विवेकानंद जी यह भी कहते हैं कि एक शिष्य के लिए भी यह आसान नहीं है। एक शिष्य जो सच( ज्ञान) को जानना चाहता है उसे अपनी अन्य इच्छाओं को त्यागना होगा।
जब तक यह इच्छा मस्तिष्क में रहती हैं , हम सच से दूर रहते हैं ।भौतिक, सांसारिक छोटी-सी इच्छा भी यदि ह्रदय में उपस्थित है, तो सच तक नहीं पहुँच सकते हैं ।
निर्धन व्यक्ति, धनिक व्यक्ति की अपेक्षा अधिक सच को समझ सकता है।
धनिक के पास अपनी -सुख-सुविधाओं, शक्ति और लालसा के अतिरिक्त कुछ सोचने का समय नहीं होता है।
स्वामी जी कहते हैं, ” मैं उस व्यक्ति पर विश्वास नहीं कर सकता, जो कभी रोया न हो, जहाँ उसका ह्रदय हैं, वहां एक काला बङा पत्थर रखा है।
सच और सिर्फ सच को जानना है तो यह सब त्यागना होगा, तभी खुशहाली और खुशी का अर्थ मिलेगा।
जिन लोगों में अभ्यास के लिए सब्र नहीं है, उनके लिए स्वार्थहीनता बहुत दुष्कर वस्तु है।
स्वास्थ्य के लिए भी बहुत मेहनत और सब्र चाहिए ।
प्रेम, सच और स्वार्थहीनता किसी भाषण के नैतिक शब्द मात्र नहीं है, बल्कि ये तो एक महान आदर्श का निर्माण करते हैं क्योंकि इनमे शक्ति की दृढ़ इच्छाशक्ति छिपी है।
सभी बाह्य क्रिया- कलापो की अपेक्षा आत्म संयम महानतम शक्ति का प्रत्यक्षीकरण है।
एक स्वार्थी उद्देश्य का अनुसरण करने से सभी बाह्य ऊर्जा लुप्त हो जाती हैं, परंतु यदि यह नियंत्रित रहती हैं तो इसका परिणाम शक्ति का विकास होगा।
यह आत्मसंयम एक महान को जन्म देगा, एक चरित्र , ईसा या बुद्ध का निर्माण होता है।
मेरी समझ
विवेकानंद जी कहते हैं कि सच्चे गुरू के साथ, सच्चे शिष्य की भी आवश्यकता है। गुरू के समान शिष्य को भी त्यागी व संवेदनशील बनना होगा।
दूसरी शर्त एक शिष्य के लिए है कि वह अपनी बाह्य और आंतरिक इंद्रियों को नियंत्रित रखे।
बहुत कठिन मेहनत के पश्चात वह ऐसी अवस्था में पहुंच सकता है, जहाँ वह प्रकृति के आदेशों के विरुद्ध अपने मस्तिष्क को सामना करने के लिए वह स्वयं आदेश दे सकता है।
वह अपने मस्तिष्क को कह सकता है, ” तुम मेरे हो, मैं तुम्हें आदेश देता हूं , तुम न किसी को देखो, न किसी की सुनो।”
अपने मस्तिष्क को शांत बनाना है. यह बहुत तेजी में रहता है।
जैसे ही मैं ध्यान के लिए बैठता हूँ, संसार के सभी निरर्थक विषय मस्तिष्क में आने लगते हैं । यह सब घृणास्पद है।मै यह सब नहीं सोचना चाहता हूं फिर दिमाग यह सब क्यों सोचता है? मैं जैसे अपने मस्तिष्क का गुलाम हुं।
कोई भी आध्यात्मिक ज्ञान नहीं मिल सकता जब तक मस्तिष्क उत्तेजित और अनियंत्रित है। शिष्य को अपने मस्तिष्क को नियंत्रित करना सीखना होगा।
मेरी समझ
ध्यान के अभ्यास से अपनी समस्त इन्द्रियों को नियंत्रित किया जा सकता है। जो इस कठोर तपस्या में सफल हो जाता है, उसे ज्ञान प्राप्त करने में कोई कठिनाई नहीं होती है।