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मासिक अभिलेखागार: नवम्बर 2022

स्वामी विवेकानंद (भाग-26)

27 रविवार नवम्बर 2022

Posted by शिखा in Uncategorized

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आशा – अरमान मत करो

स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि क्या तुम अपने बच्चों को जो देते हो, बदले में उनसे कुछ चाहते हो? तुम जो भी उनके लिए करते हो वो तुम्हारा कर्तव्य है। जैसा बच्चों के लिए सोचते हो वैसा ही संसार के सभी कार्य करते हुए सोचना चाहिए , देश के लिए, समाज के लिए, मित्रों व रिश्तेदारों के लिए कुछ भी करो, उसके बदले में कुछ पाने की चाह मत करो।
यदि तुम बदले में पाने की चाह के बिना, किसी लगाव के बिना एक दाता बनते हो। बिना अरमान के तुम्हारे द्वारा सब दिया जाता है तो तुम स्वतंत्र होते हो।

मेरी समझ

व्यक्ति तो जैसे आशा व अरमान लेकर ही इस संसार में जन्म लेता है। वह समाज सेवा भी करता है तो चाहता है कि उस काम का उसे यश मिले। अपने प्रियजनों की खुशी के लिए भी वह कुछ त्याग भी करता है तो उसके मन में कम से कम सराहना की चाह होती हैं। अपने बच्चों के लिए प्यार से सब करने पर भी मन में यह अरमान रहता है कि बड़े होने पर ये बच्चे हमारा ध्यान रखेंगे। जब यह सब नहीं मिलता तो व्यक्ति दुखी होता है। सुखी तभी रहा जा सकता है जब प्रेमभाव भी निस्वार्थ हो।

आनंद के परिणाम

स्वामी जी कहते हैं कि दासों की तरह काम करते हुए तुम स्वार्थी बनते हो, अपने मस्तिष्क के स्वयं मालिक बने, उसे बिना लगाव के आनंद की आदत डालो।
हम न्याय और अधिकार की बातें करते हैं , पर हम देखते हैं इस संसार में न्याय और अधिकार एक बचकानी बात है।


दया और ताकत यह दो महत्वपूर्ण तत्व हैं , जिनसे मनुष्य का जीवन बंधा होता है। ताकत के प्रयोग में स्वार्थ निहित होता है। प्रत्येक व्यक्ति के पास जितनी और जैसी शक्ति है, उसका प्रयोग करता है।
दया, करूणा स्वर्गिक वस्तु है, सबके पास दया भावना होनी चाहिए , न्याय और अधिकार भी दया पर आधारित होने चाहिए । दया, करुणा हमें आध्यात्म की ओर ले जाते हैं , परंतु यह कष्ट का भी कारण बनते हैं ।


एक अन्य उपाय है कि दया और स्वार्थ हीन दान को अपने जीवन में अपना ले, अगर ईश्वर को मानते हो तो कर्म को भगवान मानकर उसकी पूजा करो। अपने सभी कर्म फल ईश्वर को अर्पित कर दो और अपनी पूजा के बदले, ईश्वर से किसी वस्तु की आशा करना अनुचित है।
जैसे कमल के पत्ते पानी में रहते हुए भी गीले नहीं होते हैं , उसी तरह पापी दुनिया में रहते हुए भी, एक स्वार्थ हीन, व लगावहीन व्यक्ति को पाप छू भी नहीं सकता है।

मेरी समझ

न्याय और अधिकार भी स्वार्थ के पर्याय बन गए हैं क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति सिर्फ अपने अधिकार की बात करता है, वह न्याय में भी अपना व्यक्तिगत हित ढूंढता है। ईश्वर की भक्ति भी तभी सार्थक होती है जब ईश्वर से पूजा व भक्ति के बदले कोई मांग न हो।

नेवले की कहानी

आत्म त्याग के विचार पर आधारित एक कहानी है – कुरूक्षेत्र के युद्ध के बाद, पांडवों ने एक विशाल यज्ञ किया और गरीबों को भारी मात्रा में उपहार बांटे।सभी लोग इस यज्ञ और दान से बहुत प्रभावित थे, ऐसा यज्ञ और दान स्वरूप दिए उपहार , संसार में कहीं देखे नहीं गए थे। लेकिन कार्यक्रम के बाद एक छोटा-सा नेवला वहां आया, उसका आधा शरीर सुनहरा था और आधा भूरा था। जहाँ यज्ञ हुआ था, उस भूमि पर वह लोट पोट हो रहा था। वह सबसे कहता जा रहा था, ” तुम सब झूठे हो, यह कोई त्याग नहीं है।” ” क्या!” लोग हैरानी से बोले, ” यहाँ दिल खोल कर पैसा और सोना बांटा गया है। ऐसा यज्ञ पहले किसी ने नहीं किया है

तब नेवले ने एक कहानी सुनाई – एक समय की बात है, एक गांव में एक गरीब ब्राह्मण अपनी पत्नी , पुत्र व पुत्र वधु के साथ रहता था। वह लोगों को शिक्षा व प्रवचन देता व फलस्वरूप उसे जो छोटे-छोटे उपहार मिलते उनसे किसी प्रकार गुजारा करता था।
फिर उस गांव में अकाल पङ गया और उस ब्राह्मण के लिए वे दिन बहुत ही कष्टकारी थे, कई दिनों से उसने व उसके परिवार ने अन्न का एक दाना भी मुँह में नहीं डाला था, तब उस ब्राह्मण को किसी ने थोङा जौ का आटा भिक्षा में दिया, जिसके चार भाग किए गये जो चारों के लिए , उस समय पेट भरने के लिए पर्याप्त था।

वे चारों भोजन करने बैठे ही थे कि तभी किसी ने उनकी कुटिया का दरवाजा खटखटाया , ब्राह्मण ने देखा कि एक अतिथि हैं , भारत देश में अतिथि को भगवान स्वरूप माना जाता है। उस अतिथि पुरूष ने कहा,” मैं कई दिनों से भूखा हूँ , क्या कुछ खाने को मिलेगा?” ब्राह्मण ने उसे अपने हिस्से का भोजन आदरसहित परोस दिया। उतना भोजन करने के बाद वह अतिथि बोला कि इस थोङे भोजन से मेरी भूख और बढ़ गई है, तब ब्राह्मण की पत्नी ने ब्राह्मण से कहा कि वह उस अतिथि को उसके हिस्से का भोजन परोस दे, ब्राह्मण ने मना किया, पर वह बोली कि अतिथि को भूखा रखना उचित नहीं हैं । अतः उसका भाग भी अतिथि को परोस दिया गया।

परंतु वह भाग भी खाकर, वह अतिथि बोला,” मैं कई दिनों से भूखा हूँ , अतः इतने भोजन से मेरी भूख मिटने के स्थान पर और अधिक बढ़ गई है।” तब ब्राह्मण पुत्र ने कहा कि इस घर का पुत्र होने का कर्तव्य है कि हमारे अतिथि भूखे न रहे, उसने अपने भोजन का भाग अतिथि को परोस दिया पर अतिथि की भूख शांत नहीं हुई, तब पुत्र वधु ने भी अपना भोजन अतिथि को परोस दिया , तब अतिथि तृप्त हो कर उन्हें अपना आशीर्वाद दे कर चला गया।


उस रात उस ब्राह्मण परिवार की भूख के कारण मृत्यु हो गई ।” नेवला बोला,” उस आटे के कुछ कण भूमि पर गिर गए थे, मैं जब उस पर लोट पोट हुआ तो जैसा तुम देख सकते हो , मेरा आधा शरीर सुनहरा हो गया ।
तब से पूरे विश्व में घूम रहा हूँ जहाँ ऐसा त्याग हुआ हो, जिससे मेरा शेष शरीर भी सुनहरा हो जाए, पर मुझे कहीं नहीं मिला, इस यज्ञ व दान के लिए भी मेरा यही विचार है।”


इस महान त्याग के विचार का भारत के बाहर तक प्रसार हुआ, जिन्होंने इस विचार को अपनाया वे महान बने, बेशक उनकी संख्या कम है।
इस तरह मृत्यु के समय भी त्याग करते हुए हिचकिचाओ नहीं , न ही दान करते समय अपने पर घमंड करो, न जिसके लिए त्याग करो बदले में उससे आभार की आशा करो, अपितु तुम उसके आभारी बनो कि उसने तुम्हें ऐसा अवसर दिया।

मेरी समझ

स्वामी विवेकानंद के शिक्षा दर्शन का सार है कि किसी को भी धर्म, जाति, वर्ग व लिंग के आधार पर शिक्षा से वंचित नहीं किया जाना चाहिए। प्रत्येक को न केवल मूलभूत शिक्षा पाने का अधिकार होना चाहिए अपितु उन्हें सभी विषयों सामाजिक, वैज्ञानिक, आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने का अधिकार होना चाहिए। आज हमारे देश व‌ समाज में सबको शिक्षा का अधिकार अवश्य है परंतु लोगों में शिक्षा व ज्ञान प्राप्त करने की चेतना में कमी देखी जाती है, विशेषकर निम्न वर्ग में ज्ञान की लालसा न के बराबर है चूंकि वे अपनी प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति में ही व्यस्त रहते हैं।

अपनी स्वार्थी इच्छाओं से मुक्त होकर एक स्वतंत्र जीवन जीना चाहिए। हमारी परतंत्रता हमारे अंदर उपस्थित है, उससे मुक्त होने के लिए हमें अपने को लगावहीन, व स्वार्थहीन बनाना होगा।

समाप्त

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स्वामी विवेकानंद (भाग-25)

20 रविवार नवम्बर 2022

Posted by शिखा in Uncategorized

≈ 4s टिप्पणियाँ

कर्म को स्वामी मानो

भगवद् गीता हमें निरंतर कर्म करने के लिए कहती है। प्रत्येक कार्य में अच्छाई व बुराई दोनों होती है। हम ऐसा कोई भी कार्य नहीं करते हैं , जिसमें लाभ के साथ हानि न हो। फिर भी हमें निरंतर कर्म करने के लिए कहा जाता है । अच्छे और बुरे दोनों क्रियाओं के परिणाम होते हैं , अच्छे कर्म के अच्छे परिणाम , बुरे के बुरे होते हैं ।
परंतु अच्छाई और बुराई दोनों आत्मा को गुलाम बनाती हैं । गीता इसके लिए सुझाव देती है कि ‘जो भी कर्म करो, उससे लगाव मत रखो। ऐसा कर पाओगे तो अपनी आत्मा को बंधन मुक्त कर पाओगे।हमें लगाव हीन को समझना होगा।

मेरी समझ

मनुष्य का स्वभाव ऐसा ही बना है कि वह कोई भी कर्म करने से पहले उससे मिलने वाले लाभ के बारे में सोचता है। बिना स्वार्थ के वह कोई कार्य कर नहीं पाता है। यह लाभ हानि का चक्कर उसे मोह माया के दलदल में डाल देता है। इस दलदल से मुक्त होना ही दुष्कर कार्य है।

लगाव हीन

विवेकानंद जी कहते हैं कि जिस तरह एक कछुआ अपने कवच में पैर और मुँह डाल कर बैठ जाता है। फिर उसे मारो, तोङो वह बाहर नहीं निकलता है। इसी तरह एक व्यक्ति जो अपने स्वार्थी उद्देश्यों और इंद्रियों पर नियंत्रण कर लेता है, उसे बदला नहीं जा सकता है। वह अपनी आंतरिक शक्ति को नियंत्रित कर लेता है, उसकी इच्छा के बिना उससे कोई काम नहीं हो सकता है।


इस सबका प्रभाव उसके अच्छे विचारों और अच्छी प्रवृति में पड़ता है, उसकी यह अच्छा बनने की प्रवृत्ति उसे ताकतवर बनाती है।
एक ऐसे चरित्र का निर्माण होता है, जो सच को प्राप्त कर सकता है। वह कभी बुरा नहीं करता। किसी भी बुरी संगत का उस पर प्रभाव नहीं पङता है। उसकी यह प्रवृत्ति उच्चतम स्तर पर पहुंच कर, उसे स्वतंत्रता दिलाती है।


तुम्हें याद होगा कि सभी योगाभ्यास का उद्देश्य तुम्हें स्वतंत्र करना है। जैसे बुद्ध ने ध्यान से और यीशु ने भक्ति से अकेले यह स्वतंत्रता प्राप्त करी थी, वैसे प्रत्येक व्यक्ति अकेले ही स्वतंत्रता पा सकता है। अच्छी और बुरी प्रवृत्तियों में संघर्ष होता है, जैसे-जैसे अच्छी प्रवृत्ति मस्तिष्क में फैलती जाती है, बुरी प्रवृत्ति मस्तिष्क के एक कोने में पहुंच जाती है या पूर्णतः गायब हो जाती है। अच्छी प्रवृत्ति के जीतने के साथ ही लगाव, लगाव हीन में बदल जाता है।परंतु बहुत सी बाधाएं फिर भी आती रहेंगी। मांसपेशियां और मस्तिष्क अपने काम करते रहेंगे, लेकिन उनका प्रभाव अपनी आत्मा पर मत पङने दो।

मेरी समझ

अपनी आत्मा को पवित्र और स्वतंत्र करना है तो अपने को लोभ और माया के मोह से दूर रखना होगा। पर इस सांसारिक जीवन में हमारे मार्ग में लोभ और मोह की रूकावटें आएंगी, अगर मन की शक्ति पर काम किया है, उसे सुदृढ़ बनाया है तो रूकावटें आत्मा को प्रभावित नहीं करेंगी।

यह कैसे कर सकते हैं ।

स्वामी जी ने कहा कि हम यह कैसे कर सकते हैं ? हम देख सकते हैं कि अपने जिस काम से हम अधिक जुङाव रखते हैं , उसका प्रभाव हमारे मस्तिष्क में हमेशा बना रहता है।


मैं दिन में लगभग सौ लोगों से मिलता हुं पर उनमें से सिर्फ एक व्यक्ति ऐसा होता है, जिसके प्रति मैं प्रेम महसूस करता हूँ। रात को सोने से पहले उन सभी सौ चेहरों को याद करना चाहता हूँ , जिनसे मैं दिन भर मिला था, पर मुझे किसी का चेहरा याद नहीं आता है। सिर्फ एक चेहरा याद रहता है, वह जो सिर्फ एक मिनट के लिए मिला था, जिससे मुझे प्रेम हुआ था। मेरा उस व्यक्ति के प्रति लगाव के कारण उसका प्रभाव मेरे मस्तिष्क पर बना रहता है।

मनोवैज्ञानिक दृष्टि से सबका प्रभाव एक समान मस्तिष्क पर पहुंचा था। मस्तिष्क के जरिए आँख ने एक समान सबको देखा और उन सबकी फोटो मस्तिष्क में बस गई थी। कुछ चेहरे मेरे लिए नए थे, जिनके बारे में पहले कभी नहीं सोचा था, पर सिर्फ एक चेहरे की झलक जैसे मेरे अंतर से परिचित थी। शायद कई बरसों से इस चेहरे का प्रभाव मेरे मस्तिष्क पर था, और जिसे अंजाने ही कई बार याद किया था , उन सभी चेहरों की अपेक्षा सिर्फ इस चेहरे ने मेरी यादों को जागृत किया था।

स्वामी की भांति काम करो।

विवेकानंद जी कहते हैं , निरंतर कर्म करो पर दासों की भांति मत करो, मालिक की तरह करो। तुमने देखा होगा लोग कैसे काम करते हैं , 99% लोग दासों की तरह काम करते हैं , काम ऐसे करो, जो तुम्हें आजादी दे, उससे तुम्हें प्यार मिले। प्यार को समझना कठिन है। जब तक स्वतंत्रता नहीं है, तब तक प्रेम नहीं हो सकता है। दासता में प्रेम संभव नहीं है।


तुम एक दास खरीदते हो, उसे जंजीर से बाँध कर रखते हो, उससे अपने काम कराते हो, वह कोल्हू के बैल की तरह काम करेगा, पर उसमें प्रेम नहीं होगा। इसी तरह जब हम दूसरे व्यक्तियों के लिए काम करते हैं तब हम दूसरो की गुलामी करते हैं , वह सच्चा काम नहीं होता है।


जो कर्म हम अपने रिश्तेदारों या मित्रों के लिए करते हैं , वह सच्चा कर्म होता है। यहां हम अपने दास होते हैं । स्वार्थ पूर्ण काम दासों का काम होता है। यह एक परीक्षा होती है।
परंतु सभी कर्म खुशी देते हैं, ऐसा कोई प्रेम पूर्ण कर्म नहीं है जो प्रतिक्रिया में खुशी और शुभकामनायें न देता हो।


वास्तविक अस्तित्व , सच्चा ज्ञान व सच्चा प्रेम एक दूसरे से जुङे हुए है । जहाँ एक है , वहां अन्य दो भी अवश्य उपस्थित होते हैं ।
इन तीनों से मिलकर बनता है- अस्तित्व- ज्ञान- आनंद ।
संसार में जब मनुष्य की अस्तित्व की उपस्थिति होती है, तब ज्ञान भी उस तक पहुंचता है। और मनुष्य ने ह्रदय में संपूर्ण प्रेम से आनंद की प्राप्ति की होती है।


सच्चा प्रेम, न तो प्रेमी को न जिससे प्रेम किया जाता है, उसको कष्ट देता है।
उदाहरणतः एक पुरूष एक स्त्री से प्रेम करता है, पर वह उस स्त्री की हर क्रिया पर निगाह रखता है, उससे ईर्ष्या करता है। वह चाहता है कि उसकी प्रेमिका उसके साथ ही बैठे, खाए, उसके अनुसार ही समस्त कार्य करे, वह स्वयं उसका दास होता है और प्रेमिका को भी दासी बनाता है। यह प्रेम नहीं है, यह एक बिमारी है, एक दास का मोह है। यह उसका अपने स्वयं के प्रति प्रेम को सिद्ध करता है।


इस प्रेम में कष्ट है, प्रेमिका ने बात नहीं मानी तो दर्द होगा। जहाँ कष्ट हो, दर्द हो वहाँ सच्चा प्रेम नहीं हो सकता है।
प्रेम में अगर आनंद नहीं है तो यह प्रेम नहीं है, इसे प्रेम समझना एक भूल है। अपनी, पत्नी / पति, बच्चों व संसार में सभी से ऐसा प्रेम करो जो आनंद दे, तभी तुम लगाव हीन स्थिति पा सकते हो।

मेरी समझ

हम कहते हैं कि हम अपना काम ‌बहुत मन व लग्न से करते हैं, पर उस कर्म के करने के पीछे छिपी अपनी लोभ की भावना को नहीं देखते हैं, क्योंकि जब उस काम में सफलता नहीं मिलती तो हम दुखी होते हैं। इस तरह से हम अपने काम को अपना स्वामी बना लेते हैं।हम अपनी खुशी के लिए उस काम पर निर्भर हो जाते हैं। अगर अपने काम से लगावहीन प्रेम करते हैं तो वह हमें खुशी देता है,‌यही सच्चा कर्म है।

क्रमशः

स्वामी विवेकानंद (भाग-24)

09 बुधवार नवम्बर 2022

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≈ 2s टिप्पणियाँ

अपने कर्तव्य करो

स्वामी विवेकानंद जी कहते हैं कि कर्तव्य के इस विमर्श में बदलाव आया है कि स्वार्थहीन कार्य ही कर्तव्य है।
जब हम कर्तव्य की भावना से काम करते हैं तो वह काम धीरे-धीरे कर्तव्य हीन होकर पूजा बन जाता है, जो हमारे अपने लिए होती है।
कर्तव्य का दर्शन योगा जैसे दर्शन से भी समझा जा सकता है। जिसमें अपने निम्न अंतर को और कम करके उच्च अंतर को प्रकाशित किया जाता है।निम्न अंतर की समस्त ऊर्जा को कम करते हुए, उससे दूर होते हुए आत्मा स्वं अपने को उच्चतम अवस्था की ओर ले जाती है।
अपनी निम्न इच्छाओं को दृढ़ इच्छाशक्ति से कम करना ही हमारा कर्तव्य है।
चेतना से अथवा अवचेतन से सामाजिक संगठन, क्रियाओं और अनुभवों से विकसित होते है, स्वार्थहीन स्वभाव के स्थान पर व्यक्ति का प्राकृतिक, वास्तविक स्वभाव उजागर होता है।

निम्न इच्छाओं को अस्वीकार

कर्तव्य कई बार एक मीठा अहसास होता है। जब इसके पहिए में प्रेम रूपी ग्लिसरीन लगाई जाती है तो वह आनंद के साथ दौङता है।
जैसे- माता-पिता के अपने बच्चों के लिए कर्तव्य, पति-पत्नी के एक दूसरे के लिए कर्तव्य, पूर्ण करने में खुशी का अहसास है।
प्रेम मिश्रित कर्तव्य में आनंद है, इसमें स्वतंत्रता भी मिल जाती है तो प्रेम सुंदर हो जाता है।
क्या इंद्रियों के गुलाम हो कर स्वतंत्र हो सकते हैं ? क्रोध, ईर्ष्या आदि भावों के कारण मनुष्य गुलाम ही रहता है।
ये छोटी-छोटी कलुषित भावनाएं स्वतंत्रता के रास्ते की रूकावट होती है।
महिलाओं में ईर्ष्या का भाव, अपने प्रति निम्नता का अहसास उन्हें गुलाम बनाता है , पर वह पतियों और समाज को दोष देती है जबकि वह स्वयं अपने को गुलाम की तरह प्रस्तुत करती हैं । पति भी हर बात पर अपनी पत्नियों को दोष देते हैं।

मेरी समझ

यह सच है कि इंसान अपनी निम्न या कष्टदायक स्थिति के लिए परिस्थितियों को या भाग्य को जीवन भर दोष देता है। उस स्थिति को सुधारने का प्रयास नहीं करते हैं। जो कर पाते हैं वह दूसरों के लिए उदाहरण बनते हैं।

एक गृहस्थ महिला और एक संयासी की कहानी

अपने कर्तव्यों को पूर्ण निष्ठा से पूरा करने से, हमारी मानसिक शक्ति में वृद्धि होती है, जो हमारी आत्मा को उच्चतम अवस्था तक पहुंचाती है।
एक युवा संयासी जंगल जाकर पूजा, तपस्या करता है, योग साधना करता है। एक लंबे समय तक वह निष्ठा से उसमें लीन रहता है।एक दिन जब वह एक पेङ के नीचे बैठा, अपनी तपस्या में लीन था कि उसके सिर पर कुछ सूखे पत्ते गिर पङे, उसकी तपस्या भंग हुई और क्रोध में ऊपर देखा कि पेङ के ऊपर एक कौवा और एक सारस लङ रहे थे। उस युवा तपस्वी ने क्रोध से उन पक्षियों देखते हुए कहा कि तुम दोनों की मुझ पर पत्ते फेंकने की हिम्मत कैसे हुई ? ऐसा कहने के बाद तुरंत ही उस पर एक आग की चिंगारी पङी, उसने आश्चर्य से ऊपर देखा तो पाया दोनों पक्षी जल कर भस्म हो गए थे।
वह बहुत हैरान और खुश हुआ कि उसकी योग तपस्या से उसमें इतनी शक्ति आ गई है कि मात्र देखने भर से वे दोनों पक्षी जल कर राख हो गए ।


कुछ समय बाद वह संयासी भिक्षा के लिए एक गांव में गया, वहाँ एक घर के द्वार पर जाकर गुहार लगाई,” माँ! भिक्षा दे!”
अंदर से एक महिला की आवाज़ आई, ‘ बेटा, प्रतीक्षा कर, अभी थोङी देर में आती हूं। ‘
वह संयासी अपनी शक्ति के मद में चूर, क्रोध में बोला, ” तुममें मुझे प्रतीक्षा कराने का साहस कैसे हुआ ? तुम मेरी शक्तियों को नहीं जानती हो।’
अंदर से उस गृहणी का उत्तर आया, ” बेटा, अपने विषय में, अधिक गर्व न कर, यहां कोई कौवा या सारस नहीं है।


यह सुनकर संयासी उस महिला के इस ज्ञान पर अचंभित रह गया। वह वहाँ प्रतीक्षा करता रहा। थोङी देर में गृहस्थिन भिक्षा ले कर आई, उसके आने पर तपस्वी उसके चरणों पर गिर पड़ा और प्रार्थना करने लगा कि ‘कृपा बताएं कि ‘ आपको कैसे इस घटना का ज्ञान हुआ?’
उस गृहणी ने उत्तर दिया, ” बेटा, मैं एक साधारण गृहणी हूँ, मेरे पति बीमार हैं, मैं उनकी सेवा श्रुष्शा कर रही थी अतः तुम्हें प्रतीक्षा करानी पङी थी। मुझे तुम्हारी योग तपस्या का ज्ञान नहीं है। मैंने अपना जीवन अपने कर्तव्यों को निष्ठा से पूर्ण करने में व्यतीत किया है। शादी से पूर्व माता-पिता की सेवा लगन से की और विवाह के पश्चात पति सेवा में खुशी-खुशी जीवन व्यतीत कर रही हूँ । पर अपने कर्तव्यों को पूर्ण करते हुए, मुझ में ज्ञान का प्रकाशन अवश्य हुआ है, जिससे मैं तुम्हारे विचारों को पढ सकी व जान पाई कि तुमने जंगल में क्या किया था।”

मेरी समझ

अपने कर्तव्यों को निष्ठा से पूर्ण करना ही सच्ची तपस्या है और ऐसी साधना और तपस्या का क्या लाभ जिससे क्रोध और अहंकार को नष्ट न किया जा सका हो।

शिकायत मत करो

विवेकानंद जी कहते हैं कि एक मजदूर मेहनत करते हुए अपना संपूर्ण ध्यान मेहनत के फल की ओर रखता है। परिणामस्वरूप उसे वह लाभ नहीं मिलता जो वह चाहता था। एक अन्य मेहनतकश मजदूर फल की चिंता किए बगैर लगन से काम करता है। वह अच्छा लाभ पाता है।


जब व्यक्ति अपनी स्वार्थपरक इच्छाओं का अंत कर देता है, तब उसकी आत्मा स्वतंत्र हो जाती है।
हमारे कर्तव्यों का स्थान, हमारी शिकायतों से बहुत ऊंचा है।
प्रतियोगिता बढ़ती जाती है और ह्रदय की कोमलता, दयालुता मिटती जाती है। व्यक्ति की शिकायतें , उसके कर्तव्यों की गरिमा को कम कर देती हैं, वह जीवन भर अपने को असफल मानता रहेगा और दुखी रहेगा।
हमें अपने को, अपने कर्मों को परखना चाहिए, उन्हें सुधारना चाहिए । नया परिवर्तन, नया प्रकाश देगा।

मेरी समझ

जीवन में संतुष्ट होने की कोई परिभाषा नहीं है क्योंकि इच्छाओं का कोई अंत नहीं है ‌। अपनी परिस्थितियों को बदलने के लिए कर्म करना चाहिए पर उस कर्म का फल तभी मिलेगा जब मन साफ होगा। इसलिए अपने मन की , आत्मा की शुद्धता पर कार्य करना आवश्यक है।

क्रमशः

स्वामी विवेकानंद (भाग-23)

02 बुधवार नवम्बर 2022

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कर्तव्य

विवेकानंद जी कहते हैं कि कर्तव्य क्या है ? यह जानना बहुत आवश्यक है, हमें कोई भी कार्य करने से पहले अपने कर्तव्यों का ज्ञान होना चाहिए, तभी हम वह कार्य कर सकते हैं । प्रत्येक राष्ट्र की कर्तव्य की अपनी परिभाषा होती है।

मौहम्मद कहते हैं कि उनकी पवित्र किताब ‘ कुरान’ में जो लिखा है वह कर्तव्य है, हिन्दू वेदों के लेखन को कर्तव्य मानते हैं और क्रिश्चियन बाईबल में रचित वाक्यों को कर्तव्य कहते हैं ।
इस तरह विभिन्न परिस्थितियों, विभिन्न ऐतिहासिक कालों और विभिन्न देशों के अनुसार कर्तव्य के विभिन्न दर्शन है।

‘कर्तव्य’ शब्द की व्याख्या करना उतनी ही कठिन है, जितना अन्य किसी सार्वभौमिक शब्द की व्याख्या करना होता है। हम व्यवहारिक क्रियाओं और उनके परिणाम से ही इसे समझ सकते हैं।
जब हमारे सामने कुछ घटता है, तब हम स्वाभाविक रूप से अथवा अपने प्रशिक्षित आवेग के अनुसार व्यवहार करते हैं, स्थिति को देखते हुए, हमारा आवेग जागृत होता है और हमारा मस्तिष्क सोचना शुरू कर देता है।


कई बार हमारा मस्तिष्क सही और अच्छा सोच पाता है और उसके अनुरूप हमारा व्यवहार भी उत्तम होता है।पर कई बार वह गलत या बुरा होता है। सामान्य शब्दों में प्रत्येक अच्छा व्यक्ति अपने विवेक का अनुसरण करता है।

मेरी समझ

व्यक्ति अपने विवेक से अपने कर्तव्य निश्चित करता है।पर कुछ कर्तव्य पंरपरा से या समाज द्वारा निश्चित कर दिए जाते हैं। जैसे -माता-पिता का अपने बच्चों की परवरिश करना अथवा संतान का अपने माता-पिता की सेवा करना। सड़क दुघर्टना में घायल व्यक्ति की सहायता करना विवेकपूर्ण कर्तव्य हो सकता है।

जीवन की स्थिति के अनुसार

विवेकानंद जी कहते हैं कि किसी के कर्म से कैसे निश्चित किया जा सकता है कि उसने अपना कर्तव्य पूर्ण किया है। एक क्रिश्चियन को एक मांस का टूकङा खाने को दिया जाए पर वह उसे न खाकर भविष्य के लिए बचा कर रखता है, किसी दूसरे को भी उसकी भूख मिटाने के लिए नहीं देता है। वह जानता है कि उसने अपना कर्तव्य नहीं किया है। वही टूकङा किसी हिन्दू व्यक्ति को दिया जाता है और वह भी किसी दूसरे को नहीं देता है, पर स्वयं खाने का साहस कर लेता है। वह भी जानता है कि उसकी शिक्षा और प्रशिक्षण के अनुसार उसके कर्तव्य में त्रुटि हुई है।


एक सामान्य आदमी सङक पर जाता है और किसी दूसरे व्यक्ति को गोली मार देता है, फिर दुखी होता है कि उसने बहुत बड़ी गलती की है। परंतु यही व्यक्ति जो अपने रेजिमेंट में एक सैनिक है, वह एक नहीं बल्कि बीस दुश्मनों को गोली मारकर खत्म कर देता है, अब वह खुश है कि उसने अपना कर्तव्य पूर्ण किया है।


कर्तव्य की परिभाषा वस्तुनिष्ठ नहीं हो सकती है, कर्तव्य व्यक्तिनिष्ठ होता है।
कोई कर्म जो ईश्वर के दिए गए शब्दों के अनुसार अच्छा है, वह कर्तव्य है और जो उसके अनुसार नहीं हैं, गलत है, वह कर्तव्य नहीं हो सकता है।
व्यक्तिनिष्ठ दृष्टि से देखा जाए तो कुछ विशेष कार्यों की प्रवृत्ति हमें ऊँचा उठाती है, गर्वोन्त करती है। और कुछ कार्यों की प्रवृत्ति हमें नीचे की ओर गिराती है, प्रताड़ित कराती है।


यह पता करना बहुत कठिन है कौन-सा हमारा व्यवहार सभी व्यक्तियों के साथ, या सभी परिस्थितियों में उचित है।
एक ही विचार सार्वभौमिक रूप से प्रमाणित है, जिसे सभी व्यक्तियों , जातियों, धर्मों व देशों द्वारा स्वीकृत किया गया है कि – ‘ किसी भी प्राणी को कष्ट न दें , विचारों में भी किसी को कष्ट न दे, किसी भी प्राणी को कष्ट देना पाप है।’

भगवद् गीता

भगवद् गीता के अनुसार जीवन में हमारे जन्म और स्थिति के आधार पर हमारे कर्तव्य निर्धारित होते हैं। जीवन और समाज में हमारे जन्म और स्थिति ही जीवन में हमारे मानसिक और नैतिक व्यवहार निश्चित करते हैं ।


जिस समाज में हम जन्म लेते हैं, उसके नियमों, आदर्शो और क्रियाकलापों के आधार पर हमारे कर्तव्य निर्धारित होते हैं।
हमें यह निश्चित रूप से याद रखना चाहिए कि प्रत्येक देश व समाज के नियम, आदर्श भिन्न होते हैं। अपनी इस अज्ञानता के कारण हम एक दूसरे से नफरत करते हैं ।
एक अमेरिकी व्यक्ति यह सोचता है कि उसके देश के रीति-रिवाज सबसे अच्छे हैं , जो इन्हें नहीं निभाता वह दुष्ट व्यक्ति है।
एक हिन्दू भी कहता है कि मेरे रिवाज़ सबसे अच्छे है , जो इन्हें नहीं करता है वह पापी है।


यह स्वाभाविक गलती हम सब कर रहें हैं, जिससे समाज में नफरत फैल रही है , संसार में मुख्यतः इसी के कारण दुख व्याप्त है।
हमें यह निश्चित करना चाहिए कि हमें दूसरे के रिवाज़ उसके दृष्टिकोण से देखने चाहिए, उन पर अपना फैसला नहीं चाहिए । आप एक सार्वभौमिक सत्ता नहीं हो।
मुझे संसार के अनुसार रहना है न कि संसार को मेरे अनुसार रहना है। पर्यावरण के बदलाव के साथ कर्तव्य भी बदल रहे हैं । आज इस निश्चित काल में हम अपने कर्तव्य बहुत अच्छी तरह पूर्ण कर रहे हैं ।
अब हम वे कार्य करते हैं जो हमें जन्मजात मिले हैं । जब ये कर लेते हैं तो उन कर्तव्यों को करेंगे जो हमें हमारे जीवन में हमारी सामाजिक स्थिति के कारण मिले हैं।


मानव स्वभाव की सबसे बङी कमी है कि वह कभी अपने को परखता नहीं है।
वह सोचता है कि वह राजा बनने योग्य है , परंतु यदि वह राजा का पद चाहता है, तो उसे सर्वप्रथम अपने वर्तमान पद के कर्तव्य कुशलता व निष्ठा पूर्वक पूर्ण करने होंगे और यदि वह ऐसा कर पाता है तब उच्च पद के कर्तव्य स्वयं उसके पास आएंगे।


जब हम संसार में बहुत लगन के साथ कोई कार्य करना शुरू करते हैं, तब प्रकृति हमें दाएं ,बाएं ,चारों दिशाओं में घूमा देती है और शीघ्र ही हमें अपनी वास्तविक स्थिति से परिचय हो जाता है।
कोई भी व्यक्ति लंबे समय तक उस स्थिति में संतुष्ट नहीं रह सकता जो उसके लिए उपयुक्त नहीं है।
प्रकृति की व्यवस्था में हम फेरबदल नहीं कर सकते हैं। कोई व्यक्ति इसलिए निम्न नहीं होता है कि वह निम्न कार्य करता है। व्यक्ति की परख उसके व्यवहार और उसके कर्तव्य के प्रति लगन व निष्ठा के आधार पर होती है।

मेरी समझ

हमें आजकल भगवद्गीता के प्रवचन जगह- जगह सुनने को मिलते हैं,पर प्रवचन देने वाले और सुनने वाले उसकी व्याख्या समझते नहीं हैं, अगर समझें तो समाज में नफ़रत न फैले।

क्रमशः

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