अपने कर्तव्य करो

स्वामी विवेकानंद जी कहते हैं कि कर्तव्य के इस विमर्श में बदलाव आया है कि स्वार्थहीन कार्य ही कर्तव्य है।
जब हम कर्तव्य की भावना से काम करते हैं तो वह काम धीरे-धीरे कर्तव्य हीन होकर पूजा बन जाता है, जो हमारे अपने लिए होती है।
कर्तव्य का दर्शन योगा जैसे दर्शन से भी समझा जा सकता है। जिसमें अपने निम्न अंतर को और कम करके उच्च अंतर को प्रकाशित किया जाता है।निम्न अंतर की समस्त ऊर्जा को कम करते हुए, उससे दूर होते हुए आत्मा स्वं अपने को उच्चतम अवस्था की ओर ले जाती है।
अपनी निम्न इच्छाओं को दृढ़ इच्छाशक्ति से कम करना ही हमारा कर्तव्य है।
चेतना से अथवा अवचेतन से सामाजिक संगठन, क्रियाओं और अनुभवों से विकसित होते है, स्वार्थहीन स्वभाव के स्थान पर व्यक्ति का प्राकृतिक, वास्तविक स्वभाव उजागर होता है।

निम्न इच्छाओं को अस्वीकार

कर्तव्य कई बार एक मीठा अहसास होता है। जब इसके पहिए में प्रेम रूपी ग्लिसरीन लगाई जाती है तो वह आनंद के साथ दौङता है।
जैसे- माता-पिता के अपने बच्चों के लिए कर्तव्य, पति-पत्नी के एक दूसरे के लिए कर्तव्य, पूर्ण करने में खुशी का अहसास है।
प्रेम मिश्रित कर्तव्य में आनंद है, इसमें स्वतंत्रता भी मिल जाती है तो प्रेम सुंदर हो जाता है।
क्या इंद्रियों के गुलाम हो कर स्वतंत्र हो सकते हैं ? क्रोध, ईर्ष्या आदि भावों के कारण मनुष्य गुलाम ही रहता है।
ये छोटी-छोटी कलुषित भावनाएं स्वतंत्रता के रास्ते की रूकावट होती है।
महिलाओं में ईर्ष्या का भाव, अपने प्रति निम्नता का अहसास उन्हें गुलाम बनाता है , पर वह पतियों और समाज को दोष देती है जबकि वह स्वयं अपने को गुलाम की तरह प्रस्तुत करती हैं । पति भी हर बात पर अपनी पत्नियों को दोष देते हैं।

मेरी समझ

यह सच है कि इंसान अपनी निम्न या कष्टदायक स्थिति के लिए परिस्थितियों को या भाग्य को जीवन भर दोष देता है। उस स्थिति को सुधारने का प्रयास नहीं करते हैं। जो कर पाते हैं वह दूसरों के लिए उदाहरण बनते हैं।

एक गृहस्थ महिला और एक संयासी की कहानी

अपने कर्तव्यों को पूर्ण निष्ठा से पूरा करने से, हमारी मानसिक शक्ति में वृद्धि होती है, जो हमारी आत्मा को उच्चतम अवस्था तक पहुंचाती है।
एक युवा संयासी जंगल जाकर पूजा, तपस्या करता है, योग साधना करता है। एक लंबे समय तक वह निष्ठा से उसमें लीन रहता है।एक दिन जब वह एक पेङ के नीचे बैठा, अपनी तपस्या में लीन था कि उसके सिर पर कुछ सूखे पत्ते गिर पङे, उसकी तपस्या भंग हुई और क्रोध में ऊपर देखा कि पेङ के ऊपर एक कौवा और एक सारस लङ रहे थे। उस युवा तपस्वी ने क्रोध से उन पक्षियों देखते हुए कहा कि तुम दोनों की मुझ पर पत्ते फेंकने की हिम्मत कैसे हुई ? ऐसा कहने के बाद तुरंत ही उस पर एक आग की चिंगारी पङी, उसने आश्चर्य से ऊपर देखा तो पाया दोनों पक्षी जल कर भस्म हो गए थे।
वह बहुत हैरान और खुश हुआ कि उसकी योग तपस्या से उसमें इतनी शक्ति आ गई है कि मात्र देखने भर से वे दोनों पक्षी जल कर राख हो गए ।


कुछ समय बाद वह संयासी भिक्षा के लिए एक गांव में गया, वहाँ एक घर के द्वार पर जाकर गुहार लगाई,” माँ! भिक्षा दे!”
अंदर से एक महिला की आवाज़ आई, ‘ बेटा, प्रतीक्षा कर, अभी थोङी देर में आती हूं। ‘
वह संयासी अपनी शक्ति के मद में चूर, क्रोध में बोला, ” तुममें मुझे प्रतीक्षा कराने का साहस कैसे हुआ ? तुम मेरी शक्तियों को नहीं जानती हो।’
अंदर से उस गृहणी का उत्तर आया, ” बेटा, अपने विषय में, अधिक गर्व न कर, यहां कोई कौवा या सारस नहीं है।


यह सुनकर संयासी उस महिला के इस ज्ञान पर अचंभित रह गया। वह वहाँ प्रतीक्षा करता रहा। थोङी देर में गृहस्थिन भिक्षा ले कर आई, उसके आने पर तपस्वी उसके चरणों पर गिर पड़ा और प्रार्थना करने लगा कि ‘कृपा बताएं कि ‘ आपको कैसे इस घटना का ज्ञान हुआ?’
उस गृहणी ने उत्तर दिया, ” बेटा, मैं एक साधारण गृहणी हूँ, मेरे पति बीमार हैं, मैं उनकी सेवा श्रुष्शा कर रही थी अतः तुम्हें प्रतीक्षा करानी पङी थी। मुझे तुम्हारी योग तपस्या का ज्ञान नहीं है। मैंने अपना जीवन अपने कर्तव्यों को निष्ठा से पूर्ण करने में व्यतीत किया है। शादी से पूर्व माता-पिता की सेवा लगन से की और विवाह के पश्चात पति सेवा में खुशी-खुशी जीवन व्यतीत कर रही हूँ । पर अपने कर्तव्यों को पूर्ण करते हुए, मुझ में ज्ञान का प्रकाशन अवश्य हुआ है, जिससे मैं तुम्हारे विचारों को पढ सकी व जान पाई कि तुमने जंगल में क्या किया था।”

मेरी समझ

अपने कर्तव्यों को निष्ठा से पूर्ण करना ही सच्ची तपस्या है और ऐसी साधना और तपस्या का क्या लाभ जिससे क्रोध और अहंकार को नष्ट न किया जा सका हो।

शिकायत मत करो

विवेकानंद जी कहते हैं कि एक मजदूर मेहनत करते हुए अपना संपूर्ण ध्यान मेहनत के फल की ओर रखता है। परिणामस्वरूप उसे वह लाभ नहीं मिलता जो वह चाहता था। एक अन्य मेहनतकश मजदूर फल की चिंता किए बगैर लगन से काम करता है। वह अच्छा लाभ पाता है।


जब व्यक्ति अपनी स्वार्थपरक इच्छाओं का अंत कर देता है, तब उसकी आत्मा स्वतंत्र हो जाती है।
हमारे कर्तव्यों का स्थान, हमारी शिकायतों से बहुत ऊंचा है।
प्रतियोगिता बढ़ती जाती है और ह्रदय की कोमलता, दयालुता मिटती जाती है। व्यक्ति की शिकायतें , उसके कर्तव्यों की गरिमा को कम कर देती हैं, वह जीवन भर अपने को असफल मानता रहेगा और दुखी रहेगा।
हमें अपने को, अपने कर्मों को परखना चाहिए, उन्हें सुधारना चाहिए । नया परिवर्तन, नया प्रकाश देगा।

मेरी समझ

जीवन में संतुष्ट होने की कोई परिभाषा नहीं है क्योंकि इच्छाओं का कोई अंत नहीं है ‌। अपनी परिस्थितियों को बदलने के लिए कर्म करना चाहिए पर उस कर्म का फल तभी मिलेगा जब मन साफ होगा। इसलिए अपने मन की , आत्मा की शुद्धता पर कार्य करना आवश्यक है।

क्रमशः

Advertisement