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मासिक अभिलेखागार: सितम्बर 2021

माँ की याद में -(अंतिम भाग )

17 शुक्रवार सितम्बर 2021

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स्वर्गिक यात्रा

माँ की स्वर्गिक यात्रा पापा के बिना पूर्ण नहीं हो सकती है। माँ की अंतिम विदाई हुई और पापा याद आए।
पापा की बातें, जो वह माँ के लिए करते थे, वह भी अपने लिए किसी सुख की बात नहीं करते थे, चूंकि माँ के सुख में ही उनका सुख था।
माँ का सुख, माँ की चिन्ता और माँ के लिए उनके ह्रदय में सिर्फ प्रेम को ही नहीं , माँ के लिए सच्चे सम्मान को भी महसूस किया जा सकता था।

वह नास्तिक नहीं थे, पर पूजा- पाठ के पाबंद न होते हुए भी माँ की पूजा-अर्चना के प्रति पूर्ण श्रद्धा रखते थे।
एक सामान्य गृहस्थ व्यक्ति के मन में यह साध रह जाती है कि वह अपनी सहधर्मिणी को जीवन के समस्त सुख दे पाता। वह अपनी जीवनसंगिनी के त्याग और तपस्या के सामने नतमस्तक होता है।

पापा, माँ की झोली समस्त सुखों से भरना चाहते थे। उन्होंने कहा,” देखें , तुम्हारी माँ की झोली कब उनकी पूजा के फलों से भर पाती है।”
तब पूजा के फल अथार्त सांसारिक सुख ही समझा गया था। हम तार्किक लोग कैसे समझ सकते थे! यह तो अब जाना माँ को सांसारिक सुख की नहीं आत्मिक और अलौकिक सुख की चाह थी।

माँ की भक्ति अतार्किक थी, तभी तो वह सच्ची भक्तिन बनी और ईश्वर को पा सकी हैं ।

पापा का आशीर्वाद माँ के लिए-

‘आशीर्वाद ‘

आज मैं निश्चित हुआ,

प्रसन्न हुआ, आत्मविभोर हुआ,

जो तुमने आज अपनी पूजा का फल पाया है।

तुम्हारी झोली पूजा के फूलों

और प्रसाद से भरी है-

मन बाग-बाग हुआ जाता है-

तुम्हारे उल्लसित, आनंदित , प्रकाशमान चेहरे को देख,

वाह। ! क्या! तुमने अपनी-

त्याग और तपस्या का फल पाया है,

यूँ तो मेरा आशीर्वाद था तुम्हें –

जीवन के समस्त सुखों से,

झोली भरे रहे तुम्हारी-

हाँ, आशीर्वाद तो रहा-

पर आत्मविभोर हुआ जाता हूँ

कि

तुमने आज अपनी पूजा का फल पाया है।

यही तो थी तुम्हारी तपस्या-

तब न समझ पाया,

पर आज आत्मविभोर हो तुम्हें ,

निहारा करता हूँ ,

तुमने अपनी भक्ति का फल पाया है।

आज मैं निश्चित हुआ।

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माँ की याद में -(भाग-5)

17 शुक्रवार सितम्बर 2021

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स्वर्गिक यात्रा

एक खूबसूरत अनोखे , अनमोल, अवर्णनीय दृश्य के हम साक्षी बने, यह हमारा सौभाग्य था।
वह जा रहीं थी और हम भजन गा रहे थे, हमें किसी ने नहीं कहा था, हमने एक-दूसरे से भी भजन गाने के लिए , नहीं कहा था, पर हम उस दृश्य में डूब गए थे। जैसे कि हम अनुभव कर सकते थे कि माँ को लेने स्वयं प्रभु आए हैं ।

माँ का उज्जवल , शांत चेहरा हमें अभिभूत कर गया था। मुझ अज्ञानी के पास शब्द नहीं कि उस दृश्य को शब्दों में बाँध संकू।


‘स्वर्गिक आनंदित पल ‘

आज मैं आनंदित , उल्लसित,

तुम मुझे लिवाने आए हो,

मेरे प्रभु! तुम मेरे द्वारे आए हो,

आनंदित, उल्लसित दीवानी हुई जाती मैं,

आरती गाऊँ ,भजन गाऊँ?

धूप जलाऊँ, दीप जलाऊँ ?

मैं दीवानी, कुछ समझ न पाती हुँ,

तुम मुझे लिवाने आए हो,

द्वार पर फूल बिछाऊँ,

दीपों की माला सजाऊँ,

या

स्वयं दीप बन जाऊँ ,

आनंदित -उल्लसित दीवानी हुई जाती मैं ,

तुमने थाम मुझे रथ पर बिठाया है,

वाह! यह स्वर्गिक आनंदित पल,

मैं तुम में लीन हुई जाती हुँ,

यह सुंदर भजन स्वर!

हाँ ……….मेरे उत्तराधिकारी……….

तुम्हारे स्वागत में, मेरी अंतिम विदा पर,

भजन गाते हैं ।

तुम्हारी कृपा से इन्होंने मेरा-

यह अंतिम मार्ग सुलभ कराया है।

मैं आनंदित , उल्लसित बाल- सुलभ, किलकारी करती,

तुम संग इन पर शुभाशीषों की वर्षा करती हूं। :

जानती हुँ, विश्वास है मुझे-

तुम संभालोगे इन्हें ।

मैं तो आनंदित, उल्लसित, बस

दीवानी हुई जाती हूँ,

तुम मुझे लिवाने आए हो।

क्रमशः

माँ की याद में -(भाग-4)

16 गुरूवार सितम्बर 2021

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स्वर्गिक यात्रा

जीवन में उल्लास व आशा दिखती है तो मृत्यु में रहस्यमय भय व निराशा है। यह सच है कि जीवन है तो मृत्यु भी अवश्यंभावी है।

मृत्यु क्या है? कैसी है? उसके बाद क्या? ऐसे अनेक प्रश्न मृत्यु से जुड़े है।
मृत्यु की रहस्यमयी प्रवृति मन में भय पैदा करती है।

जीवन के अंतिम पङाव में मृत्यु का ख्याल एक अनिश्चितता पैदा करता है।
माँ की बिमारी ने जहाँ हम उनके अपनों को चेताया था, वहाँ माँ भी निश्चित हो गई थी कि यह जीवन पूर्ण हुआ जाता है।

‘अनजाना भयभीत मन’

क्या मैं प्रसन्न हूँ ?
कि
जिस वक्त का था इंतजार ,
आखिर वो आ गया।
अगर हां , तो फिर यह डर कैसा?

यूं तो प्रभु! होती तो हूँ, मैं तुम्हारे ध्यान में ,

पर हर स्वर पर चौंक जाती हूँ ,

क्यों ?

पूर्णतः शांति, बेआवाज़ डराती है मुझे ,

क्यों ?

अकेला होना भयभीत करता है,

क्यों ?

लेटना चाहती हूँ , पर-

लेट कर सोने का ख्याल सहमा देता है,

क्यों ?

क्या यह मृत्यु का भय है?

गर जानती हूँ कि उस पार भी खुशी है,

तो यह भय क्यों ?

गीता के तुम्हारे प्रत्येक अक्षर पर,

विश्वास है मुझे,

पूर्णतः तुम पर विश्वास है मुझे ,

तो यह भय!

क्यों ?

इस शरीर से भी मोह नहीं मुझे,

पर प्राणों के निकलने का भय!

क्या यही है वो डर!

ओह! यह बैचेनी !

ईश्वर ! मेरी हर सांस तेरा नाम लेती!

लेकिन

जब यह सांस निकलेगी इस शरीर से-

तब क्या ले पाऊँगी नाम तेरा?

क्या यही है वो डर?

पर

मै शांत भी हूँ ,

तुम हो साथ मेरे,

यह है विश्वास है साथ मेरे,

पर हूँ तो साधारण मानस,

तब न हो दर्द –

यह भय है क्या?

अब तो तुम्हीं पार लगाओगे!

हाथ तुम्हारा थाम,

भवसागर पार जाऊँगी ।

क्रमशः

माँ की याद में -(भाग-3)

11 शनिवार सितम्बर 2021

Posted by शिखा in Uncategorized

≈ 4s टिप्पणियाँ

स्वर्गिक यात्रा

व्यक्ति सांसारिक मोह-माया में पूर्णतः जकङा होता है, वह उससे मुक्त होना चाह कर भी, नहीं हो पाता है।
एक सच्चा साधू-संत भी इस मोह-माया में कहीं न कहीं फंसा रह जाता है।
संत कबीर ने भी कहा है,
“जहाँ लगि सब संसार है, मिरग सबन की मोह
सुर, नर, नाग, पताल अरु, ऋषि मुनिवर सब जोह।”

माँ तो एक सामान्य गृहणी थी, जिनका जीवन सांसारिक धर्म सच्चे मन से निभाने में बीता था।
‘कर्म ही भगवान् की पूजा है’ यह उनकी ईश्वरीय साध थी पर साथ ही पूजा-अर्चना को अपना पूरा समय देना भी उनका अपना व्यक्तिगत संकल्प था।जिसमें उन्होंने कभी चूक नहीं होने दी थी।

और अब अंत समय सामने था, वह ईश्वर में लीन होना चाहती थीं, अपने प्रभु की ऊंगली पकङ वह उस पार जाना चाहती थी। लेकिन वह जानती थी कि जब तक सांसारिक मोह-माया से बंधी हूँ, प्रभु उंगली नहीं थामेंगे।
यह आसान नहीं था, पर वह जानती थी नामुमकिन भी नहीं है।

कबीर कहते हैं –
” मोह नदी बिकराल हे, कोई न उतरे पार
सतगुरु केबट साथ लेई, हंस होय जम न्यार।”

‘मोह और ईश्वर ‘

छोङना होगा, अब सब कुछ,
हर मोह, माया और सारी चिन्ताएँ।
जाने का समय आएगा………….
आया है……. आ रहा है………..।

मुक्त होना होगा सब बंधनों से,

अब नहीं देखना किसी ओर-

ईश्वर ! सिर्फ तुम्हें देखूँ-

तुम्हें देखते-देखते मुक्त हो जाऊँ,

प्रार्थना है मेरी-

अब कोई पूजा नहीं, पाठ नहीं,

प्रार्थना ही है सब,

तुम बैठे हो मेरे मन में ,

तुम बैठे, मेरे सामने-

अब कोई कांड नहीं ,

सिर्फ तुममें लीन होना है,

तुममें ही समाना है।

छोङना होगा सब कुछ-

बिना किसी कष्ट के-

तभी तो दोगे तुम मुक्ति

यह कैसा कोलाहल?

हर तरफ शोर…….,

मुझे नहीं देना ध्यान कहीं ओर-

सिर्फ और सिर्फ तुममें ध्यान लगाना है-

क्योंकि, अब मुझे तुम्हें पाना है!

आया है वक्त, आ गया है वक्त,

तुममें ही समाना है-

क्यों कभी-कभी मन भटकता है?

क्यों कोई मोह सिर उठाता है,

नहीं ! नहीं ! मुझे सब छोङना होगा,

किसी भी बाधाओं पर ध्यान नहीं देना होगा-

अब तो नाव आई है किनारे-

मुझे साथ लिवाने, उस पार जाने को,

बस कुछ समय और-

मोह रूपी रस्सी के खुलते ही-

नाव चल पङेगी उस पार।

मुझे नहीं देखना, पलट कर उन मोह बंधनों को,

जिनमें बंधी थी मैं,

अब तो आया है, समय-

ईश्वर को पाने का,

उसमें चूक नहीं होने देनी है-

अब छोङना ही होगा सब कुछ।

मुझे प्रभु में लीन होना है।

क्रमशः

माँ की याद में – (भाग-2)

06 सोमवार सितम्बर 2021

Posted by शिखा in Uncategorized

≈ 2s टिप्पणियाँ

स्वर्गिक यात्रा

ऐसा माना जाता है कि एक माँ अपनी सबसे छोटी संतान के साथ अधिक जुङाव रखती है।
हालांकि मैं इस तथ्य से सहमत नहीं हुं, चूंकि हमारी माँ का अपनी सभी संतानों से एक समान जुङाव व विश्वास था।
पर जब कोई उस जुङाव व विश्वास को अनदेखा कर गया हो, तब एक माँ का ह्रदय यह समझ सकने में असहाय था कि यह कैसे हो सकता है ?

सबसे छोटी संतान (छोटे पुत्र) को लापता हुए, 29 वर्ष हो गए थे, उसके जाने को सबने स्वीकार किया था, यह ही मान लिया था कि वह अब इस दुनिया में नहीं है।(उसके न होने के प्रमाण भी थे)।

पर एक माँ प्रमाण नहीं मानती, वह सिर्फ अपने विश्वास को समझती है।
वह तो अंत तक उसकी राह देखती रहीं थी।

वह यह मानती थीं कि वह उनके साथ लुकाछिपी का खेल खेल रहा है ।जैसे कृष्ण अपनी माता के साथ खेलते थे।

‘यह कदंब का पेङ अगर माँ होता यमुना तीरे,
मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे ।’

उन्होंने इस लुकाछिपी के खेल को ही सच माना था।
जब यह जान लिया कि अंतिम समय सामने हैं , तब एक बार फिर ह्रदय विकल हुआ, ‘ उससे मिलने के लिये , कितने सवाल……एक बार आँख भर देखने के लिए।’

फिर अपनी इस विह्वलता को शांत कर, इस लुकाछिपी में ही अपनी संतान का सुख स्वीकार कर, अपने को समझा लिया कि’ मैं न सही, पर वह मुझे देख रहा है और वह मेरे अंत समय को जान जाएगा।’

‘ज़ख्म जो कभी नहीं भरा’

तुम हो आस-पास मेरे,

यह विश्वास ही नहीं ,जानती हूँ ,

कि देखा है,पहचाना है,

क्या?

गर लगा कि तुम ही हो तो!

सोचा-‘जरूर पुकारोगे,’

और, क्यों न चाहूँ?

तुम पुकारो मुझे-

तुम ही ने तो किया था भ्रमित!

क्या नहीं जानते थे तुम?

कुछ अलग जुङाव,

कुछ अलग अनुभूति ,

बहुत -सा अपनापन-

सबसे समभाव रहते हुए भी,

तुम कुछ अलग, निजी,

फिर भी चले गए न!

चलो……………..

अब तो बीता लंबा समय…….

थक गई………………… !

पुकारो न! मम्मी !

तृप्त आत्मा दें तुम्हें भी

‘आशीष’

क्रमश:

माँ की याद में –

04 शनिवार सितम्बर 2021

Posted by शिखा in Uncategorized

≈ 4s टिप्पणियाँ

माता-पिता को हम याद नहीं करते हैं , अपितु वे हर पल हमारे साथ होते हैं ।अपने जीवन के हर क्षण हम उनके साथ जीते हैं ।

पापा के जाने के लगभग 21वर्ष बाद माँ हमें छोङ कर गई थीं , अथार्त वह पापा की तुलना में अधिक समय तक हमारे साथ रहीं थी। पर सच तो यह था कि वह थीं तो जैसे पापा भी साथ थे।

अब तो माँ के स्वर्ग वास को भी 7 वर्ष हो गए हैं ।
आज अपनी डायरी के पन्नें पलटते हुए, उन कुछ पन्नों में फिर माँ जैसे अपने अहसासों के साथ मेरे सामने थीं।

सात वर्ष पूर्व, जब डॉक्टर ने घोषित किया कि माँ का अब अंत समय आ गया है। हम सब उनकी संतानें(पुत्र-पुत्री, पोते-पोती), उनकी देखभाल के बहाने उनके साथ अधिक से अधिक समय व्यतीत करने का प्रयास कर रहे थे।
वह भी अपनी इस स्वर्गिक यात्रा की तैयारी के अहसासों को जीने लगी थी।

मैं मुर्ख उनके इन अहसासों को समझने का प्रयास करने लगी, भला मैं कैसे उनके अहसासों को जी सकती थी? फिर भी मैं यह दुःसाहस कर रही थी। और अपने इस प्रयास को डायरी में उतार रही थी।
आज फिर जब डायरी के वे पन्ने खुले तो मन हुआ, माँ की याद को सबके साथ बांटू।

माँ ! मुझे माफ करना, आपके अहसासों और भावनाओं को समझने के अपने अनगढ़ प्रयास पर मैं शर्मिंदा हुँ।
क्योंकि कोई भी किसी के अहसासों को जी नहीं सकता है।
अपने सभी प्रियजनों से भी मैं अपने इस दुःसाहस के लिए माफी चाहती हूं।

ये शब्द मेरे हैं, मैं कह रही हुं , इस तरह जैसे वह अपने अंतिम क्षणों में हमें अपने अहसासों का भागी दार बना रहीं हो।
मैं एक बार फिर स्पष्ट कर रही हुं कि यह मेरी उनके अहसासों की मात्र कल्पना है।

‘स्वर्गिक यात्रा’

मैंने महसूस किया कि माँ अपनी इस स्वर्गिक यात्रा की तैयारी में पापा को अवश्य याद करती होंगी । उस समय बहुत छोटी आयु में एक लङकी का विवाह कर दिया जाता था, इस तरह लङकी ,अपना बचपन , जवानी… तमाम उम्र पति के साथ, अपनी ससुराल, अपनी गृहस्थी में ही गुजारती थी।मायका तो एक हल्की मीठी याद बन कर रह जाता था।

जब शायद माँ ने पापा (अपने पति) को याद किया होगा।-

‘प्रथम अहसास ‘

(‘अंतिम घड़ी’)

ज़िंदगी तुम से ही है,

यह समझाया तो गया ही था- पर यह भी तो कि जब ठीक से खुली आँख,
तुम ही थे सामने,

तुम से है ज़िन्दगी , याद था पाठ मुझे-

अब तुम ही जीवन धूरी,

तुम ही सुन्दर स्वप्न ,

तुम से ही बुझता कलुषित मन।

तुम और तुम्हारी निशानियाँ,

यही जीवन अर्थ ,

हमारा संघर्ष, हमारी जीत (‘मैं’ तो पता नहीं क्या है?)

और

फिर तुम चले गए – – – – –

एक लंबा सफर- – – – –

पर मैं कहां थी, तुम्हारे बिना? बीता जीवन था-
जो तुम संग और तुम्हारे कारण था।

कुछ दर्द टीसे मारते,

कहते हैं कि तुमसे मिले हैं ,

पर तुम तो याद आते हो,

अक्सर मरहम लगाते-

जो भी हो, अब नए सफ़र की तैयारी है-

क्यों लगता है?

खङे हो उस पार, बढ़ाए हाथ,

आखिर होता तो है,

जन्म-जन्म का साथ।

क्रमशः

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