तेजतर्रार महिला थी। बहुत स्पष्ट व खरी बात बोलती थीं । एक बार उनके पैर पर गहरी चोट लगी थी। डॉक्टर ने कुछ दिन का आराम बताया था, पर वह तीन दिन बाद ही बैंक जा रहीं थीं ।
बोली,” हम औरतों को घर पर कहाँ आराम मिलता है? ऑफिस वाले तो आराम दे देंगे, पर घर के काम तो हमें ही करने हैं । जब काम ही करना है तो… ऑफिस की सीट पर, सामने स्टूल पर पैर रखकर आराम से बैठूँगी, चपरासी ही पानी देगा, अन्य सहकर्मी भी मदद कर देंगे। ऑफिस में घर से ज्यादा आराम है।”
हमारे साथ उनके संबंध अच्छे थे। बाहर सङक पर पानी इकठ्ठा न हो, इसके लिए उनकी हमारी कामवाली से झङप हो जाती थी।
वह स्वयं ऊपर के भाग में रहते थे, नीचे के भाग में किराएदार रहते थे। उनके अपने किराएदारों के साथ संबध अच्छे नहीं बन पाते थे, उनके किराएदार टिकते नहीं थे। मकान मालिक अपने किराएदारों को पानी की सुविधा पर्याप्त नहीं देते हैं । जबकि पानी एक अनिवार्य जरूरत है।
हमारे मकान के दाएं तरफ लेखक महोदय रहते थे । हम उन्हें इसी नाम से जानते थे। वैसे वह श्री जैन थे।
श्री जैन किसी समय इंग्लिश के प्रोफेसर रहे थे। पर अब कई वर्षों से स्कूल के विद्यार्थियों के लिए कुंजी या गाइड लिखते थे। एक वर्ष मैंने भी उनके साथ गाइड लिखने का कार्य किया था।
उनके पास राजस्थानी बोर्ड के हिन्दी व सामाजिक विषयों की गाइड लिखने का कार्य आया था। उन्हें इंग्लिश विषय की गाइड भी लिखनी थी। अतः हिन्दी व अन्य विषयों पर गाइड लिखने का कार्य मुझे दे दिया था।यह कार्य मैंने उनसे सीखा था।
इतने वर्षों में यह सीखा है कि किसी काम को न नहीं कहना है। हमारा जीवन सीखने के लिए है, अतः जब मौका मिले सीख लेना चाहिए।
उनकी पत्नी श्रीमती जैन डी. ए. वी.पब्लिक स्कूल में संस्कृत की अध्यापिका थी। उनके एक बेटा था, जिसने दिल्ली विश्वविद्यालय से एम. बी. ए किया था व फिर मुम्बई में नौकरी कर रहा था। उसने अपने माता-पिता की रजामंदी से अपनी पसंद की लङकी से शादी की थी। यह एक अंतर्जातीय विवाह था, जिसमें दोनों पक्षों के परिवार खुशी-खुशी उपस्थित हुए थे।
लेखक महोदय सारे दिन लिखने का काम करते थे।घर से बहुत कम बाहर निकलते थे, घर पर एक कार थी, पर उन्हें चलानी नहीं आती थी, कहीं आने-जाने के लिए ड्राइवर बुलाते थे।बाहर के सभी कार्य श्रीमती जैन ही करती थीं। स्कूल से आकर, घर व बाहर के सभी कार्य करती थीं । अतः मदद के लिए कामवाली बाई रखी थी, जो खाना बनाने में भी सहायता करती थी।पर यह सहायता भी कुछ वर्षों से ही ले रहीं थीं ।
एक बार श्रीमती जैन से मैंने पुछा कि सभी काम स्वयं करने पर कैसा लगता है ? उनका जवाब था,” दैनिक कार्य करने की आदत है, हो जाता है, लेखक महोदय की ओर से कोई दखलंदाजी भी नहीं है। पर कभी खास खरीदारी में चाहती हुँ कि वह साथ हों, उनकी भी सलाह हो।या यूं ही रात के खाने के बाद, साथ चहलकदमी हो। पर वह निकलते ही नहीं है। जब उम्र थी तब कभी जबरदस्ती व जिद कर उन्हें बाहर निकालती थीं । फिर हँसते हुए बोली, अब तो मेरी भी उम्र हो गई है। न शौक रहे, न उमंग।”
एक पुरूष के लिए आसान होता है, अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाङना। क्या एक विवाहित लेखिका अपने कामों से पल्ला झाङ सकती है?
हमारे इस मकान के आस-पास सभी बच्चे पढ़ाई में होशियार व टाॅपर थे।ये सभी बच्चें मिन्टू व मीशु के बराबर थे। मिन्टू – मीशु को खेलते देख, उनके साथ खेलने आते थे। उन्हें खेलने का एक माहौल मिला था। मिंटू – मीशु टाॅपर नहीं थे, हम उनकी प्रगति से संतुष्ट थे।
एस.के. की गुङगांव के डी.सी.ऑफिस में पोस्टिंग हो गई थी। हमें सेक्टर-4 में एक सरकारी क्वार्टर मिल गया था। अब सेतु एक अच्छी कंपनी में नौकरी कर रहा था, मिंटू की ग्रेजुएशन व कंपनी सेक्रेटरी की पढ़ाई चल रही थी। मीशु भी बारहवीं कक्षा की परीक्षा दे रहा था।एक लंबा सफर किराए के मकानों में व्यतीत कर हम सरकारी मकान में पहुंच गए थे।
मौसम बदलते गए
पतझङ में पत्ते झङते रहे,
बसंत मे फूल खिलते रहे,
बारिश में धरती महकती रही,
मुसाफिर अपनी यात्रा करते रहे।