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शिखा…

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मासिक अभिलेखागार: जून 2022

स्वामी विवेकानंद (भाग-5)

29 बुधवार जून 2022

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ज्ञान की केवल एकमात्र कुंजी

विवेकानंद जी कहते हैं कि एकाग्रता की शक्ति ज्ञान के कोषागार खजाने की केवल एकमात्र कुंजी है।
हम अपने शरीर की वर्तमान अवस्था में बहुत व्यग्र रहते हैं और मस्तिष्क ऐसी वस्तुओं में अपनी शक्ति के टुकड़े कर रहा है।


जैसे ही मै अपने विचारों को पुकारता हुँ और अपने मस्तिष्क को ज्ञान के किसी एक तत्व पर एकाग्र करने लगता हूँ, हजारों अनिच्छित प्रवृत्तियाँ मस्तिष्क पर झपट पङती हैं, हजारों विचार दिमाग पर आक्रमण कर इसे व्याकुल करते हैं।

कैसे इसे जांचा जाए और मस्तिष्क को कैसे नियंत्रित किया जाय ये समस्त विषय राजयोग के अध्ययन में हैं ।
ध्यान का अभ्यास ही मानसिक एकाग्रता की ओर ले जाता है।
मेरे लिए शिक्षा का संपूर्ण सार मस्तिष्क की एकाग्रता है न कि तथ्यों को एकत्र करना।
यदि मैं अपनी शिक्षा दुबारा प्राप्त करूं, मैं तथ्यों को एकत्र नहीं करूंगा।मैं एकाग्रता और पृथ्क्करण की शक्ति का विकास करूंगा और तब एक पूर्ण प्रवीण यंत्र के साथ तथ्य एकत्र होंगे।

मेरी समझ

मन की एकाग्रता ही एक समस्या है, हम अपने चंचल मन को नियंत्रित नहीं कर पाते हैं । ज्ञान प्राप्त करने के लिए
मन को साधने का ही अभ्यास करना है।

एकाग्रता के लिए ब्रह्मचर्य आवश्यक है

विवेकानंद जी कहते हैं, “जो 12वर्ष की अवधि के लिए ब्रह्मचार्य का अनुसरण करता है, उसके पास शक्ति आती है।
पूर्ण सयंम महान (विशाल) बुद्धि और धार्मिक शक्ति देता है।नियंत्रित इच्छा उच्च परिणाम की ओर अग्रसर होती है।

वासनात्मक शक्ति का धार्मिक शक्ति में हस्तांतरण होता है। शक्तिवान इस शक्ति के साथ अधिक से अधिक कार्य कर सकता है।
आत्मसंयम की अवेहलना के कारण, हमारे देश में प्रत्येक वस्तु बर्बादी के तट पर है। कठोर ब्रह्मचार्य का अनुसरण करके, बहुत कम समय में समस्त सीखने वाली वस्तुओं में विशेषज्ञ बना जा सकता है।
एक बार जो सुना या जाना, वह हमेशा याद रहे, ऐसी कभी न मिटने वाली स्मरण शक्ति की प्रत्येक व्यक्ति को आवश्यकता है। एक पवित्र मस्तिष्क में अत्यधिक शक्ति और विशाल इच्छा शक्ति है।
शुद्धता के बिना धार्मिक ताकत नही हो सकती है। संयम मानव प्राणी के ऊपर महान नियंत्रण प्रदान करता है।

प्रत्येक बालक को पूर्ण ब्रह्मचर्य के अभ्यास में प्रशिक्षित होना चाहिए, तब विश्वास और श्रद्धा आएगी।
विचारों, शब्दों और क्रियाओं में शुद्धता और प्रत्येक स्थिति में शुद्धता ही ब्रह्मचार्य कहलाता है।
अपवित्र कल्पना वैसे ही बुरी है, जैसे अपवित्र कार्य ।एक ब्रह्मचारी को विचारों, शब्दों और क्रियाओं में शुद्ध होना चाहिए ।”

मेरी समझ

जीवन में सयंम रखने से व्यक्ति मन और कर्म से शुद्ध हो जाता है, ऐसे व्यक्ति को मन को साधने में कठिनाई नहीं आती है

श्रद्धा समस्त विकास का आधार है।

श्रद्धा का विचार हममें फिर से लाया जाना चाहिए । हमारा अपना स्वयं में विश्वास फिर से जागृत होना चाहिए और तब हमारा देश जिन समस्याओं का सामना कर रहा है, धीरे-धीरे हमारे द्वारा सुलझ जाएगी।

हम कैसी श्रद्धा चाहते हैं ? जो आदमी आदमी में अंतर होता है, वैसा ही श्रद्धा में अंतर हैं और कुछ नहीं है।
जो एक आदमी को महान बनाता है और दूसरे को कमजोर, यह एक श्रद्धा है।
मेरे गुरू अक्सर कहा करते थे, जो अपने को कमजोर सोचता है, वह कमज़ोर बनता है, और यह सच है।
ऐसी श्रद्धा तुममें होनी चाहिए।
जो तुम भौतिक विषय में देखते हो, पाश्चात्य दौङो या उन्नतियों द्वारा उत्पादन इस श्रद्धा को बाहर लाता है, क्योंकि वह अपनी मांसपेशियों पर विश्वास करते हैं । और यदि तुम आत्मा पर विश्वास करते हो तो कितना अधिक कार्य करोगे।

मेरी समझ

हम जैसी भावना अपने लिए रखते हैं, हम वैसे ही बन जाते है।अतः हमें अपने ऊपर विश्वास रखना चाहिए। हमारा आत्मविश्वास हम से बङे से बङा कार्य करा सकता है।

एक वह बनता है जो वह सोचता है

विवेकानंद जी कहते हैं, ‘ मैं यह एक सत्य समझाना चाहता हूँ। कोई भी अच्छाई आदमी से बाहर नहीं आती। जो रात – दिन सोचता है वह कुछ नहीं है, वह ‘कुछ नहीं’ बन जाता है।
यदि तुम कहते है, मैं हूँ, मैं हूँ , इसलिए तुम होंगे, यह महान सच्चाई है, तुम्हें याद रखनी चाहिए ।
हम परमेश्वर की संतान है, हम अपरिमित दैवीय अग्नि के अग्निकण हैं ।
हम कैसे कुछ नहीं हो सकते? हम सब कुछ हैं , सब कुछ करने को तैयार हैं, हम सब कुछ कर सकते हैं ।

हमारे अंदर का यह विश्वास, हमारे पूर्वजों के ह्रदय में था, हमारे में यह विश्वास, एक प्रेरक था, जो सभ्यता के विकास की तीव्र गति में आगे बढ़ा दिया गया था।
यदि वहां कुल की मर्यादा भंग है, यदि वहां गलती है, तुम पाओगे कि कुल की मर्यादा का त्याग उस दिन से शुरू हो गया था, जिस दिन हमारे लोगों ने अपने अंदर यह विश्वास खो दिया था।

श्रद्धा या सच्चे विश्वास के सिद्धांत का उपदेश मेरे जीवन का कर्म है। अब मैं तुम्हें दुहराता हूँ कि यह विश्वास मानव के महत्वपूर्ण तत्वों में से एक है।
प्रथम तुम्हारे अंदर स्वंय पर विश्वास होना चाहिए ।
यह जानो कि किस प्रकार एक छोटा बुलबुला होता है और दूसरी उच्च शिखर की लहर होती है, इन दोनों, बुलबुले और लहर के पीछे अपरिमित समुद है।

अपरिमित सागर मेरा पिछला आधार है, जिस प्रकार तुम्हारा है। मुझमें भी जिन्दगी का, शक्ति का, आध्यात्मिकता का सागर है जैसे तुम्हारा है।
इसीलिए मेरे भाइयों! इस जीवन को बचाना, महान प्रतिष्ठा को बढ़ाना, ऊँचे सिद्धांत अपने बच्चों को सिखाओ, यहां तक कि तब से जब से उनका जन्म हुआ है, उन्हें सिखाओ।’

मेरी समझ

हमारे अंदर बहुत अच्छाईयाँ हैं, हमें उन पर विश्वास रखना चाहिए।हमें अपनी सभ्यता और संस्कृति पर विश्वास करना चाहिए। अपने बच्चों को भी यह सिखाना चाहिए । विश्वास, आत्मविश्वास ही जीवन संघर्ष की शक्ति है।

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स्वामी विवेकानंद (भाग-4)

27 सोमवार जून 2022

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शिक्षा की एकमात्र पद्धति

एकाग्रता

विवेकानंद जी कहते हैं, ‘ ज्ञान प्राप्त करने की एक ही पद्धति है, जिसे ‘एकाग्रता’ कहते हैं।शिक्षा का पूर्णतः सार मस्तिष्क की एकाग्रता है।
कमतर व्यक्ति से उच्चतम योगी तक सभी ज्ञान प्राप्त करने के लिए इस पद्धति का प्रयोग करते हैं ।

एक रसायन शास्त्री जो अपनी प्रयोगशाला में काम करता है, अपनी दिमाग की सभी शक्तियों का मनन करता है, उन्हें एक केन्द्र में लाता है, और तत्वों पर उनका प्रयोग करता है, तत्व व्याख्या करते हैं, तब उसे ज्ञान प्राप्त होता है।

एक खगोलशास्त्री अपनी दिमागी शक्तियों पर मनन करता है, उन्हें एक केन्द्र में लाता है और दूरदर्शक यंत्र की सहायता से उनका तत्वों पर प्रयोग करता है, तारे और पद्धति चक्र कार्य करते हैं और उसे अपने रहस्य प्रदान करते हैं।

यह प्रत्येक पर लागू होता है, जो ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रयास करता है। एक प्रोफेसर अपनी कुर्सी पर बैठकर या एक छात्र अपनी किताब से ज्ञान प्राप्त कर रहा हो।’

मेरी समझ


किसी भी काम को पूर्ण एकाग्रता से करा जाए, तो उसमें सफलता अवश्य मिलती है। कोई भी ज्ञान प्राप्त करने के लिए हमें सर्वप्रथम अपने चित्त को स्थिर रखना चाहिए जिससे आपकी बुद्धि की समस्त शक्तियाँ जागृत हो, आपके ज्ञान प्राप्त करने में आपकी सहायक हो।

इसकी शक्ति

एकाग्रता की शक्ति उस ज्ञान से बङी है जिसे हम पाना चाहते हैं । यदि बहुत गंदे काले जूतों को भी एकाग्रता से चमकाया जाए तो काले जूते चमक जाएंगे।
खानसामा एकाग्रता से खाना बनाए तो खाना स्वादिष्ट बनेगा।
पैसा कमाने के लिए, या ईश्वर की आराधना करते समय अथवा कोई भी कार्य करते समय हमारी एकाग्रता की शक्ति जितनी ताकतवर होगी, हमारा कार्य उतना ही अच्छा होगा।
सिर्फ एक बार पूरे मन से दरवाज़ा खटखटाने से प्रकृति के दरवाज़े खुलते हैं और रोशनी की बाढ़ बाहर आती है।

मेरी समझ

हमें अपने मन को ताकतवर बनाना है, जितना चित स्थिर होगा, उतनी हमारी एकाग्रता बढ़ेगी, और कार्य के परिणाम उतने ही बेहतर होंगे।

तापमान में अंतर

90% विचार शक्ति एक सामान्य व्यक्ति द्वारा व्यर्थ कर दी जाती है और इसीलिए वह गलतियाँ करने के लिए समर्पित होता है।
एक प्रशिक्षित व्यक्ति या मस्तिष्क कभी गलती नहीं करता है। व्यक्ति और जानवर में अंतर उनकी एकाग्र शक्ति में है। एक जानवर में बहुत कम एकाग्र शक्ति होती है।
जो जानवरों को प्रशिक्षित करते हैं, उन्हें बहुत कठिनाई आती है, वास्तव में जानवरों को जो सिखाया जाता है, उसे वे निरंतर भूल जाते हैं। वे किसी भी वस्तु पर एक लंबे समय तक एकाग्र नहीं हो सकते हैं ।


यही मुख्य अंतर व्यक्ति और जानवर में होता है। यही एकाग्रता की शक्ति में अंतर, व्यक्ति -व्यक्ति में अंतर स्थापित करता है। निम्नतम और उच्चतम व्यक्ति में तुलना करो, मुख्य अंतर एकाग्रता के स्तर का ही होता है।

मेरी समझ

व्यक्ति को अपनी विचार शक्ति पर काम करना चाहिए।अधिकांश व्यक्ति विचार करना ही नहीं जानते हैं, वे मात्र दूसरों की नकल ही करते हैं।
विचार शक्ति को तीव्र करने के लिए एकाग्रता की आवश्यकता है। हम दुनियावी बातों में इतना फंस चूकते हैं कि एकाग्रता हमारे लिए एक दुष्कर कार्य हो गया है।
जब तक हम एकाग्र हो, अपने विचारों को एक केंद्र बिंदु पर लाकर मनन नहीं करेंगे, ज्ञान कैसे प्राप्त करेंगे ।

परिणाम

किसी भी श्रेत्र में सफलता एकाग्रता का ही परिणाम होता है। कला,संगीत इत्यादि में उच्च उपलब्धियाँ एकाग्रता का परिणाम है।
जब हमारा मस्तिष्क एकाग्र होता है और हम अपने में लीन हो जाते हैं, तब हमारी समस्त अंर्तशक्तियां हमारी सेवक होती हैं न कि मालिक।
ग्रीक लोगों ने अपनी एकाग्रता का प्रयोग बाह्य संसार में किया और परिणामस्वरूप कला और साहित्य इत्यादि में विशिष्टता प्राप्त की थी।

हिन्दूओं ने अपने आंतरिक संसार, स्वयं में उपस्थित लोकों पर एकाग्र हो कर योगा के विज्ञान का विकास किया था।
संसार अपने रहस्यों को देने के लिए तैयार है, यदि हम केवल जानते हो कि कैसे दस्तक दें, कैसे आवश्यक धक्का दें। धक्के की शक्ति और सामर्थ्य एकाग्रता से आते हैं ।

मेरी समझ

अपनी एकाग्र शक्ति को पा लिया तो संसार के रहस्य, ज्ञान प्राप्त करने में कोई कठिनाई नहीं हो सकती है।

क्रमशः

स्वामी विवेकानंद (भाग-3)

23 गुरूवार जून 2022

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सेवा ही पूजा है


‘स्वतंत्रता, विकास की पहली शर्त है।’ स्वामी जी कहते हैं यह बात एक बार नहीं हज़ार बार गलत है कि तुम में से कोई भी यह कहता है कि ” मैं इस औरत या इस बच्चे की मुक्ति के लिए काम करूंगा।”
छोड़ दो! वे अपनी समस्याएं स्वयं सुलझाएंगे।तुम कौन हो? यह मानने वाले कि तुम सब जानते हो?
तुम यह सोचने कि हिम्मत कैसे कर सकते हो कि तुम्हारा ईश्वर से ऊपर अधिकार है।
क्या तुम नहीं जानते कि प्रत्येक आत्मा ईश्वर की आत्मा है।’
स्वामी जी कहते हैं कि ‘प्रत्येक में ईश्वर देखो। तुम केवल सेवा कर सकते हो।
यदि तुम्हारे पास संसाधन है तो ईश्वर की संतानों की सेवा करो।
तुम भाग्यवान हो कि ईश्वर ने तुम्हें उसके किसी बच्चे की सेवा के लिए अपनी स्वीकृति दी है।
तुम भाग्यवान हो कि तुम्हें वो विशेषाधिकार मिला है जो दूसरों के पास नहीं है।
इसे केवल पूजा की तरह करो।’

मेरी समझ

हम सब ईश्वर की संतान है, हमारे सभी कर्म ईश्वर की आराधना है।हमें अपना जीवन दूसरों की सेवा में अर्पित करना चाहिए , यही ईश्वर की सच्ची पूजा है।

विचारों का समावेश

‘शिक्षा सूचनाओं का भंडार नहीं है, जिन्हें तुम्हारे दिमाग में भर दिया जाए, जहाँ वे मिलकर उपद्रव करे और तुम पूरे जीवन उसे हजम न कर सको।’
विवेकानंद जी कहते हैं, ‘हमारे पास जीवन- निर्माण, व्यक्ति- निर्माण व चरित्र – निर्माण के विचारों का सम्मिलन होना चाहिए ।


यदि तुम पांच ऐसे विचारों को ग्रहण करते हो, जिससे तुम्हारे जीवन व चरित्र का निर्माण होता हो, तब उस व्यक्ति से भी अधिक तुम्हारे पास शिक्षा है, जिसने संपूर्ण पुस्तकालय रट लिया है।’
वे कहते हैं , ‘ यदि शिक्षा का अर्थ सूचनाएं हैं , तब पुस्तकालय संसार के महान संत और विश्वकोश ऋषि हो सकते हैं ।’

मेरी समझ

शिक्षा का अर्थ सूचनाएं एकत्रित करना नहीं है, जैसा कि आज की रटन शिक्षा प्रणाली है , जहाँ बालकों को पाठों को रटना सिखाया जाता है।
हमें बच्चों को ऐसे विचारों को प्रदान करना चाहिए , जिससे उनके चरित्र का निर्माण हो सके उनकी सोचने-समझने की शक्ति का विकास हो सके व वे स्वयं के विचारों का निर्माण कर सके।

गलत शिक्षा

‘दूसरों के विचारों को विदेशी भाषा में रट लेना और उससे अपने दिमाग को भर लेना और कुछ विश्वविद्यालय की डिग्रियां प्राप्त करके, तुम सोचते हो तुम शिक्षित हो। यह शिक्षा है? इस शिक्षा का उद्देश्य क्या है ? ‘
विवेकानंद जी इस शिक्षा प्रणाली पर अपनी नाराजगी दिखाते हुए कहते हैं, ‘ क्लर्की, वकील या बहुत अधिक तो डिप्टी मैजिस्ट्रेट जो क्लर्की का ही एक दूसरा रूप है। यही सब न!
इससे तुम्हारी या देश की क्या भलाई है ?
आँखें खोलो! देखो! अन्न का भंडार भारत, भूख से बिलख रहा है।”
क्या तुम्हारी यह शिक्षा इस कमी को पूरा करेगी?
ऐसी शिक्षा जो आम जनता को जीवन संघर्ष के लिए मददगार न हो, जो चरित्र की ऊर्जा को निकाल न सके, जो एक दयालु आत्मा या शेर जैसी हिम्मत न दे सके, ऐसी शिक्षा का क्या मूल्य है।’

मेरी समझ

हमारी शिक्षा प्रणाली रटन प्रणाली है, यह व्यक्ति को विचारवान नहीं बनाती है।किताबों में लिखी सूचनाओं को रटना शिक्षित होना नहीं है।
शिक्षा का अर्थ व्यक्ति को जीवन संघर्ष के लिए तैयार करना है, उसके अंदर की छिपी प्रतिभा को बाहर निकालना है ।उसे ऐसा विचारवान और कर्मशील व चरित्रवान बनाना है, जिससे उसे स्वयं व देश समाज को लाभ हो।

शिक्षा की आवश्यकता

स्वामी जी ने कहा, ‘हमें ऐसी शिक्षा की आवश्यकता है जो व्यक्ति के चरित्र का निर्माण करे, दिमागी शक्ति को विकसित करे, बुद्धिमत्ता को पैना करे और उसे अपने पांव पर खङा कर सके।
हमें क्या पढ़ने की आवश्यकता है, विदेशी सत्ता से स्वतंत्रता, हमारे अपने विभिन्न ज्ञान उसके साथ अंग्रेजी भाषा व पाश्चात्य विज्ञान।हमें तकनीकी ज्ञान की आवश्यकता है, जिससे हम अपने उद्योगों को विकसित कर सके, जिससे व्यक्ति अपनी जरूरतों की पूर्ति के लिए तो उपार्जन कर ही सके साथ ही कठिन समय के लिए भी बचा सके।’

मेरी समझ

शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति के व्यक्तित्व व बुद्धि का विकास होना चाहिए। शिक्षा ऐसी हो जिससे व्यक्ति उसके जीवन संघर्ष के लिए मजबूत बन सके।

व्यक्ति निर्माण का उद्देश्य


विवेकानंद जी के अनुसार,
‘व्यक्ति का निर्माण ही समस्त शिक्षा-प्रशिक्षण का उद्देश्य होना चाहिए । प्रशिक्षण जो व्यक्ति को तत्कालीन व भविष्य की समस्त समस्याओं को सुलझाने में सहायक है ,वही शिक्षा है।


हमारे देश को चाहिए, लोहे की मांसपेशियां, स्टील की नाङियाँ और विशाल अभिलाषाएँ, इच्छाशक्तियाँ जो उन्हें कुछ भी करने से रोक न सके, जो ब्रह्मांड के समस्त रहस्यों जानने के लिए रूक न सके, अपने उद्देश्यों को पूर्ण करने के लिए वे समुद्र के तल तक जाने के लिए, मृत्यु का सामना करने के लिए तैयार हो।

यही व्यक्ति निर्माण धर्म हम चाहते है, यही व्यक्ति निर्माण सिद्धांत चाहते हैं , यही व्यक्ति निर्माण शिक्षा सबके लिए हम चाहते हैं ।’

मेरी समझ

शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति का संपूर्ण मानसिक, बौद्धिक व शारीरिक विकास होना चाहिए ।

क्रमशः

स्वामी विवेकानंद और शिक्षा

21 मंगलवार जून 2022

Posted by शिखा in Uncategorized

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स्वामी विवेकानंद एक योगी व दार्शनिक थे। स्वामी  विवेकानंद आधुनिक मानव के आदर्श प्रतिनिधि हैं ।
विशेषकर भारतीय युवकों के लिए स्वामी विवेकानंद  से बढ़कर दूसरा कोई नेता नहीं हो सकता है
जवाहरलाल  नेहरू के शब्दों में,” मेरे विचार में यदि वर्तमान पीढ़ी के लोग स्वामी विवेकानंद के भाषणों और लेखों को पढ़े तो उन्हें बहुत बड़ा  लाभ होगा और बहुत कुछ सीख पाएंगे।
स्वामी जी के विचार हमें सदा प्रभावित करते रहेंगे।”

यहां स्वामी  विवेकानंद जी के शिक्षा पर विचार प्रस्तुत है।
विवेकानंद जी के विचारों को अपने शब्दों में अपनी मेरी समझ के अनुसार  भी वर्णन करने का प्रयास किया  है  ।




Philosophy of Education 

शिक्षा का दर्शन 


शिक्षा मनुष्य में उपस्थित प्रवीणता का प्रकाशन है ।
अथार्त शिक्षा द्वारा मनुष्य अपने गुणों को प्रकट कर सकता है।

ज्ञानका प्रकाशन –

विवेकानंद जी कहते हैं –

‘ज्ञान मनुष्य के अंतर में उपस्थित है।
कोई भी ज्ञान बाहर से नहीं आता, यह सब उसके अंतर में निहित है।
अथार्त मनुष्य ज्ञानवान है, उसे बाहरी संसार  से ज्ञान प्राप्त नहीं करना है, वह तो उसके अंदर स्वतः निहित है  ।’

विवेकानंद जी ने कहा कि ‘हम कहते हैं, एक व्यक्ति जानता है, मनोवैज्ञानिक नियत भाषा में कहा जाना चाहिए कि वह क्या खोजता या प्राप्त करता है।
एक व्यक्ति क्या सीखता है, वास्तव में वह अपनी आत्मा के आवरण को हटाकर क्या खोजता है, जो अपरिमित ज्ञान की खान है।’

इसे समझने के लिए विवेकानंद जी ने न्यूटन का उदाहरण दिया है।
उन्होंने कहा, ‘हम कहते हैं कि न्यूटन ने आकर्षण-शक्ति की खोज की थी। लेकिन क्या वह खोज किसी कोने में बैठी उसकी प्रतीक्षा कर रही थी?’
इस प्रश्न के जवाब में वह कहते हैं कि ‘यह खोज उसके अपने मस्तिष्क में थी, समय आया और उसने उसे प्राप्त किया।’

आगे वह इसे विस्तार से समझाते हुए कहते हैं कि ‘संसार के समस्त ज्ञान मस्तिष्क से ही प्राप्त किए गए हैं।
विश्व का अपरिमित पुस्तकालय तुम्हारे मस्तिष्क में है। 
बाह्य संसार केवल सुझाव व अवसर देता है, जिससे तुम अपने मस्तिष्क का अध्ययन करते हो ।

गिरते हुए सेब ने न्यूटन को एक सुझाव दिया था, जिससे उसने अपने मस्तिष्क का अध्ययन किया । उसने अपने मस्तिष्क में पूर्व उपस्थित समस्त विचारों की कङियो को पुनः व्यवस्थित किया और उनमें से एक नई कङी की खोज करी, जिसे हम कहते है- आकर्षण- शक्ति का नियम।
यह न तो सेब में और न ही पृथ्वी के केंद्र में  कहीं  उपस्थित था।’

मेरी समझ

अतः यह कहना होगा कि विवेकानंद  जी हमें इस बात का अहसास दिला रहे थे कि हम सभी व्यक्ति संसार में उपस्थित सभी ज्ञान से परिचित हैं, हमें  सिर्फ अपने अंर्तज्ञान पर ध्यान  देने की आवश्यकता  है, जिससे हम वे सभी ज्ञान स्वतः खोज सकते हैं,जो हमारे पास है।

समस्त ज्ञान अंतर में है


‘ समस्त ज्ञान धार्मिक या लौकिक भी मनुष्य के मस्तिष्क में है। बहुत सी स्थितियों में ज्ञान छिपा हुआ नहीं था, लेकिन अधिकांशतः ज्ञान लुप्त होता है और ज्ञान पर पङे पर्दे को जब धीरे-धीरे हटाया जाता है, तब हम कहते है, ‘ हम सीख रहे है’।
और इस पर्दे को हटाने  की क्रिया से आगे का ज्ञान निर्मित होता है ।’

‘वह व्यक्ति  जिसके ऊपर से पर्दा हटाया जा रहा है, वह उस व्यक्ति से अधिक  ज्ञानी है जो निरंतर अज्ञानता के गढ्ढे  में   पङा हुआ है । वह व्यक्ति जो समस्त ज्ञान प्राप्त  कर लेता है, सर्वज्ञाता त्रिकालदर्शी है।
जिस प्रकार एक चकमक पत्थर के टूकङे में आग होती है, उसी प्रकार मनुष्य के मस्तिष्क में ज्ञान का स्थायित्व होता है और सुझाव वो रगड़ है जो इसे मस्तिष्क से बाहर  निकालती है ।
समस्त ज्ञान और समस्त शक्ति अंतर में  है ।
हम कहते हैं ,शक्तियाँ, प्रकृति के रहस्य, और बल अंतर में है।
समस्त ज्ञान मनुष्य की आत्मा से निकलता है। मनुष्य  ज्ञान  का प्रकाशन करता है और इसे अपने अंतर में  खोजता है, जो अंतर में अंनतकाल से पूर्व  स्थित  है।’

मेरी समझ

विवेकानंद जी के इस विचार को इस तरह समझा जा सकता  है कि मनुष्य जब इस धरती में  जन्म लेता है, तब उसकी आत्मा   समस्त लौकिक व धार्मिक ज्ञान अपने साथ ले कर आती है।
ये ज्ञान  उसकी बुद्धि में उपस्थित होता है। परंतु  मनुष्य अनभिज्ञ होता है कि  ज्ञान का प्रचुर भंडार उसमें निहित   है।
यदि मनुष्य  अपने अंतर में खोजे और एकाग्रता से उसे व्यवस्थित करे तो उसका अपने अंतर में उपस्थित ज्ञान से परिचय होगा।
पर इसके लिए आवश्यक है कि मनुष्य अपने जीवन में सीखने और समझने की प्रक्रिया पर अपना ध्यान केंद्रित करे,  इससे न केवल वह स्वयं इस ज्ञान के दर्शन कर ज्ञानी बनता है अपितु  वह संसार में अपने ज्ञान से दूसरों  को भी लाभ पहुंचाता है । 


अपरिमित शक्ति हमारी आत्मा में है 

विवेकानंद जी हमें समझाते हैं कि 
‘कोई भी व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से नहीं सीखता है। बाह्य अध्यापक केवल सुझाव देता है जो वस्तुओं के समझने के लिए, अंतर के अध्यापक को जागृत करता है। तब वस्तुएं हमारे अपने विचारों और ज्ञान के द्वारा स्पष्ट होती है और अपनी आत्मा में हम इन्हें महसूस करते हैं।’

विवेकानंद जी इसे उदाहरण से समझाते हुए कहते है कि-
एक संपूर्ण बरगद का बङा पेङ जो डेढ़ बीघा जमीन घेरता  है, वह एक छोटे से बीज में था, जो शायद सरसों के बीज का 1/8 हिस्से से बङा नहीं था।
हम जानते है कि एक विशाल ज्ञान, पुरस संबधी कोशिका में चक्कर काटता था।
यह असत्य सा लगता है, परंतु यह सच है।
हममें से प्रत्येक एक पुरस संबंधी कोशिका से बाहर आया है।और वहां  चक्कर  काटती समस्त शक्तियों को हम प्राप्त करते थे। 
तुम यह नहीं कह सकते कि वे अन्न से आए हैं इससे क्या शक्ति बाहर आती  है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि वहाँ शक्ति थी लेकिन वह वहां निश्चल है।
इसीलिए  मनुष्य की आत्मा में अपरिमित शक्ति है, चाहे  वह जानता है या नहीं।
इसका प्रकाशन ही केवल एक प्रश्न है जिसकी चेतना उत्पन्न  की जाए।’

मेरी  समझ

विवेकानंद जी की इस बात को फिर हम इस तरह समझ सकते है कि एक बच्चा जब इस धरती पर  जन्म लेता है तब वह समस्त ज्ञान अपने साथ लेकर आता है।
जिस प्रकार एक नन्हे बीज में पूरा बरगद पेङ समाया होता है, सही पानी, हवा इत्यादि मिलने से उस बीज से हमें   एक विशाल वृक्ष मिलता है।

उसी तरह उस बालक की छोटी-सी बुद्धि में समस्त ज्ञान उपस्थित होते है।बालक नहीं  जानता कि वह ज्ञानी है।
उचित मार्गदर्शन व वातावरण से उसे पूर्वतः उपस्थित ज्ञान की प्राप्ति   होती है।और वह तब सर्वज्ञाता  सिद्ध होता है, जब वह उस ज्ञान की रोशनी को संसार में फैलाते हुए, अन्य मनुष्यों  की अज्ञानता को दूर  करने में सहायक बनता है।
अज्ञानता अथार्त यह अनभिज्ञता कि वे सब भी ज्ञानी हैं ।
वे यह भी समझा रहे हैं कि अन्य जीवों व परजीवों में भी शक्ति  है, परंतु  वह एक  निश्चित  दायरे तक सीमित है।
परंतु मनुष्य  की आत्मा ज्ञानी है, अतः सर्वशक्तिमान है। कठिनाई यह है कि इसका उसे ज्ञान ही नहीं है। मनुष्य   का उसकी   शक्ति  से परिचय कराना होगा ।कहते है न! अपने ज्ञान के चक्षु खोल!  अपने अंदर उपस्थित ज्ञान   को खोज!

शीशे का पीपा

     विवेकानंद जी कहते हैं कि 
‘अधिकांशतः व्यक्तियों में पवित्र सुंदर आत्मा अंधकारपूर्ण होती है । यह लोहे के पीपे पर लैम्प के समान होता है, कोई भी रोशनी की मंद प्रभा इससे नहीं चमक सकती है।
इसका विकास पवित्रता और स्वार्थहीनता से होता है , हम अस्पष्ट माध्यम को हल्के-हल्के   गहन बना सकते हैं, अंत में  यह पारदर्शी  शीशे के समान हो जाता है।
    श्री रामकृष्ण लोहे के पीपे के समान थे, जिनका शीशे के पीपे में हस्तांतरण  हुआ था, जिससे अन्तस्थ रोशनी जैसे इसे देख सकते हैं ।


मेरी समझ

स्वामी विवेकानंद जी की उपरोक्त बात का यह अर्थ समझा जा सकता 
है कि प्रत्येक मनुष्य को  ज्ञानी तो है, परंतु अपने ज्ञान को समझने की दृष्टि सबके पास स्पष्ट नहीं होती है।
अतः उनके ज्ञान का प्रकाशन होने में  कठिनाई होती है ।
अगर व्यक्ति अपने मन या दिमाग को पवित्र और स्वार्थहीन रखे और वैसे कर्म भी करे तो उसको ज्ञान को प्राप्त करने की दृष्टि भी मिलगी व वह ज्ञान  का प्रकाशन भी कर सकेगा।
उन्होंने अपने गुरु श्री रामकृष्ण  परमहंस जी का उदाहरण दिया  है।
स्वामी रामकृष्ण परमहंस एक महान संत, विचारक और समाज सुधारक थे। विवेकानंद जी उनके प्रमुख शिष्य थे।
स्वामी जी ने मानवता को सबसे बङा धर्म  माना था।वे सभी धर्मों का सम्मान करते हुए , सभी मनुष्यों को एक साथ रहने की प्रार्थना करते थे।
विवेकानंद जी कहते हैं कि श्री   रामकृष्ण का ज्ञान भी अंधेरे में था जिसे उन्होंने तप व मानवता की निःस्वार्थ सेवा से अपने ज्ञान का प्रकाशन किया   था।
स्वामी विवेकानंद ने अपने गुरू के विचारों और शिक्षा को रामकृष्ण मिशन की स्थापना करके विश्व भर में प्रसारित किया था।


स्वामी विवेकानंद   (भाग-2)


स्वयं  शिक्षा


स्वामीजी   कहते हैं  कि ‘ आप एक बच्चे का विकास उस तरह नहीं कर सकते हैं जैसे आप एक पौधे को विकसित करते हो।
एक पौधा अपनी प्रकृति के अनुसार विकसित होता है। एक बच्चा भी अपनी स्वभावगत प्रकृति के अनुकूल विकसित होता है।
पर तुम उसके विकास में उसकी सहायता कर सकते हो।
तुम जो कर सकते हो सकारात्मक से अधिक नकारात्मक होता है।
तुम बाधाओं को  हटा सकते हो और ज्ञान स्वयं  अपनी प्रकृति के अनुसार बाहर आएगा।

इसे और स्पष्ट करते हुए स्वामी जी कहते हैं कि मिट्टी को थोड़ा ढीला करो, जिससे वह स्वयं सरलता से बाहर आ सकेगा। तुम उसके चारों ओर झाङ लगा दो पर इससे वह नष्ट नहीं होगा, तुम उस मिट्टी में बीज डाल सकते हो, उसको उसका आकार उस मिट्टी में   देने के लिए उसको उपयुक्त हवा पानी इत्यादि  दे सकते हो। यहां तुम्हारा कार्य समाप्त होता है। अब वह स्वयं अपनी स्वभावगत प्रगति करेगा।
इसी तरह एक बच्चा स्वतः शिक्षित होता है।
एक गुरु इस सोच से सब नष्ट कर देता है कि वह सब सीखा रहा है।’
एक बार फिर विवेकानंद जी याद दिलाते हैं  कि ‘ मनुष्य के अंतर में समस्त ज्ञान निहित है, जिसे सिर्फ जागृत करने की आवश्यकता है। एक गुरु का यही कार्य होता है।
हम मात्र इतना कर सकते हैं कि जिससे बच्चे अपने हाथ, पैरों, कान व आँखों की सहायता से अपने ज्ञान  का सही उपयोग  कर सकें ।

मेरी समझ

  जैसा हम समझ चूके है कि एक बच्चे की बुद्धि में समस्त ज्ञान है, उसे सिर्फ जागृत करना है अथार्त उसकी बुद्धि का विकास इस तरह करना है कि वह अपने अंदर समाए समस्त ज्ञान को समझ सके। इसके लिए उसे उचित वातावरण व सही मार्गदर्शक मिलना आवश्यक है।


स्वतंत्र  विकास


विवेकानंद जी कहते हैं कि ‘ऐसी शिक्षण व्यवस्था जिसका उद्देश्य   हमारे बच्चों को ऐसे  शिक्षित  करना है कि जैसे गधे के मालिक को सलाह दी जाए कि गधे को नष्ट करके उसे घोङा बनाया जा  सकता है।ऐसी व्यवस्था को खत्म कर देना  चाहिए  ।
यह परंपरागत अभ्यास है कि माता-पिता अपने बच्चों पर इस तरह कठोर शासन करते है कि इन बच्चों को स्वतंत्र विकास के अवसर मिल नहीं पाते हैं।’
विवेकानंद जी कहते हैं कि ‘प्रत्येक बच्चे में अपरिमित प्रवृत्तियाँ होती है, जिनकी संतुष्टि के लिए उपयुक्त अवसरों की आवश्यकता होती है।
तीव्रता से सुधार की कोशिश  का अंत, धीमा सुधार होता है।
अगर आप उसे शेर बनने की अनुमति नहीं देते हो, तो वह लोमड़ी बन जाएगा।


मेरी समझ



विवेकानंद जी ने वर्तमान शिक्षा प्रणाली व माता-पिता के कठोर अनुशासन की आलोचना करी है।
उनके अनुसार शिक्षा प्रणाली ऐसी होनी चाहिए जिसमें बालक अपनी प्रवृत्ति के अनुसार स्वतः शिक्षा प्राप्त कर सके।
माता-पिता में अपने बच्चों को एक तथाकथित अच्छा  बच्चा बनाने की बहुत जल्दबाजी होती है। जिस कारण वह उनसे कठोर व्यवहार करते हुए उनकी संभावित  प्रवृत्तियों के विकास में बाधाएं खङी कर देते हैं  ।
हमें अपने बच्चों की परवरिश सहजता और इत्मीनान के साथ करनी चाहिए । उन्हें उनकी प्रवृत्ति के अनुसार विकसित होने के लिए समय और मौके मिलने चाहिए  ।



सकारात्मक  विचार


विवेकानंद जी कहते हैं कि ‘हमें हमेशा सकारात्मक विचार ही प्रकट करने चाहिए, नकारात्मक विचार केवल व्यक्ति को कमजोर बनाते हैं ।
अक्सर हम देखते हैं  कि माता-पिता अपने बच्चों पर पढ़ने लिखने का निरंतर दबाव डालते हुए,  उन्हें कहते है कि वे कभी कुछ नही सीख सकेंगे, वे उन्हें मूर्ख कहते हैं व कई बार इससे भी अधिक बोल जाते है।’
विवेकानंद जी कहते हैं , ‘ तुम उनसे कोमल शब्दों में बात करते हुए उन्हे प्रोत्साहित करोगे तो उनमें शीघ्र   सुधार पाओगे।
यदि तुम उन्हें सकारात्मक विचार देते हो,तो उनका एक ऐसे व्यक्ति के रूप में विकास होगा जो अपने पैरों पर खड़ा होना सीख सकेगा ।
भाषा, साहित्य या कला में, प्रत्येक क्षेत्र  में, व्यक्ति जैसे विचारों का निर्माण करता है या क्रिया करता है, हमें उनमें उनकी गलतियों पर उंगली नहीं उठानी है, अपितु ऐसे विचार देने चाहिए कि वे अपने कार्य को बेहतर  बना सके।’
स्वामी  जी ने कहा,”अपनी शिक्षण पद्धति को शिक्षण की आवश्यकतानुसार परिवर्तित कर देना चाहिए।” 
अतीत में हमारी प्रवृत्तियों को परिवर्तित किया जाता रहा है, आज हमें  बालक की प्रवृत्ति के अनुरूप उसे शिक्षा देनी है।
प्रत्येक को, जो जहाँ खड़ा है, वहीं से आगे बढ़ने  दिया जाना चाहिए।’
स्वामी जी ने अपने गुरु रामकृष्ण जी का उदाहरण देते हुए कहा ,’ हम देखते हैं  कि कैसे श्री रामकृष्ण जी, जिन्हें हम निकृष्ट मानते हैं, उन्हें भी प्रोत्साहित करते हुए,उनके जीवन में भी बदलाव ले आए थे।
वह किसी भी व्यक्ति की विशेष प्रवृत्ति की अवेहलना नहीं करते थे। वे सबसे आशावादी व प्रोत्साहन  करने वाली बाते करते थे, वह निम्न से निम्न   व्यक्ति को प्रोत्साहित करते और उनके शब्द उसके   जीवन को आगे बढ़ाने में  सहायक   बनते है।’



मेरी समझ




‘हमारी प्रवृत्ति है कि हम अपने बच्चों को सख्ती से, कठोर अनुशासन में रखते हैं।परंतु ऐसा करने से बच्चों का स्वाभाविक विकास नहीं हो सकता है।कठोर शब्द व कठोर व्यवहार बच्चों की बुद्धि को कमजोर बनाता है।कमजोर को और कमजोर करता है।
हमें अपनी इस प्रवृत्ति में बदलाव लाने की आवश्यकता है।
समाज के सुधार के लिए आगे की पीढ़ी को सकारात्मक, ऊर्जावान व आशावान बनाना आवश्यक है।

‌‌ क्रमशः








‘








  





















 















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