कविता- अंतिम ऊँचाई (कुँवर नारायण)
दुर्गम वनों और ऊँचे पर्वतों को जीतते हुए
जब तुम अंतिम ऊँचाई को भी जीत लोगे-
जब तुम्हें लगेगा कि कोई अंतर नहीं बचा अब
तुममें और उन पत्थरों की कठोरता में
जिन्हें तुमने जीता है-
जब तुम अपने मस्तक पर बर्फ का पहला तूफ़ान झेलोगे
और काँपोगे नहीं –
तब तुम पाओगे कि कोई फ़र्क नहीं
सब कुछ जीत लेने में
और अंत तक हिम्मत न हारने में ।
मीशु की सगाई से दो दिन पहले, एक छोटी-सी दुर्घटना में मेरा दायां कंधा चोटिल हो गया था।
दर्द डाक्टरी इलाज़ से भी ठीक नहीं हो रहा था। मुझे चिन्ता थी कि इतनी तकलीफ़ में मैं मीशु की शादी का काम कैसे संभालुंगी।जया भी गर्भवती थी, फिर भी वह मेरा बहुत बङा सहारा बनी रही थी।हमने मिलकर बहुत आराम से सब संभाल लिया था।
फिर मीशु की शादी के तीन महिने बचे थे। और मुझे एक नोटिस मिला कि सोसाइटी के कम्यूनिटी हाॅल में योगा क्लास शुरू हो रही है। मैंने भी योगा कक्षा में जाने का फैसला लिया था।
तब मेरी पहली मुलाकात अपनी योगा गुरू स्मिता से हुई।आयु +35 की होगी। इस बंगाली कन्या में मुझे एक गुरू के साथ, एक मित्र भी मिल गई थी। जब दिल- दिमाग मिल जाएं, तो आयु- भेद कोई अर्थ नहीं रखता है।
स्मिता से मैंने योगा सीखना शुरू किया था,उसने मेरी आयु व शारीरिक कष्टों को समझते हुए, योगासन कराए। मेरी मांमांसपेशियों में बहुत तनाव था, मुझे बहुत कठिनाई आ रही थी।
स्मिता मेरी कठिनाई देख, मेरे लिए आसान रास्ते निकालती, जिससे मैं आराम से आसन कर सकती थी। उद्देश्य एक ही था कि मेरी मांसपेशियों का तनाव कम हो ।
धीरे-धीरे कामयाबी मिलने लगी थी, मुझे लगने लगा, मेरा शरीर हल्का हो रहा है।अब मैं सब काम आसानी से कर रही थी, मेरा दायां कंधा बहुत काम कर सकता था।
जैसा मैंने पहले भी बताया है कि सोसाइटी का माहौल बहुत शांत था, सभी परिवारों का आपसी संबध मित्रतापूर्ण सहयोगी था।
मीशु की शादी में हमने मेहमानों के लिए दो-तीन फ्लैट सोसाइटी में ही लिए थे। मेहमानों के रहने का प्रबंध उनमें अच्छा हो गया था।
खाने-पीने, हलवाई , मेहंदी व लगन कार्यक्रम का आयोजन भी हमने सोसाइटी के प्रांगण में किया था। सभी कार्य बहुत शांति से पूर्ण हुए थे।
मीशु की शादी हुई और श्रीष्टी अपने शुभ कदमों से हमारे घर में प्रविष्ट हुई।
कुछ लोगों से हमारे पिछले जीवन का संबध होता है और वे इस जन्म में भी मिलते हैं।ऐसा मेरा निजी अहसास है।
श्रीष्टी की मम्मी परिमला जी को मैं जानती थी, पर पहचानती नहीं थी। वह सेक्टर-7 में ही रहती थी, पर मेलजोल नहीं हुआ था।वह मीशु के स्कूल के प्रशासनिक विभाग में काम करती थीं, मैं उनके व्यक्तित्व से प्रभावित थी।
यह कुदरती करिश्मा है कि जिन्हें हम बरसों से जानते हैं, उनसे एक दिन करीबी रिश्ता जुङता है।
यह रिश्ता अथार्त उत्तर और दक्षिण का मिलन है। एक-दूसरे की संस्कृति को सम्मान देने में ही रिश्तों की सार्थकता है।
परिमला जी के कारण, शादी में, मीशु के स्कूल के प्रबंधक, प्रिंसिपल के साथ पूरा स्कूल आया था और मीशु व श्रीष्टी को अपने गुरूओं का आशीर्वाद प्राप्त हुआ था।
क्योंकि हम दोनों ही परिवार कई वर्षों से सेक्टर -7 में रह रहे थे, अतः मैं देख रही थी कि, हमारे जीवन सफर के सहभागी हमारे बच्चों को अपनी शुभकामनाएं दे रहे थे।
स्मिता ने योगा क्लास, विशेष रूप से घरेलू महिलाओं के लिए ही शुरू की थी। पर अफसोस की बात है कि भारतीय महिलाएं अपने स्वास्थ्य के लिए जागरूक नहीं है।
योगा में मेरे अतिरिक्त किसी महिला ने रूचि नहीं ली थी।
शनिवार- रविवार की कक्षाओं में भी सिर्फ तीन-चार महिलाएं ही आती थीं। उसमें जया भी जाती थी।
महिलाएं अपने घर के कार्यों व जिम्मेदारियों से फुर्सत नहीं पाती हैं। ऐसा नहीं कि महिलाओं ने रूचि नहीं ली थी, महिलाओं ने मुझ से योगा व स्मिता की जानकारी प्राप्त की थी।वे स्मिता से मिलने भी आईं थी, योगा भी करना चाहती थीं, पर नहीं कर सकी थीं ।
इसका एक मुख्य कारण फीस भी थी, घरेलू महिलाएं अपने लिए कब पैसे खर्च करना चाहती हैं ?
वे घर खर्च से बचत करके, किट्टी पार्टी तो करती हैं, पर अपने स्वास्थ्य पर खर्च करना, उन्हें अपव्यय लगता है।
हमारी सोसाइटी में शिक्षित व संपन्न परिवार रहते थे, पर न तो महिलाओं को स्वयं, न उनके परिवार को उनके स्वास्थ्य के प्रति चेतना थी।
स्मिता ने मेरा बौद्ध धर्म से भी परिचय कराया था।मैं उसके साथ ग्रुप की मीटिंग में भी दो बार गई थी। मुझे बहुत अच्छा लगा था। वे सब सिर्फ अपने दुःखों व कष्टों के लिए ही नहीं , दूसरों के लिए, समाज में नित नई आपदाओं से मुक्ति के लिए भी प्रार्थना करते हैं। मैंने समझा कि प्रार्थना में बहुत शक्ति है और उसे मैंने व्यक्तिगत रूप से भी अनुभव किया है।
कोरोना के कारण, अब स्मिता ऑनलाइन योगा क्लास लेती है, इस तरह योगा और स्मिता से मेरा अटूट संबध बन गया है।
मीशु की शादी के दो महीने बाद ज़विका का जन्म हुआ था। हम सब खुश थे, हमारे सभी परिचित, हमें विशेष बधाई दे रहे थे चूंकि एक लंबे समय बाद हमारे खानदान में कन्या का जन्म हुआ था।
हमारा सेक्टर-7 का फ्लैट भी लगभग तैयार था। परंतु कोरोना नामक गंभीर बीमारी ने सारे देश- विदेश के वातावरण में एक नए संकट का प्रादुर्भाव कर दिया था।
ज़विका अभी एक महीने की ही थी और लाॅकडाउन ने, घर के सभी सदस्यों को, घर के अंदर कैद कर दिया था।
अब सब ऑफिस घर से कर रहे थे। कोई कामगार नहीं आ सकता था।हम सब मिलकर घर के काम कर रहे थे।
हमारे मकान का निर्माण कार्य भी रूक गया था। ये दिन बहुत बैचेनी और दर्द भरे हैं ।
धीरे-धीरे स्थिति में कुछ समय के लिए सुधार हुआ, लाॅकडाउन खुला, परंतु बंदिशें थी। कोरोना से बचाव रखना था।
अभी भी मींटू के अतिरिक्त सभी घर से ऑफिस कर रहे थे।
परंतु यह अच्छा हुआ कि मकान का निर्माण कार्य फिर शुरू हुआ व दीपावली से पहले, हमने अपने नए मकान का गृहप्रवेश किया था।
एक सपना साकार हुआ था और हम अपने मकान में शिफ्ट हुए थे।
जीवन क्या है ?
जीवन एक दर्शन है,
अनगिनत सवालों का जवाब है,
उमङते उफानों का सैलाब है।
मुठ्ठी में बंद लम्हों का हिसाब है।
दुखों में भीगे सुखों का ख्याल है।
न पूछें, यह क्या है?
यह तो महज एक उलझी किताब है