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मासिक अभिलेखागार: जून 2021

नए मकान-नए परिवेश (भाग-सप्तविशंति) ( हाऊसिंग सोसाइटी के अनुभव)

25 शुक्रवार जून 2021

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(इशारे जिंदगी के) अज्ञेय

जिंदगी हर मोङ पर करती रही हमको इशारे,

जिन्हें हमने नहीं देखा।

क्योंकि हम बाँधे हुए थे पट्टियाँ संस्कार की

और, हमने बाँधने से पूर्व देखा था-

हमारी पट्टियाँ रंगीन थीं ।

एक नीरव नदी बहती जा रही थी,

बुलबुले उसमें उमङते थे,

रहः संकेत के: हर उमङने पर हमें रोमांच होता था,

फूटना हर बुलबुले का, हमें तीखा दर्द होता है।

हम कभी फ्लैट में नहीं रहे थे, हमेशा छत अपनी मिली थी।हाउसिंग सोसाइटी में भी रहने का पहला अनुभव था। फ्लैट जहाँ आगे-पीछे कोई आंगन या बेङा नहीं होता है।

यह सोसाइटी साफ व शांत थी। पानी व बिजली की भी समस्या नहीं थी। मुझे सोसाइटी में रहना अच्छा लगने लगा था।पीछे रेलवे लाइन थी, दिन भर उसमें रेले गुजरती थी और बनी के लिए यह एक अचंभा था, वह किसी ट्रेन की आवाज सुन उत्साहित हो जाता और उसे देखने के लिए दौङ पङता था।अपने पोते के बचपन में अपना बचपन भी मुस्काता था, कितनी मीठी यादें गुनगुनाती थी।

ऐसा नहीं कि रेल की आवाज़ हमें परेशान नहीं करती थी, मगर बनी के उत्साह को देख, यह परेशानी उल्लास में बदल जाती थी।कुछ महिनों में हमें इसकी आदत हो गई थी, बनी को भी नए उत्साही खेल मिल गए थे।

मैं सर्दियों में दोपहर में व गर्मी में शाम को बनी के साथ, नीचे पार्क में चली जाती थी, वहाँ कई महिलाओं से कुछ जान-पहचान हो गई थी।

सोसायटी में बहुत सुरक्षा थी, मैं रात को अकेले ही सैर करने के लिए नीचे कम्पाउंड में सैर कर सकती थी। कोरोना और लाॅक डाउन के दिनों में भी, जब रात को नीचे कोई नहीं होता, हम सैर के लिए नीचे जाते थे, कभी- कभी छत पर भी जाते थे। उन दिनों आकाश बहुत साफ और नीला ही दिखता था।

यहाँ मैंने टयूशन के काम के लिए कोशिश नहीं की थी, संपूर्ण समय बनी के साथ खेलने व पढ़ने-लिखने में बिताने लगी थी।

पढ़ने-लिखने का शौक तो बचपन से था, पर लेखन को कभी गंभीरता से नहीं लिया था। लेकिन 2016 में जब सेतु ने मुझे टैब दिया, और मिंटू ने मुझे वर्ड प्रेस से परिचित कराया, मेरी जिंदगी ही बदल गई थी, अपने विचारों और मन के भावों को दूसरों तक पहुँचाने का एक अच्छा और सरल माध्यम मिल गया था, मेरी लिखने में रूचि बढ़ने लगी, मैं सरलता से नए और प्रतिष्ठित लेखकों को न केवल पढ़ रही थी अपितु उनसे लिखना सीख भी रही थी

सेक्टर-23 से ही मैने अपनी रचनाएँ ब्लॉग में लिखनी शुरू कर दी थी।सेक्टर -9 में भी मैं अपने आस-पास के परिवेश से, अपनी कल्पनाओं को मूर्त्त रूप दे, उसे अपनी लेखनी में उतारने का प्रयास करने लगी थी। लेखनी की प्रक्रिया में नित नए सुधार करने की कोशिश बरकरार थी । सीखना-सिखाना ज़ारी था।

हमारे घर के ठीक नीचे फ्लैट में एक कश्मीरी परिवार रहता था, उनके दो बेटे थे, बङा बेटा विवाहित था, उसके दो बेटे थे। बहु भी नौकरी करती थीं । वह भी मेरी तरह व्यस्त रहती थीं। कुछ दिनों में छोटे बेटे का भी विवाह हो गया था। उनके इस सोसाइटी में दो फ्लैट थे। उन्होंने दोनों बेटों को एक-एक फ्लैट दे दिया था।

अक्सर उनसे मुलाकात होती थी।, जब भी मिलती मुस्कराकर मिलती थीं ।हम अपने-अपने परिवारों को संभालने में व्यस्त थे, तो मिलना और बैठकर बात करने का समय कम होता था।

सिर्फ हम दो ही नहीं, हम जैसी और भी नानी- दादी थीं जो मुस्कराती हुई, गर्व के साथ, समाज में आए इन परिवर्तनों को स्वीकार करते हुए, अपने कर्तव्यों को जी रहीं थी।ऐसा नहीं कि किसी को भी अपनी बहु या बेटी के नौकरीपेशा या महत्वाकांक्षी होने से उज्र था, अपितु वे सब प्रसन्न थी। कुछ ये दादी- नानी अपने समय में स्वयं नौकरीपेशा रहीं थीं ,कुछ वे भी, जिन्होंने परिवार के हित को सर्वोपरि मान, अपनी महत्वाकांक्षाओं को अनदेखा किया था, इन सबका, निरंतर हो रहे इस सामाजिक विकास में पूर्ण सहयोग व सहर्ष सहमति थी।

फिर भी कुछ द्वविधा थी, अपनी भूमिका, अपना जीवन, अपना भविष्य और उससे भी अधिक वे तमन्नाएँ, जो आज भी उनका मुँह ताक रहीं है। अभी भी अपने लिए जीने की इच्छा दबी हुई ही है और यह भी कि पौरूख भी अब थक गए हैं ।

मुझे ऐसी भी युवतियां मिली, जिन्होंने इस भागदौड़ के जीवन को न चुनकर, घर-परिवार का सुरक्षित जीवन चुना है।
और मैंने सोचा कि बेशक भाग दौङ न चुने पर सपने तो चुने।मुझे एक ऐसी युवती भी मिली, जिसने बताया उसे कला में , पेंटिंग, संगीत में रूचि है।वह शादी से पूर्व इसी में अपना समय सार्थक करती थी। संगीत की भी शिक्षा ली थी।यह सब बतातें हुए, उसकी आँखें उल्लास से चमक रहीं थी।
पर अब क्यों नहीं ?
मेरे इस सवाल के जवाब पर वह नैराश्य मुख से बोली,” अब कहाँ समय मिलता है!”
मैं हैरान थी, जो मुझे दिखता था…परिवार में, वह, उसका पति व एक चार साल का बेटा— घर के काम की मदद के लिए, एक कामवाली भी थी।

शायद ऐसा भी हो जो मुझे न दिखता हो, जिसने प्रयास में भी नाउम्मीदी का पर्दा डाला हुआ था।
बाद में मुझे वह सोसाइटी की भजन मंडली में अपने संगीत का शौक पूरा करते दिखती थी।

सोसाइटी की महिलाओं ने मिलकर एक ग्रुप बनाया था, वे सब मिलकर प्रत्येक बृहस्पतिवार को भजन-पाठ करती थीं । सावन के महीने में व नवरात्रि के दिनों में भी उनके विशेष कार्यक्रम होते थे।

हमारा मकान बनना शुरू हो गया था, एस. के. और सेतु प्लॉट पर जाते थे, भजन-पाठ के लिए मैं बनी को लेकर नहीं जा सकती थी। आरंभ में एक दिन गई भी थी, भजन-पाठ अच्छा भी लगा था, अन्य महिलाओं से मिलना भी खुशनुमा था। परंतु मैं धार्मिक मिज़ाज भी नहीं हुँ। अतः उसके बाद कभी समय भी हुआ, तब भी मैं भजन-पाठ के लिए नहीं गई थी। इस कारण भी हम दो वर्ष उस मकान में रहे थे, पर मेरी किसी महिला से गहरी जान- पहचान नहीं हो सकी थी, यूं अभिवादन योग्य जान-पहचान सबसे थी। हमारे फ्लोर पर भी दो फ्लेट के परिवारों से परिचय स्नेहपूर्ण नमस्कार तक ही सीमित था।

पर फिर भी मेरी दोस्ती स्मिता से हो गई थी। वहाँ रहते हुए, हमें नौ महीने हो गए थे, और हमारे घर दो खुशियों का आगमन हो रहा था, लक्ष्मी दो स्वरूपों में हमारे घर प्रवेश कर रही थी। मीशु ने विवाह का फैसला किया था और उसका विवाह श्रृष्टि से निश्चित कर दिया गया था।बनी भी बङा भाई बनने जा रहा था, और हमारा विश्वास लक्ष्मी स्वरूपा के लिए अभिनंदित था ।

कल एक परिंदा बैठा था खिङकी पर,

मैंने उसे देखा, उसने भी मुझे,

वह कुछ बोला नहीं,

पर मानों कहता था-

आवाज तो सुनते हो मेरी, क्या पुकार भी सुनते हो?

बात दाना- पानी की ही क्यों सदा?

कभी मेरी पुकार भी सुनो!

उसमें मेरा हाले-दिल छिपा है,

कभी ध्यान तो लगाओ उसमें ।

वह उङ गया,

मैंने सोचा, क्या वह कुछ कहने आया था?

पर मैंने नहीं सुनी उसकी आवाज़ ।

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नए मकान-नए परिवेश (भाग-षष्ठविशंति) (सत्रहंवा मकान)

15 मंगलवार जून 2021

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वक्त (गुलज़ार )

वक्त को आते न जाते

न गुजरते देखा

न उतरते हुए देखा

कभी इल्हाम की सूरत

जमा होते हुए इक जगह

मगर देखा है।

यह मकान अन्य सभी मकानों से भिन्न था, बङा व खुला मकान (तीन बैडरूम ) था।
यहां अहसास भी भिन्न थे, पोते के जन्म ने बुजुर्ग होने की प्रक्रिया पर मुस्करा कर मोहर लगा दी थी। यहाँ मैं ट्यूशन कर रही थी, पर अब मेरी दिनचर्या बनी के चारों ओर बँधी थी सिर्फ मैं ही नहीं, परिवार का प्रत्येक सदस्य ही जैसे बनी के अनुकुल चल रहा था।
यहाँ हम बनी के दादा- दादी के रूप में ही जाने जाते थे। अब मैं तो जैसे सबकी दादी बन गई थी।

हमारे दाएं तरफ के मकान में ममता व पुनीत जी ( मेरी छोटी बहन के देवर- देवरानी) रहते थे। हमारे पूर्व परिचित व रिश्तेदार होने के कारण हमें बहुत हौसला था। सेक्टर-23 की सब्जी मंडी, बाजार तक हमारी पहुंच उनके कारण ही सरल हो गई थी।

पुनीत जी का अपना बिजनेस है, ममता एक प्रतिष्ठित स्कूल में अध्यापिका है। उनके दो बेटे हैं, उस समय बङा बेटा मुम्बई में और छोटा बेटा गुङगांव में ही उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहा था।

इस मकान में पानी की बहुत समस्या थी। कई बार पानी आता ही नहीं था, कभी बहुत कम आता था।मोटर लगी थी, पर पानी का प्रवाह कम होने के कारण, टैंक में पानी भर नहीं पाता था।

यहाँ आने के बाद पता चला कि पानी की समस्या बहुत पुरानी है।स्थानीय वासियों ने सरकारी दरवाजे बहुत खटखटाये, पर समस्या का समाधान नहीं किया गया था।
एस. के. ने सभी पङोसियों को प्रोत्साहित किया था व सबने मिलकर इस समस्या का समाधन करने की पुरजोर कोशिश की थी।समस्या का समाधान आसानी से नहीं हुआ था, लगभग डेढ़ वर्ष में हम पुर्णतः इस समस्या से निबट पाए थे।

हमारे बाएं तरफ के मकान में किराएदार ही रहते थे, पर पानी की समस्या के कारण, वे जल्दी मकान खाली कर देते थे।
उस मकान के साथ के मकान में गुप्ता जी का परिवार रहता था । मिस्टर गुप्ता व मिसेज गुप्ता मिलनसार दंपत्ति थे।उन्होंने भी पानी की समस्या सुलझाने में अपना बहुत सहयोग दिया था।

उनके एक बेटा व एक बेटी थे। बेटा सोनु मानसिक रूप से कुछ कमजोर था।सोनु तब 13-14 वर्ष का था, उसकी छोटी बहन काव्या उससे चार वर्ष छोटी थी।

सोनु को जन्म के तुरंत बाद पीलिया हो गया था। डाक्टर की लापरवाही से उसे इलाज मिलने में देर हो गई थी। ईश्वरीय कृपा से वह बच तो गया पर उसके दिमाग पर असर पङा था।दिमाग की एक ऐसी नस प्रभावित हुई थी, जिसके कारण उसे कम दिखता था। दिमाग की कमी के कारण वह अपने व्यवहार में अपनी आयु से पिछङा दिखता था।एक डॉक्टर की लापरवाही ने उस बच्चे के जीवन में संघर्ष, दुख व तकलीफ़ लिख दी थी।

कुछ व्यवसायों में लापरवाही का कोई स्थान नहीं होता है। हम डाक्टरों की लापरवाही के कारण बहुत लोगों की जिंदगी बर्बाद होते देखते हैं।

सोनु के माता-पिता उसके जीवन को संवारने के लिए बहुत मेहनत कर रहे थे।उसे एक विशेष विद्यालय में पढाया जा रहा था। वह अपनी आयु से पीछे अवश्य था, पर उसकी बुद्धि बहुत तीव्र थी। वह बहुत ध्यान से चीजों को देखता समझता था। तकनीकी समस्याओं को और उनके हल को वह शीघ्र समझ लेता था। उसे चलने में हल्की-फुल्की कठिनाई अवश्य थी, पर वह फुर्तीला था। अपने विद्यालय की ओर से वह स्केटिंग में पारंगत था व उसने जिला प्रतियोगिता जीती थी।

वह मेरे पास पढ़ने आता था।सिर्फ उसे पाठ याद करने में कठिनाई थी, अन्यथा वह पाठ के सभी तथ्य भली-भांति समझ लेता था।ऐसे बच्चों के लिए कोई विशेष पाठ्यक्रम नहीं बनाया जाता है। किताबें भी भिन्न नहीं होती हैं ।हां, पढ़ाने की तकनीक भिन्न होती है।
सोनु एक संवेदनशील बच्चा था।वह बनी से बहुत प्यार करता था।

हमारे घर के सामने एक परिवार रहता था, पिता अपने गांव में रहते थे,और माँ व दो बेटे उस मकान में रह रहे थे।बङे बेटे को गुङगांव में एक अच्छी नौकरी मिल गई थी, इसीलिए माँ अपने दोनों बेटों के साथ यहाँ रहती थी। छोटा बेटा तब आठवीं कक्षा का विद्यार्थी था।
आरंभ में गांव से आकर यह परिवार हमारे इस मकान में रहा था, पर इस मकान की पानी की समस्या व सभी बैडरूम ऊपरी मंजिल में होने के कारण, उन्होंने मकान बदल लिया था।

पहले ही दिन वह स्वयं अपने बङे बेटे के साथ आईं व बेटे ने हमें पानी व पानी की मोटर के सिस्टम को समझाया था।हमें वह कुछ अस्वाभाविक तो लगा था, पर उस समय व्यस्तता के कारण ध्यान नहीं दिया था।

बाद में वह एक बार मुझ से मिलने आई, तब उन्होंने अपने परिवार की गंभीर जेनेटिक बिमारी के विषय में बताया था। इस बिमारी का नाम मुझे याद नहीं , पर इस बिमारी में एक स्वस्थ व्यक्ति धीरे-धीरे नेत्रहीन हो जाता है उनके ताऊ ससुर व देवर भी इसी बिमारी के कारण दृष्टिहीन थे। ।इस दृष्टिबंधता की बिमारी ने उनके बङे बेटे को नेत्रहीन कर दिया था ।उनके पति पूर्णतः स्वस्थ थे।

जब उनका बेटा 10वर्ष का था, उसकी दृष्टि कमज़ोर होने लगी थी। डाक्टर ने उन्हें बता दिया था कि इस बिमारी में धीरे-धीरे दृष्टि कमज़ोर होती है और फिर पूर्णतः दृष्टिहीन हो जाते हैं। 18 वर्ष की आयु तक वह दृष्टिहीन हो गया था। बेटा होनहार था, अपनी स्थिति को समझते हुए, उसने हमेशा अपनी शिक्षा पर ध्यान दिया था। उसने एम.बी.ए. किया था , अब एक अच्छी नौकरी कर रहा था।वह अपने कामों के लिए किसी पर निर्भर नहीं था।

उनके छोटे बेटे पर भी इस बिमारी ने अपना प्रभाव दिखाना शुरू कर दिया था।
विज्ञान ने अभी बहुत खोज करनी हैं , जिससे संसार से लाइलाज बिमारियों का निदान हो सके।
जब हम दूसरों के दुःख व कष्ट देखते हैं, तब हम ईश्वर को धन्यवाद देते हैं कि हम सुखी है, और इतने दुःख के बाद भी वे लोग खुश ही नहीं रहते, अपितु नित हौसले से बढ़ते हुए, अपने संघर्ष के रास्ते पर हँसते-हँसते चलते जाते हैं, यही हमारे सच्चे प्रेरक होते हैं ।

सेक्टर -7 एक्सटेंशन में हमने एक प्लॉट खरीदा था और अब उस पर मकान बनाने का काम शुरू करना था। सेक्टर -23 में हम दो वर्ष रहे थे।सेक्टर 23 से प्रतिदिन मकान बनाने की प्रक्रिया को संभालने में कठिनाई थी, अतः हमने सेक्टर -7 के पास सेक्टर-9 में एक फ्लैट किराए पर ले लिया था।

यह फ्लैट एक हाउसिंग सोसाइटी में था। जम्मू- कश्मीर बैंक ने अपने कर्मचारियों के लिए सोसाइटी बनाई थी।इस सोसाइटी में कश्मीरी, बंगाली, तमिल व पंजाबी इत्यादि प्रदेशवासी रहते थे। सोसाइटी छोटी थी पर फ्लैट अच्छे बने थे।

अंडरग्राउंड पार्किंग स्थल था। चार विंगस में यह सोसाइटी बनी थी। प्रत्येक विंग पांच मंजिला थी। प्रत्येक मंजिल में तीन फ्लैट बने थे। दो फ्लैट तीन बैडरूम के थे, एक फ्लैट दो बैडरूम का था।

हमारा तीन बैडरूम का फ्लैट पहली मंजिल में था। सीढ़ियाँ चढ़ते ही हमारा फ्लैट था। सीढ़ियों के सामने स्टोरेज स्थान था, जहाँ पर्दा डालकर हमने बहुत सामान रखा था।

फ्लैट में एक चैनल गेट व एक लकङी का दरवाजा था, दोनों दरवाजों के बीच एक चौङा ब्लाॅक था, जिसमें एक अलमारी बनी थी।मुख्य दरवाजा पार करते ही, दाएं तरफ एक छोटा बैडरूम था, उसके सामने सिर्फ दो सीढ़ी चढ़कर डाइनिंग हाॅल था व किचन थी।
डाइनिंग हाॅल व किचन के साथ बाॅलकोनी थी।

डाइनिंग हाॅल लंबा व बङा था, जिसमें एक छोर पर किचन थी तो उसके ठीक सामने दूसरे छोर पर एक बङा बैडरूम था। इस बैडरूम में एक छोटा स्टोर भी था व दो खिङकियाँ थी। डाइनिंग हाॅल में भी दो बङी खिङकियाँ थी।

यह फ्लैट हवा की आवाजाही की दृष्टि से खुला फ्लैट था।
डाइनिंग हाॅल के अंत में, इस बैडरूम से पहले फिर दो सीढ़ी थीं ।
यहाँ सीढ़ी से उतरते ही बाथरूम व एक बैडरूम था। इस बैडरूम में भी दो खिङकियाँ थी।सभी कमरों में खिङकियाँ थीं।

मुख्यगेट से प्रवेश करते ही व आरंभ के बैडरूम के पास से गुजरते ही ड्राइंगरूम था। ड्राइंगरूम के साथ एक बाॅलकोनी थी।। मकान बङा व खुला बना था। किचन भी बहुत अच्छी बनी थी, सामान रखने के लिए डाइनिंग हाॅल में भी शेल्फ बने थे।

बनी लगभग पौने दो साल का था, उसे इस फ्लैट में बहुत आनंद आ रहा था।हमारे फ्लैट के ठीक नीचे पार्क था। बनी वहाँ खेलने, झूला झूलने में बहुत खुश होता था।वह बाॅलकोनी से भी नीचे की रौनक देख बहुत खुश होता था।

कुछ मसले जो लिखे जा न सके,

कुछ ऐसे भी जो पढ़े जा न सके।

इन मसलों में न फंस तू प्राणी!

यह मसले नहीं, यह ज़हर है,

इसमें न उलझ!

तू आगे बढ़, तू आगे बढ़ !

नए मकान-नए परिवेश (भाग-पंचविशंति) (सोलहवां मकान)

05 शनिवार जून 2021

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कविता ( हरिवंशराय बच्चन)

‘पथ की पहचान’

पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले,

पुस्तकों में है नहीं छापी गई इसकी कहानी,

हाल इसका ज्ञात होता है न औरों की ज़बानी,

अनगिनत राही गए इस राह से,उनका पता क्या,

पर गए कुछ लोग इस पर छोङ पैरों की निशानी,

यह निशानी मूक होकर भी बहुत कुछ बोलती है,

खोल इसका अर्थ, पंथी, पंथ का अनुमान कर ले।

पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले।

हमारे मकान के सामने राखी अपनी चार वर्षीय बेटी मौली के साथ रहती थी।राखी उस गली की रौनक भी थी और शोर भी थी। सारे दिन उसकी आवाज़ गली में गूंजती थी। जितनी तेज माँ की आवाज़ थी, उतनी ही शैतान व नटखट मौली थी।राखी की आवाज़ से ही प्रतीत होता था कि उसका जीवन खुशियों से भरा है।

पर कभी-कभी उसकी आवाज़ दो- तीन दिन तक सुनाई नहीं देती थी । एक दिन मैंने स्वयं देखा कि उसका पति उसे मार रहा था, सिंह साहब के बेटे देवा ने भी देखा और उसने टोका व रोका भी था।

तब पता चला कि राखी दो- तीन दिन तक कैसे गायब हो जाती है।फिर दो तीन दिन बाद हँसती-बोलती दिखती थी। एक औरत अपने जीवन से इस तरह समझौता करती है कि उसे पता ही नहीं चलता कि सुख किसमें, दुःख किसमें ?

मैंने कई बार राखी से उसके मन के हाल जानने का प्रयास भी किया व सहायता करने का आश्वासन देने का अनुमान भी दिया था।

पर राखी ने कभी मन के हाल नहीं दिए थे।उसका मायका पंजाब में था, उसने म्यूजिक में बी.ए. किया था। मैंने उसे म्यूजिक क्लास लेने का सुझाव भी दिया था।

परंतु शायद पति को पसंद नहीं था, पर वह ट्यूशन पढ़ाने लगी थी। उसने नौकरी करने की कोशिश भी की थी, फिर वही कि पति की अनुमति के बिना वह कुछ नहीं कर सकती थी।एक औरत के लिए आर्थिक स्वावलंबन आवश्यक है, पर अपने लिए स्वतंत्र फैसले का स्वावलंबन भी आवश्यक है।

क्या आर्थिक स्वावलंबन के साथ अपने लिए आत्मविश्वास जग जाता है? नहीं, कुछ सीमा तक आत्मविश्वासी तो बनती है, पर घर की चहारदीवारी के लिए दिए गए संस्कार, एक अकेली औरत के लिए बने सामाजिक तंबू, उसे कोई भी गंभीर फैसला लेने से रोक देते है।
औरत घर के अंदर सुरक्षित या बाहर असुरक्षित ? विचार का विषय है?

हमारा समाज उस (तथाकथित अपने) घर में रहते हुए, अपनी दुष्कर स्थिति को सुधारने का सुझाव तो देता है, पर अलगाव की सहमति सहज ही नहीं मिलती है।

राखी से ही मुझे आस-पङोस की जानकारी मिलती थी, श्रीमती वाजपेयी के ससुर अपने आॅपरेशन के लिए आए हैं, उनके पङोसी के बेटे की शादी पहले गुर्जर की बेटी से हुई थी। बाद में दूसरी शादी अपनी ही जाति की लङकी से हुई है।

सबके समाचार देने वाली राखी अपनी कोई बात नहीं बताती थी।पर….

राखी के सास ससुर कई वर्ष पहले विदेश चले गए थे।राखी के पति उस समय बहुत छोटे थे।दादा-दादी के लाडले थे, अतः वह भारत में ही रह गए थे। दो बङी बहनों के साथ माता- पिता चले गए थे, कभी-कभी मिलने आते थे। दादा-दादी ने ही उसकी परवरिश की थी, वह लाड में बहुत जिद्दी व बिगङैल बने थे।राखी की एक ननद विवाह के बाद भारत में पंजाब में रहती थी।

जहाँ राखी को अपने विदेशी सास-ससुर पर गर्व था, वहीं वह कभी उनके साथ रहना नहीं चाहती थी, उसका पति भी भारत छोङना नहीं चाहता था।

पर इस बार सास-ससुर भारत आए तो वह राखी के साथ ही रहे थे। राखी की सास को केंसर था, स्थिति खराब थी, वह अपना अंत समय, भारत में ही बिताना चाहती थीं ।
राखी और उसके पति ने उनके रहने के प्रबंध किए थे। मुझे लगा था कि राखी और उसके पति उनकी सेवा कर रहे होंगे, विशेषकर राखी अवश्य मन से सेवा सत्कार करती होगी। लेकिन एक सप्ताह बाद वह अपनी बेटी के पास चले गए थे।

फिर बात समझ की ही होती है न! सही, गलत को समझना कठिन होता है। एक स्त्री अपने घर के पुरूषों को ही सही मानती रही है, और उसे यही ठीक लगता है। या अपनी सुविधा में उसे यह आसान लगता है। घर के पुरूषों को गलत कहना, मतलब विद्रोह करना और जितना सहन कर रहे हैं , उससे कहीं अधिक झेलना। इसलिए यही सही कि स्वयं सहन करों, दूसरों को भी यही सिखाओ, क्योंकि यही सबसे सरल है, अपने हालातों को अनदेखा करना ही सीखा है, परिवर्तन से डर लगता है ।और बहाना यह कि जो इनके जैसा जीवन नहीं जीते, वे इनके हालात नहीं समझ सकते हैं ।

ऐसा भी है कि न वह अपने प्रति संवेदनशील रहती है न दूसरों के प्रति संवेदनशील होती है।वह अपने जीवन के सुख दुख सिर्फ पति और अपने बच्चों के सुख-दुख में ही पाती है, उस दायरे में रहते हुए कोई रूकावट नहीं चाहती है, इतनी स्वार्थी हो जाती है कि उसे न अपने पर होते अन्याय महसूस होते है न दूसरों पर हो रहे अन्याय ।अपितु वह असंवेदनशील हो कर आततायी का सहयोग भी करती है।

इन स्त्रियों के लिए वे औरतें अजीब होती हैं जो अपने अधिकारों की लङाई लङती हैं।
राखी जिसने कभी अपनी तकलीफ़ को जग जाहिर नहीं किया था, उसने अपनी सास की बात बताई, राखी के शब्दों में,”मम्मी (सास) बहुत जिद्दी हो गई हैं, बहुत चिल्लाती है।कल तो पापाजी(ससुर) को बहुत गुस्सा आया और उन्होंने एक झापङ लगा दिया, मेरे पति ने भी पापा से कहा, एक ओर लगाओ पापा!, बहुत तंग करती है । तब वह चुप हुई।”
मेरे मुँह से तत्काल निकला,” क्या एक बिमार औरत को मारा? तुम्हें लगता है, मारना ठीक था?

मेरी बात सुन राखी घबरा गई थी, उसे यह तो समझ आया कि उसे घर की इतनी बङी बात मुझसे नहीं कहनी चाहिए थी, पर यह समझ नहीं आया कि यह दुर्व्यवहार गलत है। उसे अपनी सास का पक्षधर होना चाहिए था, पर वह तो आततायियों की पक्षधर बनी थी।
ऐसा क्यों ? एक औरत का सम्मान दूसरी औरत का सम्मान क्यों नहीं है? राखी उसी घर में रहेगी, उसकी बेटी बङी होगी, शायद उसके अनुभव कुछ बदलाव लाएं ।

इस गली में मेरी ट्यूशन के कारण, अधिक जान-पहचान हो गई थी। हमेशा की तरह,इस बार भी, मैं अपना काम छोड़, जीवनपथ पर आगे बढ़ गई, यह विश्वास अटूट है कि सीखना- सिखाना ही तो जीवन उद्देश्य है और यह निरंतर चलता रहेगा।

नए नन्हें मेहमान (सदस्य) का स्वागत सत्कार हम सब मिलकर करना चाहते थे।हमने सेक्टर 23 में एक तीन बैडरूम का तीन मंजील मकान किराए पर लिया था।सेतु द्वारका से और हम सब सेक्टर 7 हाऊसिंगबोर्ड से उस मकान में पहुंचे थे, हम सब फिर एक साथ रह रहे थे। एक साथ रहने की खुशी दूगनी हो गई थी, जब बनी का जन्म हुआ था। इस मकान में भी मैंने ट्यूशन करना ज़ारी रखा था और बनी का साथ भी था, उसकी नित नई गतिविधियां हमारे उल्लास को नया रंग देती थी।

सेक्टर 23 के मकान के बङे गेट से घूसते ही एक छोटा आंगन था।आंगन के एक तरफ मोटर लगी थी, व पानी का टेंक था।घर के दरवाजे में प्रवेश करते ही ड्राइंग रूम था और सीधे जाते ही डाइनिंग स्पेस था।ड्राइंग रूम के साथ ही सीढ़ियाँ ऊपर जाती थीं ।सीढ़ियों के नीचे का भाग स्टोर का काम देता था। एस. के. ने उसे ही पूजा स्थल बनाया था।

डाईनिंग के सामने एक लंबी रसोई थी। रसोई में सामान रखने के लिए, शेल्फ इत्यादि अच्छे बने थे। एक तरह से यह एक आधुनिक किचन था। डाइनिंग में एक खिङकी थी, एक खिङकी किचन में थी, जो पीछे आंगन में खुलती थीं ।पीछे आंगन में हमने वाशिंग मशीन रखी थी एक तरफ बाथरूम भी बना था, वह अधिकांशतः हमारे लिए स्टोर का काम करता था।

ऊपरी पहली मंजिल में पहुंचते ही एक खुली चौङी गैलरी थी, जिसमें अलमारियाँ बनी थी। गैलरी के दोनों तरफ एक-एक बैडरूम थे।दोनों बैडरूम में बाॅलकोनी भी थीं। कमरों में ही बाथरूम थे।दूसरी मंजिल में भी एक तरफ बङा बैडरूम था, चौङी गैलरी में सामने अलमारियाँ थी, साथ में एक तरफ बाथरूम था,फिर खुली चौङी छत थी।

यह मकान खुला बना था, सबको इस मकान का नक्शा बहुत पसंद आया था। बनी के जन्म के बाद सेक्टर 7 एक्सटेंशन में सेतु ने एक प्लॉट खरीद लिया था और उसका नक्शा इस मकान से मिलता-जुलता ही बनाया था।

ऐ मेरे बेकल मन! तु कुछ तो समझ,

जीवन के है इंद्रधनुषी रंग, उन्हें तु समझ,

मिलेंगे तुझे सब रंग, तु धीरज धर।

ऐ मेरे बेकल मन! तु कुछ तो समझ,

जीवन बहता, समय की धारा में, उसे तु समझ,

उस बहाव में बहता बहुत कुछ, तु अधीर न बन,

कभी तिनके, तो कभी मोती भी मिलेंगे, तु सब्र कर।

सभी रंगों, मोतियों और तिनको को भी,

तु झोली में भर, कोई न बेअसर।

ऐ मेरे बेकल मन! तु कुछ तो समझ।

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