आशा – अरमान मत करो
स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि क्या तुम अपने बच्चों को जो देते हो, बदले में उनसे कुछ चाहते हो? तुम जो भी उनके लिए करते हो वो तुम्हारा कर्तव्य है। जैसा बच्चों के लिए सोचते हो वैसा ही संसार के सभी कार्य करते हुए सोचना चाहिए , देश के लिए, समाज के लिए, मित्रों व रिश्तेदारों के लिए कुछ भी करो, उसके बदले में कुछ पाने की चाह मत करो।
यदि तुम बदले में पाने की चाह के बिना, किसी लगाव के बिना एक दाता बनते हो। बिना अरमान के तुम्हारे द्वारा सब दिया जाता है तो तुम स्वतंत्र होते हो।
मेरी समझ
व्यक्ति तो जैसे आशा व अरमान लेकर ही इस संसार में जन्म लेता है। वह समाज सेवा भी करता है तो चाहता है कि उस काम का उसे यश मिले। अपने प्रियजनों की खुशी के लिए भी वह कुछ त्याग भी करता है तो उसके मन में कम से कम सराहना की चाह होती हैं। अपने बच्चों के लिए प्यार से सब करने पर भी मन में यह अरमान रहता है कि बड़े होने पर ये बच्चे हमारा ध्यान रखेंगे। जब यह सब नहीं मिलता तो व्यक्ति दुखी होता है। सुखी तभी रहा जा सकता है जब प्रेमभाव भी निस्वार्थ हो।
आनंद के परिणाम
स्वामी जी कहते हैं कि दासों की तरह काम करते हुए तुम स्वार्थी बनते हो, अपने मस्तिष्क के स्वयं मालिक बने, उसे बिना लगाव के आनंद की आदत डालो।
हम न्याय और अधिकार की बातें करते हैं , पर हम देखते हैं इस संसार में न्याय और अधिकार एक बचकानी बात है।
दया और ताकत यह दो महत्वपूर्ण तत्व हैं , जिनसे मनुष्य का जीवन बंधा होता है। ताकत के प्रयोग में स्वार्थ निहित होता है। प्रत्येक व्यक्ति के पास जितनी और जैसी शक्ति है, उसका प्रयोग करता है।
दया, करूणा स्वर्गिक वस्तु है, सबके पास दया भावना होनी चाहिए , न्याय और अधिकार भी दया पर आधारित होने चाहिए । दया, करुणा हमें आध्यात्म की ओर ले जाते हैं , परंतु यह कष्ट का भी कारण बनते हैं ।
एक अन्य उपाय है कि दया और स्वार्थ हीन दान को अपने जीवन में अपना ले, अगर ईश्वर को मानते हो तो कर्म को भगवान मानकर उसकी पूजा करो। अपने सभी कर्म फल ईश्वर को अर्पित कर दो और अपनी पूजा के बदले, ईश्वर से किसी वस्तु की आशा करना अनुचित है।
जैसे कमल के पत्ते पानी में रहते हुए भी गीले नहीं होते हैं , उसी तरह पापी दुनिया में रहते हुए भी, एक स्वार्थ हीन, व लगावहीन व्यक्ति को पाप छू भी नहीं सकता है।
मेरी समझ
न्याय और अधिकार भी स्वार्थ के पर्याय बन गए हैं क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति सिर्फ अपने अधिकार की बात करता है, वह न्याय में भी अपना व्यक्तिगत हित ढूंढता है। ईश्वर की भक्ति भी तभी सार्थक होती है जब ईश्वर से पूजा व भक्ति के बदले कोई मांग न हो।
नेवले की कहानी
आत्म त्याग के विचार पर आधारित एक कहानी है – कुरूक्षेत्र के युद्ध के बाद, पांडवों ने एक विशाल यज्ञ किया और गरीबों को भारी मात्रा में उपहार बांटे।सभी लोग इस यज्ञ और दान से बहुत प्रभावित थे, ऐसा यज्ञ और दान स्वरूप दिए उपहार , संसार में कहीं देखे नहीं गए थे। लेकिन कार्यक्रम के बाद एक छोटा-सा नेवला वहां आया, उसका आधा शरीर सुनहरा था और आधा भूरा था। जहाँ यज्ञ हुआ था, उस भूमि पर वह लोट पोट हो रहा था। वह सबसे कहता जा रहा था, ” तुम सब झूठे हो, यह कोई त्याग नहीं है।” ” क्या!” लोग हैरानी से बोले, ” यहाँ दिल खोल कर पैसा और सोना बांटा गया है। ऐसा यज्ञ पहले किसी ने नहीं किया है
तब नेवले ने एक कहानी सुनाई – एक समय की बात है, एक गांव में एक गरीब ब्राह्मण अपनी पत्नी , पुत्र व पुत्र वधु के साथ रहता था। वह लोगों को शिक्षा व प्रवचन देता व फलस्वरूप उसे जो छोटे-छोटे उपहार मिलते उनसे किसी प्रकार गुजारा करता था।
फिर उस गांव में अकाल पङ गया और उस ब्राह्मण के लिए वे दिन बहुत ही कष्टकारी थे, कई दिनों से उसने व उसके परिवार ने अन्न का एक दाना भी मुँह में नहीं डाला था, तब उस ब्राह्मण को किसी ने थोङा जौ का आटा भिक्षा में दिया, जिसके चार भाग किए गये जो चारों के लिए , उस समय पेट भरने के लिए पर्याप्त था।
वे चारों भोजन करने बैठे ही थे कि तभी किसी ने उनकी कुटिया का दरवाजा खटखटाया , ब्राह्मण ने देखा कि एक अतिथि हैं , भारत देश में अतिथि को भगवान स्वरूप माना जाता है। उस अतिथि पुरूष ने कहा,” मैं कई दिनों से भूखा हूँ , क्या कुछ खाने को मिलेगा?” ब्राह्मण ने उसे अपने हिस्से का भोजन आदरसहित परोस दिया। उतना भोजन करने के बाद वह अतिथि बोला कि इस थोङे भोजन से मेरी भूख और बढ़ गई है, तब ब्राह्मण की पत्नी ने ब्राह्मण से कहा कि वह उस अतिथि को उसके हिस्से का भोजन परोस दे, ब्राह्मण ने मना किया, पर वह बोली कि अतिथि को भूखा रखना उचित नहीं हैं । अतः उसका भाग भी अतिथि को परोस दिया गया।
परंतु वह भाग भी खाकर, वह अतिथि बोला,” मैं कई दिनों से भूखा हूँ , अतः इतने भोजन से मेरी भूख मिटने के स्थान पर और अधिक बढ़ गई है।” तब ब्राह्मण पुत्र ने कहा कि इस घर का पुत्र होने का कर्तव्य है कि हमारे अतिथि भूखे न रहे, उसने अपने भोजन का भाग अतिथि को परोस दिया पर अतिथि की भूख शांत नहीं हुई, तब पुत्र वधु ने भी अपना भोजन अतिथि को परोस दिया , तब अतिथि तृप्त हो कर उन्हें अपना आशीर्वाद दे कर चला गया।
उस रात उस ब्राह्मण परिवार की भूख के कारण मृत्यु हो गई ।” नेवला बोला,” उस आटे के कुछ कण भूमि पर गिर गए थे, मैं जब उस पर लोट पोट हुआ तो जैसा तुम देख सकते हो , मेरा आधा शरीर सुनहरा हो गया ।
तब से पूरे विश्व में घूम रहा हूँ जहाँ ऐसा त्याग हुआ हो, जिससे मेरा शेष शरीर भी सुनहरा हो जाए, पर मुझे कहीं नहीं मिला, इस यज्ञ व दान के लिए भी मेरा यही विचार है।”
इस महान त्याग के विचार का भारत के बाहर तक प्रसार हुआ, जिन्होंने इस विचार को अपनाया वे महान बने, बेशक उनकी संख्या कम है।
इस तरह मृत्यु के समय भी त्याग करते हुए हिचकिचाओ नहीं , न ही दान करते समय अपने पर घमंड करो, न जिसके लिए त्याग करो बदले में उससे आभार की आशा करो, अपितु तुम उसके आभारी बनो कि उसने तुम्हें ऐसा अवसर दिया।
मेरी समझ
स्वामी विवेकानंद के शिक्षा दर्शन का सार है कि किसी को भी धर्म, जाति, वर्ग व लिंग के आधार पर शिक्षा से वंचित नहीं किया जाना चाहिए। प्रत्येक को न केवल मूलभूत शिक्षा पाने का अधिकार होना चाहिए अपितु उन्हें सभी विषयों सामाजिक, वैज्ञानिक, आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने का अधिकार होना चाहिए। आज हमारे देश व समाज में सबको शिक्षा का अधिकार अवश्य है परंतु लोगों में शिक्षा व ज्ञान प्राप्त करने की चेतना में कमी देखी जाती है, विशेषकर निम्न वर्ग में ज्ञान की लालसा न के बराबर है चूंकि वे अपनी प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति में ही व्यस्त रहते हैं।
अपनी स्वार्थी इच्छाओं से मुक्त होकर एक स्वतंत्र जीवन जीना चाहिए। हमारी परतंत्रता हमारे अंदर उपस्थित है, उससे मुक्त होने के लिए हमें अपने को लगावहीन, व स्वार्थहीन बनाना होगा।
समाप्त