सुख-दुख (सुमित्रानंदन पंत)

‘मैं नहीं चाहता चिर-सुख,

मैं नहीं चाहता चिर-दुख,

सुख दुख की खेल मिचौनी

खोले जीवन अपना मुख।’

भसीन सा. के इस मकान के ठीक सामने राजपाल क्लोथ हाउस था। अपने मकान में ही राजपाल साहब ने अपनी कपङों की दुकान खोली थी। वह किसी सरकारी विभाग में काम करते थे। दिन में उनकी पत्नी व शाम को पति- पत्नी मिल कर दुकान संभालते थे। उनके तीन बेटे थे, बङा बेटा बारहवीं में पढ़ रहा था, उसका मन पढ़ाई में नहीं था। उसी के भविष्य को ध्यान में रख कर, यह दुकान खोली गई थी। दुकान में भीङ होने पर तीनों बेटे भी काम संभालते थे।काॅलोनी में व घर पर ही दुकान होने के कारण आस-पड़ोस में सबको लाभ था।अतः देर रात तक ग्राहक आते थे।

शुरू-शुरू में मैंने उस परिवार को देखा तो बङा अज़ीब लगता था, क्योंकि किसी भी बेटे की सूरत अपनी माँ से नहीं मिलती थी। वह उस परिवार से भिन्न दिखती थीं ।उनकी भाषा में न पंजाबी लहज़ा था न स्पष्ट हिंदी थी । यही समझ आया कि अंर्तजातिय विवाह है।

शीघ्र ही पता लगा कि वह बच्चों की दूसरी माँ है। कुछ वर्ष पहले बच्चों की माँ की मृत्यु
हो गई थी। गृहस्थी व बच्चों की देखभाल के लिए राजपाल साहब ने दूसरी शादी कर ली थी। बङा बेटा तो उन्हें माँ मानने को तैयार नहीं था। पर माँ तन-मन से बच्चों व घर की देखभाल करती थी।

मुझे उस परिवार का बहुत सहारा था।छः साल के मीशु को सिर पर चोट लगी थी।खून बह रहा था।वह स्कूल का समय था, मेरे स्कूल में भी बच्चें पढ़ रहे थे।सेशन का आरंभ था, अतः सिर्फ आठ बच्चे थे। उस दिन आया नहीं आई थी। टी.वी. चलाकर, बच्चों को टी. वी. के सामने बिठाया और श्रीमती राजपाल से संभालने के लिए प्रार्थना करी थी।फिर उन पर स्कूल के बच्चे व घर छोङ ,मैं मीशु को डाक्टर के पास ले गई थी। मीशु के सिर पर टाँके आए थे, मैं लगभग एक घंटे बाद लौटी थी।अपने स्कूल के बच्चों व घर की बहुत चिंता हो रही थी।पर श्रीमती राजपाल ने सब संभाला था।

एक दिन स्कूल की एक नन्हीं छात्रा मलाईका झूले से गिर गई थी, उसके भी सिर पर चोट लगी थी, खून बह रहा था। तब मेरे स्कूल में 25 छात्र थे।मेरी सहायता के लिए एक आया व एक अध्यापिका थी।उनकी सहायता से मलाईका को प्राथमिक चिकित्सा दी थी। श्री मति राजपाल ने तुरंत अपने बङे बेटे को मेरे पास भेज दिया था। उसके स्कूटर पर मैं मलाईका को उसके घर छोङने गई थी। उनका बेटा मलाईका को डाॅक्टर के पास ले जाने के लिए भी तैयार था।

एस.के. का स्थानांतरण चंडीगढ़ हो गया था, इस बार हम चंडीगढ़ नहीं गए, वह अकेले ही गए थे।तब मुझे राजपाल परिवार का बहुत सहारा था।उस परिवार ने मुझे बहुत सम्मान दिया था। बाद में भी श्रीमती राजपाल कहीं मिलती थी, तब बहुत प्रेम व मान देती थीं।
अब कई वर्ष बीत गए हैं, तीनों बेटों ने अपने पिता से मेहनत करना सीखा है, तीनों के अपने पृथक पृथक काम हैं । तीनों बेटों के विवाह के बाद, राजपाल साहब का भी स्वर्गवास हो गया है। माँ अपने सबसे छोटे बेटे के पास रहती है।

हमारे मकान मालिक भसीन साहब अक्सर आते और देख जाते कि मेरा काम कैसा चल रहा है। हमसे पहले उन्होंने अपना यह मकान किसी को किराए पर नहीं दिया था। पर हमारी प्रार्थना पर भसीन साहब ने अपने बङे भाई की अनुमति लेकर, हमें यह मकान किराए पर दिया था।

भसीन साहब की पत्नी की इच्छा, मकान किराए पर देने की नहीं थी।हर वर्ष भसीन साहब हमारा किराया बढ़ा देते थे, मेरा काम अच्छा चल रहा था, अतः मैं यह मकान खाली करना नहीं चाहती थी, चुनांचे वह जितना चाहते थे, हम उतना किराया बढ़ा देते थे।

भसीन साहब के अपनी कोई संतान नहीं थी। भसीन साहब पाँच भाई थे, सभी भाईयों में आपस में बहुत प्रेम व एकता थी। इस सेक्टर में इस खानदान का बहुत सम्मान था, सभी भाई प्रतिष्ठित पदों पर आसीन थे, सभी भाई एक ही मकान में रहते थे, परंतु जब भाईयों के बच्चे बङे होने लगे तब मकान छोटा पङने लगा था।

इन भाईयों की एक छोटी बहन भी थी, जिसे बचपन से हड्डियों की बिमारी थी, जिस कारण अविवाहित थी। फिर उनकी माँ का स्वर्गवास हो गया था, कुछ समय बाद बहन की भी मृत्यु हो गई थी। तब भाईयों ने अलग -अलग होने का फैसला लिया था।

भसीन साहब की कुछ वर्ष पहले एक गंभीर सङक दुर्घटना हुई थी, उनकी कुछ समय के लिए याददाश्त चली गई थी। अब पुर्णतः स्वस्थ थे, पैर में थोङी लचक रह गई थी।
जब भाई अलग होने लगे, तब फैसला लिया गया कि भसीन साहब के साथ उनका सबसे छोटा भाई रहेगा।

अब भसीन साहब ने अपने छोटे भाई के लिए इस मकान के ऊपर एक मंजिल बनानी शुरू की थी और हमें भी मकान खाली करने का नोटिस दिया गया था। यूं इस खानदान से हमारे अच्छे संबंध बन गए थे। उनकी मंजिल पूरी होते ही हम शिफ्ट हो गए थे।
बाद में श्रीमति भसीन ने उस कमरे में अपना क्रेच खोला था।

रास्ते बदल रहे थे,

मंजिल की तलाश में,

राहगीर भटकते रहे,

कारवाँ चलता रहा,

मुसाफिर बदलते रहे।