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मासिक अभिलेखागार: सितम्बर 2022

स्वामी विवेकानंद (भाग-16)

30 शुक्रवार सितम्बर 2022

Posted by शिखा in Uncategorized

≈ 6s टिप्पणियाँ

ताकत ( शक्ति  )

अनंत शक्ति धर्म है। ताकत पुण्य है और कमजोरी  पाप है। सभी पाप और शैतानियत के लिए मिलाकर एक ही शब्द  है , वह है कमजोरियाँ ।
यही कमजोरियाँ  शैतानियत से गलत कराती हैं  सभी स्वार्थीपन का स्रोत कमजोरी  है,कमजोरी के कारण हम दूसरे को तकलीफ देते हैं।
सबको जानना होगा कि वे क्या हैं ? रात-दिन यह दोहराओ कि मैं  दिव्य  हूँ ।
माँ के दूध के साथ इस शक्ति के विचार को ग्रहण करो- मैं वह हूँ ।
इसे सबसे पहले सुनो, उस पर विचार करो, यह  विचार काम करेगा, ऐसा संसार होगा जैसा कभी नहीं दिखा था।
सच को खुलकर बोलो। सभी सच सार्वलौकिक है। सभी आत्माओं  की प्रकृति सच है। और यह सच की परीक्षा  है,  कोई भी वस्तु   जो तुम्हें शारीरिक रूप से, बौद्धिक रूप से या आध्यात्मिकता में   कमजोर बनाती है,  उसे जहर मानकर अस्वीकार   कर दो। इसमें जीवन नहीं है, इसमें सच नहीं हो सकता है।
सच पवित्र है , सच में सब ज्ञान है। सच को ताकतवर होना होगा, सच को प्रकाशमान होना है, सच को स्फूर्तिदायक होना है।
उपनिषद की ओर लौटो, वह चमकदार, शक्तिमान , उज्जवल दर्शन है। ये सभी महान सच, बहुत सरल हैं , यह हमारी उपस्थिति के समान सरल है।
उपनिषद की सच्चाई  तुम्हारे   सामने हैं , उन्हें  लो और उन्हें जियो, भारत की मुक्ति   यहीं   पर है।
  हमारे देश में  कष्टों का एक तिहाई कारण शारीरिक कमजोरी है। हम आलसी हैं , हम मिले-जुले  नहीं   हो सकते हैं । हम तोते की तरह बहुत कुछ बोल सकते हैं , पर करते नहीं हैं । यह हमारी आदत में है की बोलना बहुत, पर करना नहीं  । इसके पीछे कारण शारीरिक कमजोरी है।
हमारा कमजोर मस्तिष्क हमें कुछ करने नहीं देता है। इसे शक्तिशाली बनाना है।
विवेकानंद जी कहते हैं कि सबसे पहले हमारे युवाओं  को मजबूत होना चाहिए , धर्म बाद  में आता है  ।  मेरे युवा मित्रों , मेरी यह तुम्हे सलाह है कि तुम मजबूत बनो। गीता के अध्ययन की अपेक्षा फुटबॉल के द्वारा  तुम स्वर्ग के अधिक करीब हो। जब तुम्हारी मांसपेशियों में थोङी ताकत होगी, तब  तुम गीता को  अधिक   समझ सकते हो ।
जब तुम्हारे खून में  थोङी ताकत होगी, तब तुम श्री कृष्ण के दिव्य ज्ञान   और चमत्कारिक शक्ति को समझ सकोगे।
जब तुम स्वयं अपने पांव पर खङे हो सकोगे तब तुम उपनिषदों  को और आत्मा की चमक को समझ सकोगे।

मेरी समझ

हमारे  अपने जीवन में जो भी कष्ट या दुख है, वह‌ हमारी अपनी आंतरिक व बाहृय कमजोरियों के कारण है। हमें अपनी कमजोरियों को पहचानना होगा, फिर उन्हें स्वीकार करना होगा।जब स्वीकार करेंगे तभी उन्हें दूर करने का प्रयास करेंगे।

निर्भयता

उपनिषद मुझ से हर पन्ने में   कहते हैं, – ताकत, ताकत। संसार में यही एकमात्र  साहित्य है जिसमें बार- बार  अभय, निर्भय  शब्द  मिलते हैं।
विवेकानंद कहते हैं , मेरे सामने अतीत का एक चित्र  आता है, जिसमें पश्चिम के महान सम्राट महान  एलेक्जेंडर  हैं ।इस चित्र में  महान सम्राट इंडस नदी के किनारे   खङे हैं और जंगल के हमारे एक संयासी से बात कर रहे हैं ।वह बुजुर्ग संयासी  जिससे सम्राट बात कर रहे थे ,  वह शायद नग्न , पूर्णतः नग्न एक काली शिला पर बैठा था, सम्राट उसकी बौद्धिकता से चमत्कृत था, प्रसन्न हो कर  कुछ सोना जो वह युनान से लाया था, उस संयासी को प्रलोभन के रूप में   देना चाहता था।
संयासी उस प्रलोभन को मुस्कराते हुए अस्वीकार कर देता है।  अब सम्राट एक अहंकारी सम्राट   की तरह बोलता है, ” तुम नहीं आओगे तो मैं तुम्हें मार दूंगा ।”
यह सुनकर वह बुजुर्ग संयासी जोर से हंसा और बोला, ” तुमने आज से पहले, जैसा तुमने अभी कहा, वैसा झूठ तुमने अपने जीवन में   कभी नहीं  बोला होगा, मुझे कौन मार सकता है ?  मैं तो एक अजर अमर आत्मा हुं।” यही ताकत है!

मेरी समझ

निर्भयता जीवन जीने की अनिवार्य शर्त है। अपने जीवन को डर से मुक्त करो, निडरता ही ताकत देती है। सच कहने और सुनने के लिए भयमुक्त और शक्तिवान होना होगा।

मेरी ताकत उपनिषद है

हम बहुत बार कमजोर पङते हैं , हमारे पास ऐसी हजारों कहानियां  है, जो हमारी कमजोरी के विषय में बताती है।
इसीलिए मित्रों , तुम एक ही खून हो, एक बार जीते हो और एक ही बार  मरते हो, तो सिर्फ   यही कहो कि हमें ताकत, ताकत और ताकत चाहिए  । और मेरी ताकत उपनिषद है। संपूर्ण  संसार को उत्साहित करने का सामर्थ्य इसकी ताकत में   है। इसी से पूरा संसार पुर्नःजागृत , ऊर्जावान और मजबूत बन सकता  है।
यह कमजोर पर, कष्टों पर, सभी भेद भावों के दलितों पर और सभी धर्मों व मतों   पर विजय की पुकार बनेगा, अपने पांव पर खङे हो और स्वतंत्र हो।हमें  उपनिषदों में स्वतंत्रता , शारीरिक स्वतंत्रता , मानसिक स्वतंत्रता और आध्यात्मिक स्वतंत्रता मिलती है।

मेरी समझ

अगर हम स्वतंत्र रूप से जीना चाहते हैं, तो अपनी कमजोरियों पर विजय पानी होगी। यह विजय ही हमें शारीरिक, मानसिक व आध्यात्मिक स्वतंत्रता देगी। एक सुंदर समाज की सरंचना में हमारा योगदान यही होगा।

धर्म बोध है

धर्म बोध है
कोई धर्म ग्रंथ  हमें  धार्मिक नहीं बना सकता है। संसार में मौजूद सभी किताबे पढ़ कर भी हम धर्म का या ईश्वर का एक भी अक्षर नहीं समझ सकते हैं ।
हम जीवन के समस्त  कारणों पर बात कर सकते हैं ,  लेकिन जब तक स्वयं अनुभव नहीं  कर लेते, तब तक जीवन के सच को समझ नहीं सकते हो ।
तुम किसी व्यक्ति को कुछ किताबें दे कर ,सर्जन बना नहीं  सकते हो। तुम  एक नक्शे में  मेरे देश को दिखाकर मेरी जिज्ञासा शांत नहीं  कर सकते हो। नक्शे सिर्फ उत्तम ज्ञान प्राप्त करने के लिए जिज्ञासा पैदा करते हैं । इसके अतिरिक्त इनका कोई महत्व नहीं  है।
मंदिर , चर्च , किताबें और ऐसी सभी सामान्य  वस्तुएं  धार्मिकता के लिए पहला कदम है, इनके द्वारा हम अपने बच्चे की नींव मजबूत करते हैं,  जिससे वह धर्म की शिक्षा के लिए  कठोर शब्द रख सके।
धर्म कोई सिद्धांत या धार्मिक  मत नहीं   है, न कोई बौद्धिक बहस है। यह तो सदा से है , रहेगा। धर्म   एक अहसास है।

मेरी समझ

हम कहते हैं कि हम धार्मिक है, इतने धार्मिक है कि अपने धर्म के गुणगान करने के साथ दूसरे के धर्म की आलोचना अधिक करते हैं। धार्मिक बनने के लिए, अपने को जानो, भेदभाव से मुक्त होकर, सच्चे मन से दूसरे को जानो, जीवन के सच को जानो और फिर अपने अंदर के धर्म को समझो।

ह्रदय  को उन्नत  करो।

हम शायद बहुत अधिक ज्ञानी हो सकते हैं , जिसने संपूर्ण संसार को जाना हो, पर ईश्वर के करीब न गए  हों  । दूसरी तरफ बौद्धिक प्रशिक्षण   से उत्पन्न  अधार्मिक मनुष्य   हो सकते हो। उनमें से एक पाश्चात्य सभ्यता  की बुराइयाँ है-  ऐसा बौद्धिक ज्ञान  जो ह्रदय के बिना मिला  है  ।यह इंसान को 10 गुणा स्वार्थी बनाता है।
जब दिल और दिमाग के बीच बहस हो तो हमेशा दिल की सुनो। ह्रदय जिस ऊंचाई तक पहुंच सकता  है वहां दिमाग  नहीं  पहुंच  सकता  है ।
जो बुद्धि से ऊपर है, वह प्रेरणा है। ह्रदय को उन्नत  करो, उसे समझो। ह्रदय  के जरिये ईश्वर बोलता है।
मानवता जिस गहनतम प्रेम को जानती है, वह धर्म से आता है। हमने जितने भी शांति के उत्तम शब्द इस संसार में   सुने है, वे हमने धर्म के ज्ञानियों   से सुने हैं ।
उसी समय संसार के सभी कङवे, निंदनीय  शब्द भी हमने धर्म  पुरूषों से सुने हैं ।
प्रत्येक  धर्म   के अपने मत है, जिन्हें   वे चाहते है कि सब इसे सच माने। कुछ तो अपने मत की सच्चाई   को स्वीकार   कराने के लिए ,  दूसरों पर दबाव डालने के लिए तलवार निकाल लेते हैं  ।
यह किसी दुष्ट भावना के कारण नहीं है, अपितु यह एक दिमागी बिमारी  है, जिसका नाम धार्मिक  कट्टरता  है। इन सभी धार्मिक मतभेदों , संघर्ष , नफरत और ईर्ष्या के बावज़ूद कुछ आवाजें शांति और अमन की भी सुनाई देती हैं  ।

मेरी समझ

हम किताबें पढ़ कर ज्ञानी बन सकते हैं पर सच्चे धार्मिक बनने के लिए हमें अपने हृदय को जानना होगा। दिमाग उलझा सकता है, भड़का सकता है पर हृदय में सच है, उसको सुनो।

क्रमशः

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स्वामी विवेकानंद (भाग-15)

20 मंगलवार सितम्बर 2022

Posted by शिखा in Uncategorized

≈ 11s टिप्पणियाँ

धार्मिक  शिक्षा

संतों  की पूजा

विवेकानंद कहते हैं   कि धर्म  शिक्षा का अंतर्तम महत्वपूर्ण भाग होता है। हमें  लोगों को सच्चे सार्वभौमिक  सिद्धांतों के   बारे में   बताना चाहिए।
सबसे पहले हमें  महान संतों की आराधना को जानना है। उनके विषय में जानना हैं,  जिन्होंने सार्वभौमिक सच को पहचाना है व लोगो के सामने आदर्श प्रस्तुत किए हैं जैसे-  श्री रामचन्द्रजी , श्री महावीर ,  श्री कृष्ण  और श्री रामकृष्ण  जैसे कई  ।
श्री  कृष्ण के वृंदावन पहलूओं  को एक तरफ रखते हुए , उनकी गीता में  शेर के समान उनकी दहाङती आवाज सुनो और समझो और उसकी पूजा करो, प्रतिदिन  शक्ति की पूजा करो- दैवीय  माँ, शक्ति  की स्रोत   की आराधना करो।
हमें ऐसे साहसी नायक चाहिए , जिनकी पैर से सिर तक की नाङियों में  वीर चमत्कारी  राजाओं जैसी भावना   हो- ऐसे वीर जिन्हें सच के ज्ञान के लिए मृत्यु  का भी भय न हो और जिनका कवच त्याग हो और तलवार बुद्धि  हो। हमें युद्ध के मैदान  में   वीर यौद्धाओं की आवश्यकता   है।

आदर्श  सेवा

महावीर ( हनुमान  ) के   चरित्र को अपना आदर्श  बनाओ। श्री राम के एक आदेश पर उन्होंने  समुद्र  लांघ लिया था। उन्हें मृत्यु का भय नहीं  था। वह इंद्रियों के विलक्षण  प्रतिभाशाली , अद्भुत, निपुण विशेषज्ञ  थे। अपना  जीवन  निर्माण के लिए   इस महान आदर्श सेवा को अपना आदर्श  बनाओ।
यूं  सभी आदर्श विचार धीरे-धीरे  जीवन में   उजागर   होते हैं । बिना प्रश्न किए, गुरू की आज्ञा का पालन करना, ब्रह्मचार्य का दृढ़ता से पालन करना ही सफलता का रहस्य है।
श्री हनुमान एक आदर्श  सेवा का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं  दूसरी ओर अपनी सिंह जैसी वीरता और अद्भुत ,  चमत्कारी  शक्तियों से संसार को चौंका  देते हैं  ।
श्री राम के लिए उनके अंदर अपना जीवन  त्याग  करने के लिए  कोई हिचकिचाहट  नहीं  थी।श्री राम की सेवा के सामने वह सभी महानतम वस्तुओं के लिए उदासीन थे। श्री राम की आज्ञा का पालन  करना ही उनके जीवन का एकमात्र   संकल्प   था। इसी तरह की सेवा ही हमारे जीवन का आदर्श  होना चाहिए  ।

वीरता से आगे बढ़ो



आज के समय कृष्ण  और गोपियों के नाटक की पूजा करना ठीक नहीं  है। बांसुरी बजा कर हम देश को पुर्नःजागृत नहीं कर सकते हैं  । हम खोल- करताल बजा कर, कीर्तन  में उन्मादी नृत्य करके सभी लोगों का पतन करते हैं।
यह  सार्वलौकिक पवित्रता  की  प्राईमरी योग्यता, उच्चतम तपस्या की नकल करना मात्र है।इससे वे भयानक अंधेरे में गिर जाते हैं  ।
क्या हमारे देश  में ड्रम नहीं  बनते हैं ?  बिगुल और नगाङे नहीं होते हैं ? अपने बच्चों  को इन वाद्यों की गहरी आवाज़   सुनाओ।
बचपन से ऐसी स्त्रीय संगीत की आवाज़  सुनने से यह देश स्त्रीय देश में परिवर्तित होने लगा है।
डमरू और हार्न को बजाना चाहिए, ड्रम  गहरी, तेज और वीर संगीत में बजने चाहिए , साथ महावीर , महावीर की पुकार उर हरे,हरे व्योम, व्योम गुंजायमान   हो।  अब वह संगीत जिसे सुनकर आदमी की कोमल भावनाएं  जागृत हो रही थी, कुछ समय के लिए  रूक जाएगा व लोगों में ध्रुपद संगीत  सुनने की परंपरा शुरू  होगी।
पवित्र वैदिक मंत्रो का उच्चारण तीव्र स्वर में  जब गुंजायमान  होगा तब हमारे देश का पुर्नजागरण होगा।
फिर प्रत्येक वस्तु   में  युवा नायकों की कठोर, दृढ़ भावनाएँ जागृत होनी चाहिए  ।
अगर तुम इस महानतम को आदर्श मानते हुए अपने चरित्र का निर्माण करते हो, कई अन्य भी इसका अनुसरण करेंगे ।
याद रखो, तुम अपने आदर्श से कभी भटकोगे नहीं, कभी निराश  नहीं होगे।  तुम खाते समय, पहनते समय, सोते समय, खेलते समय, आनंद के समय या बिमारी के समय भी अपने उच्चतम नैतिक साहस को बनाए रखोगे।
अपनी कमजोरियों को अपने मस्तिष्क पर हावी न होने दो। महावीर  को याद करो, दैवी माँ को याद करो, तुम्हारी  समस्त कमजोरी  व कायरता तुरंत गायब हो जाएगी।

नया धर्म

पुराने धर्म के अनुसार जो ईश्वर को नहीं मानता वह नास्तिक है। नया धर्म कहता है, जिसे अपने पर विश्वास नहीं है ,वह नास्तिक है। यह स्वार्थी विश्वास है। अपने पर विश्वास मतलब सब पर विश्वास क्योंकि तुममें सब हैं।
अपने से प्रेम करना अथार्त सबसे प्रेम करना, सभी प्राणियों , सभी वस्तुओं से प्रेम क्योंकि सब में तुम हो। यह एक महान विश्वास ,विश्व को बेहतर बनाता है। यह हमारे अंतर का आदर्श विश्वास , हमारी बहुत सहायता करता है। इस आंतरिक विश्वास को बहुत विस्तार से समझकर बहुत अभ्यास करना होगा। मुझे विश्वास है कि इस तरह हमारी अंदर की शैतानियत का बहुत बङा भाग व कष्ट दूर हो जाते हैं ।
संपूर्ण मानव जाति के इतिहास में जितने महान स्त्री- पुरूष हुए हैं , उन सबके जीवन में प्रेरणादायक शक्ति, जो किसी भी शक्ति से अधिक प्रबल थी, वह उनका अपने स्वयं पर विश्वास था। वह महान बनने की चेतना से जन्में और महान बने।

मेरी समझ

हमारी युवा शक्ति को जागृत होना चाहिए। देश, समाज व विश्व में फैली नकारात्मकता के प्रति उनकी चेतना जागृत करनी आवश्यक है। इस नकारात्मकता को दूर करने के लिए उन्हें आत्मविश्वासी, साहसी बनने की आवश्यकता है।

स्वामी विवेकानंद (भाग-14)

13 मंगलवार सितम्बर 2022

Posted by शिखा in Uncategorized

≈ 3s टिप्पणियाँ

विवेकानंद जी बताते हैं कि उच्चतम सत्य को जानना ही हमारा एक मात्र उद्देश्य है।यही हमारी उत्कृष्ट साध है। चलो हम आत्मा की उत्साह से पूजा करते हैं, साहसी बनते हैं । उत्साह को आधार बनाते हैं , मध्य भी उत्साह और परिणति भी उत्साह ही है। अपने उत्साह को बनाए रखो। यही हमारा उद्देश्य है।

हमें पता है कि हम अभी वहाँ तक नहीं पहुँच सकते है। इसकी चिंता मत करो। निराश न हो, अपना मनोबल कमजोर न करो।
महत्वपूर्ण यह है कि तुम अपने शरीर के लिए कम से कम सोचो, अपने को एक पदार्थ की तरह मानो, उसे मृत, सूखा जङ पदार्थ की तरह सोचो और अपने को एक उज्जवल अमर आत्मा की तरह विचारो।
तुम पदार्थ, शरीर व इन्द्रियों से स्वतंत्र हो जाओगे। यही गहन इच्छा तुम्हें मुक्त करती है।

एक व्यक्ति जो शिष्य बनना चाहता है, उसे यह शर्तें पूरी करनी है। यदि यह शर्ते पूरी नहीं होती तो वह एक सच्चे गुरू तक नहीं पहुंच सकते हैं ।
अगर किस्मत से गुरू मिल भी जाता है तो गुरू की शक्ति, उसका तेज उसे नहीं मिल सकता है। इन शर्तों में कोई समझौता नहीं हो सकता है। जब यह शर्ते पूरी होती है, शिष्य का ह्रदय कमल खिल जाता है और मधुमक्खी प्रवेश करेगी।
तब शिष्य जानेगा कि गुरू उसके साथ ही हैं
वह प्रगट होता है, वह महसूस करता है । वह जीवन सागर को पार करता है, उस पार जाता है और करूणा के साथ, किसी लाभ और प्रशंसा की आशा के बिना, वह अपने समय में दूसरों को उस पार पहुंचाने में सहायता करता है।

मेरी समझ

अगर सच्चे मन से कुछ सीखना चाहते हैं, तो त्याग, सहनशीलता व एकाग्रता आवश्यक है।

गुरू में विश्वास

हमारा अपने गुरू के साथ वैसा ही रिश्ता है, जैसा एक पूर्वज का अपने वंशजों के साथ होता है।
गुरू के प्रति अविश्वास, अपमानित, आधीन और निरादार की भावना रखते हुये हमारा विकास नहीं हो सकता है।
जिन देशों में गुरू के प्रति ऐसी भावना नहीं रखी जाती है, उन देशों में गुरू सिर्फ एक प्रोफेसर होता है, जिसे सिर्फ कुछ डालर लेने होते हैं और वह व्यक्ति जो उससे सीखने आते हैं वे अपने प्रोफेसर के शब्दों को अपने दिमाग में भर लेते हैं, जब यह काम हो जाते हैं, तो सब अपने-अपने रास्ते चले जाते हैं ।
विवेकानंद जी यह भी कहते हैं कि गुरू पर विश्वास करो, पूजा करो, पर अंधविश्वास मत करो, गुरू की अत्यधिक पूजा आपको कमजोर व निकम्मा बना देती है। अपना संपूर्ण प्रेम उसे दो पर साथ ही अपने बारे में भी सोचो।

शिक्षण के लिए संवेदनशीलता

गुरू को अपनी शक्ति व ध्यान पूर्णतः शिक्षण प्रवृत्ति को देना होगा। संवेदनशीलता के बिना पढ़ाना असंभव हैं ।
किसी व्यक्ति के विश्वास को मत हिलाओ। तुम उसे कुछ अच्छा दे सकते हो, पर जो उसके पास है, उसे नष्ट मत करो।
वह एक सच्चा गुरू होता है जो अपने को तुरंत अपने हजारों अनुयायियों के अनुरूप बदल लेता है।
वह ही सच्चा गुरू है जो अपने को अपने छात्र के स्तर तक ले आए, अपनी आत्मा को छात्र की आत्मा में बदलते हुए, छात्र को देखे व उसके मस्तिष्क से उसे समझे। यही गुरू अध्यापन कर सकता है।

मेरी समझ

गुरू के प्रति सम्मान व विश्वास की भावना रखने पर ही ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। यह भावना आधुनिक युग में लुप्त होती जा रही है। अंधभक्ति करते हुए उनकी उंगली पकड़ कर चलने के लिए नहीं कहा जा रहा है। गुरू मार्गदर्शक है, जो बुद्धि में पड़े अंधेरे को हटाने में सहायक बनता है, रोशनी तक स्वयं पहुंचना होता है।

प्रत्येक शिष्य भिन्न है, उसका व्यक्तित्व, उसका परिवेश इत्यादि सभी भिन्न होते हैं क्योंकि प्रत्येक मनुष्य भिन्न आत्मा है। सच्चा गुरू वहीं है जो इस सच को समझें और प्रत्येक शिष्य की प्रकृति को समझते हुए भिन्न – भिन्न शिक्षण पद्धति का प्रयोग करें। गुरू की संवेदनशीलता शिष्य को ज्ञान प्राप्त करने में सहायक होती है।

स्वामी विवेकानन्द भाग-13

10 शनिवार सितम्बर 2022

Posted by शिखा in Uncategorized

≈ 6s टिप्पणियाँ

विवेकानंद जी कहते हैं कि शिष्य में सहनशीलता का गुण भी होना चाहिए । तुम‌ महसूस करोगे कि जीवन आरामदायक लगता है, जब तुम्हारे जीवन में सब अच्छा चल रहा हो और तब तुम्हारा मस्तिष्क भी अच्छा व्यवहार करता है। लेकिन जब कुछ गलत हो जाए तो हमारा मस्तिष्क भी संतुलन खो देता है। यह सही नहीं होता है।
सब बर्दाश्त करो, गहरा दुख हो या अत्यधिक कष्ट हो,  बिना एक शब्द बोले, दुख का विचार मत सोचो, उसके किसी समाधान या निदान, इलाज के बारे में, विचारे बिना सहन करो। यही सच्ची सहन शीलता है।

‘जब मेरे गुरू रामकृष्ण बिमार हुए थे तब एक ब्राह्मण ने उन्हें सलाह दी कि वह अपने को स्वस्थ करने के लिए अपनी अद्भुत मानसिक शक्ति का प्रयोग करें। उन्होंने कहा कि यदि वह अपने मस्तिष्क का  ध्यान सिर्फ अपने शरीर के बिमार भाग में लगाते हैं, तो वह स्वस्थ हो सकते हैं।’

गुरू बोले, “क्या ! मस्तिष्क नीचे आए, जबकि मैंने  अपना शरीर ईश्वर को सौंप दिया है। ” ‌उन्होंने अपने शरीर व बिमारी के विषय में सोचने से मना कर दिया ।
उनका दिमाग निरंतर ईश्वर के ध्यान में था, वह पूर्णतः ईश्वर को समर्पित थे। वह इसका प्रयोग किसी उद्देश्य पूर्ति के लिए नहीं करते थे।

सूली पर चढे उस व्यक्ति को भी याद करो, जिन्होंने उसे सूली पर चढ़ाया था, वह व्यक्ति उन सब पर  दया करता था।
उसने अपमान व कष्ट सहे।
उसने सभी भार अपने ऊपर लिए थे। उसने कहा, तुम अपना सारा श्रम और भारी बोझ मुझे दे दो, और मैं तुम्हें आराम व इत्मीनान देता हूं ।
यही सच्ची सहनशीलता है, वह जीवन से इतना ऊपर था कि हम उसे समझ ही नहीं सकते हैं ।

मेरी समझ

अगर ज्ञान ग्रहण करने की सच्ची लालसा है तो कष्टों पर‌ ध्यान मत दो। एकाग्रता में कष्ट बाधक नहीं होते हैं, हमारी सोच बाधक होती है, जितना सोचोगे उतना कष्ट परेशान करेगा। सहनशीलता जीवन में कुछ भी सीखने के लिए परमावश्यक है।

इच्छाएं


अगली शर्त है कि शिष्य को अपने को अपनी सबसे तीव्र चाह को पूरा करने की इच्छा से मुक्त होना है ।
किसी की भी इच्छा उसके शरीर से अलग नहीं है। क्या संसार सिर्फ पेट और वासना ही है।

असंख्य स्त्री-पुरुष इसके लिए ही जीते हैं । इनसे यह सब ले लोगे तो इन्हें जिन्दगी खाली, अर्थहीन व असहनीय लगेगी। ऐसे हम है और ऐसा ही हमारा दिमाग है, यह पेट और वासना की भूख को शांत करने के लिए, रास्ते और साधनों की पूर्ति के ध्यान में निरंतर व्यस्त रहता है।
यह शारीरिक  इच्छाएं   सिर्फ पल भर की संतुष्टि है और अंतहीन कष्टकारी है। यह  एक चाय के प्याले की तरह है, जिसकी सतह में नेक्टर होता है, तो अंततः यह ज़हर के समान ही होता है। फिर भी हम इन लालसों के लिए जीते हैं ।

सभी इंद्रियों की इच्छाओं का त्याग ही इस कष्ट से मुक्ति का एकमात्र रास्ता है। यदि आध्यात्मिक बनना चाहते हो तो त्याग करो। यही वास्तविक परीक्षा है।
संसार को , अपनी इंद्रियों के कचरे को छोङो।
सिर्फ़ एक कामना है, सच को जानना है, आध्यात्मिक बनो। न कोई भौतिकता और न अहंकार हो,

सच का ज्ञान पाने की इच्छा को तीव्र, गहन और मजबूत बनाओ।

यदि एक व्यक्ति के हाथ- पैर इतनी मजबूती से बाँधे कि वह हिल न सके, फिर उसके ऊपर एक जलता हुआ कोयला का टूकङा रख दिया जाए, वह अपनी पूरी ताकत से उसे अपने ऊपर से फेंकने में लगा देगा।
जब मुझे ऐसी तीव्र इच्छा घेरती है, मै बैचेनी भरे संघर्ष के साथ उसे जलते हुए संसार में फेंक देता हूं तब वह समय आता है जब मैं दैविक सच की झलक पाता हूं ।

मेरी समझ

हम जीवन भर अनेक‌ ऐसी इच्छाओं की पूर्ति के लिए फंसे रहते हैं, जिनके कारण जीवन पथ‌ में आगे बढ़ने में परेशानी होती है।

क्रमशः

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