कर्तव्य
विवेकानंद जी कहते हैं कि कर्तव्य क्या है ? यह जानना बहुत आवश्यक है, हमें कोई भी कार्य करने से पहले अपने कर्तव्यों का ज्ञान होना चाहिए, तभी हम वह कार्य कर सकते हैं । प्रत्येक राष्ट्र की कर्तव्य की अपनी परिभाषा होती है।
मौहम्मद कहते हैं कि उनकी पवित्र किताब ‘ कुरान’ में जो लिखा है वह कर्तव्य है, हिन्दू वेदों के लेखन को कर्तव्य मानते हैं और क्रिश्चियन बाईबल में रचित वाक्यों को कर्तव्य कहते हैं ।
इस तरह विभिन्न परिस्थितियों, विभिन्न ऐतिहासिक कालों और विभिन्न देशों के अनुसार कर्तव्य के विभिन्न दर्शन है।
‘कर्तव्य’ शब्द की व्याख्या करना उतनी ही कठिन है, जितना अन्य किसी सार्वभौमिक शब्द की व्याख्या करना होता है। हम व्यवहारिक क्रियाओं और उनके परिणाम से ही इसे समझ सकते हैं।
जब हमारे सामने कुछ घटता है, तब हम स्वाभाविक रूप से अथवा अपने प्रशिक्षित आवेग के अनुसार व्यवहार करते हैं, स्थिति को देखते हुए, हमारा आवेग जागृत होता है और हमारा मस्तिष्क सोचना शुरू कर देता है।
कई बार हमारा मस्तिष्क सही और अच्छा सोच पाता है और उसके अनुरूप हमारा व्यवहार भी उत्तम होता है।पर कई बार वह गलत या बुरा होता है। सामान्य शब्दों में प्रत्येक अच्छा व्यक्ति अपने विवेक का अनुसरण करता है।
मेरी समझ
व्यक्ति अपने विवेक से अपने कर्तव्य निश्चित करता है।पर कुछ कर्तव्य पंरपरा से या समाज द्वारा निश्चित कर दिए जाते हैं। जैसे -माता-पिता का अपने बच्चों की परवरिश करना अथवा संतान का अपने माता-पिता की सेवा करना। सड़क दुघर्टना में घायल व्यक्ति की सहायता करना विवेकपूर्ण कर्तव्य हो सकता है।
जीवन की स्थिति के अनुसार
विवेकानंद जी कहते हैं कि किसी के कर्म से कैसे निश्चित किया जा सकता है कि उसने अपना कर्तव्य पूर्ण किया है। एक क्रिश्चियन को एक मांस का टूकङा खाने को दिया जाए पर वह उसे न खाकर भविष्य के लिए बचा कर रखता है, किसी दूसरे को भी उसकी भूख मिटाने के लिए नहीं देता है। वह जानता है कि उसने अपना कर्तव्य नहीं किया है। वही टूकङा किसी हिन्दू व्यक्ति को दिया जाता है और वह भी किसी दूसरे को नहीं देता है, पर स्वयं खाने का साहस कर लेता है। वह भी जानता है कि उसकी शिक्षा और प्रशिक्षण के अनुसार उसके कर्तव्य में त्रुटि हुई है।
एक सामान्य आदमी सङक पर जाता है और किसी दूसरे व्यक्ति को गोली मार देता है, फिर दुखी होता है कि उसने बहुत बड़ी गलती की है। परंतु यही व्यक्ति जो अपने रेजिमेंट में एक सैनिक है, वह एक नहीं बल्कि बीस दुश्मनों को गोली मारकर खत्म कर देता है, अब वह खुश है कि उसने अपना कर्तव्य पूर्ण किया है।
कर्तव्य की परिभाषा वस्तुनिष्ठ नहीं हो सकती है, कर्तव्य व्यक्तिनिष्ठ होता है।
कोई कर्म जो ईश्वर के दिए गए शब्दों के अनुसार अच्छा है, वह कर्तव्य है और जो उसके अनुसार नहीं हैं, गलत है, वह कर्तव्य नहीं हो सकता है।
व्यक्तिनिष्ठ दृष्टि से देखा जाए तो कुछ विशेष कार्यों की प्रवृत्ति हमें ऊँचा उठाती है, गर्वोन्त करती है। और कुछ कार्यों की प्रवृत्ति हमें नीचे की ओर गिराती है, प्रताड़ित कराती है।
यह पता करना बहुत कठिन है कौन-सा हमारा व्यवहार सभी व्यक्तियों के साथ, या सभी परिस्थितियों में उचित है।
एक ही विचार सार्वभौमिक रूप से प्रमाणित है, जिसे सभी व्यक्तियों , जातियों, धर्मों व देशों द्वारा स्वीकृत किया गया है कि – ‘ किसी भी प्राणी को कष्ट न दें , विचारों में भी किसी को कष्ट न दे, किसी भी प्राणी को कष्ट देना पाप है।’
भगवद् गीता
भगवद् गीता के अनुसार जीवन में हमारे जन्म और स्थिति के आधार पर हमारे कर्तव्य निर्धारित होते हैं। जीवन और समाज में हमारे जन्म और स्थिति ही जीवन में हमारे मानसिक और नैतिक व्यवहार निश्चित करते हैं ।
जिस समाज में हम जन्म लेते हैं, उसके नियमों, आदर्शो और क्रियाकलापों के आधार पर हमारे कर्तव्य निर्धारित होते हैं।
हमें यह निश्चित रूप से याद रखना चाहिए कि प्रत्येक देश व समाज के नियम, आदर्श भिन्न होते हैं। अपनी इस अज्ञानता के कारण हम एक दूसरे से नफरत करते हैं ।
एक अमेरिकी व्यक्ति यह सोचता है कि उसके देश के रीति-रिवाज सबसे अच्छे हैं , जो इन्हें नहीं निभाता वह दुष्ट व्यक्ति है।
एक हिन्दू भी कहता है कि मेरे रिवाज़ सबसे अच्छे है , जो इन्हें नहीं करता है वह पापी है।
यह स्वाभाविक गलती हम सब कर रहें हैं, जिससे समाज में नफरत फैल रही है , संसार में मुख्यतः इसी के कारण दुख व्याप्त है।
हमें यह निश्चित करना चाहिए कि हमें दूसरे के रिवाज़ उसके दृष्टिकोण से देखने चाहिए, उन पर अपना फैसला नहीं चाहिए । आप एक सार्वभौमिक सत्ता नहीं हो।
मुझे संसार के अनुसार रहना है न कि संसार को मेरे अनुसार रहना है। पर्यावरण के बदलाव के साथ कर्तव्य भी बदल रहे हैं । आज इस निश्चित काल में हम अपने कर्तव्य बहुत अच्छी तरह पूर्ण कर रहे हैं ।
अब हम वे कार्य करते हैं जो हमें जन्मजात मिले हैं । जब ये कर लेते हैं तो उन कर्तव्यों को करेंगे जो हमें हमारे जीवन में हमारी सामाजिक स्थिति के कारण मिले हैं।
मानव स्वभाव की सबसे बङी कमी है कि वह कभी अपने को परखता नहीं है।
वह सोचता है कि वह राजा बनने योग्य है , परंतु यदि वह राजा का पद चाहता है, तो उसे सर्वप्रथम अपने वर्तमान पद के कर्तव्य कुशलता व निष्ठा पूर्वक पूर्ण करने होंगे और यदि वह ऐसा कर पाता है तब उच्च पद के कर्तव्य स्वयं उसके पास आएंगे।
जब हम संसार में बहुत लगन के साथ कोई कार्य करना शुरू करते हैं, तब प्रकृति हमें दाएं ,बाएं ,चारों दिशाओं में घूमा देती है और शीघ्र ही हमें अपनी वास्तविक स्थिति से परिचय हो जाता है।
कोई भी व्यक्ति लंबे समय तक उस स्थिति में संतुष्ट नहीं रह सकता जो उसके लिए उपयुक्त नहीं है।
प्रकृति की व्यवस्था में हम फेरबदल नहीं कर सकते हैं। कोई व्यक्ति इसलिए निम्न नहीं होता है कि वह निम्न कार्य करता है। व्यक्ति की परख उसके व्यवहार और उसके कर्तव्य के प्रति लगन व निष्ठा के आधार पर होती है।
मेरी समझ
हमें आजकल भगवद्गीता के प्रवचन जगह- जगह सुनने को मिलते हैं,पर प्रवचन देने वाले और सुनने वाले उसकी व्याख्या समझते नहीं हैं, अगर समझें तो समाज में नफ़रत न फैले।
क्रमशः
सराहनीय प्रस्तुति 👌
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शुक्रिया 🙏
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बहुत अच्छा 👍💐
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शुक्रिया ❤️
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Bahut sahi
अपनी ओर से कर्तव्य पालन करते रहो, सामने वाले को समझो ।उपदेश केवल उपदेश ही ना रह जाएं बल्कि उसके अनुकूल अपना आचरण रखो।
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शुक्रिया ❤️
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