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मासिक अभिलेखागार: अगस्त 2022

स्वामी विवेकानन्द (भाग-12)

07 रविवार अगस्त 2022

Posted by शिखा in Uncategorized

≈ 6s टिप्पणियाँ

विवेकानंद जी यह भी कहते हैं कि एक शिष्य के लिए भी यह आसान नहीं है। एक शिष्य जो सच( ज्ञान) को जानना चाहता है उसे अपनी अन्य इच्छाओं को त्यागना होगा।
जब तक यह इच्छा मस्तिष्क में रहती हैं , हम सच से दूर रहते हैं ।भौतिक, सांसारिक छोटी-सी इच्छा भी यदि ह्रदय में उपस्थित है, तो सच तक नहीं पहुँच सकते हैं ।
निर्धन व्यक्ति, धनिक व्यक्ति की अपेक्षा अधिक सच को समझ सकता है।
धनिक के पास अपनी -सुख-सुविधाओं, शक्ति और लालसा के अतिरिक्त कुछ सोचने का समय नहीं होता है।
स्वामी जी कहते हैं, ” मैं उस व्यक्ति पर विश्वास नहीं कर सकता, जो कभी रोया न हो, जहाँ उसका ह्रदय हैं, वहां एक काला बङा पत्थर रखा है।
सच और सिर्फ सच को जानना है तो यह सब त्यागना होगा, तभी खुशहाली और खुशी का अर्थ मिलेगा।
जिन लोगों में अभ्यास के लिए सब्र नहीं है, उनके लिए स्वार्थहीनता बहुत दुष्कर वस्तु है।

स्वास्थ्य के लिए भी बहुत मेहनत और सब्र चाहिए ।
प्रेम, सच और स्वार्थहीनता किसी भाषण के नैतिक शब्द मात्र नहीं है, बल्कि ये तो एक महान आदर्श का निर्माण करते हैं क्योंकि इनमे शक्ति की दृढ़ इच्छाशक्ति छिपी है।
सभी बाह्य क्रिया- कलापो की अपेक्षा आत्म संयम महानतम शक्ति का प्रत्यक्षीकरण है।


एक स्वार्थी उद्देश्य का अनुसरण करने से सभी बाह्य ऊर्जा लुप्त हो जाती हैं, परंतु यदि यह नियंत्रित रहती हैं तो इसका परिणाम शक्ति का विकास होगा।
यह आत्मसंयम एक महान को जन्म देगा, एक चरित्र , ईसा या बुद्ध का निर्माण होता है।

मेरी समझ

विवेकानंद जी कहते हैं कि सच्चे गुरू के साथ, सच्चे शिष्य की भी आवश्यकता है। गुरू के समान शिष्य को भी त्यागी व संवेदनशील बनना होगा।

दूसरी शर्त एक शिष्य के लिए है कि वह अपनी बाह्य और आंतरिक इंद्रियों को नियंत्रित रखे।
बहुत कठिन मेहनत के पश्चात वह ऐसी अवस्था में पहुंच सकता है, जहाँ वह प्रकृति के आदेशों के विरुद्ध अपने मस्तिष्क को सामना करने के लिए वह स्वयं आदेश दे सकता है।
वह अपने मस्तिष्क को कह सकता है, ” तुम मेरे हो, मैं तुम्हें आदेश देता हूं , तुम न किसी को देखो, न किसी की सुनो।”
अपने मस्तिष्क को शांत बनाना है. यह बहुत तेजी में रहता है।
जैसे ही मैं ध्यान के लिए बैठता हूँ, संसार के सभी निरर्थक विषय मस्तिष्क में आने लगते हैं । यह सब घृणास्पद है।मै यह सब नहीं सोचना चाहता हूं फिर दिमाग यह सब क्यों सोचता है? मैं जैसे अपने मस्तिष्क का गुलाम हुं।
कोई भी आध्यात्मिक ज्ञान नहीं मिल सकता जब तक मस्तिष्क उत्तेजित और अनियंत्रित है। शिष्य को अपने मस्तिष्क को नियंत्रित करना सीखना होगा।

मेरी समझ

ध्यान के अभ्यास से अपनी समस्त इन्द्रियों को नियंत्रित किया जा सकता है। जो इस कठोर तपस्या में सफल हो जाता है, उसे ज्ञान प्राप्त करने में कोई कठिनाई नहीं होती है।

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स्वामी विवेकानंद (भाग-11)

02 मंगलवार अगस्त 2022

Posted by शिखा in Uncategorized

≈ 6s टिप्पणियाँ

गुरू और शिक्षा 

विवेकानंद जी कहते हैं कि मेरा शिक्षा का विचार, गुरूकुल शिक्षा का है। मेरा यह मानना है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपना बाल्यकाल उस ज्ञानी के साथ व्यतीत करना चाहिए जो उच्चतम प्रज्वलित उदाहरण प्रस्तुत करता हो।
हमारे देश में त्यागियों अथार्त ऋषियों द्वारा ही ज्ञान दिया जाता रहा है। अब दुबारा शिक्षा प्रदान करने की जिम्मेदारी  इन त्यागियों के कंधों पर दी जानी चाहिए ।

शिक्षा की प्राचीन संस्कृति 

भारत की प्राचीन शिक्षण व्यवस्था, आधुनिक शिक्षण प्रणाली से भिन्न थी। तब छात्रों को फीस या पैसा नहीं देना पङता था। ज्ञान को इतना पवित्र माना जाता था कि कोई उसे बेच नहीं सकता था।
ज्ञान को स्वतंत्र रूप से व बिना पैसे के प्रदान करना चाहिए।
गुरू न केवल बच्चों को  शिक्षा मुफ्त देते थे अपितु कुछ गुरू तो अपने छात्रों को  कपङे व भोजन भी देते थे।

गुरूओं की यह व्यवस्था सुचारु रूप  से चल सके इसके लिए धनिक परिवार गुरूओं को उपहार दे कर अपना सहयोग प्रदान करते थे।
बङे शिष्य गुरू के आश्रम की टूट फूट की मरम्मत करते थे, ईंधन की भी व्यवस्था शिष्य करते थे। गुरू अपने शिष्यों की क्षमता परखने के बाद  उन्हें वेदों की शिक्षा देते थे।

और गुरू अपने शरीर, मन व वाणी को नियंत्रित  रखने की अपनी शपथ के प्रतीक के रूप में अपनी कमर में मुंजा नामक घास की तीन परत लपेट कर रखते थे।

शिक्षण की योग्यता 

शिक्षण की कुछ आवश्यक शर्तें होती हैं  जो गुरू पर भी लागू होती है। पवित्रता , ज्ञान की प्यास और दृढ़ इच्छाशक्ति शिक्षण की आवश्यक शर्तें हैं।
विचार, वाणी व कर्म में पवित्रता अत्यंत आवश्यक  है। ज्ञान के लिए प्यास, एक पुराना नियम है कि  जो दिल से चाहते हो, वो अवश्य मिलता है। हम में से कोई भी वह प्राप्त कर सकता है, जिसकी वह दिल से कामना करता है।

यह निरंतर  संघर्ष है, एक अनवरत लङाई है, अपनी निम्नतम प्रकृति के साथ, एक स्थाई मल्ल युद्ध है, जब तक आप स्वयं अपने आप को उस   उच्चतम अवस्था में महसूस न करो और यह जान लो कि विजय प्राप्त हो गई है।
जो छात्र दृढ़ संकल्प के साथ अपना उद्देश्य निश्चित करता है, वह अवश्य अंत में सफल होता है।


  
मेरी समझ

स्वामी जी गुरूकुल शिक्षा प्रणाली का समर्थन करते हैं । उस समय गुरू अपने जीवन के सभी सुख त्याग कर, अपना जीवन ज्ञान प्राप्त करने व प्रदान करने में ही व्यतीत  करते थे।
हम अगर ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं तो हमारी इच्छाशक्ति दृढ़ होनी चाहिए तभी हम सभी बाधाओं  को  पार करके ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे

गुरु- उसकी योग्यताएं

गुरू को शास्त्रों का ज्ञाता होना चाहिए। संसार में सभी बाईबल, वेद और कुरान पढ़ते है, पर वे सब सिर्फ शब्द, शब्दों की रचना या भाषा को ही समझते हैं – ये  धर्म की निष्प्राणता है।
वह गुरू जो बहुत अधिक शब्दों पर ध्यान देता है, और शब्दों के दबाव में आकर अपने मस्तिष्क का प्रयोग नहीं करता वह शास्त्र का अर्थ खो देता है।शास्त्रों के अर्थ या भाव का सही ज्ञान ही सच्चे गुरू की पहचान है।

मेरी समझ

विवेकानंद जी कहते हैं कि इन महान किताबों के शब्दों की गहराई को जो समझ पाते हैं और समझा पाते हैं, वहीं सच्चे गुरू होते हैं। हमने देखा है कि जब भी इन महान किताबों की गलत व्याख्या की गई है या अपने स्वार्थ के लिए उनके अर्थ को तोड़ मरोड़ दिया गया, तब धर्म अधर्म हो जाता है।

गुरू की योग्यता की दूसरी महत्वपूर्ण शर्त उसका सदाचार है।
प्रश्न यह है कि हम गुरू के चरित्र या व्यक्तित्व को इतना महत्व क्यों देते हैं।
सच्चाई को पाना स्वयं के लिए एक अनिवार्य शर्त है या दूसरों से भिन्न होने के लिए ह्रदय या आत्मा की पवित्रता  आवश्यक है।
उसके शब्द तभी महत्वपूर्ण हो सकते है जब वह पूर्णतः पवित्र होगा।
गुरू का वास्तविक कार्य उपस्थित ज्ञान का स्थानांतरण या प्रसार करना अथवा विभिन्न विषयों को पढ़ाना मात्र नहीं है।
गुरू और उसके शिक्षण से वास्तविक और प्रशंसनीय प्रभाव मिलना आवश्यक है। अतः गुरू  को सच्चा, पवित्र होना चाहिए।

मेरी समझ

एक गुरू का‌ प्रभाव उसके शिष्यों पर सबसे अधिक प्रभावी होता है।गुरू होना सरल नहीं है, गुरू अथार्त सच्चा मार्ग दर्शक, सच की राह दिखाने वाले को स्वयं सच्चा होना आवश्यक है। सच्चे गुरू से शिष्य प्रभावित होते हैं और अपने गुरू का अनुसरण करते हैं।

तीसरी शर्त गुरू के मंतव्य से है। गुरू का शिक्षा प्रदान करने के पीछे कोई व्यक्तिगत स्वार्थी उद्देश्य जैसे- पैसा, नाम, या प्रसिद्धि नहीं होना चाहिए  ।
उसका कार्य सिर्फ प्रेम प्रदान करना है, संपूर्ण मानवजाति के लिए प्रेम प्रदान करना है। आध्यात्मिक शक्ति के प्रसार के लिए प्रेम ही एकमात्र माध्यम है।
कोई भी स्वार्थी मंतव्य जैसे, लाभ या नाम होने पर यह माध्यम नष्ट हो जाएगा  ।

मेरी समझ

जैसा कि हम जानते हैं कि शिक्षक पर समाज की उन्नति निर्भर करती है। चूंकि वह भावी पीढ़ी को संस्कारवान, प्रगतिशील बनाता है, इस भावी पीढ़ी से ही सुंदर, उत्तम समाज की रचना होती है। गुरू का त्यागी होना अवश्यंभावी है।

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