स्वर्गिक यात्रा
माँ की स्वर्गिक यात्रा पापा के बिना पूर्ण नहीं हो सकती है। माँ की अंतिम विदाई हुई और पापा याद आए।
पापा की बातें, जो वह माँ के लिए करते थे, वह भी अपने लिए किसी सुख की बात नहीं करते थे, चूंकि माँ के सुख में ही उनका सुख था।
माँ का सुख, माँ की चिन्ता और माँ के लिए उनके ह्रदय में सिर्फ प्रेम को ही नहीं , माँ के लिए सच्चे सम्मान को भी महसूस किया जा सकता था।
वह नास्तिक नहीं थे, पर पूजा- पाठ के पाबंद न होते हुए भी माँ की पूजा-अर्चना के प्रति पूर्ण श्रद्धा रखते थे।
एक सामान्य गृहस्थ व्यक्ति के मन में यह साध रह जाती है कि वह अपनी सहधर्मिणी को जीवन के समस्त सुख दे पाता। वह अपनी जीवनसंगिनी के त्याग और तपस्या के सामने नतमस्तक होता है।
पापा, माँ की झोली समस्त सुखों से भरना चाहते थे। उन्होंने कहा,” देखें , तुम्हारी माँ की झोली कब उनकी पूजा के फलों से भर पाती है।”
तब पूजा के फल अथार्त सांसारिक सुख ही समझा गया था। हम तार्किक लोग कैसे समझ सकते थे! यह तो अब जाना माँ को सांसारिक सुख की नहीं आत्मिक और अलौकिक सुख की चाह थी।
माँ की भक्ति अतार्किक थी, तभी तो वह सच्ची भक्तिन बनी और ईश्वर को पा सकी हैं ।
पापा का आशीर्वाद माँ के लिए-
‘आशीर्वाद ‘
आज मैं निश्चित हुआ,
प्रसन्न हुआ, आत्मविभोर हुआ,
जो तुमने आज अपनी पूजा का फल पाया है।
तुम्हारी झोली पूजा के फूलों
और प्रसाद से भरी है-
मन बाग-बाग हुआ जाता है-
तुम्हारे उल्लसित, आनंदित , प्रकाशमान चेहरे को देख,
वाह। ! क्या! तुमने अपनी-
त्याग और तपस्या का फल पाया है,
यूँ तो मेरा आशीर्वाद था तुम्हें –
जीवन के समस्त सुखों से,
झोली भरे रहे तुम्हारी-
हाँ, आशीर्वाद तो रहा-
पर आत्मविभोर हुआ जाता हूँ
कि
तुमने आज अपनी पूजा का फल पाया है।
यही तो थी तुम्हारी तपस्या-
तब न समझ पाया,
पर आज आत्मविभोर हो तुम्हें ,
निहारा करता हूँ ,
तुमने अपनी भक्ति का फल पाया है।
आज मैं निश्चित हुआ।