कर्म को स्वामी मानो
भगवद् गीता हमें निरंतर कर्म करने के लिए कहती है। प्रत्येक कार्य में अच्छाई व बुराई दोनों होती है। हम ऐसा कोई भी कार्य नहीं करते हैं , जिसमें लाभ के साथ हानि न हो। फिर भी हमें निरंतर कर्म करने के लिए कहा जाता है । अच्छे और बुरे दोनों क्रियाओं के परिणाम होते हैं , अच्छे कर्म के अच्छे परिणाम , बुरे के बुरे होते हैं ।
परंतु अच्छाई और बुराई दोनों आत्मा को गुलाम बनाती हैं । गीता इसके लिए सुझाव देती है कि ‘जो भी कर्म करो, उससे लगाव मत रखो। ऐसा कर पाओगे तो अपनी आत्मा को बंधन मुक्त कर पाओगे।हमें लगाव हीन को समझना होगा।
मेरी समझ
मनुष्य का स्वभाव ऐसा ही बना है कि वह कोई भी कर्म करने से पहले उससे मिलने वाले लाभ के बारे में सोचता है। बिना स्वार्थ के वह कोई कार्य कर नहीं पाता है। यह लाभ हानि का चक्कर उसे मोह माया के दलदल में डाल देता है। इस दलदल से मुक्त होना ही दुष्कर कार्य है।
लगाव हीन
विवेकानंद जी कहते हैं कि जिस तरह एक कछुआ अपने कवच में पैर और मुँह डाल कर बैठ जाता है। फिर उसे मारो, तोङो वह बाहर नहीं निकलता है। इसी तरह एक व्यक्ति जो अपने स्वार्थी उद्देश्यों और इंद्रियों पर नियंत्रण कर लेता है, उसे बदला नहीं जा सकता है। वह अपनी आंतरिक शक्ति को नियंत्रित कर लेता है, उसकी इच्छा के बिना उससे कोई काम नहीं हो सकता है।
इस सबका प्रभाव उसके अच्छे विचारों और अच्छी प्रवृति में पड़ता है, उसकी यह अच्छा बनने की प्रवृत्ति उसे ताकतवर बनाती है।
एक ऐसे चरित्र का निर्माण होता है, जो सच को प्राप्त कर सकता है। वह कभी बुरा नहीं करता। किसी भी बुरी संगत का उस पर प्रभाव नहीं पङता है। उसकी यह प्रवृत्ति उच्चतम स्तर पर पहुंच कर, उसे स्वतंत्रता दिलाती है।
तुम्हें याद होगा कि सभी योगाभ्यास का उद्देश्य तुम्हें स्वतंत्र करना है। जैसे बुद्ध ने ध्यान से और यीशु ने भक्ति से अकेले यह स्वतंत्रता प्राप्त करी थी, वैसे प्रत्येक व्यक्ति अकेले ही स्वतंत्रता पा सकता है। अच्छी और बुरी प्रवृत्तियों में संघर्ष होता है, जैसे-जैसे अच्छी प्रवृत्ति मस्तिष्क में फैलती जाती है, बुरी प्रवृत्ति मस्तिष्क के एक कोने में पहुंच जाती है या पूर्णतः गायब हो जाती है। अच्छी प्रवृत्ति के जीतने के साथ ही लगाव, लगाव हीन में बदल जाता है।परंतु बहुत सी बाधाएं फिर भी आती रहेंगी। मांसपेशियां और मस्तिष्क अपने काम करते रहेंगे, लेकिन उनका प्रभाव अपनी आत्मा पर मत पङने दो।
मेरी समझ
अपनी आत्मा को पवित्र और स्वतंत्र करना है तो अपने को लोभ और माया के मोह से दूर रखना होगा। पर इस सांसारिक जीवन में हमारे मार्ग में लोभ और मोह की रूकावटें आएंगी, अगर मन की शक्ति पर काम किया है, उसे सुदृढ़ बनाया है तो रूकावटें आत्मा को प्रभावित नहीं करेंगी।
यह कैसे कर सकते हैं ।
स्वामी जी ने कहा कि हम यह कैसे कर सकते हैं ? हम देख सकते हैं कि अपने जिस काम से हम अधिक जुङाव रखते हैं , उसका प्रभाव हमारे मस्तिष्क में हमेशा बना रहता है।
मैं दिन में लगभग सौ लोगों से मिलता हुं पर उनमें से सिर्फ एक व्यक्ति ऐसा होता है, जिसके प्रति मैं प्रेम महसूस करता हूँ। रात को सोने से पहले उन सभी सौ चेहरों को याद करना चाहता हूँ , जिनसे मैं दिन भर मिला था, पर मुझे किसी का चेहरा याद नहीं आता है। सिर्फ एक चेहरा याद रहता है, वह जो सिर्फ एक मिनट के लिए मिला था, जिससे मुझे प्रेम हुआ था। मेरा उस व्यक्ति के प्रति लगाव के कारण उसका प्रभाव मेरे मस्तिष्क पर बना रहता है।
मनोवैज्ञानिक दृष्टि से सबका प्रभाव एक समान मस्तिष्क पर पहुंचा था। मस्तिष्क के जरिए आँख ने एक समान सबको देखा और उन सबकी फोटो मस्तिष्क में बस गई थी। कुछ चेहरे मेरे लिए नए थे, जिनके बारे में पहले कभी नहीं सोचा था, पर सिर्फ एक चेहरे की झलक जैसे मेरे अंतर से परिचित थी। शायद कई बरसों से इस चेहरे का प्रभाव मेरे मस्तिष्क पर था, और जिसे अंजाने ही कई बार याद किया था , उन सभी चेहरों की अपेक्षा सिर्फ इस चेहरे ने मेरी यादों को जागृत किया था।
स्वामी की भांति काम करो।
विवेकानंद जी कहते हैं , निरंतर कर्म करो पर दासों की भांति मत करो, मालिक की तरह करो। तुमने देखा होगा लोग कैसे काम करते हैं , 99% लोग दासों की तरह काम करते हैं , काम ऐसे करो, जो तुम्हें आजादी दे, उससे तुम्हें प्यार मिले। प्यार को समझना कठिन है। जब तक स्वतंत्रता नहीं है, तब तक प्रेम नहीं हो सकता है। दासता में प्रेम संभव नहीं है।
तुम एक दास खरीदते हो, उसे जंजीर से बाँध कर रखते हो, उससे अपने काम कराते हो, वह कोल्हू के बैल की तरह काम करेगा, पर उसमें प्रेम नहीं होगा। इसी तरह जब हम दूसरे व्यक्तियों के लिए काम करते हैं तब हम दूसरो की गुलामी करते हैं , वह सच्चा काम नहीं होता है।
जो कर्म हम अपने रिश्तेदारों या मित्रों के लिए करते हैं , वह सच्चा कर्म होता है। यहां हम अपने दास होते हैं । स्वार्थ पूर्ण काम दासों का काम होता है। यह एक परीक्षा होती है।
परंतु सभी कर्म खुशी देते हैं, ऐसा कोई प्रेम पूर्ण कर्म नहीं है जो प्रतिक्रिया में खुशी और शुभकामनायें न देता हो।
वास्तविक अस्तित्व , सच्चा ज्ञान व सच्चा प्रेम एक दूसरे से जुङे हुए है । जहाँ एक है , वहां अन्य दो भी अवश्य उपस्थित होते हैं ।
इन तीनों से मिलकर बनता है- अस्तित्व- ज्ञान- आनंद ।
संसार में जब मनुष्य की अस्तित्व की उपस्थिति होती है, तब ज्ञान भी उस तक पहुंचता है। और मनुष्य ने ह्रदय में संपूर्ण प्रेम से आनंद की प्राप्ति की होती है।
सच्चा प्रेम, न तो प्रेमी को न जिससे प्रेम किया जाता है, उसको कष्ट देता है।
उदाहरणतः एक पुरूष एक स्त्री से प्रेम करता है, पर वह उस स्त्री की हर क्रिया पर निगाह रखता है, उससे ईर्ष्या करता है। वह चाहता है कि उसकी प्रेमिका उसके साथ ही बैठे, खाए, उसके अनुसार ही समस्त कार्य करे, वह स्वयं उसका दास होता है और प्रेमिका को भी दासी बनाता है। यह प्रेम नहीं है, यह एक बिमारी है, एक दास का मोह है। यह उसका अपने स्वयं के प्रति प्रेम को सिद्ध करता है।
इस प्रेम में कष्ट है, प्रेमिका ने बात नहीं मानी तो दर्द होगा। जहाँ कष्ट हो, दर्द हो वहाँ सच्चा प्रेम नहीं हो सकता है।
प्रेम में अगर आनंद नहीं है तो यह प्रेम नहीं है, इसे प्रेम समझना एक भूल है। अपनी, पत्नी / पति, बच्चों व संसार में सभी से ऐसा प्रेम करो जो आनंद दे, तभी तुम लगाव हीन स्थिति पा सकते हो।
मेरी समझ
हम कहते हैं कि हम अपना काम बहुत मन व लग्न से करते हैं, पर उस कर्म के करने के पीछे छिपी अपनी लोभ की भावना को नहीं देखते हैं, क्योंकि जब उस काम में सफलता नहीं मिलती तो हम दुखी होते हैं। इस तरह से हम अपने काम को अपना स्वामी बना लेते हैं।हम अपनी खुशी के लिए उस काम पर निर्भर हो जाते हैं। अगर अपने काम से लगावहीन प्रेम करते हैं तो वह हमें खुशी देता है,यही सच्चा कर्म है।
क्रमशः
बहुत सुंदर व्याख्या की है।
विवेकानंद जी को पढ़ने का आपके द्वारा संभव हो रहा है, धन्यवाद।
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धन्यवाद।
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परिपक्व विचार,,,👌👌
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धन्यवाद आपका।
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