(इशारे जिंदगी के) अज्ञेय
जिंदगी हर मोङ पर करती रही हमको इशारे,
जिन्हें हमने नहीं देखा।
क्योंकि हम बाँधे हुए थे पट्टियाँ संस्कार की
और, हमने बाँधने से पूर्व देखा था-
हमारी पट्टियाँ रंगीन थीं ।
एक नीरव नदी बहती जा रही थी,
बुलबुले उसमें उमङते थे,
रहः संकेत के: हर उमङने पर हमें रोमांच होता था,
फूटना हर बुलबुले का, हमें तीखा दर्द होता है।
हम कभी फ्लैट में नहीं रहे थे, हमेशा छत अपनी मिली थी।हाउसिंग सोसाइटी में भी रहने का पहला अनुभव था। फ्लैट जहाँ आगे-पीछे कोई आंगन या बेङा नहीं होता है।
यह सोसाइटी साफ व शांत थी। पानी व बिजली की भी समस्या नहीं थी। मुझे सोसाइटी में रहना अच्छा लगने लगा था।पीछे रेलवे लाइन थी, दिन भर उसमें रेले गुजरती थी और बनी के लिए यह एक अचंभा था, वह किसी ट्रेन की आवाज सुन उत्साहित हो जाता और उसे देखने के लिए दौङ पङता था।अपने पोते के बचपन में अपना बचपन भी मुस्काता था, कितनी मीठी यादें गुनगुनाती थी।
ऐसा नहीं कि रेल की आवाज़ हमें परेशान नहीं करती थी, मगर बनी के उत्साह को देख, यह परेशानी उल्लास में बदल जाती थी।कुछ महिनों में हमें इसकी आदत हो गई थी, बनी को भी नए उत्साही खेल मिल गए थे।
मैं सर्दियों में दोपहर में व गर्मी में शाम को बनी के साथ, नीचे पार्क में चली जाती थी, वहाँ कई महिलाओं से कुछ जान-पहचान हो गई थी।
सोसायटी में बहुत सुरक्षा थी, मैं रात को अकेले ही सैर करने के लिए नीचे कम्पाउंड में सैर कर सकती थी। कोरोना और लाॅक डाउन के दिनों में भी, जब रात को नीचे कोई नहीं होता, हम सैर के लिए नीचे जाते थे, कभी- कभी छत पर भी जाते थे। उन दिनों आकाश बहुत साफ और नीला ही दिखता था।
यहाँ मैंने टयूशन के काम के लिए कोशिश नहीं की थी, संपूर्ण समय बनी के साथ खेलने व पढ़ने-लिखने में बिताने लगी थी।
पढ़ने-लिखने का शौक तो बचपन से था, पर लेखन को कभी गंभीरता से नहीं लिया था। लेकिन 2016 में जब सेतु ने मुझे टैब दिया, और मिंटू ने मुझे वर्ड प्रेस से परिचित कराया, मेरी जिंदगी ही बदल गई थी, अपने विचारों और मन के भावों को दूसरों तक पहुँचाने का एक अच्छा और सरल माध्यम मिल गया था, मेरी लिखने में रूचि बढ़ने लगी, मैं सरलता से नए और प्रतिष्ठित लेखकों को न केवल पढ़ रही थी अपितु उनसे लिखना सीख भी रही थी
सेक्टर-23 से ही मैने अपनी रचनाएँ ब्लॉग में लिखनी शुरू कर दी थी।सेक्टर -9 में भी मैं अपने आस-पास के परिवेश से, अपनी कल्पनाओं को मूर्त्त रूप दे, उसे अपनी लेखनी में उतारने का प्रयास करने लगी थी। लेखनी की प्रक्रिया में नित नए सुधार करने की कोशिश बरकरार थी । सीखना-सिखाना ज़ारी था।
हमारे घर के ठीक नीचे फ्लैट में एक कश्मीरी परिवार रहता था, उनके दो बेटे थे, बङा बेटा विवाहित था, उसके दो बेटे थे। बहु भी नौकरी करती थीं । वह भी मेरी तरह व्यस्त रहती थीं। कुछ दिनों में छोटे बेटे का भी विवाह हो गया था। उनके इस सोसाइटी में दो फ्लैट थे। उन्होंने दोनों बेटों को एक-एक फ्लैट दे दिया था।
अक्सर उनसे मुलाकात होती थी।, जब भी मिलती मुस्कराकर मिलती थीं ।हम अपने-अपने परिवारों को संभालने में व्यस्त थे, तो मिलना और बैठकर बात करने का समय कम होता था।
सिर्फ हम दो ही नहीं, हम जैसी और भी नानी- दादी थीं जो मुस्कराती हुई, गर्व के साथ, समाज में आए इन परिवर्तनों को स्वीकार करते हुए, अपने कर्तव्यों को जी रहीं थी।ऐसा नहीं कि किसी को भी अपनी बहु या बेटी के नौकरीपेशा या महत्वाकांक्षी होने से उज्र था, अपितु वे सब प्रसन्न थी। कुछ ये दादी- नानी अपने समय में स्वयं नौकरीपेशा रहीं थीं ,कुछ वे भी, जिन्होंने परिवार के हित को सर्वोपरि मान, अपनी महत्वाकांक्षाओं को अनदेखा किया था, इन सबका, निरंतर हो रहे इस सामाजिक विकास में पूर्ण सहयोग व सहर्ष सहमति थी।
फिर भी कुछ द्वविधा थी, अपनी भूमिका, अपना जीवन, अपना भविष्य और उससे भी अधिक वे तमन्नाएँ, जो आज भी उनका मुँह ताक रहीं है। अभी भी अपने लिए जीने की इच्छा दबी हुई ही है और यह भी कि पौरूख भी अब थक गए हैं ।
मुझे ऐसी भी युवतियां मिली, जिन्होंने इस भागदौड़ के जीवन को न चुनकर, घर-परिवार का सुरक्षित जीवन चुना है।
और मैंने सोचा कि बेशक भाग दौङ न चुने पर सपने तो चुने।मुझे एक ऐसी युवती भी मिली, जिसने बताया उसे कला में , पेंटिंग, संगीत में रूचि है।वह शादी से पूर्व इसी में अपना समय सार्थक करती थी। संगीत की भी शिक्षा ली थी।यह सब बतातें हुए, उसकी आँखें उल्लास से चमक रहीं थी।
पर अब क्यों नहीं ?
मेरे इस सवाल के जवाब पर वह नैराश्य मुख से बोली,” अब कहाँ समय मिलता है!”
मैं हैरान थी, जो मुझे दिखता था…परिवार में, वह, उसका पति व एक चार साल का बेटा— घर के काम की मदद के लिए, एक कामवाली भी थी।
शायद ऐसा भी हो जो मुझे न दिखता हो, जिसने प्रयास में भी नाउम्मीदी का पर्दा डाला हुआ था।
बाद में मुझे वह सोसाइटी की भजन मंडली में अपने संगीत का शौक पूरा करते दिखती थी।
सोसाइटी की महिलाओं ने मिलकर एक ग्रुप बनाया था, वे सब मिलकर प्रत्येक बृहस्पतिवार को भजन-पाठ करती थीं । सावन के महीने में व नवरात्रि के दिनों में भी उनके विशेष कार्यक्रम होते थे।
हमारा मकान बनना शुरू हो गया था, एस. के. और सेतु प्लॉट पर जाते थे, भजन-पाठ के लिए मैं बनी को लेकर नहीं जा सकती थी। आरंभ में एक दिन गई भी थी, भजन-पाठ अच्छा भी लगा था, अन्य महिलाओं से मिलना भी खुशनुमा था। परंतु मैं धार्मिक मिज़ाज भी नहीं हुँ। अतः उसके बाद कभी समय भी हुआ, तब भी मैं भजन-पाठ के लिए नहीं गई थी। इस कारण भी हम दो वर्ष उस मकान में रहे थे, पर मेरी किसी महिला से गहरी जान- पहचान नहीं हो सकी थी, यूं अभिवादन योग्य जान-पहचान सबसे थी। हमारे फ्लोर पर भी दो फ्लेट के परिवारों से परिचय स्नेहपूर्ण नमस्कार तक ही सीमित था।
पर फिर भी मेरी दोस्ती स्मिता से हो गई थी। वहाँ रहते हुए, हमें नौ महीने हो गए थे, और हमारे घर दो खुशियों का आगमन हो रहा था, लक्ष्मी दो स्वरूपों में हमारे घर प्रवेश कर रही थी। मीशु ने विवाह का फैसला किया था और उसका विवाह श्रृष्टि से निश्चित कर दिया गया था।बनी भी बङा भाई बनने जा रहा था, और हमारा विश्वास लक्ष्मी स्वरूपा के लिए अभिनंदित था ।
कल एक परिंदा बैठा था खिङकी पर,
मैंने उसे देखा, उसने भी मुझे,
वह कुछ बोला नहीं,
पर मानों कहता था-
आवाज तो सुनते हो मेरी, क्या पुकार भी सुनते हो?
बात दाना- पानी की ही क्यों सदा?
कभी मेरी पुकार भी सुनो!
उसमें मेरा हाले-दिल छिपा है,
कभी ध्यान तो लगाओ उसमें ।
वह उङ गया,
मैंने सोचा, क्या वह कुछ कहने आया था?
पर मैंने नहीं सुनी उसकी आवाज़ ।