THE BLIND MAN

D.H. LAWRENCE

नेत्रहीन व्यक्ति ( सूरदास ) (भाग -8)

बैरटी कई बार बहुत डर जाता अपनी ही कमजोरियाँ उसे भयभीत करती थीं। वह एक सफल बैरिस्टर था, समाज में एक रूतबा था। उसकी गिनती बुद्धिजीवियों की श्रेणी में होती थी। फिर भी वह अपने अकेलेपन से घबराता था।


इसाबेल उसे अच्छी प्रकार समझती थी। वह उसके अवगुणों के कारण उसे नापसंद करती तो उसके गुणों से वह प्रभावित भी होती थी। उसके उदास चेहरे और छोटी टाँगें उसके मन में उसके लिए तुच्छता की भावना पैदा करते थे। पर उसकी गहरी भूरी आँखें और उनकी मासूमियत पर उसको प्यार आता है। उसकी समझ लाजवाब थी, जिसका वह सम्मान करती थी।


फिर उसने अपने पति की और देखा,’एक भावहीन, शांत मुर्ति । वह पीठ टिकाकर हाथ मोङे बैठा था। उसका चेहरा थोड़ा झुका हुआ था। उसके घुटने सीधे और बङे थे।
इसाबेल ने एक गहरी साँस ली, और फिर आग को तेज करने के काम में लग गई।

बैरटी ने अचानक पूछा, ” इसाबेल ने बताया, दृष्टि खोने पर भी तुम बहुत कष्ट महसूस नहीं करते हो?”
माॅरिस ने अपने को सचेत किया, पर हाथ मुङे ही रहे। बोला,” नहीं, बहुत नहीं , हां, पर एक अलग, नया संघर्ष तो है, तुम समझ सकते हो। लेकिन फायदे भी हैं ।
” माना जाता है कि यह पूर्णतः बहरा होने से भी बुरा है ” इसाबेल ने कहा

” हां, मानता हूं , पर फायदे?” उसने फिर माॅरिस से पूछा।
” हाँ, आप बहुत सारी चिंताओं और कार्य से मुक्त हो जाते हो।” माॅरिस ने जवाब देते हुए अपने को सीधा किया, अपनी पीठ की मजबूत मांसपेशियों को सीधा किया और पीछे को झुकते हुए सिर ऊंचा उठाया।


“अच्छा , इन सबसे राहत है। पर फिर इन चिंताओं और कार्य से मुक्त हो जाने” पर तुम्हें कैसा महसूस होता है?”
एक लंबी चुप के बाद पर्विन ने बिना सोचे, लापरवाही से जवाब दिया ।” नहीं जानता, पर इसका भी सकारत्मक पक्ष है।”
” अच्छा ऐसा है, पर मुझे तो बिना किसी विचार और बिना कोई भी काम के सब व्यर्थ लगता है।”
फिर माॅरिस कुछ देर चुप रहकर बोला,” कुछ तो ऐसा है, जो मैं समझा नहीं सकता।”


बातचीत फिर रूक गई , वे दोनों मित्र कभी-कभी बीच में अपने पुराने दिनों को याद करते थे और माॅरिस चुप बैठा था।


फिर अचानक वह उठ खङा हुआ। वह बैचेन दिख रहा था,अपने को बंधा हुआ महसूस कर रहा था, वह वहां से निकलना चाहता था।बोला
” आप बुरा न माने , मुझे वर्नहम्स से काम है। उसके पास जाकर आता हूँ ।”

इसाबेल बोली,” नहीं , रूको हम साथ चलते हैं।”
पर वह रूका नहीं , बाहर निकल गया।


दोनों मित्र थोङी देर चुप बैठे रहे। फिर बैरटी बोला, ” कोई बात नहीं, यह उसका बहुत कठिन समय है।”
” हां, बैरटी, मैं जानती हूँ , “
” कुछ है जो उसे हर समय व्यथित करता है।”
” हां, मैं जानती हूँ । माॅरिस सही कहता है, कुछ तो है जिसे समझना और व्यक्त करना असंभव है।”

वो क्या है?” बैरटी ने जानना चाहा
” मैं नहीं जानती, ना ही समझाया जा सकता है, ऐसा कुछ जिसके बिना मैं कुछ नहीं कर सकती। यह कहीं अवचेतन मस्तिष्क में होता है। जानते हो जब हम दोनों अकेले होते हैं , तब कुछ ऐसा महसूस नहीं होता। बहुत समृद्ध और संपूर्ण प्रतीत होता है।”

” माफ करना, मैं कुछ समझ नहीं पा रहा हूँ ।”

वे दोनों इधर-उधर की बातें करते रहे। बाहर हवा तेज चल रही थी। बारिश की बौछारें खिङकी के शीशे से टकरा रही थी। खिङकी के हल्के सुनहरे रंग के दरवाजे अंदर से बंद थे, जब उन पर बौछारें पङती तो लगता ड्रम बज रहा है।
लकङियाँ धीरे-धीरे जल रहीं थी, लपटें अब नहीं दिख रही थी पर आग में ताप और चमक थी।

क्रमशः

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