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मासिक अभिलेखागार: मार्च 2021

(नए मकान – नए परिवेश) (भाग-द्वाशीति:) (तेरहवां मकान) (गुडगांव, सेक्टर-7)

28 रविवार मार्च 2021

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कवि- हरिशंकर परसाई

कविता- आखिर पाया तो क्या पाया

जब तान छिङी, मैं बोल उठा

जब थाप पङी, पग डोल उठा

औरों के स्वर में स्वर भर कर

अब तक गाया तो क्या गाया?

जिस ओर उठी अंगुली जग की

उस ओर मुङी गति भी पग की

जग के अंचल से बंधा हुआ

खिंचता आया तो क्या आया?

जो वर्तमान ने उगल दिया

उसको भविष्य ने निगल लिया

है ज्ञान, सत्य ही श्रेष्ठ किंतु

जूठन खाया तो क्या खाया?

अब जिस मकान में आए, यह भी एक बैडरूम था, पर खुला मकान था, आगे-पीछे आंगन थे, कमरे खुले बने थे। ड्राइंगरूम से जाते हुए, एक गैलरी थी, उसके पीछे दरवाजे से आंगन था। आंगन में ही स्नानाघर व शौचालय था।

गैलरी के बीच से एक दरवाजा बैडरूम में खुलता था व बैडरूम का दूसरा दरवाजा किचन में खुलता था।बैडरूम में तीन दरवाजे थे, तीसरा दरवाजा पीछे आंगन में खुलता था, किचन का भी दूसरा दरवाजा ड्राइंगरूम में खुलता था।कमरे में अलमारी थी व छत से जुड़े गहरे स्टोर थे।

गैलरी भी इतनी बङी थी कि वह बच्चों का स्टडी रूम हो गया था। आगे के आंगन के एक तरफ से सीढ़ियाँ ऊपर छत पर जाती थी व सीढ़ियों पर भी एक स्टोरनुमा जगह थी। पिछले मकान में छत के लिए सीढ़ियाँ नहीं थी।यह मकान मुख्य सङक पर ही था, अतः बंधा हुआ नहीं लगता था।

यह मकान एस. के. के एक मित्र का था, दोनों पति- पत्नी सरकारी नौकरी करते थे, वे सेक्टर पांच में अपने दूसरे मकान में रहते थे।इस मकान में धीरे-धीरे मेरे पास ट्यूशन के बच्चे बढ़ गए थे। अतः व्यस्त थी।

हमारे मकान के बाएं तरफ गर्ग परिवार था। श्री गर्ग सरकारी स्कूल में गणित के अध्यापक थे व श्रीमती गर्ग एक सरकारी बैंक में कार्यरत थीं ।वह स्वयं अपनी स्कूटी चलाकर बैंक जाती थी।

गुडगांव के अंदर सरकारी ट्रांसपोर्ट नहीं चलता है। अभी दो-तीन वर्षों में कहीं-कही बसें चलने गई हैं। तब कहीं आने-जाने के लिए सिर्फ रिक्शा का सहारा था, ऑटो भी नहीं चलते थे।अधिकांशतः लोगों के पास अपने दो पहिए वाहन थे। तब अपनी कारों का प्रचलन भी बहुत नहीं था। यहां लङकियाँ व महिलाएँ अपने लिए स्कूटी रखती हैं व अपने सभी कार्य स्कूटी से करती हैं।

मुझे यह पहले गणित के अध्यापक मिले थे, जो कोचिंग नहीं करते थे।वह स्कूल से आकर अपने दो बच्चों के साथ व्यस्त रहते थे। वह और बच्चे दोपहर में ही स्कूल से आ जाते थे व मिसेज गर्ग शाम को आती थीं ।

एक बेटी जिसका आगरा के मेडिकल काॅलेज में एडमिशन हो गया था व बेटा भी बारहवीं में था और इंजिनियरिंग के लिए कोंचिग कर रहा था। एक आदर्श परिवार था।

श्रीमती गर्ग बहुत अनुशासन प्रिय थीं ,वह बच्चों को घर से बाहर निकलने नहीं देती थीं । परंतु बच्चों का भी अपना स्वभाव होता है। माँ के दबाव के बाद भी बेटी चुस्त व वाचाल थी। छुट्टियों में जब हाॅस्टल से आती थी तो उसमें आए परिवर्तन दृष्टिगत होते थे।

बेटा सीधा था, माँ के कहने पर था, घर से बाहर नहीं निकलता था। हमारे बच्चे जब शाम को आंगन में टेबिल टेनिस खेलते थे, तब वह कभी-कभी उनके साथ खेलता था, जो उस की माँ को बिलकुल पसंद नहीं आता था। वह मुझे कहतीं कि आपके बच्चे बाहर टेनिस खेलते हैं, तो लोगों की निगाह पङती है, उन्हें नज़र लगती है।( तब मेरे बेटों को डेंगु हुआ था) पर मैं नज़र नहीं मानती हुँ।

मिसेज़ गर्ग व्यवहार कुशल व तेजतर्रार महिला थी। बहुत स्पष्ट व खरी बात बोलती थीं । एक बार उनके पैर पर गहरी चोट लगी थी। डॉक्टर ने कुछ दिन का आराम बताया था, पर वह तीन दिन बाद ही बैंक जा रहीं थीं ।

बोली,” हम औरतों को घर पर कहाँ आराम मिलता है? ऑफिस वाले तो आराम दे देंगे, पर घर के काम तो हमें ही करने हैं । जब काम ही करना है तो… ऑफिस की सीट पर, सामने स्टूल पर पैर रखकर आराम से बैठूँगी, चपरासी ही पानी देगा, अन्य सहकर्मी भी मदद कर देंगे। ऑफिस में घर से ज्यादा आराम है।”

हमारे साथ उनके संबंध अच्छे थे। बाहर सङक पर पानी इकठ्ठा न हो, इसके लिए उनकी हमारी कामवाली से झङप हो जाती थी।

वह स्वयं ऊपर के भाग में रहते थे, नीचे के भाग में किराएदार रहते थे। उनके अपने किराएदारों के साथ संबध अच्छे नहीं बन पाते थे, उनके किराएदार टिकते नहीं थे। मकान मालिक अपने किराएदारों को पानी की सुविधा पर्याप्त नहीं देते हैं । जबकि पानी एक अनिवार्य जरूरत है।

हमारे मकान के दाएं तरफ लेखक महोदय रहते थे । हम उन्हें इसी नाम से जानते थे। वैसे वह श्री जैन थे।

श्री जैन किसी समय इंग्लिश के प्रोफेसर रहे थे। पर अब कई वर्षों से स्कूल के विद्यार्थियों के लिए कुंजी या गाइड लिखते थे। एक वर्ष मैंने भी उनके साथ गाइड लिखने का कार्य किया था।

उनके पास राजस्थानी बोर्ड के हिन्दी व सामाजिक विषयों की गाइड लिखने का कार्य आया था। उन्हें इंग्लिश विषय की गाइड भी लिखनी थी। अतः हिन्दी व अन्य विषयों पर गाइड लिखने का कार्य मुझे दे दिया था।यह कार्य मैंने उनसे सीखा था।

इतने वर्षों में यह सीखा है कि किसी काम को न नहीं कहना है। हमारा जीवन सीखने के लिए है, अतः जब मौका मिले सीख लेना चाहिए।

उनकी पत्नी श्रीमती जैन डी. ए. वी.पब्लिक स्कूल में संस्कृत की अध्यापिका थी। उनके एक बेटा था, जिसने दिल्ली विश्वविद्यालय से एम. बी. ए किया था व फिर मुम्बई में नौकरी कर रहा था। उसने अपने माता-पिता की रजामंदी से अपनी पसंद की लङकी से शादी की थी। यह एक अंतर्जातीय विवाह था, जिसमें दोनों पक्षों के परिवार खुशी-खुशी उपस्थित हुए थे।

लेखक महोदय सारे दिन लिखने का काम करते थे।घर से बहुत कम बाहर निकलते थे, घर पर एक कार थी, पर उन्हें चलानी नहीं आती थी, कहीं आने-जाने के लिए ड्राइवर बुलाते थे।बाहर के सभी कार्य श्रीमती जैन ही करती थीं। स्कूल से आकर, घर व बाहर के सभी कार्य करती थीं । अतः मदद के लिए कामवाली बाई रखी थी, जो खाना बनाने में भी सहायता करती थी।पर यह सहायता भी कुछ वर्षों से ही ले रहीं थीं ।

एक बार श्रीमती जैन से मैंने पुछा कि सभी काम स्वयं करने पर कैसा लगता है ? उनका जवाब था,” दैनिक कार्य करने की आदत है, हो जाता है, लेखक महोदय की ओर से कोई दखलंदाजी भी नहीं है। पर कभी खास खरीदारी में चाहती हुँ कि वह साथ हों, उनकी भी सलाह हो।या यूं ही रात के खाने के बाद, साथ चहलकदमी हो। पर वह निकलते ही नहीं है। जब उम्र थी तब कभी जबरदस्ती व जिद कर उन्हें बाहर निकालती थीं । फिर हँसते हुए बोली, अब तो मेरी भी उम्र हो गई है। न शौक रहे, न उमंग।”

एक पुरूष के लिए आसान होता है, अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाङना। क्या एक विवाहित लेखिका अपने कामों से पल्ला झाङ सकती है?

हमारे इस मकान के आस-पास सभी बच्चे पढ़ाई में होशियार व टाॅपर थे।ये सभी बच्चें मिन्टू व मीशु के बराबर थे। मिन्टू – मीशु को खेलते देख, उनके साथ खेलने आते थे। उन्हें खेलने का एक माहौल मिला था। मिंटू – मीशु टाॅपर नहीं थे, हम उनकी प्रगति से संतुष्ट थे।

एस.के. की गुङगांव के डी.सी.ऑफिस में पोस्टिंग हो गई थी। हमें सेक्टर-4 में एक सरकारी क्वार्टर मिल गया था। अब सेतु एक अच्छी कंपनी में नौकरी कर रहा था, मिंटू की ग्रेजुएशन व कंपनी सेक्रेटरी की पढ़ाई चल रही थी। मीशु भी बारहवीं कक्षा की परीक्षा दे रहा था।एक लंबा सफर किराए के मकानों में व्यतीत कर हम सरकारी मकान में पहुंच गए थे।

मौसम बदलते गए

पतझङ में पत्ते झङते रहे,

बसंत मे फूल खिलते रहे,

बारिश में धरती महकती रही,

मुसाफिर अपनी यात्रा करते रहे।

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(नए मकान नए परिवेश) (भाग- एहेतुंशतिः) (बारहवां मकान) गुड़गांव सेक्टर-7

24 बुधवार मार्च 2021

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तू, मत फिर मारा मारा(काव्य) (रविन्द्रनाथ टैगोर )

निविङ निशा के अंधकार में,

जलता है ध्रुव तारा,

अरे मूर्ख मन, दिशा भूलकर,

मत फिर मारा-मारा-

तू मत फिर मारा-मारा।

चिर आशा रख, जीवन-बल रख,

संसृति में अनुरक्ति अटल रख,

सुख हो, दुख हो, तू हँसमुख रह,

प्रभु का पकङ सहारा-

तू मत फिर मारा-मारा।

हमारे मकान के बाएं तरफ एक पङोसन से जान-पहचान हुई थी। कुछ लोग स्वयं ही पहल करके दोस्ती का हाथ बढ़ाते हैं व आपकी इच्छा को अनदेखा कर आपसे गहरी जान- पहचान बनाने की पुरज़ोर कोशिश करते हैं।

वह अपने पति की दूसरी पत्नी थी।नाम याद नहीं सुविधा के लिए सुशीला कर देती हुँ।सुशीलाजी के दो सौतेले बच्चे थे। एक बेटा व एक बेटी थे। जब वह विवाह करके इस घर आईं थी, तब वे दोनो बच्चे विवाह योग्य थे। पति चाहते तो गृहस्थी संभालने के लिए बेटे का विवाह कर सकते थे, चूंकि वह एकाकी जीवन नहीं काटना चाहते थे, अतः उन्होंने दूसरा विवाह किया था।सुशीलाजी का भी यह दूसरा विवाह था।

सौतेले बेटा व बेटी का विवाह भी शीघ्र कर दिया था। बेटा अपनी सौतेली माँ से कोई सरोकार नहीं रखता था, बहु सम्मान देती थी।

सुशीला जी अक्सर अपनी रामकहानी सुनाने मेरे पास आ जाती थी। सिर्फ इसी मकान में नही, इसके बाद के मकानों में भी खोजते हुए पहुंच जाती थीं।
सुशीलाजी की सौतेली बेटी मंद बुद्धि थी, यूं देखकर प्रतीत नहीं होता था।
कभी समझ नहीं आया कि विवाह ही हर समस्या का समाधान कैसे समझा जाता है। उनकी इस मंदबुद्धि लङकी के दो विवाह टूट गए थे।

बेटी भी अक्सर मेरे पास आती थी व अपनी ससुरालों की कहानियाँ सुनाती थी।
माँ-बेटी की बातों से यह निष्कर्ष निकला था कि मंदबुद्धि लङकी का विवाह पैसे के बल पर कर तो दिया जाता था पर वह स्थायी नहीं रह पाता था।

एक जवान लङकी की जिम्मेदारी पिता व भाई नहीं ले सकते थे। एक ही बात कही जाती है कि ऐसी लङकी का पूरा जीवन कैसे कटेगा?
अपनी जिम्मेदारी दूसरे के कंधों पर डालना ही एकमात्र उपाय समझा जाता है।पुत्री या बहन के प्रति जब इनका प्रेम इतना ही होता है, तो दूसरा गैर क्योंकर उनसे प्रेम कर सकता है।

सुशीलाजी की भी यही कहानी थी, पहले पति की मृत्यु के बाद वह मायके में भाई भाभी के लिए बोझ थी। वह निःसंतान थी, शिक्षित व तेज तर्रार थी। वह आर्थिक दृष्टि से किसी पर निर्भर नहीं थी। पर एकाकी जीवन कैसे कटेगा? अतः एक ही उपाय रहता है कि विवाह कर दिया जाए।

व्यक्ति अकेले खुश रहता है या किसी के साथ, वाकई खुश रहना भी मनःस्थिति ही है। इस दूसरे विवाह में भी सुशीलाजी खुश नहीं थी, पर जीवन कट रहा था।

भसीन साहब के मकान से निकले थे, इस सपने के साथ कि स्कूल आगे बढ़ेगा। पर श्री श्याम के इस मकान से स्कूल बंद करके निकले थे।
किस्मत और अक्ल कब धोखा दे जाए, पता नहीं लगता है।

मैंने अब एक प्रतिष्ठित स्कूल में नौकरी शुरू कर दी थी।

बारहवां मकान

स्कूल बंद हो गया था, पर मेरा अध्यापन कार्य चल रहा था, समय की गति के साथ हम चल रहे थे, मैं स्कूल जाती थी व ट्यूशन भी चल रहा था। अतः व्यस्तता में अंतर नहीं था, वस्तुतः कार्यप्रणाली में भिन्नता थी। अपनी इस स्कूल की नौकरी में बहुत कुछ नया सीखने को मिल रहा था। प्रतिभावान अध्यापिकाओं के साथ काम करते हुए बारीकी से उनके गुणों को आत्मसात करने का प्रयास भी हो रहा था। किसी के लिए काम करते हुए, अपना काम करने का सुख व स्वतंत्रता के अभाव को महसूस कर रही थी।

अब हम जिस मकान में आए थे, यह भी एक 100गज का मकान था। पर पिछला मकान चूँकि बङा था, दुबारा से छोटे मकान में थे तो यह मकान अधिक छोटा लग रहा था।
इस मकान का नक्शा भी भिन्न था। आगे आंगन फिर एक दरवाजे से किचन खुलती थी और दुसरा दरवाजा ड्राईंगरूम में खुलता था। ड्राइंगरूम से एक छोटी गैलरी अंदर जाती थी, जिसके एक तरफ बैडरूम था व दूसरी तरफ शौचालय व स्नानाघर थे। गैलरी से पीछे का दरवाजा पीछे आंगन में खुलता था।

इस मकान में कोई अलमारी नहीं थी, भसीन साहब के मकान में हमें एक स्टोर मिला था और पिछले श्याम जी के मकान में अलमारियाँ बहुत अच्छी बनी थी व एक छोटा स्टोर भी था। इस मकान में सामान रखने की समस्या थी।

यह मकान एक गली में, गली के अंत में था।गली के दूसरे छोर पर गुर्जरों का मैदान था।गली बंद नहीं थी, दोनों छोर से लोगों की आवाजाही थी।
इस गली में 10-12 मकान थे, सभी पङोसी बहुत अच्छे थे व आपसी मेल-जोल भी अच्छा था।
हमारे मकान के ठीक सामने श्रीमती मेहरा का मकान था। श्रीमती मेहरा अपने दो विवाहित बेटों के साथ रहती थीं । दोनों बहुएँ कामकाजी महिलाएँ थी। बङा बेटा परिवार सहित मकान के ऊपरी भाग में रहता था। उसके एक दस वर्षीय बेटी व एक आठ वर्षीय बेटा था।बच्चे स्कूल के बाद किसी क्रेच में चले जाते थे।शाम को आते थे, फिर ट्यूशन चले जाते थे। बङे बेटा-बहु रात को ही घर आते थे।
छोटे बेटा का विवाह को अभी एक वर्ष भी नहीं हुआ था, वह माँ के साथ नीचे के भाग में रहता था।
श्रीमती मेहरा के पति का देहांत कई वर्ष पहले हुआ था, उन्होंने बहुत मेहनत से अपने बच्चों को योग्य बनाया था।

उन्होंने जीवन में खाली बैठना नहीं सीखा था, अतः बेटों के मना करने पर भी घर से कोई न कोई काम करती थीं ।पङोस के मकान में कुछ लङके किराए पर रहते थे, उन लङकों के लिए वह टिफिन बनाती थीं, अक्सर अचार-पापङ भी बना कर पङोस में सबको देती थीं । स्वभाव बहुत अच्छा था। बहुत सुंदर, सौम्य चेहरा व मुख पर बहुत शांति थी। प्रतिवर्ष पति की पुण्यतिथि पर गरीबों के लिए लंगर करती थीं ।

हमारे मकान के बाएं तरफ के मकान में एक अन्य सचदेवा परिवार रहता था। उनके दो बेटे व एक बेटी थे। बेटी विवाहित थी, पास ही रहती थी। बङे बेटे का विवाह हमारे सामने हुआ था। बङा बेटा योग्य था, उसकी नौकरी अच्छी थी, बहु भी नौकरीपेशा थी। पर छोटा बेटा न कोई स्थायी नौकरी करता था, न किसी व्यापार में मन लगाता था।हर दिन व्यापार बदलता था।

बच्चों के सपने जो भी हो,पर वे यदि दुनियावी तरीके से अपने जीवन को नहीं ढालते हैं , तो माता-पिता परेशान होते हैं ।श्रीमती सचदेवा स्वयं किसी सरकारी स्कूल में पढ़ाती थी। श्री सचदेवा सरकारी विभाग में काम करते थे।

उन्होने अपने बेटे के विवाह से पूर्व अपने मकान का ऊपरी भाग किराए पर दिया था। उनकी किराएदार श्रीमती शर्मा थी, उनके दो छोटे -छोटे बच्चे थे।एक तीन वर्षीय बेटा व एक वर्षीय बेटी ।श्रीमती शर्मा सुंदर, सुशील व सर्वगुणसंपन्न थी।वह उत्तर प्रदेश के एक छोटे शहर से संबंधित थीं।

गुङगांव शहर छोटा होने पर भी आधुनिक है। कई विदेशी कंपनियों के यहाँ होने से लोगों के रहन-सहन व पहनावे में आधुनिकता झलकती है।यहाँ अधिकांशतः लङकियाँ नौकरीपेशा, आत्मनिर्भर हैं ।

श्रीमती शर्मा को आरंभ में इस शहर में तालमेल करने में कठिनाई का अनुभव होता था। वह उस मकान से जाने के बाद भी अक्सर मेरे पास आती थीं, वह नौकरी करना चाहती थीं, मै उन्हें प्रोत्साहित करती थी। तब उन्होंने एन.टी. टी का कोर्स किया था व एक अच्छे स्कूल में नौकरी करने लगी थीं । उनके आत्मविश्वास व पहनावे में अंतर दिखने लगा था।

हमारे मकान के सामने गली का दूसरा या तीसरा मकान श्री गांधी का था, वह गणित के अध्यापक थे, स्कूल में तो अध्यापिकी करते ही थे, घर पर भी सारे दिन कोचिंग करते थे।उनके दो छोटे बच्चे थे।

उनकी पत्नी मधुर स्वभाव की थी। अक्सर मुझसे बहुत बातें करती थीं, कुछ व्यक्तित्व ऐसे होते हैं कि आप उनसे बेझिझक मिल सकते हैं व सिर्फ़ उनसे मिलकर ही, उनके प्रसन्नचित चेहरे को देखकर , आपके मन की समस्त चिन्ताएं दूर हो जाती हैं।
ऐसी थी श्रीमती गांधी, हमेशा खुश रहती थीं, अपने पति पर गर्व व अपने बच्चों की शरारतें सबसे अनमोल थी।एक ऐसी औरत जिसका जीवन व दुनिया यहीं तक सिमटी थी।

क्यों मन करता है कि इन औरतों को जोर से हिला दूं, जगा दूं, उन्हें ले जाकर शीशे के सामने खड़ी कर दूँ और उनसे उनकी पहचान करा दूँ।

अन्य जितने भी परिवार वहाँ रहते थे,सब एक कुटुंब की तरह रहते थे। यहाँ पङोसियों से अच्छा मेल-जोल हो गया था।

हमने उस मकान को छोङा था चूँकि हमें मकान घुटा-घुटा लगता था। इस स्कूल की नौकरी में पहले मेरे सीधे हाथ का, फिर दोनों पैरों का फ्रेक्चर हुआ व फिर गले की तकलीफ के कारण उस स्कूल की नौकरी छोङ दी थी। अब सिर्फ ट्यूशन ही करती थी।

क्या हारा, क्या जीता,

उसका क्या हिसाब करूँ,

परिपाटियों को तोङने में,

ज़ोर तो लगाना होगा,

फिर कुछ अनचाहा टूटेगा भी,

चाहा कुछ छुटेगा भी।

हार-जीत के फेर में, न पङू,

यही अच्छा होगा।

(नए मकान नए परिवेश)(भाग- विशंतिः ) (ग्यारहवां मकान) सेक्टर -7 गुड़गांव

17 बुधवार मार्च 2021

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कविता ( हरिवंशराय बच्चन)

” जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला,

कुछ देर, कहीं पर बैठ, कभी यह सोच सकूँ,

जो किया, कहा, माना, उसमें भला बुरा क्या?

मैं कितना ही भूलूँ भटकू या भरमाऊँ,

है एक कहीं मंजिल, जो मुझे बुलाती है,

कितने ही मेरे पांव पङे, ऊँचे-नीचे,

प्रतिपल वह मेरे पास चली ही आती है,

मुझ पर विधि का आभार बहुत-सी बातों का,

पर मैं कृतज्ञ उसका इस पर सबसे ज्यादा-

नभ ओले बरसाए, धरती शोले उगले,

अनवरत समय की चक्की चलती जाती है।”

मेरा काम अच्छा चल रहा था, अतः अब बङे स्थान की भी आवश्यकता थी।पार्क के ठीक सामने हमें एक बङा मकान मिल गया था।दो बङे कमरे( बैडरूम ) एक बङा हाॅल था।आगे-पीछे बङे आंगन थे।
उस हाॅल को हमने स्कूल बना दिया था।बाहर की तरफ के बैडरूम को छोटा ड्राइंग रूम या स्कूल का ऑफिस बना दिया था।
अब मैं छात्रों के माता-पिता से अलग ऑफिस में मिल सकती थी।हाॅल और ऑफिस के प्रवेश-द्वार अलग- अलग थे।

यह मकान भी सेक्टर-7 में ही था,अतः छात्रों को आने में कठिनाई नहीं थी। फिर हमने रिक्शा भी लगा दी थी। यहाँ भी छात्रों में वृद्धि हो रही थी। हम बच्चों को सामने पार्क में खिलाने ले जाते थे।यहाँ हमने फैंसी ड्रेस शो व खेल दिवस भी किया था।
हमारे मकान-मालिक श्री श्याम न्यू काॅलोनी में रहते थे, उन्हें हमारे द्वारा उस मकान में स्कूल चलाने से कोई एतराज नहीं था।

लेकिन फिर हुडा(हरियाणा ऑथॉरिटी) की ओर से यह नियम बनाया गया कि रिहायशी घरों से कोई व्यापारिक कार्य नहीं किया जा सकता है। घर के समीप ही एक अन्य प्री- नर्सरी स्कूल की संचालिका को भी हमारे स्कूल से परेशानी थी, जबकि उसका स्कूल कई सालों से अच्छा चल रहा था व हमारे स्कूल से उसके लाभ में कोई अंतर भी नहीं पङा था। पर उसके मन की शंका और भय ने उसे हमारे विरूद्ध कर दिया था। हमारे लिए भी एक सीख थी, कोई भी व्यापारिक काम करने पर प्रतिद्वंद्वी भी मिलते हैं।

उसने श्री श्याम को भङकाया व हुड्डा का नियम भी था। अतः श्री श्याम ने हमसे रातोंरात मकान खाली करा दिया था। हम लगभग 2साल उस मकान में रहे थे।

हमारे इस मकान के साथ दाएं मकान में सचदेवा परिवार रहता था और उनके साथ के मकान ( जो उस लाइन का कोने का मकान था) में वशिष्ठ परिवार रहता था। मैं वशिष्ठ परिवार की सदा आभारी हूँ ।

जब मैंने अपने प्री- स्कूल की नींव रखी थी। तब आरंभ में मकान पर, स्कूल के नाम का एक बोर्ड लगा दिया था। आस-पास सभी स्थानों में स्कूल के पर्चे बांट दिए थे। कुछ खिलौने और सामान लगा कर, बच्चों के लिए एक दरी बिछा दी थी।
अभी यह सब प्रबंध किए, 15 दिन हो गए थे, पर कोई एडमिशन तो दूर की बात, कोई पता करने भी नहीं आया था।मेरा स्कूल वीरान पङा था।

वशिष्ठ साहब की छोटी बहु घर पर ही एक प्री नर्सरी स्कूल चलाती थी।
लेकिन वह आंगनबाड़ी के प्रशासन विभाग में नौकरी भी करती थी।स्कूल के लिए उसने एक आया व एक अध्यापिका रखी थी।स्कूल ठीक चल रहा था, पर प्रबंधन में कठिनाई आ रही थी।अतः उनके मन में स्कूल बंद करने की इच्छा हो रही थी।सेशन का आरंभ था, उनके पास स्कूल में सिर्फ पांच छात्र थे।

उन्हें पता लगा कि हमने स्कूल खोला है, तब उनकी बहु ( नाम याद नहीं, शायद किरण) मुझसे मिलने आई थी। उसने अपने स्कूल का सब सामान व वे पाँच छात्र मुझे देने की पेशकश की थी।

स्कूल खोलने के विचार के साथ, मैंने स्कूल प्रशासन, प्रबंधन व शिक्षण शैली पर विचार किया था, उसकी ट्रेनिंग भी ली थी। परंतु व्यापारिक गुणों को अभी सीखना था।

किरण का आत्मविश्वासी व प्रभावशाली व्यक्तित्व देख, एक बार मैं असमंजस में थी, अपने आत्मविश्वास पर भी एक बार दृष्टिपात किया था।

यह व्यापारिक लेन- देन था, पर साथ ही यह भी तुरंत अहसास हुआ कि यह ईश्वरीय कृपा बरसी है।अतः मन में यह विचार बना लिया था कि यह मौका हाथ से नहीं जाने दूंगी।

अपने आत्मविश्वास पर विश्वास नहीं, अपने मन की सच्चाई पर विश्वास था।कहा जाता है कि ‘ईश्वर भी उनकी मदद अवश्य करता है, जो अपनी मदद स्वयं करते हैं ।’
सभी लेन- देन शांतिपूर्वक हुआ था और मेरे स्कूल में उन ईश्वरीय प्रदत पांच बच्चों ने अपने पवित्र कदम रख कर मेरे स्कूल को रौनक किया था।

अब छात्रों के लिए दरी के स्थान पर कुर्सियाँ थीं । खेलने के लिए झूले थे। उनके स्कूल की आया उषा ने मेरे साथ काम करना स्वीकार किया था ।आज हम उनके पङोसी थे, वे हमारे स्कूल की प्रगति देख बहुत खुश थे।

किरण की जिठानी दुबई में नौकरी करती थी, पर जेठजी की नौकरी यहीं किसी सरकारी विभाग में थी, वे यहीं रहते थे।पत्नी का तबादला जब दुबई हुआ तो उसकी उन्नति में बाधा नहीं बने थे।जेठजी साल में एक बार दुबई जाते थे व एक बार पत्नी आ जाती थी, उनके दो बेटियाँ थी, जो माँ के साथ रहती थी।बाद में पत्नी का स्थानांतरण भारत हो गया था।
किरण के दो बेटे थे, उस समय वे दोनो 7-8 वर्ष के थे। किरण अपने सास-ससुर के साथ बहुत खुश थी।

सचदेवा परिवार के मकान की दीवार और हमारी दीवार एक थी।वहीं खङे हो कर हम दोनों पङोसनें बातें करते थे।
इस मकान में दो भाईयों के परिवार रहते थे। बङे भाई के तीन बेटियाँ थी, वह नीचे के भाग में रहते थे।छोटा भाई मकान के ऊपरी भाग में रहता था। उसके एक बेटा, एक बेटी थे।
बहुत पहले मेरी जान-पहचान देवरानी रेखा सचदेवा से हुई थी, जब हम एक ही स्कूल में पढ़ाते थे। इस समय भी वह किसी स्कूल मेें संस्कृत की अध्यापिका थी।

रेखा के पति किसी हरियाणवी सरकारी विभाग मेें काम करते थे।रेखा शाम को ट्यूशन भी पढ़ाती थी। उसका ट्यूशन का काम भी अच्छा चलता था।ईश्वरीय कृपा से उसके जीवन में मेहनत थी तो उसका फल भी अच्छा था।

परंतु उनकी जिठानी की कहानी उसके विपरीत थी। इस मकान में रहते हुए, मेरी जिठानी श्रीमती सचदेवा से अच्छी घनिष्ठता हो गई थी।मैं अक्सर उनसे उनकी संघर्ष की कहानी सुनती थी।

पति-पत्नी मेहनती थे, पर कभी-कभी किस्मत देर से फल देती है। उनके पति ने कई काम किए थे, पर कभी सफल रहे, पर अधिकांशतः असफलता देखनी पङी थी। किसी न किसी कारण काम ठप्प हो जाते थे। कभी किसी से धोखा मिला या कभी बाजार में मंदी आ गई थी।

दोनों भाइयों में छोटा भाई पढ़ाई में होशियार था, अतः सरकारी नौकरी प्राप्त कर ली थी। बङा भाई इस श्रेत्र में भी सफल नहीं हुए थे।अतः परिवार को अक्सर तंगी के दिन देखने पङे थे।

श्रीमती सचदेवा पूर्णतः घरेलू महिला थी। शिक्षा भी सामान्य ली थी। ससुराल दिल्ली की थी,ससुर तो अभी भी दिल्ली के अपने मकान में रहते थे और गुड़गांव का यह मकान भी ससुर का था।

लेकिन जब हम उनके पङोसी बने थे, उनकी स्थिति बेहतर थी। श्री सचदेवा कोई प्राइवेट नौकरी कर रहे थे, श्रीमती सचदेव क्रेच चलाती थी, और क्रेच अच्छा चल रहा था। वह हिन्दी माध्यम के छोटी कक्षा के बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती थीं।बङी बेटी ने नर्सिंग का कोर्स किया था, अब वह एक अस्पताल में नर्स का काम करती थी।

पर वह उन दिनों की बात बताती थी जब उनके बच्चे छोटे थे। वह इतनी घरेलू थी कि स्वयं कोई काम करने का विचार भी मन में नहीं आया था।फिर मध्यम वर्ग की महिला कोई भी काम करने से पहले दुनिया की सोचती है। ससुराल व मायके के रिश्तेदार संपन्न थे।

पर संसार में सबका जीवन भिन्न होता है, दूसरों की परवाह करके अपने जीवन का उद्धार नहीं कर सकते हैं।

इस बात की शिक्षा उन्हें अपनी एक पङोसन से मिली थी। जब तंगी के एक दिन, वह बहुत परेशान थी, अपनी छोटी बेटी के लिए घर में दूध भी नहीं था।उस समय उस पङोसन ने उनकी आर्थिक मदद तो करी ही थी, पर साथ ही स्वयं अपना कोई काम करने का सुझाव भी दिया था।
उसने उनके स्वाभिमान व आत्मविश्वास को जगाया था व हौसला दिया कि वह स्वयं भी कोई काम कर सकती हैं ।

उन्होंने मुझे बताया,” सबसे पहले मैंने अपने अंदर की झिझक को दूर किया था, व क्रेच खोला तथा सिलाई का काम भी शुरू किया। उसके बाद पति का काम चला या नहीं, मेरे बच्चों को खाने की कमी नहीं हुई है।”

यह उनकी मेहनत का फल था कि तीनों बेटियाँ पढ़ाई में होशियार थी। मंझली बेटी इंजीनियर बनी व एक अच्छी कंपनी मेें काम करती थी। सबसे छोटी बेटी सेतु के बराबर थी, उसने एम. सी. ए. किया था व साफ्टवेयर इंजीनियर बनी थी।

तीनों बेटियों के विवाह भी बिना दहेज़ व सादगी से हुए थे।तीनों बेटियों को अच्छे जीवन साथी मिले है।
अब बहुत समय से मुलाकात नहीं हुई है,पर कुछ वर्ष पहले अपनी नातिन के साथ मिलने आई थीं ।

ईश्वर ने सबकी किस्मत में अच्छा लिखा होता है, उसे पहचानना ही हमारी सिद्धि है।
श्रीमती सचदेवा ने बहुत कठिनाइयों के साथ अपनी बेटियों को उच्च शिक्षित किया था, कठिनाइयों के बावजूद उनकी शिक्षा में रूकावटें नहीं आने दी थी। जब आप लगन से कर्म करते हैं तो सहायता भी आती है।

भविष्य के गर्त में क्या छिपा होता है? हमें पता नहीं होता है। हम भविष्य के काल्पनिक भय को सच मानकर अपने वर्तमान कर्म को प्रभावहीन बना देते हैं ।

घरेलू महिलाएँ जो घरेलू आर्थिक कार्य करके, अपने परिवार को आर्थिक मजबूती देती हैं , उनका कोई सरकारी रिकॉर्ड नही मिलता है। दुख की बात यह है कि उनके आत्मसम्मान को भी सम्मान नहीं मिलता है, दया अवश्य मिल जाती है ।

दोनों भाईयों ने मिलकर उस मकान को बेच दिया था।श्री व श्रीमती सचदेवा ने उस पैसे से एक छोटा मकान खरीद लिया था, व कुछ पैसा बैंक में डिपोजिट करके अपना भविष्य सुनिश्चित कर लिया था।

जो बीत गया वो याद नहीं,

पर मीठा सुख वो देता है,

वो रंगबिरंगा अतीत था,

जो आज भी मन को,

रंगीन कर देता है।

(नए मकान नए परिवेश) ( भाग-नवदश) (दसवां मकान) गुड़गांव सेक्टर -7

10 बुधवार मार्च 2021

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सुख-दुख (सुमित्रानंदन पंत)

‘मैं नहीं चाहता चिर-सुख,

मैं नहीं चाहता चिर-दुख,

सुख दुख की खेल मिचौनी

खोले जीवन अपना मुख।’

भसीन सा. के इस मकान के ठीक सामने राजपाल क्लोथ हाउस था। अपने मकान में ही राजपाल साहब ने अपनी कपङों की दुकान खोली थी। वह किसी सरकारी विभाग में काम करते थे। दिन में उनकी पत्नी व शाम को पति- पत्नी मिल कर दुकान संभालते थे। उनके तीन बेटे थे, बङा बेटा बारहवीं में पढ़ रहा था, उसका मन पढ़ाई में नहीं था। उसी के भविष्य को ध्यान में रख कर, यह दुकान खोली गई थी। दुकान में भीङ होने पर तीनों बेटे भी काम संभालते थे।काॅलोनी में व घर पर ही दुकान होने के कारण आस-पड़ोस में सबको लाभ था।अतः देर रात तक ग्राहक आते थे।

शुरू-शुरू में मैंने उस परिवार को देखा तो बङा अज़ीब लगता था, क्योंकि किसी भी बेटे की सूरत अपनी माँ से नहीं मिलती थी। वह उस परिवार से भिन्न दिखती थीं ।उनकी भाषा में न पंजाबी लहज़ा था न स्पष्ट हिंदी थी । यही समझ आया कि अंर्तजातिय विवाह है।

शीघ्र ही पता लगा कि वह बच्चों की दूसरी माँ है। कुछ वर्ष पहले बच्चों की माँ की मृत्यु
हो गई थी। गृहस्थी व बच्चों की देखभाल के लिए राजपाल साहब ने दूसरी शादी कर ली थी। बङा बेटा तो उन्हें माँ मानने को तैयार नहीं था। पर माँ तन-मन से बच्चों व घर की देखभाल करती थी।

मुझे उस परिवार का बहुत सहारा था।छः साल के मीशु को सिर पर चोट लगी थी।खून बह रहा था।वह स्कूल का समय था, मेरे स्कूल में भी बच्चें पढ़ रहे थे।सेशन का आरंभ था, अतः सिर्फ आठ बच्चे थे। उस दिन आया नहीं आई थी। टी.वी. चलाकर, बच्चों को टी. वी. के सामने बिठाया और श्रीमती राजपाल से संभालने के लिए प्रार्थना करी थी।फिर उन पर स्कूल के बच्चे व घर छोङ ,मैं मीशु को डाक्टर के पास ले गई थी। मीशु के सिर पर टाँके आए थे, मैं लगभग एक घंटे बाद लौटी थी।अपने स्कूल के बच्चों व घर की बहुत चिंता हो रही थी।पर श्रीमती राजपाल ने सब संभाला था।

एक दिन स्कूल की एक नन्हीं छात्रा मलाईका झूले से गिर गई थी, उसके भी सिर पर चोट लगी थी, खून बह रहा था। तब मेरे स्कूल में 25 छात्र थे।मेरी सहायता के लिए एक आया व एक अध्यापिका थी।उनकी सहायता से मलाईका को प्राथमिक चिकित्सा दी थी। श्री मति राजपाल ने तुरंत अपने बङे बेटे को मेरे पास भेज दिया था। उसके स्कूटर पर मैं मलाईका को उसके घर छोङने गई थी। उनका बेटा मलाईका को डाॅक्टर के पास ले जाने के लिए भी तैयार था।

एस.के. का स्थानांतरण चंडीगढ़ हो गया था, इस बार हम चंडीगढ़ नहीं गए, वह अकेले ही गए थे।तब मुझे राजपाल परिवार का बहुत सहारा था।उस परिवार ने मुझे बहुत सम्मान दिया था। बाद में भी श्रीमती राजपाल कहीं मिलती थी, तब बहुत प्रेम व मान देती थीं।
अब कई वर्ष बीत गए हैं, तीनों बेटों ने अपने पिता से मेहनत करना सीखा है, तीनों के अपने पृथक पृथक काम हैं । तीनों बेटों के विवाह के बाद, राजपाल साहब का भी स्वर्गवास हो गया है। माँ अपने सबसे छोटे बेटे के पास रहती है।

हमारे मकान मालिक भसीन साहब अक्सर आते और देख जाते कि मेरा काम कैसा चल रहा है। हमसे पहले उन्होंने अपना यह मकान किसी को किराए पर नहीं दिया था। पर हमारी प्रार्थना पर भसीन साहब ने अपने बङे भाई की अनुमति लेकर, हमें यह मकान किराए पर दिया था।

भसीन साहब की पत्नी की इच्छा, मकान किराए पर देने की नहीं थी।हर वर्ष भसीन साहब हमारा किराया बढ़ा देते थे, मेरा काम अच्छा चल रहा था, अतः मैं यह मकान खाली करना नहीं चाहती थी, चुनांचे वह जितना चाहते थे, हम उतना किराया बढ़ा देते थे।

भसीन साहब के अपनी कोई संतान नहीं थी। भसीन साहब पाँच भाई थे, सभी भाईयों में आपस में बहुत प्रेम व एकता थी। इस सेक्टर में इस खानदान का बहुत सम्मान था, सभी भाई प्रतिष्ठित पदों पर आसीन थे, सभी भाई एक ही मकान में रहते थे, परंतु जब भाईयों के बच्चे बङे होने लगे तब मकान छोटा पङने लगा था।

इन भाईयों की एक छोटी बहन भी थी, जिसे बचपन से हड्डियों की बिमारी थी, जिस कारण अविवाहित थी। फिर उनकी माँ का स्वर्गवास हो गया था, कुछ समय बाद बहन की भी मृत्यु हो गई थी। तब भाईयों ने अलग -अलग होने का फैसला लिया था।

भसीन साहब की कुछ वर्ष पहले एक गंभीर सङक दुर्घटना हुई थी, उनकी कुछ समय के लिए याददाश्त चली गई थी। अब पुर्णतः स्वस्थ थे, पैर में थोङी लचक रह गई थी।
जब भाई अलग होने लगे, तब फैसला लिया गया कि भसीन साहब के साथ उनका सबसे छोटा भाई रहेगा।

अब भसीन साहब ने अपने छोटे भाई के लिए इस मकान के ऊपर एक मंजिल बनानी शुरू की थी और हमें भी मकान खाली करने का नोटिस दिया गया था। यूं इस खानदान से हमारे अच्छे संबंध बन गए थे। उनकी मंजिल पूरी होते ही हम शिफ्ट हो गए थे।
बाद में श्रीमति भसीन ने उस कमरे में अपना क्रेच खोला था।

रास्ते बदल रहे थे,

मंजिल की तलाश में,

राहगीर भटकते रहे,

कारवाँ चलता रहा,

मुसाफिर बदलते रहे।

(नए मकान नए परिवेश) (भाग-अष्टदश) (दसवां मकान) गुड़गांव सेक्टर -7

06 शनिवार मार्च 2021

Posted by शिखा in Uncategorized

≈ 4s टिप्पणियाँ

कविता (बंधन-मैथिलीशरण गुप्त)

सखे,मेरे बंधन मत खोल,

आप बंधा हुँ, आप खुलूँ मैं,

तू न बीच में बोल।

जूझूंगा जीवन अनंत है,

साक्षी बन कर देख,

और खींचता जा तु मेरे,

जन्म- कर्म की रेख।

सिद्धि का है साधन ही मोल,

सखे मेरे बंधन मत खोल।

मिसेज बाली के मकान के सामने मीनु रहती थी। मीनु हंसमुख, खुशदिल लड़की थी। आठवीं कक्षा में पढ़ती थी।उसकी माँ ने कहा कि मैं उसे गणित पढ़ा दूं।मुझे ट्यूशन का कार्य आरंभ करना था, पर आठवीं कक्षा का गणित, हरियाणा बोर्ड की पढ़ाई, कुछ संकोच था, फिर सोचा पढ़ाने से पहले, स्वयं भी पढ़ लूंगी। उन्हें भी अपनी द्वविधा स्पष्ट कर दी थी।पर उन्होंने मुझ पर विश्वास प्रकट किया, कैसे? पता नहीं।

मीनु पढ़ाई में होशियार थी, अपना कक्षा कार्य पूर्ण करती थी। उसकी अध्यापिका कक्षा में पाठ जल्दी- जल्दी खत्म कर देती थी, जिस कारण छात्राओं को गणित के पाठ समझने में कठिनाई होती थी। उसने मेरे पास पढ़ने आना शुरू किया और मेरा ट्यूशन कार्य आरंभ हुआ था। हमने मिलकर गणित की समस्याओं को सुलझाना शुरू किया था।

मीनु की दो बङी बहनें व एक बङा भाई था। उसका बङा भाई उससे एक वर्ष बङा था । वह हमेशा अपने भाई की प्रशंसा करती थी। स्वभावतः लङकियाँ बातुनी होती हैं, मेरी छात्राएँ अपने मन का हाल मुझे नि:संकोच कह देती थीं । मीनु भी बहुत उत्साही लङकी थी, अपनी हर बात व महत्वकांक्षा व्यक्त करती थी।

उसकी माँ व बहनों का बहुत अच्छा स्वभाव था। पिता किसी सरकारी विभाग में कार्य करते थे। वेतन परिवार के खर्चों के अनुसार कम था और मीनु अपनी पारिवारिक आर्थिक स्थिति के प्रति संवेदनशील थी। फिर भी परिवार में खुशनुमा रौनक थी।

इस नई जगह में इस परिवार का मुझे बहुत सहारा था।जब हमने यह मकान छोङा था,तब भी अक्सर मीनु मेरे पास आती थी। कुछ वर्षों बाद मुझे पता चला कि मीनु के भाई की एक सङक दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी। कुछ समय से मीनु से भी मुलाकात नहीं हुई थी। पर वह मुझे सपने में दिख रही थी, मुझे उसकी याद आ रही थी, सोचा वह इस समय बहुत दुखी है। मैं शोक प्रकट करने उनके घर गई थी।

घर पर नीरव सन्नाटा था, जबकि माता-पिता व दोनों बङी बहने थी, मुझ से बात भी कर रहे थे।उनका दु:ख गहन था। मैंने मीनु के लिए पुछा,” वह मुझ से मिलने क्यों नहीं आई?” वे हैरानी से बोले,” आपको कैसे नहीं पता, एक वर्ष पुर्व उसकी भी असामयिक मृत्यु हो चुकी है व उसके पंद्रह दिन बाद उसकी दादी का भी स्वर्गवास हो गया था।”
वह नीरव सन्नाटा दो जवान व एक उम्र दराज मौतों का था। दुःख गहन ही नहीं था उसमें जीवन के प्रति स्तब्धता भी थी।

उसके बाद मीनु सपने में नज़र नहीं आई। मैं समझ नहीं पाई कि मैं कहाँ व्यस्त थी कि उसका जाना जान नहीं पाई थी। मीनु आज भी मुझे बहुत याद आती है।

हमें श्री भसीन का दो कमरों का 100 गज में बना मकान मिल गया था।स्वतंत्र मकान था व भसीन साहब को उनके मकान में मेरा अपना काम करने से कोई परेशानी नहीं थी।

हम उन्हीं दो कमरों में से एक कमरे को स्कूल व ड्राइंगरूम की तरह उपयोग में लाते थे।आगे-पीछे खुले आंगन व बेङे थे। इस मकान के पीछे आंगन में भी गेट था, यह उस गली का कोने का मकान था।दो तरफ गेट से लाभ था, तो नुक्सान भी था। लाभ था कि स्कूल के बच्चे व मेहमान आगे के गेट से आते थे और हमारे बच्चे पीछे के गेट से आते थे।
पर मेरे बच्चे अक्सर स्कूल से आते हुए या वहाँ खेलते हुए पीछे का गेट बंद करना भूल जाते थे, जिस कारण बेटे की नई साईकिल चोरी हो गई थी।

पीछे के बेङे से ही सीढ़ियाँ छत पर जाती थी। छत पर सर्दियों में धूप का व गर्मियों में सांझ की ठंडक का आनंद मिलता था। बिजली न होने पर छत पर ही सो जाते थे।

इस मकान में लगभग 4 साल रहे थे और इन चार सालों में मेरा नन्हा विद्यालय बढ़ने लगा था। मैं बहुत व्यस्त रहती थी।यह हमारा यादगार मकान बना था।

भसीन साहब के इस मकान के साथ का मकान श्रीमती गांधी का था। श्रीमती गांधी गुजराती नहीं थी, महात्मा गांधी को ही हम जानते हैं तो सभी गांधी को हम गुजराती समझ लेते हैं । श्रीमती गांधी हरियाणवी सिंधी ही थी, चूंकि दिल्ली में ही पली बढ़ी थी तो भाषा हरियाणवी कम थी। यह बात इंगित करने की है कि हिंदूस्तान में अलग -अलग प्रांतों में व जातियों में कुछ उपनाम या कुलनाम एक समान पाए जाते हैं।

श्री मति गांधी जितनी खुशमिजाज थी उनके पति उतने ही खुश्क स्वभाव के व्यक्ति थे।कभी उनके चेहरे पर मुस्कान नहीं देखी थी।

पति-पत्नी दोनों सरकारी नौकरी करते थे। श्रीमती गांधी दिल्ली यूनिवर्सिटी की पढ़ी हुई थी और दिल्ली के ही किसी सरकारी विभाग में काम करती थी। उनके पति गुड़गांव में ही किसी सरकारी विभाग में थे।

मिसेज गांधी का यह नया मकान था, दो वर्ष पहले ही इस मकान में आए थे। इस मकान में आते ही उनके बचपन की पैर की चोट उभर आई थी। तकलीफ इतनी बढ़ी थी कि उनके दो ऑपरेशन भी हो गए थे। फिर भी नौकरी नहीं छोड़ी थी। कष्ट तो आते-जाते हैं, हिम्मत और हौसले छोङे नहीं जाते हैं ।

मैंने एक बार कहा,”आपके अपने मकान में आते ही तकलीफें शुरू हुई हैं।”
उन्होंने तुरंत मुझे रोक दिया और बोली, ” मेरी तकलीफों के लिए मेरे मकान को दोष न दें । अपने मकान में आना तो लाभप्रद रहा था, पहले किराए के मकान में रहते थे तो हज़ार दिक्कतें थीं ।यह कष्ट तो आना ही था, पर अपने मकान में आया तो सुविधाजनक रूप से इस कष्ट को संभाल पा रही हुँ।”

यह सकारात्मक सोच बहुत कम लोगो की होती है। वह हमेशा खुश रहती थी।
वह निःसंतान थीं । एक मकान छोङकर उनके देवर रहते थे। उनके बच्चों के साथ ही वह अपना मन लगाती थीं ।

अपने मकान को बच्चे की तरह संभालती थीं। ऑफिस से लौटते ही सबसे पहले झाङू उठाकर बाहर बेङे को साफ करती थीं । शनिवार को मशीन लगती, सुबह-सुबह उनके कपङे धुलने शुरू हो जाते थे। कामकाजी स्त्रियाँ कामवाली बाई नहीं लगाती हैं कि इन बाईयों के चक्कर में काम नहीं होते हैं ।

कुछ भुला हुआ जब आया याद, मन हुआ कितना उदास,
कुछ क्षण खुशी के थे,
संजो के रखे थे, मन में,
गुज़रे ज़माने की खुशी,
क्यों करती मन उदास,
यह जीवन एक नदी है,
यह तो बहती जाएगी,
अपने साथ सुख- दुख बहाती जाएगी,
तु भी निर्बाध गति से तैर,
मंजिल को है अभी देर।

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