यह प्रेम व प्यार मेरी समझ से बाहर है। पिक्चरे देख लो, कहानियाँ पढ लो, यह आनंद यही तक तो ठीक है। कभी-कभी दूसरो के प्रेम के किस्से रस भरे लगते है।पर मै जो बात करने जा रही हूँ वो इस प्रेम से उत्पन्न परेशानियो से संबधित है।
उस दिन शाम को जब कुश नही आया, तो मुस्कान ने बताया कि आज बाजार मे गोलियाँ चली है, कुश वही रहता है इसलिए नही आ पाएगा।अगले दिन विद्यालय पहुँची तो वहाँ भी यही चर्चा चल रही थी। मेरे पहुँचते ही सब मुझसे पुछने लगी, आप ही की तरफ हुआ न! मैडम,बताइए कौन थे लङका लङकी? लङका लङकी ? इस विषय मे मुझे कोई जानकारी नही थी। तभी कमलेश मैडम अंदर आते हुए बोली, अरे लङकी तो भली थी, पर लङका ही बदमाश था। लङकी तो हमारे ही पङोस की थी। सभी कमलेश मैडम की तरफ खिसक गए। कमलेश मैडम फिर मुझसे बोली, मैडम आप तो जानती हो उस लङकी को वही किरण बुटीक वाली लङकी, नलिनी ही मारी गई है। उनके कहते ही मेरी निगाह अपनी साङी पर ठहरी, यही साङी व ब्लाउज मैने तैयार कराए थे किरण बुटीक मे, नलिनी का काम व स्वभाव मुझे इतने पसंद आए थे कि मैने सोचा था, अब सब काम इसी बुटीक पर कराऊँगी।

मै अभी तक इस घटना को विशेष महत्व नही दे रही थी, सिवाए इसके कि हमारे सेक्टर मे और उसकी छोटी सी मार्केट मे ही यह घटना क्यो घटी?पतिदेव अब मुझे व बच्चो को उस ओर जाने न देंगे। लेकिन किरण बुटीक का नाम लेते ही यह घटना जैसे मेरे निजी दुख मे बदल गई थी।नलिनी को मार दिया? हाँ, दस दिन बाद उसकी बङी बहन दीक्षा की शादी थी। वह अपनी बहन के साथ रिक्शा मे थी तभी वह लङका पवन आ गया और दीक्षा को तो धक्का देकर नीचे उतार दिया व नलिनी से एक बार पुछा, चलेगी मेरे साथ, नलिनी के नही कहते ही उसने उस पर गोलियाँ दाग दी थी। यानि प्रेम चक्कर? नही, लङकी को तो उसमे कोई दिलचस्पी नही थी, कभी स्कूल मे दोस्ती थी, पर उसके स्वभाव व आदत के कारण नलिनी ने उससे कोई नाता नही रखा था।पर दो वर्ष पहले नलिनी के पिता की मृत्यु के बाद वह उसके पीछे लगा था।

 यह कैसा प्रेम? क्या लङकी को नही कहने का अधिकार नही? कभी सुनते है कि लङकी के नही कहने पर उसके चेहरे पर तेजाब डाल दिया। क्या इसी को प्रेम कहते है? जिसे प्रेम करते है उसे कष्ट पहुँचाएँ या मार दे।

यह प्रेम तो नही पर सामंतवाद का परिचायक तो हुआ।राजा महाराजाओ,जमींदारो और सामंतो के युग मे ऐसा होता था कि इन शासक वर्ग के पुरूषो को आम जनता मे से कोई लङकी या औरत पसंद आ जाती थी तो उसे उठा लेते या जबरन उससे विवाह कर लेते थे। इन्हे एक से अधिक विवाह करने का अधिकार प्राप्त था पर आज वह युग समाप्त हो गया है। देश मे प्रजातंत्र है। यह नीच हरकत करने वाले किसी सांमत या राजा के वंशज  भी नही है।यह वे लोग है जो प्रेम को बिना समझे अपने प्रेम को मजनू या देवदास की श्रेणी का मानते है। पर इन मजनूओ को लैला नही मिलती अथवा जिसे वह अपनी लैला मानते है वह इनसे प्रेम नही करती है अब जब लैला ही नही है तो ये मजनू कैसे? यह तो किसी हिन्दी फिल्म के खलनायक की भूमिका हो सकती है। अरे, हमारे समय मे तो लङके अपनी जान दे देते थे पर लङकी को कोई तकलीफ नही पहुँचाते थे। किसी ने कहा।

 मै सोच रही थी कि इन लङको को मरने या मारने के अतिरिक्त कोई और बात सुझती क्यो नही? लैला मजनू, सोनी महिवाल ये तो एक दूसरे से प्रेम करते थे। इनके प्रेम का समाज विरोधी होता था।जैसे ऑनर किलिंग मे होता है, लङका लङकी एक दूसरे से प्रेम करते है उनके परिवारो को आपत्ति होती है, विशेष रूप से लङकी के परिवार को, अतः वे दो मारे जाते है या भागे फिरते है।

मुझे याद आ रहा है, मेरे साथ मास्टरस कर रही वनिता मुझे बता रही थी कि एक लङके ने उसके कारण आत्महत्या कर ली थी। वनिता ने उसे पसंद नही किया था इसलिए उस लङके ने वो कदम उठाया था। वनिता को बहुत अपराधबोध था।हाँ, किसी की मृत्यु पर दुख होना स्वाभाविक है। लेकिन मैने उसे समझाया कि ऐसे लङके दिमागी रोगी होते है, जिनके लिए एक लङकी(जो उन्हे पसंद नही करती) ही जीवन का एक मात्र ध्येय रह जाता है। वह अपने माता पिता के प्रेम को भी अनदेखा कर देते है।

वनिता के साथ-साथ मुझे अंजु का भी ध्यान आ रहा था। यह प्रेम की बात आज भी मेरे सिर पर से निकल जाती है तब तो मै बहुत छोटी थी।हमारा सरकारी प्राइमरी विद्यालय, लङके व लङकियाँ साथ पढ़ते थे।पांचवी कक्षा का आरंभ था,अभी कक्षाओं मे पढ़ाई शुरू नही हुई थी। नए प्रवेशो के कारण अध्यापिकाएँ व्यस्त थी।हम कक्षाओं मे बैठे कोई खेल खेला करते थे।उस दिन भी कुछ ऐसा ही था जब अचानक कुछ भगदङ सी मच गई थी, पता चला एक बहुत सुंदर लङकी ने हमारी कक्षा मे प्रवेश लिया है। कक्षा के लङके उसे ही देखने कक्षा से बाहर जा रहे थे। वह सुंदर लङकी अंजु थी। मेरी कक्षा के अनिल और कमल गहरे दोस्त थे, अगले दिन अंजु कक्षा मे आई और आते ही उसकी अनिल से लङाई हो गई थी, अनिल शरारती लङका था। पर कुछ दिन बाद कमल और अंजु मे भी दोस्ती हो गई जिस कारण कमल और अनिल की पक्की दोस्ती टूट गई।सभी को यह अच्छा नही लगा था। अंजु से मेरी दोस्ती हो गई थी, पर उसके लिए मै सविता व कविता छोटी लङकियाँ थी, यूँ वह भी हमारे बराबर ही थी, पर उसने गहरी दोस्ती कक्षा की सबसे निखद लङकी फ्लोरा से की थी, अंजु पढाई मे होशियार थी इसलिए फ्लोरा से उसकी दोस्ती मेरे समझ मे नही आई थी। सरिता ने बताया कि फ्लोरा कमल के घर के पास रहती है, मुझे तब भी कुछ समझ नही आया था। अब अंजु और कमल एक साथ नजर आते थे।

एक दिन कमल और अंजु के माता पिता को स्कूल बुलाया गया था,मै उस दिन विद्यालय नही गई थी मुझे सब सविता ने बताया था।पर क्यो बुलाया? सविता ने कहा उनकी आपसी दोस्ती के कारण बुलाया था। यह बात भी मेरी समझ के बाहर थी। कक्षा मे लङके पढ़ते है तो बातचीत, दोस्ती तो हमारी भी है। रौनी, फिलिप्स, डेविड और टोनी इन सबके साथ हम भी तो खेलते है व लङते भी है।अंजु और कमल तो लङते भी नही थे। कमल को तो मै कक्षा का सबसे भोंदू लङका मानती थी। मैने हेरानी  के साथ सविता से कहा तो वह बोली बुद्धु, उनकी दोस्ती फिल्मी दोस्ती है न! इसलिए। जैसै फिल्म मे हीरो हीरोइन मे होती है। यह बात वाकई मजेदार थी। उस दिन घर पहुँचते ही देखा भाभी आई हुई है, भाभी से जाकर तुरंत बोली, अरे भाभी मेरी कक्षा मे एक लङका व एक लङकी मे फिल्मी दोस्ती हो गई है। मेरी बात सुनकर सब हँसने लगे देखकर बुरा लगा पर भाभी ने प्यार से पुछा तो सब बता दिया, यह भी कि उनके माता पिता कह गए है कि हमारे बच्चे अभी छोटे है, उनकी दोस्ती को तुल न दिया जाए। भाभी बोली ठीक ही कहा उन्होने ये तो अभी बहुत छोटे बच्चे है।पर पता नही क्यों मै तब भी द्विधा मे थी। पांचवी के बाद सभी अलग-अलग विद्यालयो मे चले गए। मै और टोनी की बहन मंजु एक ही विद्यालय मे थे। कमल और टोनी का विद्यालय एक था।मंजु ने बताया कमल अपनी काॅपी मे अंजु अंजु लिखता रहता है। मुझे विश्वास हो गया कि कमल निरा भौंदू ही नही अपितु पागल भी है। पर अब मै सोचती हुँ कि क्या वह प्रेम था? या दो मासुम बच्चो की दोस्ती। दोनो पांचवी कक्षा के बाद मिले भी नही होगे।

कुछ साल बाद एक दिन अंजु बाजार मे मिल गई थी,उसी ने मुझे पहचाना था वह मेरी सहेली तनुजा के घर के पास रहती थी। तनुजा ने बताया अंजु के साथ बहुत बुरा हुआ, उसके पङोस के एक लङके ने उसके कारण आत्महत्या कर ली थी व सुसाइड नोट मे उसका नाम भी लिख गया था। अंजु ने तो घर से बाहर निकलना ही बंद कर दिया था।बाद मे अंजु ने तनुजा को बताया था कि घर से उसे पूरी आजादी थी,वह लङको से निःसंकोच बात करती थी, जिसका अर्थ लङके गलत लगाते थे। पहले दादी नानी कहा करती थी न! लङकियो का इतना हँसना बोलना ठीक नही है। यह भी सुना होगा लङकी हँसी तो फंसी। कहने का अभिप्राय यही है कि अगर लङकियो को हँसने बोलने की आजादी होती तो सभी लङकियाँ हँसती बोलती अब सिर्फ एक ही लङकी बिंदास बोलेगी तो लङको को गलतफहमी होगी ही। यह सब सदियो से लङके व लङकी की परवरिश की भिन्नता के कारण है। लङको को पूर्ण आजादी व लङकियो को सात पर्दो मे रखना। बेचारे लङके द्विधा मे पङ जाते है।

लङको की परवरिश बचपन से ही ऐसे की जाती है, घर मे उनको उनकी  बहनो से उच्च स्थान मिलता है। (मै उन घरों की बात कर रही हुँ, जहाँ लङकियों और लङकों मे आज भी भेद किया जाता है। जिनकी संख्या बहुत अधिक है) घर मे वह एक गिलास पानी भी उठाकर नही पीते है। वह यदि रसोई तक जाए भी तो उनकी माँ उन्हे रोक देगी कि लङको का क्या काम रसोई मे, तुम तो पढ़ाई करो,कमाई करो, इसलिए उन्हे अपनी माँ से भी पानी माँगने मे संकोच नही होता है। बेटियो को कहा जाता है कि कितनी भी पढ़ाई या नौकरी कर लो खाना बनाना, घर संभालने का काम तो औरत का ही है इसलिए ये सब भी सीखो।भाई बहन की नोक झोक मे माता पिता लङकी को ही दबाते है यह नोक झोक कई बार हाथा पाई पर भी आजाती है, बहन को सिखाया जाता है कि भाई की बराबरी न करे। ऐसी सोच के साथ बङे हुऐ लङको मे लङकियो को अपने से कमतर मानने की भावना विकसित होती है।

उनके मन मे लङकियो के प्रति कोई सम्मान की भावना नही होती है। किसी लङकी के लिए अपने आकर्षण को वह प्रेम का नाम देते है, फिर एक ही कामना होती है कि किसी तरह उस लङकी को प्राप्त करना है। इसे प्रेम नही कहते है। जब वह लङकी उन से बात भी करना पसद नही करती है तो उनके अहं को चोट पहुँचती है।एक लङकी से हार मानना उन्हे स्वीकार्य नही होता है तब या तो यह मरते है या मारते है। ऐसा नही कि यह एक तरफा आकर्षण लङकियो मे नही होता है मैनै कई लङकियो को देखा है किसी एक लङके के पीछे भागते हुऐ या उसी के ख्यालो मे खोए हुए। कई बार यह लङकी उस लङके को जानती भी नही है,बस देखा और दूनिया भूल गए। क्या यह एक तरफ का आकर्षण ही प्रेम है? मुझे तो यह प्रेम समझ आता नही है।

एक घटना मेरे साथ भी हुई थी, तब मै दिल्ली युनिवर्सिटी मे पढ़ती थी। वह लङका कई दिनो से मुझ से बात करने की, दोस्ती करने की कोशिश कर रहा था।बार बार मना करने पर भी उसकी कोशिश बकरार थी।एक दिन मै और मेरी सहेली लाइब्रेरी के बाहर लाॅन मे बैठे चाय पी रहे थे,वह लङका अपने दोस्त के साथ वहाँ आया, उसके हाथ मे भी चाय का गिलास था,उसने मुझसे बात करनी चाही, जवाब न मिलने पर उसने अपना गिलास गुस्से मे वही लाॅन मे पटक दिया था। अंदर ही अंदर हम दोनो बहुत डर गई थी, लेकिन हमने अपना डर दिखाया नही था। दृढता से वही बैठे रहे थे, मुझे पूरा विश्वास था कि जहाँ मै बैठी हूँ, वहाँ उसी की भर्त्सना होगी। शुक्र है कि उस समय लोगो के पास इतनी आसानी से बंदूक व तेजाब नही होते थे। यह 38 वर्ष पुरानी बात हुई थी। उस घटना के बाद मैने उसके दोस्तो से बात करी थी, एक दिन लाइब्रेरी मे सबके सामने फटकारा था। उसके बाद फर्क पङा था, उसके दोस्तो के बीच उसका मान घटा था। बोलना पङता है, आवाज उठानी पङती है। यह कोशिश लङकियो को ही करनी पङती है। लङको के मानसिक स्तर को बदलने के प्रयास उनकी परवरिश मे ही करने होंगे। हम किसी से भी जबरदस्ती दोस्ती नही कर सकते है। चाहे वह लङकी हो या लङका। यहाँ यह उदाहण देने का अभिप्राय मात्र इतना ही है कि हमे दूसरे की अस्वीकृति का सम्मान करना चाहिए।

अब मै गूङगांव मे रहती हूँ,, यहाँ जाट और गुर्जर बहुत रहते है। गुङगांव के स्थानीय लोग भी रहते है।यूँ तो अब गुङगांव मे भिन्न भिन्न प्रदेशो के लोग बस गए है। पर मुलतः यह एक हरियाणवी शहर है।हरियाणा एक ऐसा प्रदेश है जहाँ कन्या भ्रुण हत्या आम बात है जिससे यहाँ लङकियो की संख्या कम है। मै जिस विद्यालत मे पढ़ाती थी,वहाँ अधिकांशतः हरियाणा के गाँवो से आए हुए बच्चे पढते थे। एक कक्षा मे 25बच्चो मे सिर्फ 5 लङकियाँ थी। ऐसा नही कि ये लङकियो को पढाना नही चाहते पर घरो मे बेटियाँ होगी तभी तो पढेगी न! 

यह शहर अब एक आधुनिक शहरो मे गिना जाता है। यहाँ बङे-बङे नामचर विद्यालय है । यहाँ लोगो ने अपनी बङी बङी कोठियाँ बना ली है। इनके घरो की लङकियाँ अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयो मे पढ़ती है। आधुनिक वस्त्र पहनती है, साइकिल, स्कुटर या कार चलाती है। अथार्त लाड प्यार मे कोई कमी नही है पर इन लङकियो को अपना जीवन साथी चुनने का अधिकार नही है। बहु और बेटी मे फर्क किया जाता है। लङके सर्वेसर्वा होते है, छोटा भाई भी बङी बहन का बाप बना होता है।यहाँ अधिकांशतः घरो की यही स्थिति है।पर अब यहाँ बङी बङी मल्टीनेशनल कंपनियाँ आगई है, जिससे आधुनिक होते इस छोटे शहर के स्थानीय लोगो की सोच मे बदलाव आना शुरू हुआ है। यूँ भी कहा जाता है कि प्रेम तो हो ही जाता है । प्रेम  की दास्ताने सदियो पुरानी है, यह प्रेम के किस्से आदिवासी गांवो से लेकर महानगरो मे सभी जगह सुनने को मिलते है जो मेरी समझ मे तो नही आते है।

फिर भी मै यह अवश्य कहना चाहुँगी कि बात प्रेम की तभी हो सकती है, जहाँ मान भी हो,अपमान मे प्रेम कैसे उत्पन्न हो सकता है। हमे अपने बच्चो को सिखाना होगा और उनसे बात करनी होगी जो हम नही करते है। उनकी परवरिश मे बदलाव लाना आवश्यक है। लङकियो और लङको को बराबरी की शिक्षा के साथ, एक समान स्वतंत्रता व विश्वास देना भी आवश्यक है।जिन्दगी मे आगे बढने के समान अवसर भी मिलने जरूरी है।

इस सोच मे बदलाव की कोशिश महिलाओ ने ही करनी होगी  वैसे भी बच्चे की परवरिश माँ ही करती है। माँ जो पहले एक बहु, एक पत्नी है उसे अपनी ससुराल व पति से बराबरी का हक लेना होंगा जब वह माँ है तो अपने बेटे और बेटी मे फर्क न करे, न सोचे कि जैसा उसकी माँ ने उसके साथ किया, वैसा उसे अपनी बेटी के साथ करना है।फिर सास बने तो बेटी और बहु मे फर्क न करे। तभी एक बच्चा बराबरी की समझ के माहौल मे बङा होगा।

पर जैसा मैने कहा कि प्रेम की बात मेरे गले नही उतरती है। कितने भावुक प्रेमी प्रेमिकाओ को देखा है कि जिन्दगी अच्छी तरह चल रही होती है,प्रेम के चक्कर मे पङे और जिन्दगी पटरी से उतर गई। वो लङके लङकियाँ जिनकी पढाई अच्छी तरह चल रही है,अभी जिन्दगी मे बहुत कुछ करना है पता भी नही कितना कछ समझना है, पर प्रेम मे पङ जाते है।और इतनी छोटी उम्र में? 

मेरे स्कूल मे, नेहा सातवी कक्षा मे पढ़ती थी,जब उसको दसवी कक्षा के सुरेश से प्रेम हो गया था। नेहा पढ़ाई मे होशियार थी और सुरेश बस काम चला रहा था। नेहा जानती थी कि उसके माता पिता को पता चला तो पढ़ाई बंद हो जाएगी। घर मे लङकियों की पढ़ाई का माहौल नही था और इन गाँवो मे आज भी बालविवाह हो रहे है।नेहा जिन्दगी मे कुछ बङा बनने का सपना देखती थी, पर इस प्रेम ने उसके सपने को विभाजित कर दिया था या यूँ कहुँ कि वो नादान जानती नही थी कि उसका कौन-सा सपना उसकी मंजिल है।अच्छा हो कि उसके बचपन का प्रेम बचपन मे ही रह गया हो और उसने अपने सपनो को पूरा करने मे ध्यान लगाया हो, नही तो……..माला की तरह अगर उसने भी शादी कर ली तब?

उस दिन काम करने सुमन के साथ माला आई थी।माला 22-23 वर्ष की युवती है, उसी ने बताया कि वह 12वी पास है। 18वर्ष की आयु मे बारहवी पास करते ही उसने अपनी कक्षा के एक लङके के साथ भाग कर शादी कर ली थी। ससुराल वालो ने अपने बेटे की खातिर उसे स्वीकार कर लिया था। पर उसका अपने मायके से नाता बिलकुल टूट गया था।  लङका तो अपना खुन होता है उससे कुछ भी गलत हो जाए तो भी उससे नाराजगी तो होगी पर उसे छोङा नही जाएगा। बेटी भी अपना खुन है पर वह पिता का मान व परिवार की आन भी होती है। अतः उसे प्रेम करने का हक नही है। अगर किसी से कर लिया यह तो अनुचित हुआ ही और वह भी परिवार के अनकुल जाति का या प्रतिष्ठा का नही है तब तो उससे घोर पाप हो गया है, और पूरा कुनबा उसके और उसके प्रेमी के जान के प्यासे हो जाते है। समझ नही आता कि प्रेम हो गया तो हो गया पर शादी किस लिए? नही, यह न समझिए कि मै शादी के विरूद्ध हूँ, पर 18वर्ष की आयु मे शादी? कानूनन विवाह की आयु 18वर्ष है नही तो यह पहले ही कर लेते। हमारे समाज सुधारक बाल विवाह के विरूद्ध आंदोलन करते रहे, इन बच्चो के हित मे नियम कानुन बने। पर जब यह बच्चे ही…….

18वर्ष की आयु मे शादी,19वर्ष मे एक बच्चा भी गोदी मे आजाता है। पढने मे आया हे कि पाश्चात्य देशो मे छोटी आयु की कुआंरी माँओ की संख्या बढती जा रही है।

अब माला की कहानी का अगला मोङ यह था कि उसके पागल प्रेमी (पति)को अब एक अन्य लङकी से प्रेम हो गया और उसने उससे दूसरी शादी कर ली थी व उसे एक तरह से छोङ ही दिया था। बीच -बीच मे वह अपना पति हक जताने व रौब मारने आता था। अब माला के दो बच्चे है।उसकी ससुराल को भी उसमे कोई रूचि नही रही थी।उन्होने पोते को तो अपने पास रख लिया था और माला व पोती को बाहर का दरवाजा दिखा दिया था।माला ने प्रेम के चक्कर मे अपने को जिन्दगी की ऐसी मझधार मे डाल दिया था कि बाहर निकलने के लिए उसे बहुत हिम्मत और मेहनत की आवश्यकता है। ऐसी न जाने कितनी माला होती है और वह किसी भी वर्ग व जाति की हो सकती है।

ऐसा लग रहा है कि इस प्रेम के चक्कर मे हर तरह से एक लङकी ही सहती है।लङके भी सहते है पर लङकियो की सामाजिक व शारिरिक स्थिति लङको से भिन्न है। अगर लङकी किसी से हँस कर बात कर ले तो लङके को गलतफहमी हो जाती है, प्रेम करे तो परिवार नही मानेगा, अतः शादी परिवार की मर्जी से करती है तो प्रेमी की निगाह मे बेवफा बनती है। परिवार के खिलाफ होकर प्रेमी के साथ भागती है,तब भागी हुई कहलाती है, पूरे जीवन भागकर आई का तमगा लगा रहता है। यही नही प्रेमी के प्रेम का बुखार जब उतरेगा तब कहाँ जाए?
                 भाग गई

यह कल ही की तो बात है जब हाथ मे हाथ डाले बैठे थे साथ

वचन वायदे करते थे साथ,सारी दूनिया भूल कर रहेंगे साथ।

मर्यादा की झोली फैलाए माता -पिता बैठे थे पास,

पर मुझे तो देना था तेरा साथ।

दूनिया ने कहा भाग गई- किसी ने कहा भाग कर आई।

जो किया मैने किया। लङकी को डोली मे विदा होना होता है, मै बिन डोली आई तेरे द्वार।

तुझे नही कहा भाग गया, किसी ने नही कहा भाग कर आया। 

तु तो बैठा था अपने द्वार।

जो लांछना थी वो मेरी थी, जो सहना था वो मैने था।

समझौते भी तो मेरे थे, तेरे साथ, तेरे परिवार के साथ।

चूंकि मै भाग आई थी।

माता पिता बैठे थे फैलाए झोली, लांघ मै आई मर्यादा उनकी।

अब तु कहता चली जा, निकल जा, अब न संभलता हमारा साथ,

सच, अब न निभता साथ।

पर तु तो बैठा अपने द्वार, मै जाऊ किस द्वार?

जाती फिर कोई कहता भाग गई।

जो भी था तुझे समर्पित था, जो त्यागा तुझ पर त्यागा था।

कुछ न अब अपना मेरे पास।

क्या जाऊँ उस पार? क्या वही ठौर अब मेरे पास?

नही! मुझे रहना होगा इसी पार।

अब जो मर्यादा होगी वो मेरी अपनी होगी। 

जो वायदे होगे वो मुझसे मेरे अपने होंगे।
हम लङके व लङकी की परवरिश के माहौल को व सोच को बदलकर उन्हे शायद बराबरी का स्थान दे पाएंगे। लङकियों को बता पाएं कि उनकी स्वीकृति अस्वीकृति का महत्व है। उन्हे भी प्रेम करने की आजादी है और सीखा पाए कि प्रेम मे त्याग तो संभव है पर अपमान संभव नही हो सकता है। अपना मान और दूसरे का मान उनकी पहली महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है।और यही  सीख लङको को भी भली भांति सिखानी होगी। 
परंतु यह लैला मजनू की प्रेम कहानियाँ जो पता नही कितनी छोटी-सी उम्र मे शुरू हो जाती है? इस समस्या का समाधान कैसे करे?आप ही विचार करें? यह प्रेम की बात मेरे तो सिर पर से निकल जाती है।