हमारा तीव्र विकास
प्रत्येक बच्चा अपनी बाल्यावस्था में अपनी दौङ में उपस्थित होते हुए विभिन्न अवस्थाओं को पार करता है। इस ‘दौङ’ को स्वयं विभिन्न चरणों को पार करने में हजारों वर्ष लगे हैं जबकि एक बच्चा कम वर्षों में यह दौङ पारकर जाता है।
यह बच्चा ही हमारा प्रथम आदिकालीन मानव है- और यह एक तितली को अपने पांव तले कुचल देता है ।
बच्चा हमारे प्राथमिक पूर्वज की भांति है। उस आदिमानव की भांति वह बच्चा विभिन्न अवस्थाओं से गुजरते हुए, अपनी दौङ के विकसित चरण तक पहुंचता है। वह इसे बहुत सहजता से और तीव्र गति से करता है।
अब हम संपूर्ण मानवता को एक दौङ की तरह लेते हैं या न्यूनतम कमजोर जानवर से मनुष्य तक संपूर्ण प्राणी रचना को लेते हैं ।इसका अंत जिस संपूर्ण चक्र की ओर जाता है। उसे हम प्रवीणता कहते है।
कुछ स्त्री-पुरुष जब जन्म लेते हैं, उनका ऐसा पुर्वानुमान होता है कि यहीं मानव जाति का पूर्ण विकास है।
वे यह मानते हैं कि इसके स्थान पर कि इस मानवीय दौङ मे प्रवीणता प्राप्त करने के लिए युगों तक बार-बार जन्म लिया जाए, ये लोग अपने इस वर्तमान जीवनकाल के कुछ समय में ही तेजी से इस प्रवीणता को पाते हैं ।
जैसा हम जानते हैं कि इस प्रक्रिया में हम तीव्र हो सकते हैं ,यदि हम अपने प्रति सच्चे हैं।
यदि कुछ व्यक्तियों को किसी भी संस्कृति के बिना, बहुत कम भोजन, वस्त्र और आवास की सुविधा के साथ एक द्वीप में छोड़ देते हैं,वहां वे स्वयं धीरे-धीरे विकास करेंगे और सभ्यता के उच्चतम से उच्चतम अवस्था को पार करेंगे।
हम जानते हैं कि साधनों के साथ विकास तेजी से होता है।
हम वृक्षों को बङा होने में उनकी सहायता करते हैं। वे प्राकृतिक रूप से भी स्वयं विकसित होते हैं , पर अपना समय लेते हैं। हम उन्हें तेजी से विकसित होने में सहायता करते हैं ।
हम अप्राकृतिक साधनों द्वारा सभी वस्तुओं को तेजी से विकसित करते हैं।
क्यों हम मानव विकास में तीव्रता नहीं कर सकते हैं?
हम एक दौङ के समान इसे कर सकते हैं। क्यों गुरू दूसरे देशों में जाते है?
क्योंकि इससे हम विकास की दौड़ को तेज कर सकते हैं ।
अब क्या हम व्यक्तिगत विकास में भी तेजी ला सकते हैं ?
यह भी हम कर सकते हैं।
क्या हम इस तीव्रता की सीमा निर्धारित कर सकते हैं ?
हम यह नही बता सकते कि एक व्यक्ति एक जीवन में कितना विकास कर सकता है ।
तुम्हारे पास इसके लिए कोई कारण भी नहीं कि एक व्यक्ति कितना और कितना अधिक कर सकता है।
परिस्थितियां चमत्कारिक रूप से उसे तीव्र कर सकती हैं।
तुम प्रवीण हो, उसकी भी क्या कोई सीमा हो सकती है?
तो क्या परिणाम निकलता है?
युगों से चली आ रही इस दौङ में जो एक प्रवीण मनुष्य है वह आज का मानव है।
मेरी समझ
आज का युग संसाधनों और सुविधाओं का युग है । हम अभी और विकसित होना चाहते हैं । इन संसाधनों और सुविधाओं के प्रयोग से तेजी से निरंतर विकास की दौड़ में दौङ रहा यह मानव ही आधुनिक मानव है।
हम अप्राकृतिक सुविधाओं के लिए प्राकृतिक संसाधनों का दुरूपयोग कर रहे हैं ।
अवतार और पैगंबर
विवेकानंद जी हमें बताते हैं कि सभी महान अवतार या पैगंबर अपने एक ही जीवन में संपूर्ण निपुणता प्राप्त करते हैं।
हमें विश्व इतिहास में सभी युगों या कालों में ऐसे अवतारी या पैगंबर मिलते हैं ।
अभी कुछ समय पूर्व एक ऐसा व्यक्ति हुआ, जो इस मानवीय दौङ में शामिल हुआ और अपने वर्तमान जीवन में ही इस दौङ के अंत तक पहुंचा था।
यह भी है कि तेजी से विकास के भी नियम होते हैं।
मान लीजिए कि हम इन नियमों को खोज पाते हैं, उनके रहस्यों को समझ कर उन्हें हम अपनी आवश्यकताओं के लिए उपयोग में ला सकते हैं, तब हम उन्नत होते हैं।
हम अपनी उन्नति को तीव्र करते हैं, हम अपने विकास में तेजी लाते हैं, तब हम अपने इसी जीवन में प्रवीण हो जाते हैं ।
यह हमारे जीवन का उच्चतम चरण है और मस्तिष्क का अपना विज्ञान है तथा इसकी शक्तियों मे निपुणता ही जैसे वास्तविक परिणाम है।
इस विज्ञान की उपयोगिता यही है कि मनुष्य की निपुणता को उजागर किया जाए, ऐसा नहीं कि उसके लिए उसको युगों, युगों तक प्रतीक्षा कराई जाए।
इस भौतिक संसार में मनुष्य प्रकृति के हाथ का खिलौना बन जाए जैसे समुद्र में एक लकड़ी का टूकङा एक लहर से दूसरी लहर पर डोलता रहे ।
यह विज्ञान अथार्त योग विज्ञान यह चाहता है कि आप शक्तिवान बनो, अपने को प्रकृति के हाथों में देने के स्थान पर स्वयं अपने-आप प्रयत्न करो फिर तुम इस छोटे जीवन के पार जो है, उसे प्राप्त करोगे।
मेरी समझ
यहां स्वामी जी मनुष्य की बाहरी, भौतिक उन्नति की बात नहीं कर रहे हैं। सच्चा वास्तविक विकास तो मनुष्य के अंतर का विकास है।
वह कहते हैं कि अगर मनुष्य अपने अंतर को पहचान ले, व उसका शुद्धिकरण करे तो वह अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति से कठिनतम कार्य भी कर सकता है और अपने इस जीवन में ही, जीवन के सत को जान सकता है।
योग विज्ञान वह विज्ञान है जो मनुष्य को उसकी अंतर शक्ति को पहचानने में सहायक होता है।