कष्ट का कारण

कष्ट का एक कारण मोह में फंसना है ,हम पकङे जाते हैं । इसलिए गीता कहती हैं कि निरंतर कर्म करो पर उससे जुड़ोगे नहीं , तो पकङे नहीं जाओगे। सबसे विलग रहने की शक्ति को सुरक्षित रखो।कोई कितना भी प्रिय हो, आत्मा कितनी भी उसके लिए लालसा रखती हो, कितना भी उससे अलग होने का कष्ट हो, जब तुम चाहो तब छोङ सको, इस शक्ति को सुरक्षित रखो।
यहां कमजोर के लिए कोई स्थान नहीं है, न इस जीवन में न किसी और जीवन में कोई स्थान नहीं है।
कमजोरी दासता की ओर जाती है। कमजोरी सभी शारीरिक , मानसिक कष्ट देती है। कमजोरी मृत्यु है।


हमारे चारों ओर हजारों अणु, कीटाणु घूमते हैं , जब तक हमारा शरीर उनसे लङने के लिए स्वस्थ हैं , वे हमें हानि नहीं पहुंचा सकते हैं ।
हमारे चारों ओर दुःखों के कीटाणु हैं , मत परेशान हो,जब तक हमारा मस्तिष्क स्वस्थ है, ताकतवर है, वे हमारे करीब भी नहीं पहुँच सकते हैं , हमे हानि नहीं पहुंचा सकते हैं ।
यह महान सत्य है कि ताकत जीवन है और कमजोरी मृत्यु है। ताकत परमसुख है, जीवन शास्वत, अमर है, कमजोरी लगातार तनाव व कष्ट है, कमजोरी मृत्यु है।
अभी हमारी समस्त खुशियों का स्रोत जुङाव व लगाव है । हमें अपने रिश्तेदारों और मित्रों से लगाव होता है।
हम अपने बौद्धिक और आध्यात्मिक कार्यों से बहुत जुङ जाते हैं ।हमें बहुत सारी बाह्य वस्तुओं से लगाव होता है चूंकि वे सब हमें आनंद देती हैं ।
पर फिर? इन्हीं सब से कष्ट भी मिलता है।


यदि हम में अलगाव की ऊर्जा है या हम उसे प्राप्त कर लेते हैं तो कोई कष्ट भी नहीं रहेगा।
जिस व्यक्ति के पास लगाव की शक्ति है और साथ ही अलगाव की भी शक्ति है तो वह व्यक्ति प्रकृति से उसका उत्तम गुण प्राप्त कर सकता है।
कठिनाई यह है कि जितनी ऊर्जा जुङाव के लिए चाहिए उतनी ऊर्जा अलगाव के लिए भी आवश्यक है।


संसार में ऐसे भी लोग होते हैं , जिन्हें कुछ आकर्षक नहीं लगता है, जो प्रेम नहीं कर सकते हैं , कठोर या पत्थर ह्रदय के उदासीन व्यक्ति होते हैं । ये कष्टों , दुःखों से दूर भागते हैं ।
एक दीवार जिसे दुख महसूस नहीं होता है, वह किसी से प्रेम नहीं करती, आखिर वह एक दीवार ही तो है।
अतः एक दीवार बनने की अपेक्षा मोह के जाल में फंसना ज्यादा अच्छा है। ऐसा आदमी प्रेम नहीं करता, कष्टों से भागता है, वह खुशियों से भी भागता है। हम ऐसा नहीं चाहते हैं । कमजोरी का अर्थ मृत्यु है।

जिस आत्मा ने कमजोरी को महसूस नहीं किया, जो कभी भी कमजोर नहीं पङी उसकी ऐसी स्थिति पाषाण के समान सख्त , कठोर होती है । यह हम नहीं चाहते हैं ।
इसके साथ हम यह भी नहीं चाहते हैं कि हम प्रेम और लगाव की शक्ति में इतना जुङ जाएं कि अपनी आत्मा को पूर्णतः किसी एक वस्तु या अन्य आत्मा के लिए अर्पित करने में अपने को खो दें। हमें लगाव और विरक्ति को एक साथ लेकर चलना है, जो एक योग्य व्यक्ति कर सकता है। हम भी इसे सीख सकते हैं , पर इसमें भी एक रहस्य है।


एक भिखारी कभी खुश नहीं होता है। उसे दया और तिरस्कृत भावना के साथ खैरात मिलती है, उसे निकृष्ट माना जाता है। भिखारी भी उसे जो मिलता है, उससे संतुष्ट नहीं होता है, वह कभी खुश नहीं होता है।
हम सब भिखारी हैं । हम जो भी करते हैं , हमें उसका प्रतिफल चाहिए ।
हम सब व्यापारी है। हम जीवन के , नैतिकता के और धर्म के व्यापारी है। दुख की बात है कि हम प्रेम के भी व्यापारी हैं ।
बात व्यापार की है तो यह लेन- देन और खरीदना- बेचना है, यह सब भी नियमों , कानून के अंतर्गत होता है।


यहां अच्छा समय भी है, बुरा समय भी है, कीमतों में चढ़ाव के साथ उतार भी है, हम चाहते है कि सब हमारे अनुकुल हो।
यह दर्पण में देखने के समान है , दर्पण में
तुम्हारा चेहरा प्रतिबिंबित होता है, तुम एक विकृत चेहरा बनाते हो- यह दर्पण में दिखता है। तुम हंसते हो दर्पण हंसता है। यही लेना – देना, खरीदना- बेचना है।
हम पकङे जाते हैं , देने के कारण नहीं अपितु उम्मीद के कारण पकङे जाते हैं । हमें प्रेम के कारण कष्ट मिलता है , हमारे प्रेम के कारण नहीं , बल्कि प्रेम के बदले प्रेम की चाह हमें दर्द देती है।
अगर चाहते नहीं होगी तो कष्ट भी नहीं होगा । अभिलाषा, चाहत कष्टों के पिता हैं ।इच्छाएं सफलता और असफलता के नियमों से बंधी होती है। तो इच्छाएं कष्ट ही देंगी ।

मेरी समझ

हमें जीवन के सभी सुखों और भावों के साथ ही जीवन जीना है। सभी भावों के अनुभव से ही हम जीवन को समझ सकेंगे। जीवन का आनंद ले सकेंगे। जीवन में आसक्ति हमें सुख देती है। पर इस सच्चाई को भी स्वीकार करना होगा कि आसक्ति के साथ विरक्ति भी है। अगर जीवन के इस रहस्य को समझ लिया तो जीवन का सच समझ लिया।

प्रसन्नता का रहस्य

संपूर्ण स्वार्थहीनता ही सच्ची सफलता का रहस्य है। जिसे बदले में कुछ नहीं चाहिए , वह ही सफल है, वह ही वास्तव में खुश है।
यह एक विरोधाभास लगता है क्योंकि हम जानते हैं जो स्वार्थहीन है, उसे ही सबसे अधिक धोखे मिलते हैं , कष्ट मिलते है।
हां, ऐसा ही प्रतीत होता है, जैसे यीशु मसीह स्वार्थहीन थे, फिर भी उन्हें सूली पर चढ़ा दिया गया था।
यह सच है, लेकिन उनके इस त्याग के पीछे जो उनके उद्देश्य थें, उसके कारण उन्हें हजारों , करोड़ों लोगों की शुभकामनायें मिली। यही उनकी सफलता थी।


कुछ न मांगों , बदले में कुछ न चाहो। सिर्फ दो जो दे सकते हो , वह दो, देने पर मिलेगा भी पर अभी नहीं मिलेगा। पर देते समय लेने की भावना मत रखना, मिलेगा, कई गुणा बढ़ कर मिलेगा।
तुम्हें सिर्फ देने की शक्ति दी गई है, यह प्रकृति तुम्हें देने के लिए बाध्य करती है। इसीलिए अपनी पूर्ण इच्छा व खुशी के साथ दो। जल्दी या देर से तुम्हें अपना सब देना ही है।
तुम जीवन में संचय करने आए थे, बंद मुठ्ठी से लेना चाहते थे।
प्रकृति तुम्हारा मुंह बंद करती है और हाथ खोल देती है। तुम चाहो या न चाहो पर तुम्हें देना ही पङता है।
जिस क्षण तुम देने के लिए नहीं कहते हो, एक आँधी आती है और तुम कष्ट पाते हो। तुम्हें एक लंबे समय तक अपना सब कुछ देने के लिए बाध्य किया जाएगा।


हम प्रकृति के नियमों के विरूद्ध नहीं जा सकते है, देने पर ही मिलता है, नियमों का विरोध करने पर जीवन कष्टकारी बनता है जंगल चले जाते हैं , पर गर्मी मिलती है, सूरज समुद्र का पानी सोख लेता है, पर बारिश देता है।
तुम लेने देने की मशीन हो, देने पर ही मिलता है, पर देते समय लेने की इच्छा न रखने पर ही मिलेगा ।
तुम कमरे के अंदर की हवा को तेजी से बाहर फेंक सकते हो, उतनी ही तेजी से बाहर की हवा से कमरा भर जाएगा। तुम खिड़की – दरवाजे बंद कर देते हो, अंदर की हवा के बाहर जाने के सभी रास्ते बंद कर देते हो। हवा की आवाजाही न होने के कारण अंदर की हवा जहरीली हो जाती है।


नदी अपने को समुद्र में खाली करती है, पर साथ ही फिर भर भी जाती है।समुद्र में कोई रूकावटें नहीं होती है , पर यदि तुम ऐसा करते हो,तो मृत्यु तुम्हें अपनी ओर खींच लेती है।

मेरी समझ

हमारा स्वभाव है कि बिना ‌फल की चाह के कोई काम नहीं करते हैं।दान भी करते हैं तो मन में प्रशंसा अथवा पुण्य की चाह रखते हैं। इस चाह‌ से मुक्ति ही, जीवन की साध होनी चाहिए।


स्वतंत्र बनो


स्वतंत्र बनो, भिखारी मत बनो। यही जीवन का सबसे मुश्किल काम है। तुम इस रास्ते में आने वाले खतरों को गिन नहीं सकते हो। इन कठिनाइयों को हम बुद्धि से नहीं जान सकते हैं , हम सिर्फ महसूस कर सकते हैं ।
कुछ दूरी से तुम एक पार्क के दृश्य को देखते हो, तुम वहां नहीं होते हो पर महसूस करते हो कि तुम वहां हो।


यहां तक कि जब हम अपने प्रत्येक प्रयास में फेल हो जाते हैं , चोट खाते हैं , टूट जाते हैं , दिल तार-तार हो जाता है, पर इन सब कठिनाइयों , कष्टों से गुजरते हुए भी, हम यह विश्वास अपने मन में बनाए रखते हैं कि हमारा ईश्वर हमारे साथ है।
प्रकृति प्रतिक्रिया चाहती है , चोट के बदले चोट, धोखे के बदले धोखा, झूठ के बदले झूठ, पूरी ताकत के साथ धक्का देना चाहती है। तब हमें एक दिव्य शक्ति की आवश्यकता होती है, जो हममें बसी बदले की भावना को नियंत्रित करे। हमें इन दुर्भावनाओं से मुक्त रखे, हमें स्वतंत्र बनाए।

विवेकानंद जी कहते हैं कि मैं जानता हूँ कि यह सब करना अत्यंत कठिन है कि 90% लोग हिम्मत खो देते हैं , उनका दिल इस तरह टूटता है कि वे निराशावादी बन जाते हैं , उनका वफादारी , प्रेम व दया जैसी भावनाओं से विश्वास उठ जाता है।
तब हम ऐसे लोगों से मिलते हैं , जिनके जीवन में ताजगी है , उनका जीवन क्षमा, दया, निष्कपट जैसी भावनाओं के नकाब को पहने बूढ़ा हो जाता है।
उनके मस्तिष्क जटिलताओं से भरे होते हैं ।


उन्हें ऊपरी तौर पर बहुत अच्छा व्यवहार करना आता है।संभवतः उनका दिमाग गर्म न हो,वे बोलते नहीं हैं । चूँकि उनका ह्रदय मृतप्राय हो गया है, वे नहीं बोलते हैं । वे गाली नहीं देते हैं , गुस्सा नहीं करते हैं । पर यह उनके लिए अच्छा होगा कि वे गुस्सा करें , यह हजार गुना अच्छा हो कि वे गाली दे सकते हो।वे नहीं कर सकते क्योंकि उनके ह्रदय में जीवन नहीं है, अपने ठंडे हाथों से इन्होनें सब जब्त किया हुआ है , यह कुछ नहीं कर सकते, न कोई बद्दुआ दे सकते हैं , न एक कठिन शब्द बोल सकते हैं ।


विवेकानंद जी के अनुसार हमें इन पर ध्यान नहीं देना हैं , मैं कहता हूँ कि हमें किसी महान शक्तिमान मानव की नहीं, दिव्य शक्ति की आवश्यकता है।
उसी की सहायता से हम इन सबसे बाहर आ सकते हैं । इस दिव्यशक्ति के कारण हम अकेले सभी दुखों और कष्टों से कुशलता पुर्वक निकल आते हैं ।हम इन कष्टों और दुखों से उबरते हुए बेशक टूट जाते हैं , पर इस दिव्यशक्ति के साथ होने से हमारा अंतर, हमारा ह्रदय श्रेष्ठ से श्रेष्ठ होता जाता है।

मेरी समझ

हमारे प्राकृतिक स्वभाव में सभी भावनाएं हैं, घृणा, गुस्सा, ईर्ष्या और प्रेम, दया आदि। इन सभी भावनाओं के अनुभवों को जानने में ही आनंद है। पर स्वभाव के किसी भी एक तत्व की अधिकता हमें और दूसरे को कष्ट में डाल सकती है। हम प्रयास करें तो इन सभी भावनाओं में संतुलन बना सकते हैं। यह कठिन तो है पर असंभव नहीं है।

निरंतर अभ्यास

यह कठिन अवश्य है, पर निरंतर अभ्यास से हम अपनी परेशानियों और तकलीफों से निकल सकते हैं ।
अगर हम अपने को अतिसंवेदनशील नहीं बनाते हैं तो हमारे साथ कुछ नहीं हो सकता है। जब तक हमारा शरीर स्वस्थ है, हमें कोई बीमारी नहीं हो सकती है। हमारे शरीर में उपस्थिति जीवाणु शक्तिवान हैं कि वे बाहर से आने वाले कीटाणुओं से लङ सकते हैं तो हम बिमार नहीं हो सकते हैं ।


हमें वहीं मिलता है, जिसके हम योग्य होते हैं ।
अब हमें अपने-आप पर गर्व करना छोड़ कर यह विचार करना जरूरी है कि कोई भी कष्ट, दर्द अनचाहे नहीं होते हैं । कोई भी बुराई तभी हमारे पास आती है जब हम उसके लिए मार्ग प्रशस्त करते हैं ।
अपने स्वयं का विश्लेषण करो, तुम पाओगे कि अपने कष्टों के लिए तुम जिम्मेदार हो, चूंकि तुमने अपने को ऐसा बनाया है
आधा बाहरी दुनिया के कारण, आधा हमारा अंतर हमारे कष्टो का उत्तरदायी होता है।


अपने को शांत करो, फिर विश्लेषण करो, निष्कर्ष निकलेगा कि बाहरी दुनिया पर तो वश नहीं है पर अपने को, अपने अंतर को वश में किया जा सकता है।
यदि बाहरी और अंतर की भागीदारी से असफलता या दुर्दशा मिलती है तो यह मेरा फैसला है कि मैं अपनी भागीदारी नहीं दूंगा , और जब मैं ऐसा करूंगा तो कोई कष्ट मुझ तक कैसे पहुंच सकता है।


हम बचपन से दूसरों को दोषी ठहराते आएं हैं । हम दूसरों के हक के लिए खङे भी होते हैं पर अपने लिए कभी नहीं बोलते हैं ।
हम जब कष्ट में होते हैं, हम कहते हैं कि यह शैतानों की दुनिया हैं , यहां शैतान बसते हैं , यदि ऐसा है, तो हम कौन है, यहां क्यों रहते हैं ? हम कहते हैं इस दुनिया के लोग स्वार्थी हैं , आप भी तो उनके साथ रहते हो, आप कौन हो? विचार करो।

मेरी समझ

जितनी चाहते बढ़ाएंगे, उतने कष्ट पाएंगे। दूसरे को दोष देना हमारा स्वभाव है। अपने को जानना आवश्यक है।यह दुनिया और समाज हमसे है, हम समाज से नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति अपने अंतर को पहचाने और अपने सुधार के लिए प्रयास करें तो समाज में भी बदलाव आएगा।

हमारे लिए जो उपयुक्त है वह मिलता है।

हमें हमारी योग्यता के अनुसार मिलता है। यह कहना गलत है कि यह संसार बुरा है और हम अच्छे हैं ।यह नहीं हो सकता है। इससे बड़ा कोई झूठ हम अपने-आप से नहीं बोल सकते हैं ।
यही पहला पाठ हमें सीखना है कि किसी दूसरे को दोष नहीं देना है, अपने कष्टों , तकलीफों की जिम्मेदारी स्वयं लेनी है। एक इंसान की तरह जिम्मेदार बनो, अपने प्रति जिम्मेदार बनो।
जितना संभव हो, उतना हमें अपना ध्यान रखना होगा, कुछ समय के लिए दूसरों का ध्यान न रखो जब तक तुम्हारी स्थिति में सुधार न हो जाए।
जब तक हम स्वच्छ व पवित्र नहीं होते यह संसार स्वच्छ व पवित्र नहीं बन सकता है। इस अच्छे परिणाम के लिए हम साधन मात्र है।अतः हमें अपने को सुधारने का कार्य करना होगा।

क्रमशः

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