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मासिक अभिलेखागार: अप्रैल 2021

नए मकान- नए परिवेश ( भाग-चतुर्विशंति:) ( (पंद्रहवां मकान)

19 सोमवार अप्रैल 2021

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घर मेरा है? (माखनलाल चतुर्वेदी )

क्या कहा कि यह घर मेरा है?

जिसका रवि उगे जेलों में,

संध्या होवे वीरानों में,

उसके कानों में क्या कहने

आते हो? यह घर मेरा है?

हो मुकुट हिमालय पहनाता,

सागर जिसक पद धुलवाता,

यह बंधा बेङियों में मंदिर,

मस्जिद, गुरूद्वारा मेरा है।

क्या कहा कि यह घर मेरा है?

मुझे इस स्कूल के बच्चों के साथ समय बिताना अच्छा लग रहा था।मैं इन बच्चों की मौलिक प्रतिभा को विकसित करना चाहती थी।
कुछ बच्चे चित्रकारी अच्छी करते थे, कुछ कहानी व कविता लिखते थे।मैंने उन्हें उनकी रचनाओं में मौलिकता बनाए रखने के लिए प्रोत्साहित किया था। मुझे खुशी थी कि वे बच्चे अपनी रचनाएँ लेकर मेरे पास आते व मेरी सलाह को ध्यान से सुनते थे।
इस स्कूल की अध्यापिकाएँ भी प्रशिक्षित नहीं थी, शिक्षित थी, पर आत्मविश्वास उच्च स्तर का नहीं था, वे सब अधिकांशतः निम्न मध्यम वर्ग से संबंधित थी ,अंग्रेजी की पढ़ाई की थी, पर इस भाषा से कामचलाऊ संबध था। अंग्रेजी तो मेरी भी प्रभावशाली नहीं थी।फिर भी सभी अध्यापिकाएँ मेरे अनुभवों से सीखना चाहती थी।
नए सत्र में जब पिछले चार वर्षों से प्रथम कक्षा को पढ़ाने वाली अध्यापिका को प्रिंसिपल ने दूसरी व तीसरी कक्षा पढ़ाने का मौका देना चाहा, तो वह घबरा गई थी। प्रिंसिपल ने सभी अध्यापिकाओं को नई कक्षाएँ पढ़ाने का सुझाव दिया था।प्रिंसिपल का उद्देश्य तो इन अध्यापिकाओं का भी विकास करना था।
वे अध्यापिकाएँ मुझ से मिलीं व अपनी झिझक मेरे सामने रखी थी।जिन कक्षाओं को वे पूर्व दो या तीन वर्षों से पढ़ा रही थी, उसमें उनका अनुभव गहरा व सहज था।उस सहजता को छोङ नई कक्षा को पढ़ाने का अनुभव लेने में वह सब असहज हो रही थी। ये सब वैसा ही था, जैसे किसी छात्र को नए कोर्स को पढ़ने में घबराहट होती है।
मुझे खुशी थी कि वे मेरे पास आईं, उन्हें मैंने याद दिलाया कि वे सब शिक्षित, बुद्धिमान व ज्ञानी है। यह भी अहसास दिलाया कि हम सिर्फ सिखाते नहीं, सीखते भी है।
उन्होंने मुझे विश्वास में लेते हुए कहा कि नया काम करने में उन्हें यदि कोई कठिनाई हुई तो क्या मैं सहायता करूँगी?
मुझे उस समय आनंद की प्राप्ति हुई, जब वे सब अपनी कक्षाओं को पढ़ाने में सिर्फ़ सफल ही नहीं थी अपितु आनंदित भी थीं।
मुझे इस स्कूल में काम करके बहुत खुशी हो रही थी, कुछ नया करने के मौके थे परंतु रीढ़ की हड्डी की समस्या हो गई थी।प्रिंसिपल ने मुझे पुरा सहयोग दिया था।

फिर एस. के. रिटायर हो गए थे । हमें सरकारी आवास छोङना पङा था।
आज मुझे यह स्वीकार करने में संकोच नहीं है कि जीवन में मुझे अच्छे और नए काम करने के अवसर बहुत मिले हैं व मैंने उन पर काम भी किया है, परंतु मैं किसी न किसी कारणवश उस पर स्थिर नहीं रही हुँ। मुझे लगता हैं कि परिस्थितियां सिर्फ बहाना होती हैं, यह आप पर निर्भर करता है कि आप किस परिस्थिति में क्या फैसला लेते हैं?

हम सेक्टर -7 हाउसिंग बोर्ड में एक किराए के मकान में शिफ्ट हो गए थे।मेरे तीनों बेटे अपने-अपने क्षेत्रों में सफल हो रहे थे।सेतु एक अच्छी नौकरी कर रहा था, हम उसकी शादी की योजनाएँ बना रहे थे।

सेक्टर-7, हाउसिंग बोर्ड

सेक्टर-7 हाउसिंग बोर्ड के इस मकान का पिछला भाग रोड पर था व आगे का मुख्य द्वार एक गली में था। चूंकि मकान का पिछला द्वार भी था, हमारा आना-जाना पिछले द्वार से ही होता था।
आगे के द्वार से प्रवेश करते ही एक बङा खुला आंगन था, एक तरफ से सीढ़ियाँ ऊपर जाती थी।नीचे का भाग किराए पर दिया जाता था। ऊपर की दो मंजिलें मकान मालिक श्री सिंह के पास ही थी। अथार्त हम फिर मकान मालिक के साथ रह रहे थे।

अब स्वतंत्र मकानों में स्वतंत्र रूप से रहने की आदत हो गई थी।यह मकान हमने क्यों चुना था? मैं अब किस्मत को मानने लगी थी। किस्मत हमें हमारे पूर्व निश्चित द्वार तक पहुंचा देती है।

आगे का आंगन पार कर दो दरवाजे दो कमरों में खुलते थे। बिलकुल सामने के कमरे को पार कर एक छोटी गैलरी थी, वहीं शौचालय व स्नानाघर था। वह गैलरी चौङी थी, जहाँ हम अपना फ्रिज व वांशिग मशीन रख सके थे।उस गैलरी को ही हमने सेतु की शादी में सब्जी भंडार बनाया था।

उस गैलरी से ही एक दरवाजा किचन में खुलता था। किचन लंबी परंतु पतली थी, पर उसी किचन में सेतु की शादी का काम हुआ था।किचन का दूसरा दरवाजा एक अन्य गैलरी में खुलता था, उस गैलरी से सीढ़ियाँ ऊपर की मंजिलों व छत पर जाती थी व गैलरी के अंत का दरवाजा ही मकान का पिछला द्वार था।

उस द्वार के बाद भी एक चौङा बङा आंगन या दालान था। जहाँ गाड़ियाँ खङी की जाती थी।सेतु की शादी में यहाँ मेहंदी रात की पार्टी बहुत अच्छी हुई थी। सभी रिश्तेदारों की गाङियाँ भी खङी हो सकी थी। सिंह साहब के हम आभारी है। पहले यहाँ एक सुंदर बगीचा भी बनाया था, बाद में उसका पक्का फर्श कर दिया था।

आगे के आंगन से दूसरा दाएं तरफ का दरवाजा, दूसरे कमरे में खुलता था, उस कमरे से दूसरी तरफ के दरवाजे से निकलते ही एक छोटा चौङे भाग के साथ एक अन्य कमरे का दरवाजा था।उस कमरे के पीछे का एक दरवाजा सिंह साहब के ऑफिस का था, जिसे हम बंद रखते थे व उसके साथ ही एक अन्य शौचालय व स्नानाघर था।

सिंह साहब का यह ऑफिस मकान के पिछले भाग में था। सिंह साहब प्रापर्टी डीलर का काम करते थे, लोग उनसे मिलने इस ऑफिस में आते थे। सिंह साहब का एक अन्य ऑफिस शहर के डी. एल. एफ काॅलोनी में था। वह अधिकांशतः अपना काम उसी ऑफिस से करते थे। उनके घर के इस ऑफिस में अब एस. के. बैठने लगे थे। रिटायरमेंट का खाली समय भी व्यतीत हो जाता था।

इस मकान की एक अन्य विशेषता थी कि इस घर की सभी दीवारों में टाइल्स लगी थी। इस मकान में सीलन बहुत थी, अतः टाइल्स लगाकर सीलन को छिपाया गया था।

मकानमालिक सिंह साहब पहली मंजिल पर रहते थे। श्रीमती सिंह बहुत समझदार महिला थी। न वह हमारी जिन्दगी में दखलंदाजी करती थी, न हम उनकी जीवनशैली से मतलब रखते थे। उनसे दोस्ती नहीं हुई थी, पर एक दूसरे के लिए मन में बहुत सम्मान था।

श्री मती सिंह एक कर्मठ महिला हैं। उनकी एक शादीशुदा बेटी थी व बेटा बाहर पूना में नौकरी कर रहा था। इस मकान में रहते हुए ही सेतु की शादी हुई थी, उसके एक साल बाद उनके बेटे की शादी हुई थी।
यह बहुत ही खुशदिल परिवार था, परिवार के सभी सदस्यों से हमें उचित सम्मान व प्रेम मिला था।

मैं इस मकान में आने से पहले बहुत चिंतित थी, जब से गुडगांव आई हुँ, स्वतंत्र मकानों में ही रह रही थी, अब तो सरकारी आवास छोङा था। हम मकान मालिक की टोका-टाकी व दबाव से मुक्त थे। अतः चिन्ता थी कि अब कैसे मकान मालिक के साथ रहना होगा? पर खुशी हुई है, यहाँ समय पूर्णतः शांति से बीता था।

सेतु की शादी के लिए उन्होंने अपनी दूसरी मंजिल भी हमें दी थी। शादी के बाद भी सेतु व जया उसी मंजिल में रहे थे। जब उनके बेटे की शादी हुई तब सेतु को द्वारका शिफ्ट होना पङा था।आज भी हमारे सिंह साहब व उनके परिवार के साथ मधुर संबंध बने हुए हैं ।
इस मकान में भी मेरा ट्यूशन का काम चल रहा था। पर हमेशा वही किया जो सबसे उचित लगा था। हमने इस मकान से भी शिफ्ट होने का फैसला लिया था।

हमारे इस मकान के एक तरफ एक होम्योपैथिक डाक्टर अपने पिता व परिवार के साथ रहते थे। उन्होंने अपने मकान का निचला भाग नितिश के परिवार को दिया था।

नितिश के पिता माली हैं । वह डाक्टर साहब के बगीचे की देखभाल तो करते ही हैं । उनके घर की भी देखभाल करते हैं । नितिश की माँ उनके बच्चों को संभालती हैं व खाना बनाती हैं ।डाक्टर साहब व उनकी पत्नी उनके साथ बराबरी का व्यवहार करते हैं ।

नितिश जब दूसरी कक्षा में था, तब से उसने मेरे से पढ़ना शुरू किया था।वह मेरा प्रिय छात्र था।

मकान के दूसरी तरफ एक बुजुर्ग दंपत्ति रहते थे, इनके तीन बेटे हैं , तीनों विदेश में रहते थे।दो साल में एक बार वह भी बच्चों के पास जाते थे, बच्चे भी मिलने आते रहते थे।यह एक विचारणीय विषय है कि बच्चों की उन्नति के लिए उन्हें कितनी उङान भरने देनी चाहिए । अगर विदेश में बसना ही उन्नति है!

प्रत्येक को अपने जीवन के फैसले लेने का अधिकार है, बच्चों के फैसले पर माता-पिता बाधा नहीं बनते हैं । जीवन में कठिनाई तो है, अकेलापन भी है, पर जीवन में खुशियाँ पाने के रास्ते अनेक हैं ।यह दंपत्ति खुशमिजाज थे।आंटीजी तरह-तरह के पकवान बनाकर खुश थीं और अंकल जी अपने बगीचे को संवारने में खुश रहते थे।हमारे साथ उनके भी संबध अच्छे बने थे।

खुशी कितनी अपनी, कितनी पराई,

जीवन का सार ढूँढ लो,

जीवन का सुख अपने हाथ में,

एक ढर्रे से तो सब सुख पाते,

चलो तुम कोई नया ढर्रा ढूँढ लो,

बच्चों सा मन हो, तो खुशी ही खुशी।

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(नए मकान – नए परिवेश) (भाग- त्रयोविशंतिः) चौदहवां मकान (सेक्टर- 4, गुङगांव )

03 शनिवार अप्रैल 2021

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≈ 6s टिप्पणियाँ

अधिकार (महादेवी वर्मा )

वे मुस्काते फूल, नहीं

जिनको आता है मुर्झाना,

वे तारों के दीप, नहीं

जिनको भाता है बुझ जाना,

ऐसा तेरा लोक, वेदना

नहीं, नहीं जिसमें अवसाद,

जलना जाना नहीं, नहीं

जिसने जाना मिटने का स्वाद!

क्या अमरों का लोक मिलेगा

तेरी करूणा का उपहार ?

रहने दो हे देव! अरे

यह मेरा मिटने का अधिकार।

सरकारी क्वार्टर भी बङा मकान था।दो बैडरूम, एक ड्राईंग कम डाइनिंग रूम था, किचन भी बङी थी।
यह मकान पहली मंजिल पर था, सीढ़ियों से ऊपर जाते ही दो क्वार्टर थे। बाएं तरफ का क्वार्टर हमारा था।
मुख्य दरवाजे के साथ ही लंबी बाॅलकोनी थी। बाॅलकोनी से ही पहला दरवाजा ड्राइंगरूम में खुलता था और दूसरा दरवाजा बैडरूम में खुलता था, बाॅलकोनी में ही उसके आगे एक छोटा स्टोर था।
इस लंबी बाॅलकोनी में हम धूप व शाम की छांव का सुख लेते थे।
ड्राइंगरूम से ही जुङा डाइनिंग व उससे जुङी एक बङी किचन भी थी। किचन में स्लेब इत्यादि सब अच्छे बने थे।
डाइनिंग के एक तरफ से छोटे बैडरूम में जाते हुए, स्नानाघर व शौचालय थे। छोटे बैडरूम के साथ एक छोटी बाॅलकोनी भी थी। छोटे बैडरूम के साथ एक बङा बैडरूम था। जिसका एक दरवाजा गैलरी से भी था।

यह दो मंजिला मकान ही थे, अतः हमारी पहली मंजिल से सीढ़ियाँ छत पर जाती थी। छत भी बहुत बङी थी, उस पर पानी की टंकियां रखी थीं।

मुझे शाम का समय छत पर बिताना बहुत अच्छा लगता था। अभी तक गुङगांव के जितने मकानों में रहे थे, छत का सुख मिला था।
यह एक सरकारी काॅलोनी थी, अतः यहाँ सभी सरकारी बाबू, इंजीनियर, ऑफिसर इत्यादि रहते थे।

घर के साथ के क्वार्टर में स्थायी रूप से रहने कोई नहीं आया था, पर जिस वर्ष हम उस मकान से निकले थे, उस वर्ष एक परिवार रहने आया था, उनसे थोङा मेलजोल हुआ था।
हमारे ठीक नीचे क्वार्टर में एक इंजीनियर साहब रहते थे। पति-पति-पत्नी दोनों ही भारी बदन के थे। शादी के 12-15 वर्ष बाद संतान की प्राप्ति हुई थी।अब बेटा 10 वर्ष का था।

नीचे का मकान होने के कारण, उन्हें आगे-पीछे बहुत खुले आंगन मिले थे, आगे उन्होंने अच्छे पेङ-पौधे लगा रखे थे। वह कई वर्ष से इसी मकान में रह रहे थे, अतः मकान में अपनी सुविधानुसार कुछ परिवर्तन भी किए थे।

इंजीनियर साहब का अच्छा रूतबा था। पत्नी भी आधुनिक थी।
उनके दाएं तरफ भी एक अन्य इंजीनियर साहब का परिवार था।दोनों ही परिवार ग्रामीण परिवेश से संबंधित थे, व अपने-अपने गाँवों में भी इनके परिवार अच्छे रूतबेदार थे। जमींदारी तो कब की बीत गई, पर उसका प्रभाव अभी भी उनके व्यवहार और रहन-सहन में दिखता था।

परंतु जैसा कि हम जानते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति का व्यक्तित्व व व्यवहार अलग होता है। अतः हमारे नीचे के मकान के पङोसी के व्यवहार में शालीनता व सज्जनता मिलती थी।
अन्य इंजीनियर साहब पर अभी ग्रामीण रूतबा हावी था, उनका रहन-सहन भी पूर्णतः ग्रामीण ही था।उनके दो बेटे थे, उन्होंने अपने 10 वर्षीय बेटे को बोर्डिंग स्कूल भेजा था, चूंकि दोनों बेटे बहुत शरारती थे, उन्हें अलग-अलग रखना ही उचित लगा था।

यूं भी ग्रामीण लोग अपने बच्चों को हाॅस्टल या बोर्डिंग स्कूल में ही पढ़ाते हैं। चूंकि गांव में अच्छे स्कूल व काॅलेज का अभाव होता है।
परंतु वह बालक सिर्फ एक वर्ष ही बोर्डिंग में रहा था।दोनों भाई घर में आपस में बहुत लङते थे, पर आपसी प्रेम भी बहुत था। बङे भाई का मन हाॅस्टल में नहीं लगा था व छोटा भाई बङे भाई के बिना बैचेन था। माँ के लिए आठ वर्षीय छोटे बेटे को संभालना अब अधिक कठिन था, वह बङे बेटे के बिछोह में भी बहुत दुखी थी।अतः एक वर्ष बाद बेटे को वापिस बुला लिया था।

हमारे सामने के मकानों या क्वार्टरों का डिजाइन अलग था। उन्हीं में सामने का मकान श्री रस्तोगी का था। श्री रस्तोगी एस.के. के ऑफिस में ही काम करते थे। उनके परिवार से हमारा अच्छा मेल-जोल हुआ था।

कभी-कभी पति-पत्नी मानों एक ही स्वभाव के होते है अथवा दोनों एक-दूसरे के अनुसार ऐसे ढल जाते हैं कि भिन्नता दिखती नहीं है।
यह रस्तोगी दंपत्ति भी इसी श्रेणी में आते थे।दोनों खुशमिजाज व व्यवहारिक थे।उनके एक बेटा व एक विवाहित बेटी थी, उसके एक दो वर्षीय बेटा था।
श्री रस्तोगी का बेटा कम्प्यूटर ठीक करने का काम करता था।श्रीमती रस्तोगी सिलाई का काम करती थीं ।
श्री रस्तोगी, एस.के. से एक साल पहले रिटायर हो गए थे। उन्होंने गुङगांव में ही एक काॅलोनी में अपना मकान बना लिया था, रिटायरमेंट के बाद वे उसी मकान में शिफ्ट हुए थे।
श्री रस्तोगी खाली बैठना नहीं चाहते थे, अतः अपने सरकारी ऑफिस में ही पार्ट टाइम काम करना शुरू किया था।
पर दुःख हुआ था, उन्हें कैंसर हुआ था, दो-तीन वर्ष पहले उनका स्वर्गवास हो गया था।

यही एक आम आदमी का आम जीवन होता है।एक सामान्य पर महत्वपूर्ण जीवन संघर्ष, और जब संघर्ष पूर्ण हो ,तब जीवन लीला ईश्वर को समर्पित हो जाती है।

कई बार कुछ लोग ऐसे मिलते हैं, जैसे आपको वर्षों से जानते हो,श्रीमती रावत एक गढ़वाली महिला थी।
हमें इस क्वार्टर में शिफ्ट हुए दो दिन ही हुए थे, मैं दोपहर के समय अपनी बाॅलकोनी में खङी थी। किसी ने मुझे जोर से नमस्ते करी, मैंने देखा, एक लंबी-पतली महिला हाथ हिलाती हुई चली गई थी ।मैं उन्हें नहीं जानती थी, सोचा, उन्होंने किसी अन्य को अभिवादन किया होगा।

परंतु एक दिन वह श्रीमती रस्तोगी के साथ मुझसे मिलने घर पर आ गईं थी।वह मुझ से संबध बनाने की इच्छुक थी।
उन्होंने तुरंत मेरी कामवाली के काम करने के तरीके पर आलोचनात्मक टीका- टिप्पणी का अधिकार तो लिया ही था, पर साथ ही मेरी दिनचर्या पर भी तीखी हैरानी दर्शाती रही थी।

ये ग्रामीण परिवेश से संबंधित महिलाओं के लिए, कामवाली बाई रखना ऐयाशी का सूचक होता है तथा उन्हें यह समझना कठिन होता है कि कैसे कोई कामवाली का काम पसंद कर सकता है?

एक घरेलू महिला, जो नौकरी पर नहीं जाती है, वह अगर कामवाली रखती है(जिसको इसका अधिकार नहीं है ), तो अपना पूरा दिन खाली कैसे बिताती हैं? और जैसा कई बार यह भी देखा है कि कामकाजी महिलाएं भी कामवाली के नखरे उठाना पसंद नहीं करती है।

ये ग्रामीण महिलाएं सुबह-सवेरे अपने घर के काम करके, सिलाई-कढ़ाई अथवा बाहर के अन्य कार्य (बिल जमा करना, राशन इत्यादि काम) भी करती हैं ।और मैं तो यह सब भी नहीं करती हुँ।आस-पङोस में भी गपशप करने नहीं निकलती हुँ।

मुझे लगा कि वाकई जब दूसरे की निगाह से देखो तो पता लगता है कि ईश्वर हम पर कितना मेहरबान है। मैं उनकी बातें सुनकर मुस्करा रही थी।सोच रही थी कि ये दुनिया को सिर्फ अपनी परिपाटियों के दायरे में देखती रही हैं, यही देखना भी चाहती है।और हमें (उनके दायरे से जो बाहर है) एक कटघरे में खङा करने की साधिकार चेष्टा भी करना जानती है।

वह अक्सर मिलने आती थी, धीरे-धीरे मैं जान गई थी कि वह किसी गुरू के पास जाती थी और मुझे भी वहाँ ले जाना चाहती थी। परंतु मैं गुरु पर विश्वास नहीं करती हुँ। एक बार मेरे बाल झङने की समस्या के समाधान के लिए, लाल-हरी बोतले देकर गई थीं कि उसमें पानी भर कर पिया करूं। वे बोतले बियर या शराब की खाली बोतले थी । जिन्हें देखकर ही उबकाई आ रही थी। घर पर सब मुझे उनसे दूर रहने की सलाह दे रहे थे।

तीन वर्ष का समय हमने इस सरकारी मकान में बहुत अच्छा बिताया था।यह मकान मुझे बहुत अपना लगता था, जबकि जानती थी यह भी छूट जाएगा।

इन तीन वर्षों में मैंने अपनी शिक्षण यात्रा का भी एक अन्य पङाव बिताया था। ट्यूशन का काम तो यहाँ भी अच्छा चल रहा था। मैंने यहाँ पास ही एक मानसिक व शारीरिक अपंग बच्चों की सामाजिक संस्था में काम किया था। प्रशासनिक कार्य था, इन बच्चों के साथ बहुत समय नहीं बिताती थी पर एक संबध बन गया था।

मेरे लिए प्रशासनिक कार्य का नया अनुभव था, मैं कुछ नया सीख रही थी।मुझे खुशी हुई कि इस सामाजिक संस्था में अर्थपूर्ण काम हो रहा था। बच्चों की शारीरिक व मानसिक अवस्था को नज़र में रखते हुए ही कार्यप्रणाली का संचालन किया जा रहा था।

एक वर्ष इस संस्था में काम करने के बाद, मैने एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाना शुरू किया था।इस स्कूल में गरीब तबके या ग्रामीण मजदूरों के बच्चे पढ़ने आते थे। ऐसे किसान जिनके पास वर्ष के किसी-किसी मौसम में काम नहीं होता था, उस समय ये किसान शहर आकर मजदूरी करते हैं ।

शहर में रहते हूए बच्चों को अंग्रेजी शिक्षा में शिक्षित करने की प्रबल अभिलाषा मन में रखते हुए, इन छोटे स्कूलों में, जिसमें फीस कम होती थी, अपने बच्चों को पढ़ाते हैं ।

इन किसान मजदूरों का शहर आने का कारण भूख ही नहीं होता है।वे कहते हैं कि गाँवों में खाने को अनाज तो मिल जाता है, पर अन्य जरूरतों के लिए, जैसे-कपङा, दवाई, शिक्षा आदि के लिए नकद पैसा जमा करना जरूरी होता है, इनके पास गाँवों में अपने कच्चे-पक्के मकान भी होते हैं।

कुछ अपने मन की राह भी पकङ राहगीर,

ईश्वर ने जो दी डगर, उसे तुने अपनाया है।

उसे देख और मुस्करा, कुछ लाड दिखा!

अब मनचाही राह पर चलने का वक्त आया है।

रास्ते तो वे भी कठिन थे,

थामी उसने उंगली , तो बने सुगम थे।

डगर तो यह भी पथरीली होगी,

अभी तो खुलकर जीने का दिन आया है।

देख वह भी मुस्करा रहा है,

रास्ता तु चुन अपना, मंजिल वह बना रहा है।

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