स्वामी विवेकानंद (भाग-16)

ताकत ( शक्ति  )

अनंत शक्ति धर्म है। ताकत पुण्य है और कमजोरी  पाप है। सभी पाप और शैतानियत के लिए मिलाकर एक ही शब्द  है , वह है कमजोरियाँ ।
यही कमजोरियाँ  शैतानियत से गलत कराती हैं  सभी स्वार्थीपन का स्रोत कमजोरी  है,कमजोरी के कारण हम दूसरे को तकलीफ देते हैं।
सबको जानना होगा कि वे क्या हैं ? रात-दिन यह दोहराओ कि मैं  दिव्य  हूँ ।
माँ के दूध के साथ इस शक्ति के विचार को ग्रहण करो- मैं वह हूँ ।
इसे सबसे पहले सुनो, उस पर विचार करो, यह  विचार काम करेगा, ऐसा संसार होगा जैसा कभी नहीं दिखा था।
सच को खुलकर बोलो। सभी सच सार्वलौकिक है। सभी आत्माओं  की प्रकृति सच है। और यह सच की परीक्षा  है,  कोई भी वस्तु   जो तुम्हें शारीरिक रूप से, बौद्धिक रूप से या आध्यात्मिकता में   कमजोर बनाती है,  उसे जहर मानकर अस्वीकार   कर दो। इसमें जीवन नहीं है, इसमें सच नहीं हो सकता है।
सच पवित्र है , सच में सब ज्ञान है। सच को ताकतवर होना होगा, सच को प्रकाशमान होना है, सच को स्फूर्तिदायक होना है।
उपनिषद की ओर लौटो, वह चमकदार, शक्तिमान , उज्जवल दर्शन है। ये सभी महान सच, बहुत सरल हैं , यह हमारी उपस्थिति के समान सरल है।
उपनिषद की सच्चाई  तुम्हारे   सामने हैं , उन्हें  लो और उन्हें जियो, भारत की मुक्ति   यहीं   पर है।
  हमारे देश में  कष्टों का एक तिहाई कारण शारीरिक कमजोरी है। हम आलसी हैं , हम मिले-जुले  नहीं   हो सकते हैं । हम तोते की तरह बहुत कुछ बोल सकते हैं , पर करते नहीं हैं । यह हमारी आदत में है की बोलना बहुत, पर करना नहीं  । इसके पीछे कारण शारीरिक कमजोरी है।
हमारा कमजोर मस्तिष्क हमें कुछ करने नहीं देता है। इसे शक्तिशाली बनाना है।
विवेकानंद जी कहते हैं कि सबसे पहले हमारे युवाओं  को मजबूत होना चाहिए , धर्म बाद  में आता है  ।  मेरे युवा मित्रों , मेरी यह तुम्हे सलाह है कि तुम मजबूत बनो। गीता के अध्ययन की अपेक्षा फुटबॉल के द्वारा  तुम स्वर्ग के अधिक करीब हो। जब तुम्हारी मांसपेशियों में थोङी ताकत होगी, तब  तुम गीता को  अधिक   समझ सकते हो ।
जब तुम्हारे खून में  थोङी ताकत होगी, तब तुम श्री कृष्ण के दिव्य ज्ञान   और चमत्कारिक शक्ति को समझ सकोगे।
जब तुम स्वयं अपने पांव पर खङे हो सकोगे तब तुम उपनिषदों  को और आत्मा की चमक को समझ सकोगे।

मेरी समझ

हमारे  अपने जीवन में जो भी कष्ट या दुख है, वह‌ हमारी अपनी आंतरिक व बाहृय कमजोरियों के कारण है। हमें अपनी कमजोरियों को पहचानना होगा, फिर उन्हें स्वीकार करना होगा।जब स्वीकार करेंगे तभी उन्हें दूर करने का प्रयास करेंगे।

निर्भयता

उपनिषद मुझ से हर पन्ने में   कहते हैं, – ताकत, ताकत। संसार में यही एकमात्र  साहित्य है जिसमें बार- बार  अभय, निर्भय  शब्द  मिलते हैं।
विवेकानंद कहते हैं , मेरे सामने अतीत का एक चित्र  आता है, जिसमें पश्चिम के महान सम्राट महान  एलेक्जेंडर  हैं ।इस चित्र में  महान सम्राट इंडस नदी के किनारे   खङे हैं और जंगल के हमारे एक संयासी से बात कर रहे हैं ।वह बुजुर्ग संयासी  जिससे सम्राट बात कर रहे थे ,  वह शायद नग्न , पूर्णतः नग्न एक काली शिला पर बैठा था, सम्राट उसकी बौद्धिकता से चमत्कृत था, प्रसन्न हो कर  कुछ सोना जो वह युनान से लाया था, उस संयासी को प्रलोभन के रूप में   देना चाहता था।
संयासी उस प्रलोभन को मुस्कराते हुए अस्वीकार कर देता है।  अब सम्राट एक अहंकारी सम्राट   की तरह बोलता है, ” तुम नहीं आओगे तो मैं तुम्हें मार दूंगा ।”
यह सुनकर वह बुजुर्ग संयासी जोर से हंसा और बोला, ” तुमने आज से पहले, जैसा तुमने अभी कहा, वैसा झूठ तुमने अपने जीवन में   कभी नहीं  बोला होगा, मुझे कौन मार सकता है ?  मैं तो एक अजर अमर आत्मा हुं।” यही ताकत है!

मेरी समझ

निर्भयता जीवन जीने की अनिवार्य शर्त है। अपने जीवन को डर से मुक्त करो, निडरता ही ताकत देती है। सच कहने और सुनने के लिए भयमुक्त और शक्तिवान होना होगा।

मेरी ताकत उपनिषद है

हम बहुत बार कमजोर पङते हैं , हमारे पास ऐसी हजारों कहानियां  है, जो हमारी कमजोरी के विषय में बताती है।
इसीलिए मित्रों , तुम एक ही खून हो, एक बार जीते हो और एक ही बार  मरते हो, तो सिर्फ   यही कहो कि हमें ताकत, ताकत और ताकत चाहिए  । और मेरी ताकत उपनिषद है। संपूर्ण  संसार को उत्साहित करने का सामर्थ्य इसकी ताकत में   है। इसी से पूरा संसार पुर्नःजागृत , ऊर्जावान और मजबूत बन सकता  है।
यह कमजोर पर, कष्टों पर, सभी भेद भावों के दलितों पर और सभी धर्मों व मतों   पर विजय की पुकार बनेगा, अपने पांव पर खङे हो और स्वतंत्र हो।हमें  उपनिषदों में स्वतंत्रता , शारीरिक स्वतंत्रता , मानसिक स्वतंत्रता और आध्यात्मिक स्वतंत्रता मिलती है।

मेरी समझ

अगर हम स्वतंत्र रूप से जीना चाहते हैं, तो अपनी कमजोरियों पर विजय पानी होगी। यह विजय ही हमें शारीरिक, मानसिक व आध्यात्मिक स्वतंत्रता देगी। एक सुंदर समाज की सरंचना में हमारा योगदान यही होगा।

धर्म बोध है

धर्म बोध है
कोई धर्म ग्रंथ  हमें  धार्मिक नहीं बना सकता है। संसार में मौजूद सभी किताबे पढ़ कर भी हम धर्म का या ईश्वर का एक भी अक्षर नहीं समझ सकते हैं ।
हम जीवन के समस्त  कारणों पर बात कर सकते हैं ,  लेकिन जब तक स्वयं अनुभव नहीं  कर लेते, तब तक जीवन के सच को समझ नहीं सकते हो ।
तुम किसी व्यक्ति को कुछ किताबें दे कर ,सर्जन बना नहीं  सकते हो। तुम  एक नक्शे में  मेरे देश को दिखाकर मेरी जिज्ञासा शांत नहीं  कर सकते हो। नक्शे सिर्फ उत्तम ज्ञान प्राप्त करने के लिए जिज्ञासा पैदा करते हैं । इसके अतिरिक्त इनका कोई महत्व नहीं  है।
मंदिर , चर्च , किताबें और ऐसी सभी सामान्य  वस्तुएं  धार्मिकता के लिए पहला कदम है, इनके द्वारा हम अपने बच्चे की नींव मजबूत करते हैं,  जिससे वह धर्म की शिक्षा के लिए  कठोर शब्द रख सके।
धर्म कोई सिद्धांत या धार्मिक  मत नहीं   है, न कोई बौद्धिक बहस है। यह तो सदा से है , रहेगा। धर्म   एक अहसास है।

मेरी समझ

हम कहते हैं कि हम धार्मिक है, इतने धार्मिक है कि अपने धर्म के गुणगान करने के साथ दूसरे के धर्म की आलोचना अधिक करते हैं। धार्मिक बनने के लिए, अपने को जानो, भेदभाव से मुक्त होकर, सच्चे मन से दूसरे को जानो, जीवन के सच को जानो और फिर अपने अंदर के धर्म को समझो।

ह्रदय  को उन्नत  करो।

हम शायद बहुत अधिक ज्ञानी हो सकते हैं , जिसने संपूर्ण संसार को जाना हो, पर ईश्वर के करीब न गए  हों  । दूसरी तरफ बौद्धिक प्रशिक्षण   से उत्पन्न  अधार्मिक मनुष्य   हो सकते हो। उनमें से एक पाश्चात्य सभ्यता  की बुराइयाँ है-  ऐसा बौद्धिक ज्ञान  जो ह्रदय के बिना मिला  है  ।यह इंसान को 10 गुणा स्वार्थी बनाता है।
जब दिल और दिमाग के बीच बहस हो तो हमेशा दिल की सुनो। ह्रदय जिस ऊंचाई तक पहुंच सकता  है वहां दिमाग  नहीं  पहुंच  सकता  है ।
जो बुद्धि से ऊपर है, वह प्रेरणा है। ह्रदय को उन्नत  करो, उसे समझो। ह्रदय  के जरिये ईश्वर बोलता है।
मानवता जिस गहनतम प्रेम को जानती है, वह धर्म से आता है। हमने जितने भी शांति के उत्तम शब्द इस संसार में   सुने है, वे हमने धर्म के ज्ञानियों   से सुने हैं ।
उसी समय संसार के सभी कङवे, निंदनीय  शब्द भी हमने धर्म  पुरूषों से सुने हैं ।
प्रत्येक  धर्म   के अपने मत है, जिन्हें   वे चाहते है कि सब इसे सच माने। कुछ तो अपने मत की सच्चाई   को स्वीकार   कराने के लिए ,  दूसरों पर दबाव डालने के लिए तलवार निकाल लेते हैं  ।
यह किसी दुष्ट भावना के कारण नहीं है, अपितु यह एक दिमागी बिमारी  है, जिसका नाम धार्मिक  कट्टरता  है। इन सभी धार्मिक मतभेदों , संघर्ष , नफरत और ईर्ष्या के बावज़ूद कुछ आवाजें शांति और अमन की भी सुनाई देती हैं  ।

मेरी समझ

हम किताबें पढ़ कर ज्ञानी बन सकते हैं पर सच्चे धार्मिक बनने के लिए हमें अपने हृदय को जानना होगा। दिमाग उलझा सकता है, भड़का सकता है पर हृदय में सच है, उसको सुनो।

क्रमशः

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स्वामी विवेकानंद (भाग-15)

धार्मिक  शिक्षा

संतों  की पूजा

विवेकानंद कहते हैं   कि धर्म  शिक्षा का अंतर्तम महत्वपूर्ण भाग होता है। हमें  लोगों को सच्चे सार्वभौमिक  सिद्धांतों के   बारे में   बताना चाहिए।
सबसे पहले हमें  महान संतों की आराधना को जानना है। उनके विषय में जानना हैं,  जिन्होंने सार्वभौमिक सच को पहचाना है व लोगो के सामने आदर्श प्रस्तुत किए हैं जैसे-  श्री रामचन्द्रजी , श्री महावीर ,  श्री कृष्ण  और श्री रामकृष्ण  जैसे कई  ।
श्री  कृष्ण के वृंदावन पहलूओं  को एक तरफ रखते हुए , उनकी गीता में  शेर के समान उनकी दहाङती आवाज सुनो और समझो और उसकी पूजा करो, प्रतिदिन  शक्ति की पूजा करो- दैवीय  माँ, शक्ति  की स्रोत   की आराधना करो।
हमें ऐसे साहसी नायक चाहिए , जिनकी पैर से सिर तक की नाङियों में  वीर चमत्कारी  राजाओं जैसी भावना   हो- ऐसे वीर जिन्हें सच के ज्ञान के लिए मृत्यु  का भी भय न हो और जिनका कवच त्याग हो और तलवार बुद्धि  हो। हमें युद्ध के मैदान  में   वीर यौद्धाओं की आवश्यकता   है।

आदर्श  सेवा

महावीर ( हनुमान  ) के   चरित्र को अपना आदर्श  बनाओ। श्री राम के एक आदेश पर उन्होंने  समुद्र  लांघ लिया था। उन्हें मृत्यु का भय नहीं  था। वह इंद्रियों के विलक्षण  प्रतिभाशाली , अद्भुत, निपुण विशेषज्ञ  थे। अपना  जीवन  निर्माण के लिए   इस महान आदर्श सेवा को अपना आदर्श  बनाओ।
यूं  सभी आदर्श विचार धीरे-धीरे  जीवन में   उजागर   होते हैं । बिना प्रश्न किए, गुरू की आज्ञा का पालन करना, ब्रह्मचार्य का दृढ़ता से पालन करना ही सफलता का रहस्य है।
श्री हनुमान एक आदर्श  सेवा का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं  दूसरी ओर अपनी सिंह जैसी वीरता और अद्भुत ,  चमत्कारी  शक्तियों से संसार को चौंका  देते हैं  ।
श्री राम के लिए उनके अंदर अपना जीवन  त्याग  करने के लिए  कोई हिचकिचाहट  नहीं  थी।श्री राम की सेवा के सामने वह सभी महानतम वस्तुओं के लिए उदासीन थे। श्री राम की आज्ञा का पालन  करना ही उनके जीवन का एकमात्र   संकल्प   था। इसी तरह की सेवा ही हमारे जीवन का आदर्श  होना चाहिए  ।

वीरता से आगे बढ़ो



आज के समय कृष्ण  और गोपियों के नाटक की पूजा करना ठीक नहीं  है। बांसुरी बजा कर हम देश को पुर्नःजागृत नहीं कर सकते हैं  । हम खोल- करताल बजा कर, कीर्तन  में उन्मादी नृत्य करके सभी लोगों का पतन करते हैं।
यह  सार्वलौकिक पवित्रता  की  प्राईमरी योग्यता, उच्चतम तपस्या की नकल करना मात्र है।इससे वे भयानक अंधेरे में गिर जाते हैं  ।
क्या हमारे देश  में ड्रम नहीं  बनते हैं ?  बिगुल और नगाङे नहीं होते हैं ? अपने बच्चों  को इन वाद्यों की गहरी आवाज़   सुनाओ।
बचपन से ऐसी स्त्रीय संगीत की आवाज़  सुनने से यह देश स्त्रीय देश में परिवर्तित होने लगा है।
डमरू और हार्न को बजाना चाहिए, ड्रम  गहरी, तेज और वीर संगीत में बजने चाहिए , साथ महावीर , महावीर की पुकार उर हरे,हरे व्योम, व्योम गुंजायमान   हो।  अब वह संगीत जिसे सुनकर आदमी की कोमल भावनाएं  जागृत हो रही थी, कुछ समय के लिए  रूक जाएगा व लोगों में ध्रुपद संगीत  सुनने की परंपरा शुरू  होगी।
पवित्र वैदिक मंत्रो का उच्चारण तीव्र स्वर में  जब गुंजायमान  होगा तब हमारे देश का पुर्नजागरण होगा।
फिर प्रत्येक वस्तु   में  युवा नायकों की कठोर, दृढ़ भावनाएँ जागृत होनी चाहिए  ।
अगर तुम इस महानतम को आदर्श मानते हुए अपने चरित्र का निर्माण करते हो, कई अन्य भी इसका अनुसरण करेंगे ।
याद रखो, तुम अपने आदर्श से कभी भटकोगे नहीं, कभी निराश  नहीं होगे।  तुम खाते समय, पहनते समय, सोते समय, खेलते समय, आनंद के समय या बिमारी के समय भी अपने उच्चतम नैतिक साहस को बनाए रखोगे।
अपनी कमजोरियों को अपने मस्तिष्क पर हावी न होने दो। महावीर  को याद करो, दैवी माँ को याद करो, तुम्हारी  समस्त कमजोरी  व कायरता तुरंत गायब हो जाएगी।

नया धर्म

पुराने धर्म के अनुसार जो ईश्वर को नहीं मानता वह नास्तिक है। नया धर्म कहता है, जिसे अपने पर विश्वास नहीं है ,वह नास्तिक है। यह स्वार्थी विश्वास है। अपने पर विश्वास मतलब सब पर विश्वास क्योंकि तुममें सब हैं।
अपने से प्रेम करना अथार्त सबसे प्रेम करना, सभी प्राणियों , सभी वस्तुओं से प्रेम क्योंकि सब में तुम हो। यह एक महान विश्वास ,विश्व को बेहतर बनाता है। यह हमारे अंतर का आदर्श विश्वास , हमारी बहुत सहायता करता है। इस आंतरिक विश्वास को बहुत विस्तार से समझकर बहुत अभ्यास करना होगा। मुझे विश्वास है कि इस तरह हमारी अंदर की शैतानियत का बहुत बङा भाग व कष्ट दूर हो जाते हैं ।
संपूर्ण मानव जाति के इतिहास में जितने महान स्त्री- पुरूष हुए हैं , उन सबके जीवन में प्रेरणादायक शक्ति, जो किसी भी शक्ति से अधिक प्रबल थी, वह उनका अपने स्वयं पर विश्वास था। वह महान बनने की चेतना से जन्में और महान बने।

मेरी समझ

हमारी युवा शक्ति को जागृत होना चाहिए। देश, समाज व विश्व में फैली नकारात्मकता के प्रति उनकी चेतना जागृत करनी आवश्यक है। इस नकारात्मकता को दूर करने के लिए उन्हें आत्मविश्वासी, साहसी बनने की आवश्यकता है।

स्वामी विवेकानंद (भाग-14)

विवेकानंद जी बताते हैं कि उच्चतम सत्य को जानना ही हमारा एक मात्र उद्देश्य है।यही हमारी उत्कृष्ट साध है। चलो हम आत्मा की उत्साह से पूजा करते हैं, साहसी बनते हैं । उत्साह को आधार बनाते हैं , मध्य भी उत्साह और परिणति भी उत्साह ही है। अपने उत्साह को बनाए रखो। यही हमारा उद्देश्य है।

हमें पता है कि हम अभी वहाँ तक नहीं पहुँच सकते है। इसकी चिंता मत करो। निराश न हो, अपना मनोबल कमजोर न करो।
महत्वपूर्ण यह है कि तुम अपने शरीर के लिए कम से कम सोचो, अपने को एक पदार्थ की तरह मानो, उसे मृत, सूखा जङ पदार्थ की तरह सोचो और अपने को एक उज्जवल अमर आत्मा की तरह विचारो।
तुम पदार्थ, शरीर व इन्द्रियों से स्वतंत्र हो जाओगे। यही गहन इच्छा तुम्हें मुक्त करती है।

एक व्यक्ति जो शिष्य बनना चाहता है, उसे यह शर्तें पूरी करनी है। यदि यह शर्ते पूरी नहीं होती तो वह एक सच्चे गुरू तक नहीं पहुंच सकते हैं ।
अगर किस्मत से गुरू मिल भी जाता है तो गुरू की शक्ति, उसका तेज उसे नहीं मिल सकता है। इन शर्तों में कोई समझौता नहीं हो सकता है। जब यह शर्ते पूरी होती है, शिष्य का ह्रदय कमल खिल जाता है और मधुमक्खी प्रवेश करेगी।
तब शिष्य जानेगा कि गुरू उसके साथ ही हैं
वह प्रगट होता है, वह महसूस करता है । वह जीवन सागर को पार करता है, उस पार जाता है और करूणा के साथ, किसी लाभ और प्रशंसा की आशा के बिना, वह अपने समय में दूसरों को उस पार पहुंचाने में सहायता करता है।

मेरी समझ

अगर सच्चे मन से कुछ सीखना चाहते हैं, तो त्याग, सहनशीलता व एकाग्रता आवश्यक है।

गुरू में विश्वास

हमारा अपने गुरू के साथ वैसा ही रिश्ता है, जैसा एक पूर्वज का अपने वंशजों के साथ होता है।
गुरू के प्रति अविश्वास, अपमानित, आधीन और निरादार की भावना रखते हुये हमारा विकास नहीं हो सकता है।
जिन देशों में गुरू के प्रति ऐसी भावना नहीं रखी जाती है, उन देशों में गुरू सिर्फ एक प्रोफेसर होता है, जिसे सिर्फ कुछ डालर लेने होते हैं और वह व्यक्ति जो उससे सीखने आते हैं वे अपने प्रोफेसर के शब्दों को अपने दिमाग में भर लेते हैं, जब यह काम हो जाते हैं, तो सब अपने-अपने रास्ते चले जाते हैं ।
विवेकानंद जी यह भी कहते हैं कि गुरू पर विश्वास करो, पूजा करो, पर अंधविश्वास मत करो, गुरू की अत्यधिक पूजा आपको कमजोर व निकम्मा बना देती है। अपना संपूर्ण प्रेम उसे दो पर साथ ही अपने बारे में भी सोचो।

शिक्षण के लिए संवेदनशीलता

गुरू को अपनी शक्ति व ध्यान पूर्णतः शिक्षण प्रवृत्ति को देना होगा। संवेदनशीलता के बिना पढ़ाना असंभव हैं ।
किसी व्यक्ति के विश्वास को मत हिलाओ। तुम उसे कुछ अच्छा दे सकते हो, पर जो उसके पास है, उसे नष्ट मत करो।
वह एक सच्चा गुरू होता है जो अपने को तुरंत अपने हजारों अनुयायियों के अनुरूप बदल लेता है।
वह ही सच्चा गुरू है जो अपने को अपने छात्र के स्तर तक ले आए, अपनी आत्मा को छात्र की आत्मा में बदलते हुए, छात्र को देखे व उसके मस्तिष्क से उसे समझे। यही गुरू अध्यापन कर सकता है।

मेरी समझ

गुरू के प्रति सम्मान व विश्वास की भावना रखने पर ही ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। यह भावना आधुनिक युग में लुप्त होती जा रही है। अंधभक्ति करते हुए उनकी उंगली पकड़ कर चलने के लिए नहीं कहा जा रहा है। गुरू मार्गदर्शक है, जो बुद्धि में पड़े अंधेरे को हटाने में सहायक बनता है, रोशनी तक स्वयं पहुंचना होता है।

प्रत्येक शिष्य भिन्न है, उसका व्यक्तित्व, उसका परिवेश इत्यादि सभी भिन्न होते हैं क्योंकि प्रत्येक मनुष्य भिन्न आत्मा है। सच्चा गुरू वहीं है जो इस सच को समझें और प्रत्येक शिष्य की प्रकृति को समझते हुए भिन्न – भिन्न शिक्षण पद्धति का प्रयोग करें। गुरू की संवेदनशीलता शिष्य को ज्ञान प्राप्त करने में सहायक होती है।

स्वामी विवेकानन्द भाग-13

विवेकानंद जी कहते हैं कि शिष्य में सहनशीलता का गुण भी होना चाहिए । तुम‌ महसूस करोगे कि जीवन आरामदायक लगता है, जब तुम्हारे जीवन में सब अच्छा चल रहा हो और तब तुम्हारा मस्तिष्क भी अच्छा व्यवहार करता है। लेकिन जब कुछ गलत हो जाए तो हमारा मस्तिष्क भी संतुलन खो देता है। यह सही नहीं होता है।
सब बर्दाश्त करो, गहरा दुख हो या अत्यधिक कष्ट हो,  बिना एक शब्द बोले, दुख का विचार मत सोचो, उसके किसी समाधान या निदान, इलाज के बारे में, विचारे बिना सहन करो। यही सच्ची सहन शीलता है।

‘जब मेरे गुरू रामकृष्ण बिमार हुए थे तब एक ब्राह्मण ने उन्हें सलाह दी कि वह अपने को स्वस्थ करने के लिए अपनी अद्भुत मानसिक शक्ति का प्रयोग करें। उन्होंने कहा कि यदि वह अपने मस्तिष्क का  ध्यान सिर्फ अपने शरीर के बिमार भाग में लगाते हैं, तो वह स्वस्थ हो सकते हैं।’

गुरू बोले, “क्या ! मस्तिष्क नीचे आए, जबकि मैंने  अपना शरीर ईश्वर को सौंप दिया है। ” ‌उन्होंने अपने शरीर व बिमारी के विषय में सोचने से मना कर दिया ।
उनका दिमाग निरंतर ईश्वर के ध्यान में था, वह पूर्णतः ईश्वर को समर्पित थे। वह इसका प्रयोग किसी उद्देश्य पूर्ति के लिए नहीं करते थे।

सूली पर चढे उस व्यक्ति को भी याद करो, जिन्होंने उसे सूली पर चढ़ाया था, वह व्यक्ति उन सब पर  दया करता था।
उसने अपमान व कष्ट सहे।
उसने सभी भार अपने ऊपर लिए थे। उसने कहा, तुम अपना सारा श्रम और भारी बोझ मुझे दे दो, और मैं तुम्हें आराम व इत्मीनान देता हूं ।
यही सच्ची सहनशीलता है, वह जीवन से इतना ऊपर था कि हम उसे समझ ही नहीं सकते हैं ।

मेरी समझ

अगर ज्ञान ग्रहण करने की सच्ची लालसा है तो कष्टों पर‌ ध्यान मत दो। एकाग्रता में कष्ट बाधक नहीं होते हैं, हमारी सोच बाधक होती है, जितना सोचोगे उतना कष्ट परेशान करेगा। सहनशीलता जीवन में कुछ भी सीखने के लिए परमावश्यक है।

इच्छाएं


अगली शर्त है कि शिष्य को अपने को अपनी सबसे तीव्र चाह को पूरा करने की इच्छा से मुक्त होना है ।
किसी की भी इच्छा उसके शरीर से अलग नहीं है। क्या संसार सिर्फ पेट और वासना ही है।

असंख्य स्त्री-पुरुष इसके लिए ही जीते हैं । इनसे यह सब ले लोगे तो इन्हें जिन्दगी खाली, अर्थहीन व असहनीय लगेगी। ऐसे हम है और ऐसा ही हमारा दिमाग है, यह पेट और वासना की भूख को शांत करने के लिए, रास्ते और साधनों की पूर्ति के ध्यान में निरंतर व्यस्त रहता है।
यह शारीरिक  इच्छाएं   सिर्फ पल भर की संतुष्टि है और अंतहीन कष्टकारी है। यह  एक चाय के प्याले की तरह है, जिसकी सतह में नेक्टर होता है, तो अंततः यह ज़हर के समान ही होता है। फिर भी हम इन लालसों के लिए जीते हैं ।

सभी इंद्रियों की इच्छाओं का त्याग ही इस कष्ट से मुक्ति का एकमात्र रास्ता है। यदि आध्यात्मिक बनना चाहते हो तो त्याग करो। यही वास्तविक परीक्षा है।
संसार को , अपनी इंद्रियों के कचरे को छोङो।
सिर्फ़ एक कामना है, सच को जानना है, आध्यात्मिक बनो। न कोई भौतिकता और न अहंकार हो,

सच का ज्ञान पाने की इच्छा को तीव्र, गहन और मजबूत बनाओ।

यदि एक व्यक्ति के हाथ- पैर इतनी मजबूती से बाँधे कि वह हिल न सके, फिर उसके ऊपर एक जलता हुआ कोयला का टूकङा रख दिया जाए, वह अपनी पूरी ताकत से उसे अपने ऊपर से फेंकने में लगा देगा।
जब मुझे ऐसी तीव्र इच्छा घेरती है, मै बैचेनी भरे संघर्ष के साथ उसे जलते हुए संसार में फेंक देता हूं तब वह समय आता है जब मैं दैविक सच की झलक पाता हूं ।

मेरी समझ

हम जीवन भर अनेक‌ ऐसी इच्छाओं की पूर्ति के लिए फंसे रहते हैं, जिनके कारण जीवन पथ‌ में आगे बढ़ने में परेशानी होती है।

क्रमशः

स्वामी विवेकानन्द (भाग-12)

विवेकानंद जी यह भी कहते हैं कि एक शिष्य के लिए भी यह आसान नहीं है। एक शिष्य जो सच( ज्ञान) को जानना चाहता है उसे अपनी अन्य इच्छाओं को त्यागना होगा।
जब तक यह इच्छा मस्तिष्क में रहती हैं , हम सच से दूर रहते हैं ।भौतिक, सांसारिक छोटी-सी इच्छा भी यदि ह्रदय में उपस्थित है, तो सच तक नहीं पहुँच सकते हैं ।
निर्धन व्यक्ति, धनिक व्यक्ति की अपेक्षा अधिक सच को समझ सकता है।
धनिक के पास अपनी -सुख-सुविधाओं, शक्ति और लालसा के अतिरिक्त कुछ सोचने का समय नहीं होता है।
स्वामी जी कहते हैं, ” मैं उस व्यक्ति पर विश्वास नहीं कर सकता, जो कभी रोया न हो, जहाँ उसका ह्रदय हैं, वहां एक काला बङा पत्थर रखा है।
सच और सिर्फ सच को जानना है तो यह सब त्यागना होगा, तभी खुशहाली और खुशी का अर्थ मिलेगा।
जिन लोगों में अभ्यास के लिए सब्र नहीं है, उनके लिए स्वार्थहीनता बहुत दुष्कर वस्तु है।

स्वास्थ्य के लिए भी बहुत मेहनत और सब्र चाहिए ।
प्रेम, सच और स्वार्थहीनता किसी भाषण के नैतिक शब्द मात्र नहीं है, बल्कि ये तो एक महान आदर्श का निर्माण करते हैं क्योंकि इनमे शक्ति की दृढ़ इच्छाशक्ति छिपी है।
सभी बाह्य क्रिया- कलापो की अपेक्षा आत्म संयम महानतम शक्ति का प्रत्यक्षीकरण है।


एक स्वार्थी उद्देश्य का अनुसरण करने से सभी बाह्य ऊर्जा लुप्त हो जाती हैं, परंतु यदि यह नियंत्रित रहती हैं तो इसका परिणाम शक्ति का विकास होगा।
यह आत्मसंयम एक महान को जन्म देगा, एक चरित्र , ईसा या बुद्ध का निर्माण होता है।

मेरी समझ

विवेकानंद जी कहते हैं कि सच्चे गुरू के साथ, सच्चे शिष्य की भी आवश्यकता है। गुरू के समान शिष्य को भी त्यागी व संवेदनशील बनना होगा।

दूसरी शर्त एक शिष्य के लिए है कि वह अपनी बाह्य और आंतरिक इंद्रियों को नियंत्रित रखे।
बहुत कठिन मेहनत के पश्चात वह ऐसी अवस्था में पहुंच सकता है, जहाँ वह प्रकृति के आदेशों के विरुद्ध अपने मस्तिष्क को सामना करने के लिए वह स्वयं आदेश दे सकता है।
वह अपने मस्तिष्क को कह सकता है, ” तुम मेरे हो, मैं तुम्हें आदेश देता हूं , तुम न किसी को देखो, न किसी की सुनो।”
अपने मस्तिष्क को शांत बनाना है. यह बहुत तेजी में रहता है।
जैसे ही मैं ध्यान के लिए बैठता हूँ, संसार के सभी निरर्थक विषय मस्तिष्क में आने लगते हैं । यह सब घृणास्पद है।मै यह सब नहीं सोचना चाहता हूं फिर दिमाग यह सब क्यों सोचता है? मैं जैसे अपने मस्तिष्क का गुलाम हुं।
कोई भी आध्यात्मिक ज्ञान नहीं मिल सकता जब तक मस्तिष्क उत्तेजित और अनियंत्रित है। शिष्य को अपने मस्तिष्क को नियंत्रित करना सीखना होगा।

मेरी समझ

ध्यान के अभ्यास से अपनी समस्त इन्द्रियों को नियंत्रित किया जा सकता है। जो इस कठोर तपस्या में सफल हो जाता है, उसे ज्ञान प्राप्त करने में कोई कठिनाई नहीं होती है।

स्वामी विवेकानंद (भाग-11)

गुरू और शिक्षा 

विवेकानंद जी कहते हैं कि मेरा शिक्षा का विचार, गुरूकुल शिक्षा का है। मेरा यह मानना है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपना बाल्यकाल उस ज्ञानी के साथ व्यतीत करना चाहिए जो उच्चतम प्रज्वलित उदाहरण प्रस्तुत करता हो।
हमारे देश में त्यागियों अथार्त ऋषियों द्वारा ही ज्ञान दिया जाता रहा है। अब दुबारा शिक्षा प्रदान करने की जिम्मेदारी  इन त्यागियों के कंधों पर दी जानी चाहिए ।

शिक्षा की प्राचीन संस्कृति 

भारत की प्राचीन शिक्षण व्यवस्था, आधुनिक शिक्षण प्रणाली से भिन्न थी। तब छात्रों को फीस या पैसा नहीं देना पङता था। ज्ञान को इतना पवित्र माना जाता था कि कोई उसे बेच नहीं सकता था।
ज्ञान को स्वतंत्र रूप से व बिना पैसे के प्रदान करना चाहिए।
गुरू न केवल बच्चों को  शिक्षा मुफ्त देते थे अपितु कुछ गुरू तो अपने छात्रों को  कपङे व भोजन भी देते थे।

गुरूओं की यह व्यवस्था सुचारु रूप  से चल सके इसके लिए धनिक परिवार गुरूओं को उपहार दे कर अपना सहयोग प्रदान करते थे।
बङे शिष्य गुरू के आश्रम की टूट फूट की मरम्मत करते थे, ईंधन की भी व्यवस्था शिष्य करते थे। गुरू अपने शिष्यों की क्षमता परखने के बाद  उन्हें वेदों की शिक्षा देते थे।

और गुरू अपने शरीर, मन व वाणी को नियंत्रित  रखने की अपनी शपथ के प्रतीक के रूप में अपनी कमर में मुंजा नामक घास की तीन परत लपेट कर रखते थे।

शिक्षण की योग्यता 

शिक्षण की कुछ आवश्यक शर्तें होती हैं  जो गुरू पर भी लागू होती है। पवित्रता , ज्ञान की प्यास और दृढ़ इच्छाशक्ति शिक्षण की आवश्यक शर्तें हैं।
विचार, वाणी व कर्म में पवित्रता अत्यंत आवश्यक  है। ज्ञान के लिए प्यास, एक पुराना नियम है कि  जो दिल से चाहते हो, वो अवश्य मिलता है। हम में से कोई भी वह प्राप्त कर सकता है, जिसकी वह दिल से कामना करता है।

यह निरंतर  संघर्ष है, एक अनवरत लङाई है, अपनी निम्नतम प्रकृति के साथ, एक स्थाई मल्ल युद्ध है, जब तक आप स्वयं अपने आप को उस   उच्चतम अवस्था में महसूस न करो और यह जान लो कि विजय प्राप्त हो गई है।
जो छात्र दृढ़ संकल्प के साथ अपना उद्देश्य निश्चित करता है, वह अवश्य अंत में सफल होता है।


  
मेरी समझ

स्वामी जी गुरूकुल शिक्षा प्रणाली का समर्थन करते हैं । उस समय गुरू अपने जीवन के सभी सुख त्याग कर, अपना जीवन ज्ञान प्राप्त करने व प्रदान करने में ही व्यतीत  करते थे।
हम अगर ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं तो हमारी इच्छाशक्ति दृढ़ होनी चाहिए तभी हम सभी बाधाओं  को  पार करके ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे

गुरु- उसकी योग्यताएं

गुरू को शास्त्रों का ज्ञाता होना चाहिए। संसार में सभी बाईबल, वेद और कुरान पढ़ते है, पर वे सब सिर्फ शब्द, शब्दों की रचना या भाषा को ही समझते हैं – ये  धर्म की निष्प्राणता है।
वह गुरू जो बहुत अधिक शब्दों पर ध्यान देता है, और शब्दों के दबाव में आकर अपने मस्तिष्क का प्रयोग नहीं करता वह शास्त्र का अर्थ खो देता है।शास्त्रों के अर्थ या भाव का सही ज्ञान ही सच्चे गुरू की पहचान है।

मेरी समझ

विवेकानंद जी कहते हैं कि इन महान किताबों के शब्दों की गहराई को जो समझ पाते हैं और समझा पाते हैं, वहीं सच्चे गुरू होते हैं। हमने देखा है कि जब भी इन महान किताबों की गलत व्याख्या की गई है या अपने स्वार्थ के लिए उनके अर्थ को तोड़ मरोड़ दिया गया, तब धर्म अधर्म हो जाता है।

गुरू की योग्यता की दूसरी महत्वपूर्ण शर्त उसका सदाचार है।
प्रश्न यह है कि हम गुरू के चरित्र या व्यक्तित्व को इतना महत्व क्यों देते हैं।
सच्चाई को पाना स्वयं के लिए एक अनिवार्य शर्त है या दूसरों से भिन्न होने के लिए ह्रदय या आत्मा की पवित्रता  आवश्यक है।
उसके शब्द तभी महत्वपूर्ण हो सकते है जब वह पूर्णतः पवित्र होगा।
गुरू का वास्तविक कार्य उपस्थित ज्ञान का स्थानांतरण या प्रसार करना अथवा विभिन्न विषयों को पढ़ाना मात्र नहीं है।
गुरू और उसके शिक्षण से वास्तविक और प्रशंसनीय प्रभाव मिलना आवश्यक है। अतः गुरू  को सच्चा, पवित्र होना चाहिए।

मेरी समझ

एक गुरू का‌ प्रभाव उसके शिष्यों पर सबसे अधिक प्रभावी होता है।गुरू होना सरल नहीं है, गुरू अथार्त सच्चा मार्ग दर्शक, सच की राह दिखाने वाले को स्वयं सच्चा होना आवश्यक है। सच्चे गुरू से शिष्य प्रभावित होते हैं और अपने गुरू का अनुसरण करते हैं।

तीसरी शर्त गुरू के मंतव्य से है। गुरू का शिक्षा प्रदान करने के पीछे कोई व्यक्तिगत स्वार्थी उद्देश्य जैसे- पैसा, नाम, या प्रसिद्धि नहीं होना चाहिए  ।
उसका कार्य सिर्फ प्रेम प्रदान करना है, संपूर्ण मानवजाति के लिए प्रेम प्रदान करना है। आध्यात्मिक शक्ति के प्रसार के लिए प्रेम ही एकमात्र माध्यम है।
कोई भी स्वार्थी मंतव्य जैसे, लाभ या नाम होने पर यह माध्यम नष्ट हो जाएगा  ।

मेरी समझ

जैसा कि हम जानते हैं कि शिक्षक पर समाज की उन्नति निर्भर करती है। चूंकि वह भावी पीढ़ी को संस्कारवान, प्रगतिशील बनाता है, इस भावी पीढ़ी से ही सुंदर, उत्तम समाज की रचना होती है। गुरू का त्यागी होना अवश्यंभावी है।

स्वामी विवेकानंद   (भाग-10)

हमारा तीव्र विकास

प्रत्येक बच्चा अपनी बाल्यावस्था में अपनी दौङ में उपस्थित होते हुए विभिन्न अवस्थाओं को पार करता है। इस ‘दौङ’ को स्वयं विभिन्न चरणों को पार करने में हजारों वर्ष लगे हैं जबकि एक बच्चा कम वर्षों में यह दौङ पारकर जाता है।

यह बच्चा ही हमारा प्रथम आदिकालीन मानव है- और यह एक तितली को अपने पांव तले कुचल देता है ।

बच्चा हमारे प्राथमिक  पूर्वज की भांति है। उस आदिमानव की भांति वह बच्चा विभिन्न अवस्थाओं से गुजरते हुए, अपनी दौङ के विकसित चरण तक पहुंचता है। वह इसे बहुत सहजता से और तीव्र गति से करता है।

अब हम संपूर्ण मानवता को एक दौङ की तरह लेते हैं या न्यूनतम कमजोर जानवर से मनुष्य तक संपूर्ण प्राणी रचना को लेते हैं ।इसका अंत जिस संपूर्ण चक्र की ओर जाता है। उसे हम प्रवीणता कहते है।

कुछ स्त्री-पुरुष जब जन्म लेते हैं, उनका ऐसा पुर्वानुमान होता है कि यहीं मानव जाति का पूर्ण विकास है।

वे यह मानते हैं कि इसके स्थान पर कि इस मानवीय दौङ मे प्रवीणता प्राप्त करने के लिए युगों तक बार-बार जन्म लिया जाए, ये लोग अपने इस वर्तमान जीवनकाल के कुछ समय में ही तेजी से इस प्रवीणता को पाते हैं ।

जैसा हम जानते हैं कि इस प्रक्रिया में हम तीव्र हो सकते हैं ,यदि हम अपने प्रति सच्चे हैं।

यदि कुछ व्यक्तियों को किसी भी संस्कृति के बिना, बहुत कम भोजन, वस्त्र और आवास की सुविधा के साथ एक द्वीप में छोड़ देते हैं,वहां वे स्वयं धीरे-धीरे विकास करेंगे और सभ्यता के उच्चतम से उच्चतम अवस्था को पार करेंगे।

हम जानते हैं कि साधनों के साथ विकास तेजी से होता है।

हम वृक्षों को बङा होने में उनकी सहायता करते हैं। वे प्राकृतिक रूप से भी स्वयं विकसित होते हैं , पर अपना समय लेते हैं। हम उन्हें तेजी  से विकसित होने में सहायता करते हैं ।

हम अप्राकृतिक साधनों द्वारा सभी वस्तुओं को तेजी से विकसित करते हैं।

क्यों हम मानव विकास में तीव्रता नहीं कर सकते हैं?

हम एक दौङ के समान इसे कर सकते हैं। क्यों गुरू दूसरे देशों में जाते है?

क्योंकि इससे हम विकास की दौड़ को तेज कर सकते हैं ।

अब क्या हम व्यक्तिगत विकास में भी तेजी ला सकते हैं ?

यह भी हम कर सकते हैं।

क्या हम इस तीव्रता की सीमा निर्धारित कर सकते हैं ?

हम यह नही बता सकते कि एक व्यक्ति एक जीवन में कितना विकास कर सकता है ।

तुम्हारे पास इसके लिए कोई कारण भी नहीं कि एक व्यक्ति कितना और कितना अधिक कर सकता है।

परिस्थितियां चमत्कारिक रूप से उसे तीव्र कर सकती हैं।

तुम प्रवीण हो, उसकी भी क्या कोई सीमा हो सकती है?

तो क्या परिणाम निकलता है?

युगों से चली आ रही इस दौङ में जो एक प्रवीण मनुष्य है वह आज का मानव है।

मेरी समझ

आज का युग संसाधनों और सुविधाओं का युग है । हम अभी और विकसित होना चाहते हैं । इन संसाधनों और सुविधाओं के प्रयोग से तेजी से निरंतर विकास की दौड़ में दौङ रहा यह मानव ही आधुनिक मानव है।

हम अप्राकृतिक सुविधाओं के लिए प्राकृतिक संसाधनों का दुरूपयोग कर रहे हैं ।

अवतार और पैगंबर

विवेकानंद जी हमें बताते हैं कि सभी महान अवतार या पैगंबर अपने एक ही जीवन में संपूर्ण निपुणता प्राप्त करते हैं।

हमें विश्व इतिहास में सभी युगों या कालों में ऐसे अवतारी या पैगंबर मिलते हैं ।

अभी कुछ समय पूर्व एक ऐसा व्यक्ति हुआ, जो इस मानवीय दौङ में शामिल हुआ और अपने वर्तमान जीवन में ही इस दौङ के अंत तक पहुंचा था।

यह भी है कि तेजी से विकास के भी नियम होते हैं।

मान लीजिए कि हम इन नियमों को खोज पाते हैं, उनके रहस्यों को समझ कर उन्हें हम अपनी आवश्यकताओं के लिए उपयोग में ला सकते हैं, तब हम उन्नत होते हैं।

हम अपनी उन्नति को तीव्र करते हैं, हम अपने विकास में तेजी लाते हैं, तब हम अपने इसी जीवन में प्रवीण हो जाते हैं ।

यह हमारे जीवन का उच्चतम चरण है और मस्तिष्क का अपना विज्ञान है तथा इसकी शक्तियों मे निपुणता ही जैसे वास्तविक परिणाम है।

इस विज्ञान की उपयोगिता यही है कि मनुष्य की निपुणता को उजागर किया जाए, ऐसा नहीं कि उसके लिए उसको युगों, युगों तक प्रतीक्षा कराई जाए।

इस भौतिक संसार में मनुष्य प्रकृति के हाथ का खिलौना बन जाए जैसे समुद्र में एक लकड़ी का टूकङा एक लहर से दूसरी लहर पर डोलता रहे ।

यह विज्ञान अथार्त योग विज्ञान यह चाहता है कि आप शक्तिवान बनो, अपने को प्रकृति के हाथों में देने के स्थान पर स्वयं अपने-आप प्रयत्न करो फिर तुम इस छोटे जीवन के पार जो है, उसे प्राप्त करोगे।

मेरी समझ

यहां स्वामी जी मनुष्य की बाहरी, भौतिक उन्नति की बात नहीं कर रहे हैं। सच्चा वास्तविक विकास तो मनुष्य के अंतर का विकास है।
वह कहते हैं कि अगर मनुष्य अपने अंतर को पहचान ले, व उसका शुद्धिकरण करे तो वह अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति से कठिनतम कार्य भी कर सकता है और अपने इस जीवन में ही, जीवन के सत को जान सकता है।

योग विज्ञान वह विज्ञान है जो मनुष्य को उसकी अंतर शक्ति को पहचानने में सहायक होता है।

स्वामी विवेकानंद (भाग-9)

विवेकानन्द जी कहते हैं कि समस्त शिक्षा व समस्त प्रशिक्षण का आदर्श , व्यक्ति – निर्माण होना चाहिए।
लेकिन ऐसा होता नहीं है , अपितु हम अपने  बाह्य व्यक्तित्व को चमकाते हैं । जब अंदर कुछ नहीं है तो बाहर को चमकाने का क्या लाभ ?
समस्त प्रशिक्षण का ध्येय और उद्देश्य व्यक्ति को विकसित करना है।
वह व्यक्ति जो अपने अनुगामियों को अपने करिश्मा से प्रभावित करता है, यह विलक्षण शक्ति है। वह व्यक्ति जब कुछ करने को तैयार है तो वह जो चाहता है, वो कर सकता है, वह व्यक्ति जो करता है उसमें सफल होता है।
अब हम देखते हैं कि इसकी व्याख्या करने के लिए कोई स्पष्ट नियम नहीं है। हम कैसे  शारीरिक व रासायनिक हथियारों,  ज्ञान द्वारा इसकी व्याख्या कर सकते हैं? कितना ऑक्सीजन, हाइड्रोजन और कितना कार्बन हो, और विभिन्न स्थितियों में  कितने परमाणु और कितने अंश इत्यादि इत्यादि से इस गूढ़ व्यक्तित्व की व्याख्या कर सकते हैं ।
और हम देखते हैं कि यही वास्तविक व्यक्ति है, जो जीता है, काम करता है और अपने अनुगामियों को प्रभावित करता है, फिर जब चला जाता है तो अपनी बौद्धिकता और किताबें और अपने काम, उसके निशान पीछे रह जाते हैं। इस पर विचार करो।
धर्म के महान गुरुओं और महान दार्शनिकों में तुलना करो। दार्शनिकों ने कठिनाई से किसी व्यक्ति के अंतर को प्रभावित किया है। जबकि उन्होंने बहुत विलक्षण पुस्तकें लिखी हैं।
और धार्मिक गुरूओं ने अपने जीवनकाल में विश्व के चक्कर लगाए हैं और लोगों पर अपना प्रभाव छोड़ा है। यह अंतर व्यक्तित्व के कारण था, दार्शनिकों में यह शक्तिहीन है, महान पैगंबरों में यह व्यक्तित्व विशाल है, जो सबको प्रभावित करता है।
सबसे पहले हम ज्ञान से जुङे बाद में जिन्दगी से जुड़े हैं ।

एक स्थिति में यह एक रसायनिक प्रक्रिया है, कुछ निश्चित रसायनिक अंश एक साथ रख दिए गए, जो धीरे-धीरे जुङे और विशिष्ट परिस्थिति में  बाहर लाए गए,  अचानक प्रकाशमय हुए या फेल हो गए।
दूसरी तरफ, यह एक टार्च की तरह है जो बहुत शीघ्र चारों तरफ चक्कर लगाते हैं और दूसरों को प्रकाशमय करते हैं  । 

मेरी समझ

विवेकानंद जी कहते हैं कि हमें अपने अंतर्मन को पवित्र करना चाहिए। ज्ञानी होने मात्र से कोई किसी को प्रभावित  नहीं कर सकता है।
पैगंबर अपनी शुद्ध आत्मा के कारण सबको प्रभावित करते हैं लोगों के जीवन में उजाला फैलाते हैं ।

योगा का विज्ञान

योगा के विज्ञान का यह दावा है कि व्यक्तित्व के विकास के समस्त नियमों को खोज लिया गया है और जो उन नियमों पर अपना पूर्ण ध्यान केंद्रित करते हैं वे अपने व्यक्तित्व को शक्तिशाली और प्रभावी बना सकते है।
यह व्यवहारिक वस्तुओं में से एक है और समस्त शिक्षा का रहस्य है ।इसमें सार्वभौमिक प्रक्रिया है।
यह मकान मालिक की जिंदगी में , गरीब की जिंदगी में , अमीर, व्यापारी, आध्यात्मिक, प्रत्येक व्यक्ति की जिंदगी में, उनके व्यक्तित्व को शक्तिशाली बनाने के लिए महत्वपूर्ण  है
यह नियम बहुत अच्छे है, जैसा हम जानते है कि यह शारीरिक नियम है। यह कहा जाता है कि इसमें एक शारीरिक संसार की वास्तविकता ही नही है, एक मानसिक और आध्यात्मिक संसार की भी वास्तविकता है। यह जो भी है, ये एक है  ।
हम कह सकते हैं कि इसकी स्थिति शंकु के समान है।
यह एक प्रकार से न्यूनतम अवस्था में हैं, पर  स्थूलतम यहाँ हैं, जिसे जब घटाते हैं, तो यह सुंदर से सुंदर बनता है और जो सुंदरतम है, उसे हम आत्मा कहते है, काया स्थूल है।
और जैसे यह मानव का सूक्ष्म रूप है, वैसा ही यह ब्रह्मांड में है।
हमारा सार्वलौकिक वैसा ही है, जैसे इसकी बाह्य स्थूलता को घटाया जाता है, तो यह सुंदर से सुंदर होते हुए भगवान बन जाता है।

मेरी समझ

यहां विवेकानंद जी हमें योग विज्ञान का महत्व समझाते हैं । योगा का अनुसरण करते हुए न केवल हम अपने शरीर को स्वस्थ रख सकते हैं अपितु अपने मन को भी स्वस्थ रख सकते हैं। यह आपको आध्यात्मिक यात्रा कराता है, जिससे आपकी आत्मा का शुद्धिकरण होता है।

आज के आधुनिक तनावग्रस्त जीवन में व्यक्ति फिर आध्यात्म की ओर मुङ रहा है, इसी कारण योग विज्ञान का महत्व बढ़ गया है ।

कोमलता में शक्ति

विवेकानंद जी कहते हैं की हम जानते हैं कि महानतम शक्ति असभ्य, असुंदर में नहीं, सभ्य सुंदर में स्थित है।

हम एक शक्तिशाली , वजनदार व्यक्ति को देखते हैं , जिसकी मांसपेशियां फूली हुई हैं और हम उसके शरीर में समस्त परिश्रम के चिन्ह देखते हैं फिर हम सोचते हैं कि मांसपेशियां शक्तिशाली वस्तु है।

लेकिन वास्तव में ये कमजोर होती हैं, धागे के समान महीन नाङियाँ होती हैं, जो मांसपेशियों में ताकत लाती है।

जिस क्षण इन धागों में से एक धागा भी जो मांसपेशियों से जुङा है, कट जाता है उसी क्षण ये मांसपेशियां कार्य करने में असमर्थ हो जाती हैं । ये नन्हीं नाङियाँ,  सुक्ष्मता से शक्ति लाती है- सोचो और सोचो। तो यह सुक्ष्मता ही वास्तविक शक्ति का आधार है।

यह सच है कि हम स्थूल क्रियाओं को देख सकते हैं लेकिन जब सुक्ष्म क्रियाएं प्रभावी होती हैं, हम उन्हें देख नहीं सकते हैं।

जब एक स्थूल वस्तु चलती है, हम उसे पकड़ सकते हैं, हम स्वाभाविक रूप से उस स्थूल वस्तु की क्रियाओं को पहचान सकते हैं।

परंतु वास्तव में समस्त शक्ति सुक्ष्मता में है।

हम सुक्ष्म क्रियाएं नहीं देखते शायद ये क्रियाएं बहुत तीव्र होती हैं , हम उन्हें अपनी इंद्रियों से देख नहीं सकते हैं।किसी विज्ञान या अंवेषण द्वारा हमें इन सुक्ष्म शक्तियों को पकङने में सहायता मिलती है, जो अभिव्यक्ति के कारण होती है, यह अभिव्यक्ति भी दबाव में होती होगी।

झील के बिलकुल नीचे से एक बुलबुला आता है, उसे आता हुआ हम नहीं देखते है, पर जब वह धरातल पर फटता है, हम उसे देख पाते हैं ।

स्वामी जी कहते हैं, इसी प्रकार हम तब विचारों को समझ पाते हैं जब वे विशाल रूप में विकसित होते हैं, जब वे क्रिया बनते हैं ।हम निरंतर यह शिकायत करते हैं कि हमारा अपने विचारों और क्रियाओं पर नियंत्रण नहीं है। पर यह नियंत्रण कैसे हो सकता है?

अगर हम सुक्ष्म क्रियाओं को नियंत्रित कर सकते हैं, अगर हम विचारों को बनने से पूर्व या उन्हें क्रियाएं बनने से पहले, उन विचारों की जङो को थाम सकते हैं तो यह संभव है कि सबको संपूर्णता से नियंत्रित कर पाएं।

यहां एक उपाय है, जिससे हम विश्लेषण कर सकते हैं, खोज सकते हैं , समझ सकते हैं और अंत में उन सुक्ष्म शक्तियों व सुक्ष्म कारणों के साथ उन्हें बांध सकते हैं, इसी से केवल संभव हो सकता है कि हम अपने ऊपर नियंत्रण कर सकते हैं । वह व्यक्ति जो अपने मस्तिष्क को नियंत्रित कर सकता है, वह किसी भी अन्य व्यक्ति के मस्तिष्क को नियंत्रित कर सकता है।

इसी कारण पवित्रता व नैतिकता धर्म के पात्र होते हैं। एक पवित्र , नैतिक व्यक्ति का अपने पर नियंत्रण होता है।

सभी दिमाग एक है,एक दिमाग के विभिन्न भाग हैं ।

यह व्यक्ति वो है जो जानता है कि ब्रह्मांड की सभी मिट्टी एक ही मिट्टी के ढेर से है।

वह जो अपने मस्तिष्क को नियंत्रित कर सकता है वह प्रत्येक मस्तिष्क के रहस्य को जानता है, उसका मस्तिष्क  सबसे शक्तिवान है।


मेरी समझ

हम अपने मस्तिष्क के गुलाम होते हैं, उसके निर्देशन में ही हम अपनी सब क्रियाएं करते हैं ।

हमारा मस्तिष्क विभिन्न विचारों व समस्याओं से भरा रहता है, अतः सही गलत को समझना कठिन होता है, अक्सर वह हमसे ऐसे कार्य कराता है, जो हमें नहीं करने चाहिए। जैसे हम जानते हैं कि हमें क्रोध नहीं करना चाहिए। लेकिन हमारा मस्तिष्क नकारात्मक विचारों से भरा है और वह हमें शांत रखने के स्थान पर क्रोध कराता है।

विवेकानंद जी के अनुसार योगा वह माध्यम है जिसका अभ्यास करते हुए, हम अपने मन- मस्तिष्क को नियंत्रित कर सकते हैं । वह यह भी कहते हैं कि जब आप अपने मस्तिष्क को समझ सकते हैं तो किसी दूसरे को समझना भी आसान हो जाता है।

स्वामी विवेकानंद (भाग-8)

अपने चरित्र का निर्माण करो

स्वामी विवेकानंद कहते हैं,’ यदि तुम घर जाते हो और टाट के कपङे पर बैठते हो और भस्म लगाते हो और बीते हुए जीवन पर रोते हो, क्योंकि तुमने कुछ गलत कदम उठाए थे, यह तुम्हारी सहायता नहीं करेगा बल्कि तुम्हारी इच्छाशक्ति और कमज़ोर हो जाएगी। 
एक कमरे में हजारों वर्षों से अंधेरा है, तुम उस कमरे में जाते हो, अंधेरा देख रोने लगते हो, विलाप करते हो, क्या इससे अंधेरा दूर हो जाएगा? एक माचिस की तीली जलाओ उसी क्षण अंधेरा दूर हो जाएगा।
अपने संपूर्ण जीवन में यही करते रहोगे,कि ” मैंने पाप किए हैं, बहुत गलतियाँ की है।”
यह किसी भूत को बताने की आवश्यकता नहीं है। रोशनी में आते ही शैतान उसी पल चला जाता है।
अपने चरित्र को विकसित करो, अपने वास्तविक स्वभाव को तलाशो,
उसे पुकारों जो दीप्तिमान, चमकदार है, सदा पवित्र है, जिसे तुम सब में देख सकते हो।

मेरी समझ

सारे जीवन अपनी गलतियों पर पछताते रहो, पर उसे सुधारने के लिए कुछ नहीं करो हाथ पर हाथ रख कर बैठने से कुछ नहीं बदलेगा। अपने जीवन में रोशनी स्वयं लानी होगी। आप ही स्वयं अपने को बदल सकते हो।

व्यक्तित्व का विकास

व्यक्तिगत आकर्षण शक्ति

तुम देखते हो कि हमारे चारों ओर क्या घट रहा है। संसार एक प्रकार का प्रभाव है।
हमारी शारीरिक ऊर्जा का भाग, हमारे अपने शरीर को सुरक्षित रखने में प्रयोग में आता है।इसके अतिरिक्त दिन-रात हमारी ऊर्जा का प्रत्येक अंश दूसरों को प्रभावित करने के लिए प्रयोग में आता है।
हमारे शरीर, हमारी बुद्धि और हमारी धार्मिकता यह समस्त निरंतर दूसरे को प्रभावित करते हैं। इसके विपरीत हम भी दूसरों से प्रभावित होते हैं।
यह सब हमारे चारों ओर चल रहा है।
एक ठोस उदाहरण लेते हैं:
एक व्यक्ति आता है, तुम जानते हो, वह बहुत ज्ञानी है, उसकी भाषा बहुत सुंदर है, वह तुम से एक घंटा बात करता है- लेकिन तुम पर अपनी कोई छाप नहीं छोड़ता है।
दूसरा व्यक्ति आता है, वह कुछ शब्द बोलता है, जिसका शब्द – विन्यास ठीक नहीं है, व्याकरण में भी त्रुटि है, पर वह तुम पर अपनी अमिट छाप छोङघता है।
तुम में से कई ने ऐसा अनुभव किया होगा।
अतः यह स्पष्ट है कि हमेशा शब्द अपना प्रभाव छोड़ नहीं पाते हैं ।
एक छाप छोड़ने में प्रभाव का केवल 1/3 भाग शब्दों और विचारों का होता है और व्यक्ति का अपना 2/3 भाग होता है।
इसे तुम व्यक्ति का व्यक्तिगत आकर्षण कहते हो, जो तुम्हें प्रभावित करता है।

मेरी समझ

हम इसे ऐसे समझ सकते है कि हम अपना संपूर्ण जीवन दूसरों को खुश करने में बिता देते हैं और दूसरे हमें खुश करने में अपना जीवन व्यतीत करते है।
प्रत्येक व्यक्ति का अपना व्यक्तित्व होता है, किसी व्यक्ति का व्यक्तित्व बहुत आकर्षक होता है कि वह आसानी से दूसरों को प्रभावित कर सकता है।

महान नेता


स्वामी जी कहते हैं कि हम उन महान मानवतावादी नेताओं की बात करते हैं, हम हमेशा देखते हैं कि जिसे हमें जानते थे , वह व्यक्ति का व्यक्तित्व था।
अब पिछले सभी लेखकों और विचारकों को समझते हैं।सच बताओ, कितने विचार उन्होंने विचारे। उन मानवतावादी नेताओं द्वारा लिखे गए लेखों को पढ़ो, प्रत्येक की एक पुस्तक लो और उनको आंकों।
इस समय संपूर्ण संसार में वास्तविक नए और सच्चे विचार मुठ्ठी भर है। उनकी किताबों में जो विचार वे हमारे लिए छोड़ गए थे, उन्हें पढ़ो।
ये लेखक हमें असाधारण नहीं लगते, जबकि हम जानते हैं कि वे अपने समय में महान असाधारण थे।
फिर उनका ऐसा प्रभाव क्यों?
न सामान्य वे विचार जो उन्होंने सोचे, न वे किताबें जो उन्होंने लिखी, न ही वे भाषण जो उन्होंने दिए, यह ऐसा कुछ था, जो चला गया, वह उनका व्यक्तित्व है।
जैसा मैं पहले निर्दिष्ट कर चुका हूं कि व्यक्ति के व्यक्तित्व का दो तिहाई प्रभाव है, उसकी बुद्धि , उसके शब्दों का एक तिहाई प्रभाव होता है।
यही वास्तविक व्यक्ति , व्यक्ति का व्यक्तित्व है जो हमें प्रभावित करता है।
लेकिन हमारे कर्म प्रभावित होते हैं। जब वह व्यक्ति है, तो कर्म भी है, उसके अनुसरण से उसका प्रभाव भी बंधा है।

मेरी समझ

व्यक्ति का आकर्षक व्यक्तित्व ही दूसरे को प्रभावित करता है। सभी संत गुरू एक समान विचार सुझाव देते हैं , पर हम उसी का अनुसरण करते हैं , जिसका व्यक्तित्व हमें प्रभावित करता है।
कुछ विचारों को हम जानते है पर स्पष्ट रूप से हम तब समझ पाते हैं जब कोई करिश्माई व्यक्ति हमें समझाता है।
चूंकि मौलिक या नई बात ऐसी बहुत कम है जो पहले नहीं कही गई हो, हमने न पढ़ी हो या न सुनी हो, पर हमें नई इसीलिए लगती है क्योंकि अब जो समझाने वाला है, उसके व्यक्तित्व से हम प्रभावित है।

क्रमशः

स्वामी विवेकानंद (भाग-7)


आदतें, अच्छी और खराब

विवेकानंद जी कहते हैं कि जब मनुष्य के आसपास के वातावरण और विचारों के प्रभावों की एक बङी संख्या उसके मस्तिष्क पर जाती है, ये आपस में मिल जाती हैं और एक आदत बनती है।


यह कहा जाता है कि ‘आदत दूसरा स्वभाव है, यह प्रथम स्वभाव भी है और व्यक्ति की संपूर्ण प्रकृति भी है।
यह जो भी हम हैं, सब आदत का परिणाम है।
यह हमें आश्वासन देती है क्योंकि यदि यह केवल आदत है, हम इसे बना सकते हैं और किसी भी समय इसे मिटा सकते हैं ।
अच्छी आदतें खराब आदतों के लिए केवल औषधि हैं । समस्त बूरी आदतें अच्छी आदतों द्वारा नियंत्रित की जा सकती हैं ।
निरंतर अच्छे कर्म करो, अच्छा सोचो। मूल प्रभावों को दबाने का यही एक रास्ता है।


कभी मत कहो कि कोई आदमी निकृष्ट है क्योंकि वह केवल, एक चरित्र , एक आदतों की गठरी का प्रतिनिधित्व करता है जो नए और सुधरी आदत द्वारा जांचा जा सकता है।
चरित्र आदतें दोहराता है और दुहराई हुई आदतें चरित्र को सुधार सकती हैं ।

मेरी समझ

यह माना जाता है कि व्यक्ति आदतों का शिकार होता है । उसकी आदतें उसके चरित्र का निर्माण करती है।
जो पूर्व जन्म के सिद्धांत को मानते हैं वे यह मानते हैं कि बच्चा जब जन्म लेता है, तब वह अपने साथ पिछले जन्म का अपना स्वभाव व आदतें लाता है, जिसे हम जन्मांतर भी कहते है, या यह भी कहते हैं कि इस इंसान की प्रकृति या प्रवृत्ति ही ऐसी है।
पर आदतें बदली जा सकती है, यदि व्यक्ति की परवरिश सकारात्मक वातावरण में हो, वह अच्छे विचारों और आचरण को ग्रहण करे तो वह अपनी जन्मांतर आदतों को बदल सकता है।

हम अपनी किस्मत बदलते हैं ।

समस्त प्रत्यक्ष पापों का कारण हमारे अंदर है। किसी अलौकिक शक्ति को दोष मत दो। कभी निराशावादी या मायूस मत हो, न ही यह सोचो की हम ऐसी स्थिति में है जिससे हम कभी मुक्त नहीं हो सकते, जब तक कोई हमें मुक्त होने के लिए अपनी सहायता नहीं देता है।
हम रेशम के कीड़ों की तरह है । हम अपने अस्तित्व के बाहर धागा बनाते हैं और रेशम को कातते हैं और इस दौरान अंदर कैद हो जाते हैं ।


हम अपने चारों तरफ, अपने कर्मो का जाल बुन लेते हैं ।
और अपनी अज्ञानतावश, हम महसूस करते हैं ,जैसे हम बंधे हुए हैं और रोते है तथा सहायता के लिए विलाप करते हैं ।
लेकिन सहायता किसी के द्वारा नहीं आती, यह हमारे अंतर से आती है । सभी सर्वव्यापक ईश्वर को पुकारो।

विवेकानंद जी अपना ही उदाहरण देते हुए कहते हैं कि ‘मैं बहुत साल चिल्लाया और अंत में पाया कि सहायता पा चूका था। लेकिन सहायता अंतर से आई थी।
मुझे फिर से सब सही करना था जो मेरी गलतियों के कारण बिगङा था।
मैंने जो अपने चारों तरफ जाल बुना था उसे काट देना था।
मैंने अपने जीवन में बहुत गलतियां की है, लेकिन बिना गलतियों के मैं वैसा नहीं था जैसा तुम मुझे अभी पाते हो।


मेरा यह अभिप्राय नहीं है कि तुम घर जाओ और दृढ़तापूर्वक गलतियों को स्वीकार करो, इस प्रकार मुझे गलत मत समझो। जो गलतियां तुमने कर दी हैं, उन गलतियों के लिए, तुम उदास मत हो।’

मेरी समझ

हम गलतियाँ करते हैं, तभी सीखते हैं और इस तरह सीखने से ही हम निखरते हैं ।
कहते हैं कि जब तक आप स्वयं अपनी सहायता नहीं करते, ईश्वर भी आपकी सहायता नहीं करता है।
हम अपने को परिस्थितियों, आदतों और लोगों का गुलाम बना लेते हैं। और अपने को दुखद और खराब स्थिति में फंसा पाते हैं, पर उससे बाहर निकलने की कोशिश नहीं करते हैं ।
पर यदि पूर्ण आत्मविश्वास के साथ कोशिश करें तो एक नहीं अनेक दरवाजे खुले दिखेंगे ।

अज्ञानतावश गलतियाँ

हम गलती मानते हैं और हम कमजोर है, क्योंकि हम अज्ञानी है। हमें अज्ञानी कौन बनाता है? हम स्वयं।
हम अपने हाथ अपनी आंखों पर रख देते हैं और रोते हैं यहाँ अंधेरा है। हाथ हटाओ और प्रकाश है। प्रकाश मनुष्य आत्मा की स्वयं- देदीप्यमान प्रकृति के रूप में सदा विद्यमान है।
विकास का कारण क्या है? इच्छा। जानवर कुछ करना चाहता है, पर अनुकुल वातावरण नहीं मिलता है। इसीलिए नए शरीर का विकास होता है। कौन इसका विकास करता है? जानवर स्वयं, उसकी इच्छा शक्ति । यह इच्छा शक्ति महान है। तुम कह सकते हो यदि यह महान है, तो मैं क्यों नहीं कुछ कर सकता हूं। पर तुम अपने बारे बहुत कम सोच रहे हो।
अपना अतीत देखो! तुम अमीबा से मनुष्य बने हो। किसने बनाया? तुम्हारी अपनी इच्छा शक्ति ने। क्या तुम इसके सर्वशक्तिमान होने से इंकार कर सकते हो?
वह जिसने तुम्हें ऊंचाई तक पहुँचाया है, अब तुम और ऊँचे जा सकते हो। तुम जो चरित्र बनना चाहते हो, तो अपनी इच्छा शक्ति को दृढ़ करो।

मेरी समझ

कहा जाता है कि दृढ़ इच्छाशक्ति के कारण चींटी भी पहाङ पार कर जाती है । फिर हम भी अपनी इच्छाशक्ति से अपने चरित्र की कमियाँ क्यों नहीं दूर कर सकते हैं !
हमें अपनी इच्छाशक्ति को दृढ़ बनाना चाहिए।